Friday 9 November 2018

क्या उत्तराखंड सरकार बाजगियो को राज्य आन्दोलनकारी का दर्जा देगी



उत्तराखंड में दलित 


विद्या भूषण रावत

आज उत्तराखंड का १८ वा स्थापना दिवस है. राज्य गठन के इतने वर्षो के बाद भी बदलाव के बावजूद बहुत से सवालों पे उत्तराखंड की तमाम सरकारों का रुख शर्मनाक रहा है.

उत्तराखंड प्रकति की गोद में बसा राज्य है और यहाँ विकास के नाम पर जो कमाई ठेकेदारों और नेताओं के गठबंधन ने की है वो आपराधिक है. विकास के नाम पर जंगलो का कटान, गंगा और यमुना की निर्मल धारा को नियंत्रित करना और पहाड़ो में रोड और रेलवे के नाम पर लगातार यहाँ के पर्यावरण के साथ लगातार खिलवाड़ का बहुत खतरनाक है. गंगा को बचाने की प्रोफेसर जी डी अग्रवाल को अंतिम समय तक जनता का सहयोग नहीं मिला क्योंकि सभी को विकास नामकी बिमारी ने मदहोश किया हुआ है. किसी की ये समझ नहीं आ रहा के यदि पहाड़ और उसकी गंगा जैसी पवित्र घाटिया ही नहीं रहेंगे तो वहा कौन आएगा और रहने के मायने क्या है. जो लोग अपनी संस्कृति और मिटटी के प्रति सचेत नहीं रहते उनकी जिंदगी भर कोई पहचान नहीं हो सकती.
उत्तराखंड की विविध सरकारों ने दलितों के प्रश्न को हमेशा हासिये पे रखा है. दरसल उत्तराखंड के प्रमुख आन्दोलनों के केंद्र बिंदु से भी दलित प्रश्न गायब रहा है. इस प्रश्न को ऐसे गायब कर दिया जाता है जैसे दलित प्रश्न यहाँ है ही नहीं और ये सारी बीमारिया तो देश के दुसरे हिस्सों में है.. हमारे यहाँ तो सभी भाई बहिन है. उत्तराखंड के दलित परिद्रश्य को समझने के लिए यहाँ की विविध भौगोलिक परिस्थितयो को समझना होगा. उत्तराखंड के पहाड़ो के हालत अलग है, तो मैदानी इलाको या तराई के क्षेत्र के सामाजिक समीकरण बिलकुल भिन्न और जौनसार का क्षेत्र बिलकुल अलग.

उत्तराखंड के पहाड़ो में जनसँख्या का दवाब बिलकुल कम है और स्थितिया कठिन है. सामाजिक जीवन में जाति की महत्ता है लेकिन खेती की भूमि कम होने के कारण अधिकांश लोग सरकारी नौकरियों पर निर्भर है, इसलिए शारीरिक हिंसा कम दिखाई देती है लेकिन समाज जाति विहीन है, ये कहना बेहद झूठ होगा.

लेकिन उत्तराखंड में जाति का सबसे भयावह स्वरूप जौनसार क्षेत्र में दिखाई देता है. एक बड़ी साजिश के तहत पूरे क्षेत्र को 'आदिवासी' घोषित करवाकर जौनसार की ताकतवर जातियों ने आदिवासियों के नाम पर सारे नौकरियों में कब्ज़ा कर लिया और क्षेत्र में जातीय प्रभुत्व को कायम रखा फलस्वरूप दलित कभी भी तरक्की नहीं कर पाए. जौनसार का क्षेत्र उत्तराखंड में अकेला ऐसा है जहा दलितों को अभी भी मंदिरों में प्रवेश पर लोगो पर हिंसा होती है. पूरे क्षेत्र को कुछ राजनैतिक परिवारों ने अपनी सल्तनत के तौर पर तैयार कर लिया. उत्तराखंड की दोनों मुख्य दलों ने इस प्रकार की राजनीती को जगह दी.

जौनसार के मसले को समझना इसलिए जरुरी है क्योंकि वाकई में इस क्षेत्र में दलित आदिवासी जातियों की संख्या अधिक थी लेकिन यहाँ पर तथाकथित ब्राह्मण, राजपूत भी बहुत थे. उत्तर प्रदेश राज्य में आदिवासियों और दलितों के लिए जब आरक्षण का प्रश्न आया तो सूचि में आने वाले समुदायों को लिस्ट से हटाकर जौनसार के मामले में 'जौनसारी' जाति को रखा दिया गया जो संविधान के साथ किया गया फ्रॉड है. जौनसारी कोई जाति नहीं होती, यह एक क्षेत्र है जिसमे विविध जातिया रहती है इसलिए पूरे जौनसार को जौनसारी जाति का क्षेत्र कह कर यहाँ की दबंग जातियों ने न केवल राजनीती पर कब्ज़ा किया अपितु दलित और आदिवासियों के लिए बने आरक्षण को भी लूट लिया. यदि पूरा क्षेत्र जौनसारी है तो इस क्षेत्र में दलितों पे हिंसा क्यों होती है. इस क्षेत्र में सर्वाधिक बंधुआ मजदूर हुआ करते थे, वो क्यों था. उत्तर प्रदेश में गोविन्द बल्लभ पन्त के मुख्यमंत्री रहते ये कारनामे हुए है. जौनसार में कोल्टा जाति और बाजगी जातियों की हालात बहुत ख़राब है. वे छुआछूत का शिकार भी है लेकिन अभी तक उनहे न तो आरक्षण का कभी लाभ मिला ना ही उनके पास थोडा भी कृषि भूमि नहीं है. सरकार और नीति निर्माताओं को समझना चाहिए के कोई भी भूभाग जरुर भगौलिक तौर पर समान हो सकता है लेकिन उसमे रहने वाले लोगो के सामाजिक और आर्थिक हालत एक से होंगे ये बहुत बड़ा झूठ है लेकिन उत्तराखंड के ताकतवर लोगो ने बहुत से इलाको में ऐसा कमाल कर संविधान के सामाजिक न्याय के सिद्धांतो की धज्जिया उखाड़ दी है और संविधान के साथ ऐसी धोखाधड़ी का पर्दाफाश होना चाहिए. चमोली, उत्तरकाशी और जौनसार से आरक्षण की व्यवस्था क्षेत्रीय आधार पर हटाकर जातीय आधार पर होनी चाहिए.
उत्तराखंड में सरकारी आंकड़े ही कहते है के दलितों के पास भूमि १३.४६% है और आदिवासियों के लिए ये आंकड़ा ३.२२%. २८% दलित परिवार अभी भी बी पी एल की श्रेणी में आते है वही आदिवासियों के लिए ये संख्या ९.३४% है. जहाँ तक सत्ता में भागीदारी का प्रश्न है उत्तराखंड में श्रेणी क में अनुसूचित जाति के अधिकारियों का प्रतिशत ११.६४% जबकि अनुसूचित जनजाति का २.९८%. श्रेणी ख में अनुसूचित जाति के लोगो की संख्या १२.१८% और जनजाति के २.१७% है. श्रेणी ग में १३.९१%% दलित और १.६६% आदिवासी है. वैसे सीलिंग भूमि के जिस संघर्ष को लड़ते मुझे बीस वर्ष से ऊपर हुए उसने मुझे उत्तराखंड में व्याप्त जातीय पूर्वाग्रहों को बेहद अच्छे से महसूस कराया विशेषकर राज्य के राजनैतिक नेतृत्व में तो दलित आदिवासी प्रश्न गौण है या वो है ही नहीं. अधिकारियों में तो होड़ है के जमीन ढूंढ ढूंढ कर निकाली जाए और कैसे वो बड़े बड़े होटलों और रेजोर्ट्स के लिए आवंटित कर दी जाए. विकास की ऐसी 'भूख' के उत्तराखंड के आबो हवा और सांस्कृतिक विरासत खत्म हो जाए इसकी कोई चिंता नहीं. उत्तराखंड सरकार ने आधिकारिक तौर पर एक शपथपात्र में कहा राज्य गठन के बाद से अभी तक उसने किसी भी आदिवासी को भूमि आवंटन नहीं किया. उसी कोर्ट में जब जस्टिस के एम् जोसफ ने प्रश्न किया के ये कैसे संभव है तो सरकारी वकील ने कहा के प्रदेश में कोई भी आदिवासी भूमिहीन नहीं है.
सीलिंग की भूमि दलितों में न जा सके इसके लिए उत्तराखंड के अधिकारियों, नेताओं और पंजाब से आये जाट सिखों के बड़े रसूखदार लोगो की सांठ गाँठ से तराई क्षेत्र में सीलिंग कानूनों की धज्जिया उड़ाई जा रही है. येही लोग थे जो उत्तराखंड राज्य गठन में शहीद उधम सिंह नगर को अलग रखना चाहते थे ताकि रुद्रपुर, किच्छा, खटीमा से लेकर पीलीभीत तक उनका साम्राज्य बदस्तूर बिना किसी रोक टोक के चलता रहे. नेताओं को चंदा चाहिए इसलिए उन्होंने दलित प्रश्नों को तो बिलकुल हासिये पे फेंक दिया. हाई कोर्ट में उत्तराखंड सरकार ने कहा के सीलिंग की जमीन को वो जैसा चाहे इस्तेमाल कर सकती है जबकि हमारा कहना था के उसे सीलिंग कानून की सेक्शन २७ और ज़मींदारी उन्मूलन अधिनियम की १९८ के तहत प्रथिमकता की सूचि के आधार पर बांटा जाना चाहिए. सरकार ने धारा २५ का इस्तेमाल कर जमीन का उपयोग 'जनहित' में कर दिया. इस जनहित में सिडकुल को जमीन दी गयी हालाँकि कार्य अभी कुछ नहीं दिखाई देता है. एक बहुत बड़ी संख्या में जमीन पंजाब से आये उन सिखों को दी गयी जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने २००४ के अपने निर्णय में अवैध एन्क्रोचर बोला था. इस जमीन को लेकर लोकायुक्त ने भी उसे सुप्रीम कोर्ट के आदेशो की अवहेलना बताया था और सरकार ने पूरे मुक़दमे झूठ का सहारा लेकर उस जमीन को किसी भी प्रकार से दलित आदिवासियों को वितरित होने से रोका. आज भी तराई क्षेत्र में बस रहे थारू और बोक्सा जनजातियों की भूमि मुख्यतः पंजाब से आये बड़े धनाढ्य लोगो के कब्जे में चली गयी है और इस सभी में प्रशासन और राजनैतिक नेत्रत्व की बड़ी भूमिका है. सरकार यदि चाहे तो चकबंदी की प्रक्रिया शुरू कर सकती है लेकिन तराई के बाहर से आयातित नव-सामंत ऐसा नहीं होने देंगे और प्रक्रिया को शुरू होने से पहले ही फ़ैल करा देंगे.
उत्तराखंड गठन के करीब एक डेढ़ हफ्ते पहले शहीद उधम सिंह नगर के भूमिहीन दलितों में कुछ उत्साही राजनैतिक कार्यकर्ताओं ने सेंध लगा दी. जब उत्तर प्रदेश सरकार में शामिल विधायक और मंत्री वहा से इस्तीफ़ा देने के बाद काशीपुर पहुंचे. सभी दलितों को बताया गया था के भाजपा के ये लोग दलितों के लिए कुछ घोषणा करने वाले है लेकिन हुआ क्या. सभी ने वादा किया के उधम सिंह नगर को और औद्योकीकरण होगा और दलितों को अपनी जुमले बाजी में लुभाया, जिस जमीन की लड़ाई के लिए हम लड़ रहे थे उसके बारे में एक शब्द ही इन नेताओं की जुबान पर नहीं था. शाम तक आन्दोलन के नेता बेहद खफा और नाराज़ थे हालाँकि मैंने उन्हें पहले ही समझा दिया था के आप ने नेताओं से हट उम्मीद न करे . उत्तराखंड राज्य में आज भी दलित आदिवासियों के स्पेशल कॉम्पोनेन्ट प्लान पूरा खर्च नहीं होता. वैसे दुसरे राज्यों में भी स्थितिया ख़राब है लेकिन आंध्र और कर्नाटक से सीखना होगा जहा क़ानून के तहत दलित आदिवासियों के लिए प्रावधान बजट को खर्च करना ही होगा नहीं तो अधिकारियों के मुकद्दमें दर्ज होंगे.
उत्तराखंड राज्य का आन्दोलन जब अपने चरम पे था तो वह मंडल कमीशन के विरुद्ध था. धीरे धीरे उसने जातीय रूप धारण कर लिया. उत्तराखंड पहला राज्य है जहा राज्य आन्दोलन में भाग लेने बाले लोगो के लिए 'पेंशन' का प्रावधान है और उन्हें अन्य सुविधाओं की भी बात है. वैसे महत्वपूर्ण ये है हम कोई आन्दोलन सरकार से अपने लिए सुविधाओं के लिए नहीं लेते अपितु अपने समाज और क्षेत्र को बेहतर बनाने के लिए करते है लेकिन हाँ बहुत लोग उस दौर में अपने काम कान को छोड़कर काम किये इसलिए सरकार अगर कुछ करती है तो कोई हर्जा नहीं है. लेकिन उस दौर में मैंने उत्तराखंड के आंदोलनात्मक स्वरूप को ब्राह्मणवादी कहां था क्योंकि इसमें दलित पिछडो आदिवासियों की भूमिका नगण्य थी या ये कहिये के वे हासिये पे थे. मंडल विरोधी आन्दोलन में दलितों, पिछडो या आदिवासियों के बारे में बात करने पर आप पीछे धकेल दिए जाते.
आज जब उत्तराखंड के आंदोलनकारियो को सरकार ने आधिकारिक दर्जा दिया है तो मैं एक प्रश्न उठाना चाहता हूँ जिस विषय को उत्तराखंड से सबसे ईमानदार अधिकारियों में एक श्री चन्द्र सिंह, सेवानिवृत आई ए एस ने उठाया था. जब भी उत्तराखंड आन्दोलनकारी जुलुस निकालते उस पर सबसे आगे ढोल डमाग बजाकर चलने वाले लोग बाजगी या दास जातियों के होते थे. उत्तराखंड में पारंपरिक रूप से बाजगी, दास, औजी, जैसी जातीय संगीत और मनोरजन करती थी. ये सभी लोग सारे आन्दोलन में पुर्णतः शामिल थे और इन्होने आन्दोलनकारियों के हौसलाफजाई के लिए ढोल बजाये. सभी बिना संकोच और बिना पैसे के ये काम किये. कई बार तो अपने घरो के बुरे हालातो के बावजूद भी वे इस कार्य में लगे रहे. श्री चन्द्र सिंह कहते है के उत्तराखंड आन्दोलन के दौरान कोई गाँव और क़स्बा ऐसा नहीं था जहा बाजगी,औजी, दासो ने ढोल न बजाया हो लेकिन जब उत्तराखंड राज्य बन गया तो उत्तराखंड की परम्परा के ले जा रहे इन लोगो को सरकार और आंदोलनकारियो ने पुर्णतः भुला दिया. आखिर राज्य आन्दोलनकारी का दर्जा उन सभी को दिया गया है जिन्होंने आन्दोलन में भाग लिया. फिर बाजगियो और अन्य दलित जातियों को ये दर्जा क्यों नहीं. क्या ढोल डमाऊ नगाड़े बजाने वाले लोग राज्य आन्दोलनकारी नहीं हो सकते. ये जातिया पुर्णतः भूमिहीन है और दलितों में हासिये पे पी. दलित आन्दोलन भी इन लोगो तक नहीं पहुंचा है. इन जातियों के कोई लोग भी सरकारी नौकरियों पे दूर दूर तक नहीं है. जौनसार, टिहरी, उत्तरकाशी आदि जिलो में तो बाजियों के हालत गुलामी वाले है. किसी भी विवाह में वे ढोल बजाने से जाने से इनकार नहीं कर सकते. कई लोग परंपरा के नाम पर उन्हें बुलाते है लेकिन उनके सम्मानजनक जीवन के लिए उत्तराखंड की सरकारों ने आज तक कुछ नहीं किया है.
अगर उत्तराखंड अपने १८ वे स्थापना दिवस पर उत्तराखंड के दलित आदिवासियों के विकास और राज्य निर्माण में उनकी भूमिका को स्वीकार करते हुए उनका सम्मान करता है और उनको उनकी संख्या आधार हर स्टार पर प्रतिनिधत्व देता है तो इस राज्य को सही दृष्ठि में एक समाजवादी राज्य कहने में मुझे कोई संकोच नहीं होगा. उत्तराखंड की प्राकर्तिक सौन्दर्य के साथ सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन भी सौन्दर्यपूर्ण हो जाएगा और ये देश के सभी राज्यों के लिए एक आदर्श बन सकता है.

Sunday 22 July 2018

क्या सीख सकते है हम दुनिया के सबसे बड़े खेल से






फ्रांस की विविधता की जीत लेकिन दिल जीता क्रोएशिया ने




विद्या भूषण रावत

फ्रांस ने फूटबाल का विश्वकप जीत लिया. सही मायने में फाइनल वाले दिन फ्रांस ने बेहतरीन खेल का प्रदर्शन किया. क्रोएशिया की टीम से बहुत उम्मीदे थी और उनका खेल भी बेहद आक्रामक था लेकिन ९० मिनट का पूरा खेल ताकत और मस्तिष्क दोनो का मिश्रण है. रूस ने विश्वकप का शानदार आयोजन कर पच्छिमी ‘विशेषज्ञो’ और मीडिया पंडितो की पूरी आशंकाओं को झुठला दिया. ये कह सकते है के अब तक आयोजित विश्कप में ये सर्व्श्रेस्थ आयोजन था.
खेल दुनिया में भाईचारे और शांति को बढाने के लिए भी आयोजित किये जाते है. हालांकि आज उनका व्यवसायीकरण भी हो चूका है . फ़ुटबाल दुनिया का सबसे बड़ा खेल है, हकीकत में ओलिंपिक से भी बड़ा. दुनिया के छोटे से बड़े देश विभिन्न प्रतिसर्प्धाओ के जरिये विश्वकप में आते है. दुनिया भर में व्यावसायिक टीवी चैनल्स के लिए भी ये बहुत बड़ी घटना होती है इसलिए ये केवल एक खेल है यह भी कहना अपूर्ण होगा क्योंकि आज फुटबाल के जरिये डिप्लोमेसी भी हो रही है और हम राजनीतिज्ञों में होड़ भी देख रहे है लेकिन इस एक बड़ी इवेंट को यदि हम अपने भारतीय उपमहाद्वीप की संस्कृति, खेल प्रेम और राजनीती से देखेंगे तो शायद सबके लिए सीखने के लिए बहुत कुछ है.
सबसे पहले ती ये बात के कैसे छोटे से छोटे देश जो अफ्रीका और लातिनी अमेरिका में आज भी व्यवस्थित होने के लिए संघर्ष कर रहे है ताकतवर मुल्को से भिड़ते है और अपनी जी जान लगा देते है. ये बहुत शर्मनाक बात है के हमारे जैसा बड़ा देश इस सबसे बड़े समारोह से गायब है और उसके क्वालीफाइंग लीग में भी नहीं पहुँचता. हमारे देश में क्रिकेट सबसे लोकप्रिय खेल है लेकिन अगर तुलना करे तो क्रिकेट अपने आप में एक भद्रलोक खेल है और पिछले कुछ वर्षो के उदहारण छोड़ दे जो कपिल देव से शुरू होकर महेंद्र सिंह धोनी और इरफ़ान पठान की सफलता दिखा दे तो इसमें में दलितों, आदिवासियों के लिए कोई जगह नहीं बची. अगर क्रिकेट बोर्ड को देखने तो ये पुर्णतः उन लोगो द्वारा नियंत्रित है जिनके लिए खेल पैसे से बड़ा नहीं है. खेल के आयोजन की दृष्टि से देखें तो विश्व कप फूटबाल क्रिकेट से बहुत बड़ा है क्योंकि न केवल आयोजक देश में सैलानियों की संख्या में बेहद इजाफा होता है अपितु राजनैतिक दृष्टि से भी ये बड़ा खेल है. फूटबाल में विज्ञापनों की भी मारामारी है लेकिन जो एक अंतर साफ़ दिखाई देता है क्रिकेट के विज्ञापन दाताओं या आयोजको से वो ये के ९० मिनट के खेल में ब्रेक के समय ही विज्ञापन दिखाई देते है क्रिकेट की तरह नहीं की हर छक्के, हर विकेट पर विज्ञापन मैच में दर्शको के रोमांच को कम कर देता है. यहाँ किसी के गोल करने पर आपको कोक या किसी अन्य के विज्ञापन नहीं देखने को मजबूर किया जाता है.
फूटबाल में सबसे बड़ा रोमांच इस खेल की पुर्णतः अनिश्चितता है. यानि खेल में बड़े बड़े दादा भी पहले राउंड में बाहर हो जाते है और जैसे जैसे अफ्रीका, लैटिन आमेरिका, यूरोप, और एशिया के छोटे छोटे देश इसमें एंट्री कर रहे है वैसे वैसे इसकी शान में इजाफा हो रहा है और खेल में कम्पटीशन बढ़ रहा है. इस वर्ष के आयोजन में इटली और हंगरी जैसी बड़ी टीमे नहीं थी क्योंकि वो क्वालीफाइंग राउंड में ही हार चुकी थी. इटली चार बार का विश्च चैंपियन है. इसी प्रकार स्पेन, जर्मनी, अर्जेंटीना आदि टीमे भी शुरूआती दौर में निकल गयी. जापान, पराग्वे, कोलम्बिया, रूस आदि नयी टीमो ने संकेत दे दिया के भविष्य में प्रतिस्पर्धा और ज्यादा बड़ी होने वाली है. पांच बार की विश्व चैंपियन और पहले विश्कप से लेकर अभी तक सभी टूर्नामेंट में खेलने वाली ब्राजील की टीम भी कुछ विशेष नहीं कर पायी. कारण है जबरदस्त प्रतिस्पर्धा और नए देशो में फूटबाल का बढ़ता जूनून.
इस प्रकार के भव्य आयोजन हमें बहुत से नयी बाते सिखला देते है. दुनिया के २११ देशो में फीफा से जुडी संगठन है जो विश्वकप में अंतिम राउंड में खेलने के सभी संघर्ष करती है जिन पर पूरी दुनिया फ़िदा रहती है. विश्व्कप में फ्रांस इस वर्ष का विजेता रहा जहाँ उसने मध्य यूरोप के छोटे से देश क्रोएशिया को हराया. फ्रांस की राष्ट्रीय टीम में ७ खिलाडी अफ़्रीकी मूल के मुस्लिम है. फ्रांस पिछले कुछ वर्षो में आतंकवाद का शिकार भी रहा है क्योंकि फ्रांस के राजकीय सेकुलरिज्म की पहचान धर्म और धार्मिक अस्मिताओ से राज्य की पुर्णतः असहमति है. फ्रांस का सेकुलरिज्म मल्टी-कल्चरलिज्म नहीं है जैसा दुनिया के अन्य देशो में होता है. यहाँ धर्म आपका व्यक्तिगत मामला है और राज्य धर्म आधारित अस्मिताओ के आधार पर आपको विशेष दर्जा नहीं देता. इस सिद्धांत में दिक्कते भी है लेकिन फ्रांस खड़ा रहा. बहुत से लोगो ने कहा विश्वकप की ये जीत अफ्रीका की है लेकिन ये भी उस बात को नज़रन्दाज करना होगा जिसके फलस्वरूप ये खिलाडी फ्रांस की टीम के सदस्य बने है. दक्षिणी अफ्रीका में रंगभेद सरकारी तौर पर ख़त्म हो चूका है लेकिन जब हम वहा की क्रिकेट टीम को देखते है तो उसमे अभी अभी श्वेत मूल के खिलाडी अधिक है. इसका मतलब ये के ब्रिटेन और फ्रांस तो दुनिया की सबसे बड़ी औपनिवेशिक ताकते थी उन्होंने अपने आपको बदलने में समय नहीं लगाया और नयी परिस्थितयो के अनुसार अपने यहाँ अपने उपनिवेशों से आये लोगो को समान अवसर दिया फलस्वरूप वे आज इनकी टीमो के प्रमुख सदस्य बन गए. ये समान अवसर का सिद्धांत सबसे महत्वपूर्ण है. भारत में भी हाकी और क्रिकेट की टीमो में ऐसी विविधता पहले दिखती थी. लेकिन इस दौर में जब अल्प संख्यको और शरणार्थियो के विरुद्ध पूरी दुनिया में मौहोल पैदा किया जा रहा है तो ऐसी जीत सौहार्द पैदा करने में नयी भूमिका अदा कर सकते है. अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रम्प ने जिस प्रकार से इमीग्रेशन के खिलाफ बोलना शुरू किया और यूरोप से उनको भगाने की बात की उसका उत्तर फ्रांस की जीत ने दे दिया. उम्मीद है इन देशो में अब इमिग्रेंट्स को बोझ या बेकार का नहीं समझा जाएगा. हम सभी इस भयावह दौर से गुजर रहे है जब अल्प संख्यको को बताया जा रहा है के उनसे देश की सुरक्षा खतरे में है और देश को उनकी जरुरत नहीं है और उनके कारण से ही ‘विकास’ रुका पड़ा है. ऐसे हालत में फ्रांस की जीत बहुत विश्वास पैदा करते है. यूरोप के सभी टीमो ने कोशिश की के उनमे नस्लीय विविधता दिखाई दे. बहुत सी ऐसी टीमे भी थी जिनमे केवल गोरे खिलाडी ही थे जैसे क्रोएशिया, आयरलैंड और पोलैंड लेकिन ऐसी भी टीमे थी जिनमे अफ़्रीकी मूल के खिलाडियों और मुस्लिम खिलाडियों का प्रतिनिधत्व उनके द्वारा इस विविधता का सम्मान करने जैसे था. बेल्जियम की टीम में ७०% गोरे, २२% अफ़्रीकी मूल के थे और १५% मुस्लिम भी जो अधिकतर काले थे. फ्रांस की टीम में तो केवल 33% ही गोरे या यूरोपियन मूल के थे बाकि सभी अफ़्रीकी मूल के थे हो बहुत बड़ी बात है. इंग्लैंड की टीम में ६३% ही गोरे थे और बाकि सभी अफ़्रीकी मूल के खिलाडी थे. ये जानना बहुत जरुरी है के आज खेलो के जरिये भी हम अपने देश की सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे को प्रदर्शित करते है. ये देश के सभी नागरिको में एक भावना भरते है के हाँ उनकी भी राष्ट्र निर्माण में कोई भूमिका है और हाँ कहीं पर भी ‘मेरिट’ से समझौता नहीं होता. यहे तो सिद्ध हो चूका है के इन्ही इमिग्रेंट्स ने यूरोपियन टीमो की ताकत को बढ़ाया है.
जापान की टीम अपने मैच को हारने के बाद भी पूरे स्टेडियम को साफ़ की जो उनकी परंपरा है. हर एक टीम के खिलाडियों ने मैच शुरू होने से पहले रंगभेद के खिलाफ कसमे खाई जो फीफा के द्वारा उठाया गया सराहनीय कदम है. मेरा तो ये मानना है के पोपुलर फिल्म्स और स्पोर्ट्स के जरिये हम बहुत से महत्वपूर्ण प्रश्नों पर संवेदना और जाग्रति का कार्य कर सकते है लेकिन जहा स्पोर्ट्स केवल पैसे लूटने का धंधा बन जाये फिर समस्या है. अब क्रिकेट हमारे उप-महाद्वीप का सबसे बड़ा खेल है और कुछ एक खिलाडियों को छोड़ दे तो अभी भी ‘संभ्रांत’ समझे जाने वाले शहरी घरानों का खेल है. हमारे उपमहाद्वीप में इस समय जाति भेद, धार्मिक हिंसा, महिला हिंसा लगातार बढती जा रही है. क्या कभी क्रिकेट टूर्नामेंट में हम इन प्रमुख मसलो खासकर घृणा के खिलाफ एक अंतर-रास्ट्रीय मुहीम चला सकते है ? मुझे अभी भी शक है.
क्रोएशिया की टीम और उनकी प्रधानमंत्री की बहुत सराहना हुई. बहुत से साथियो ने वाजिब सवाल भी किया के इस टीम का नस्लवाद और फासीवाद के प्रति क्या ख्याल है. मैंने शुरू से ही क्रोएशिया की टीम की तारीफ की, क्योंकि वे अच्छा खेले. हमने अच्छे खेल की सराहना की और यदि कोई खिलाडी या उनकी टीम नस्लभेद का समर्थन करते है तो उन्हें खेल से बाहर कर दिया जाना चाहिए.
यही बात कई लोगो ने क्रोएशिया के राष्ट्रपति के बारे में कही. कुछ ने कहा के वह अपनी पी आर का काम कर रही है, उनको बहुत सपोर्ट मिला और न जाने क्या क्या. हमने फ्रांस के राष्ट्रिपति मच्क्रौन्न को भी देखा के कैसे वे खिलाडियों से मिले और उनका स्वागत किया. फ्रांस के विजयी टीम को वहा के रास्ट्रपति भवन में ऐसा स्वागत किया गया के हम  उसकी उम्मीद भी नहीं कर सकते.
फ़्रांस से ज्यादा लोगो में क्रोएशिया का समर्थन किया. कारण ये था के मात्र ४० लाख की आबादी वाला ये देश सबको प्रभावित कर रहा था . उसके कप्तान की जीवन कहानी बड़ी जीवत थी. क्रोएशिया की राष्ट्रिपति कोलिंदा ग्राबर कितारोविच ने सबका दिल जीता. एक बार फिर मैं ये कहना चाहता हूँ के उनकी राजनीती कैसे है इस पर चर्चा नहीं हो रही है. इकॉनमी क्लास के टिकेट में मैच देखने के लिये आना और बिलकुल आम लोगो की तरह स्टैंड पर अपने देश की टी शर्ट पहनकर खिलाडियों को मज्गूत करना हरेक के बस की बात नहीं. मात्र ऐसा नही नहीं था, उन्होंने खिलाडियों के ड्रेसिंग रूम में जाकर भी उनका हौसला बढाया. फाइनल मैच में वो एक आम दर्शक की तरह मैच देख रही थी और उनकी भावनाओं में कही पर नहीं दिखाई दिया के वो कोई एक्टिंग कर रही थी. उनकी भावनाए बिलकुल नेचुरल थी. फाइनल मैच में जब क्रोएशिया हार गया तो मैच के बाद बारिश में भी वह दोनों टीमो के खिलाडियों से गले मिली और क्रोएशिया की टीम के खिलाडियों ओर कोच से तो बहुत देर तक गले मिली और उनको प्रोत्साहित किया और ये सब फ्रांस ओर क्रोएशिया के राष्ट्रपति बारिश की बौछारों के बीच करते रहे. एक मिनट भी ऐसा नहीं लगा के वे परेशान है. दोनों ने मैच का पूरा आनंद उठाया और बिलकुल एक आम दर्शक की तरह.
अब तुलना कीजिये अपने देश के नेताओं के साथ. क्या आप उम्मीद करते है हमारे नेता इतने खिलाडियों को कभी गले मिल पाएंगे ? अगर मिल्नेगे पहले अपने बारे में सोचते रहेंगे ? क्या कभी हमारे नेता अपने अहम् को छोड़कर, अपने भक्तो से दूर रहकर किसी ऐतिहासिक घटना का आनद ले पाएंगे. क्या हमारे प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति कभी इस प्रकार से कोई खेल का आनंद ले सकते है. हमने देखा है कैसे क्रिकेट में कोई टूर्नामेंट जीतने पे नीता प्रकट होते है और पुरुस्कार वितरण करके तुरंत खिसक लेते है. लेकिन मास्को में पुतिन से लेकर मैक्रॉन से लेकर कोलिंदर और अन्य सभी राष्ट्रधय्क्शो ने मैच का पूरा आनंद लिया.
हम जानते है हर एक देश में कोई समस्या होती है. कई लोग नेताओं की बातो को पब्लिक रिलेशन का स्टंट मानते है.. सब सही है लेकिन मुझे नहीं लगता के इनमे उनकी भावनाए झूठी थी. हमारे यहाँ तो वो भी दिखावा होता है. और ये सब इसलिए क्योंकि हमारे समाज में जो जातिगत और सामंती  पूर्वाग्रह है वो हमको हरेक से गले मिलने से रोकते है, वो हमें एक दुसरे के पास आने नहीं देते और केवल दूर से मनस्ते करके हमारे नेता खिसक लेते है. जिस देश में इतने पूर्वाग्रह हो वहा खेलो का कल्चर कैसे बनेगा ? भारत में खेलो की संस्कृति को विकसित करने के लिए समाज के लोकतंत्रीकरण की जरुरत है ताकि दलित, पिछड़े, आदिवासी समाज के लोगो को जो प्रकृति के नजदीक रहते है और ज्यादा श्रमशील है, जातिव्यवस्था भारत के बहुजन समाज को स्वतंत्र निर्णय लेंने से रोकती है और उनके रस्ते में अनेक प्रकार की अडचने खड़ी करती है. हमें सोचना पड़ेगा, जिस समाज में खान पान को लेकर इतनी रोक टोक  है, वो समाज कभी खेल में आगे नहीं आ सकता  और जो लोग खेलो में आगे बढ़ सकते है वह जाति प्रथा के मार्गदर्शक रोड़े अटकाटे है ताकि बहुजन समाज आगे न बढ़ सके क्योंकि खेलो में बहुत पैसा आ चूका है और इसमें सामंती लोग अपनी मोनोपोली चाहते है इसलिए भारत में क्रिकेट जैसा खेल ही पनपेगा. फ़्रांस की जीत और क्रोएशिया के संघर्ष से सीखना पड़ेगा के खेलो में डाइवर्सिटी कितनी आवश्यक है और सक्षम राजनैतिक नेतृत्व भी खिलाडियों की हौसलाफजाई करता है. उम्मीद करते है कभी इस देश का समाज बदलेगा और देश में खेलो की एक मज़बूत संस्कृति बनेगी ताकि हम भी दुनिया के खेलो के नक़्शे में अपनी जगह बना सके

Friday 6 July 2018

मंडल पर जाति और पूँजी के गठजोड़ का हमला



विद्या भूषण रावत

७ अगस्त १९९० का ऐतहासिक दिन जब भारतीय संसद के अन्दर तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की अनुसंशाओ को स्वीकारते हुए भारत सरकार की नौकरियों में पिछड़ी जातियों के लिए  २७% आरक्षण की घोषणा की थी. भारत की राजनीती में इससे बड़ा भूचाल कभी नहीं आया जब देश की सारी सवर्ण जातीया और उनका ‘संभ्रांत’ बुद्धिजीवी वर्ग इसके विरुद्ध खडा हो गया. देश भर में सवर्ण छात्रो ने इसके विरुद्ध आन्दोलन किया और मनुवादी मीडिया ने कोशिश की के सरकार इसको वापस ले ले. वी पी सिंह, शरद यादव और राम विलास पासवान की तिकड़ी ने इस सन्दर्भ में सबसे ज्यादा गालिया खाई. स्थान स्थान पर उनके पुतले फूंके गए और उनको भद्दी भद्दी गालियों और उपाधियो से नवाजा गया. सबसे बड़ी बात ये थी के मंडल के समर्थन में अम्बेद्कर्वादियो ने जो आन्दोलन खड़ा किया था उसे मीडिया ने पुर्णतः नज़रअंदाज कर दिया. उस दौर में दलित पिछड़े, आदिवासियों, और मुस्लिम समुदाय के पिछड़े तबको के बीच जो सहमती बनी वो बहुत बड़ी थी और उसके नतीजे अगले चुनावो में दिखाई दिए.

सरकार के एक बहुत बड़े फैसले ने भारत के राजनितिक पटल को बदल दिया. दलितों, पिछडो, आदिवासियों में एक अभूतपूर्व एकता दिखाई दी और स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहिली बार ऐसा लगा के कोई सरकार बहुजन समाज के प्रश्नों पर गंभीर है. बाबा साहेब संसद में आ चुके थे, उन्हें भारत रत्न प्रदान किया जा चूका था, उनकी स्वर्ण जयंती के अवसर पर अनेको कार्यक्रम थे लेकिन प्रमुख था उनके साहित्य को विभन्न भारतीय भाषाओं में पहुँचाना. सरकार इन डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान को मज़बूत किया और नव बौधो को भी आरक्षण के दायरे में लाने का काम किया. इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण था वो घोषणा के यू पी एस सी में अनुसूचित जातियों, जन जातियों की भर्ती का बैकलॉग उन्होने जातियों द्वारा भरा जाएगा क्योंकि इससे पहले ये बहुत चालाकी से कर दिया जाता था के अनुसूचित जाति जनजाति के अभ्यर्थियों को इंटरव्यू में फ़ैल करके ये कहकर के ‘योग्य अभ्यर्थियों के अभाव’ में तथाकथित जनरल से बैकलॉग भर दिया जाता था. यही कारण है आरक्षण के बावजूद भी कई वर्षो तक सरकारी सेवाओं में सवर्ण एकाधिकार बना रहा.

१९९० में इस घटनाक्रम् के बाद से ही पुरोहितवादी-पूंजीवादी ताकते इकठा हो गयी और अनेक प्रकार से षड्यंत्र करने लगी. भाजपा ने राममंदिर का जो कार्ड खेला वो दलित पिछडो को सत्ता से दूर करने का एक सबसे बड़ा षड़यंत्र था लेकिन इसके लिए उसने न केवल दलितों, आदिवासियों अपितु बड़ी संख्या में पिछड़ी जाति के नेताओं की भी एक अच्छे फेहरिश्त तैयार की ताकि उनको आगे कर लोगो को भ्रमित किया जा सके. कांग्रेस का रवैय्या भी उनसे ज्यादा खतरनाक रहा क्योंकि राजीव गाँधी के समय से ही कांग्रेस ने खुले तौर पर मंडल का विरोध कर भाजपा से ज्यादा  बड़ी भूमिका लेने की कोशिश की. बहुजन समाज पार्टी उस समय तक इतनी ताकतवर नहीं थी के इस प्रतिरोध में कुछ भूमिका निभाती लेकिन उसका काडर तो शुरू से ही अम्बेडकरवादी आन्दोलन से जुड़ा रहा इसलिए वे तो शुरूआती दौर से ही आनुपातिक हिस्सेदारी के पक्षधर रहे. समाजवादी पार्टी उस समय तक बनी नहीं थी और चंद्रशेखर की पार्टी तो उसके विरोध में थी. चंद्रशेखर एक ‘समाजवादी’ नेता जरुर होंगे लेकिन उनके अन्दर की ठकुरात कभी गयी नहीं. सामंती सोच के कारण ही उन्होंने कभी भी सूरजदेव सिंह और अन्य बड़े मफ़िआओ के साथ अपने संबंधो को नाकारा नहीं हालाँकि वो इस सन्दर्भ में बेहद साफ़ थे और अपनी बात को रखने से भी नहीं डरते.

मंडल की पहली हार २००४  के चुनावो में पुर्णतः हो गयी और कांग्रेस के ब्राह्मणवादी नेतृत्व ने इतनी दिक्कतों के बाद सत्ता मिलने पर भी अपने गलतियों को नहीं सुधारा. कांग्रेस में अर्जुन सिंह जैसे लोग थे जिन्होंने शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की बात की और उसे लागू करने के प्रयास किये लेकिन मनमोहन-चिदंबरम-मोंटेक अहलुवालिया के ‘उदारीकरण’ और सोनिया गाँधी के ‘मनरेगा’ ब्रांड समाजवाद ने कांग्रेस को दरअसल कही का नहीं छोड़ा. कांग्रेस ने इस पूरे १० वर्षीय दौर में पिछड़ी जातियों या किसानो की तरफ देखने तक के प्रयास नहीं किये. उसके पास कृषि क्षेत्र को मज़बूत करने के लिए कोई ठोस योजना नहीं थी और न ही उसके पास पिछड़े जातियों के किसी भी विश्वसनीय नेता का नाम. २००९ में कांग्रेस जब दोबारा सत्ता में आई तो उसके हौसले असमान पर थे और मंत्री अब कार्यकरताओ की और तक नहीं देख रहे थे. चिदंबरम जैसो ने कांग्रेस की जीत को अपने उदारिकरण की जात माना और फिर जो देश के विभिन्न हिस्सों में पार्टी की अधिग्रहण जैसी नीतियों के खिलाफ घमासान हुआ उसने उसकी कमर तोड़ दी. २०१३ आते आते कांग्रेस ने कई बेहतरीन कानून बनाये लेकिन तब तक उसके विरुद्ध माहौल बहुत बन चूका था. राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी ने कांग्रेस के अजेंडे को बदलने के प्रयास किये और उसमे दलित पिछडो की भागीदारी की कोशिश की लेकिन कांग्रेस के सशक्त ब्राह्मण लॉबी सब फ़ैल कर दी. दलित पिछडो के नेतृत्व ने पार्टी के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. जब राजनैतिक शक्तिया लोगो के सवाल उठाने में असमर्थ होते है तो फिर लोग स्वयं ही अपने हाथ में सत्ता लेलेते है. पिछड़ी जातियों, खासकर किसानो और अन्य तबको में भयानक असंतोष था, दलित में वही बात थी, मुसलमानों में तो पिछड़ी और दलितों के प्रश्न उनके ही नेता नहीं उठाने देते थे लेकिन सचर आयोग की रिपोर्ट ने सबकी आँखे खोल दी और कई राज्य सरकारों ने पिछड़े जातियों के आरक्षण में मुसलमानों को भी जगह देदी हालाँकि अभी भी मुस्लिम दलित के नाम पर आरक्षण नहीं है जो उन तबको के साथ घोर अन्याय है जो आज भी छुआछूत और अन्य किस्म के जातीय भेदभाव झेल रहे है.

लेकिन जैसे ही दलित पिछडो आदिवासियों और मुसलमानों के पसमांदा तबको ने अपने अधिअरो के लिए बाते उठाना शुरू की, पुरोहितवादी पूंजीवादी गठजोड़ ने भी उनको पुर्णतः अशक्त करने के तरीके ढूंढ लिए. जल जंगल जमीन पर अब सामुदायिक हको से ज्यादा निजी मल्कियातो का कब्ज़ा होने लगा. लेकिन जनता के दवाब में जैसे ही भूमि अधिग्रहण बिल २०१३ पास हुआ वो पूंजीवादी शक्तियों ने सीधे अपने पर हमला समझा.संघ परिवार जानता है के सीधे वह लड़ाई में कभी भी जीत नहीं पायेगा इसलिए भ्रष्टाचार का प्रश्न बनाकर अन्ना का आन्दोलन खड़ा करा गया जिसे इसे देश के पूंजीवादी पुरोहितवादी समूह का पूरा समर्थन था. और यहाँ भी वैसे ही हुआ जैसे मंडल के दौर में हुआ था. देश का ‘प्रगतिशील’ वामपंथी भी अन्ना की हवा में बह गया जैसे वह मंडल विरोध में १९९० में उतर गया था. आखिर क्या कारण था देश के गाँधीवादी, मार्क्सवादी, संघी सभी अन्ना जैसे निहायत ही पुरातनपंथी और ढकोसलेबाज व्यक्ति में क्रांति देखने लग गए. रामदेव से लेकर स्वामी अग्निवेश तक और सामाजिक आन्दोलनों के बड़े बड़े नाम इस पूरी ‘आंधी’ में नेस्तनाबूद हो गए. गलती उनकी नहीं थी, अपितु सत्ता से जुड़ने का जो प्रभाव या प्रभामंडल है, वो ही इसके पीछे था. नेता चाहे कुछ बोले लेकिन जंतर मंतर और रामलीला मैदान पर इकठ्ठा हुई वो भीड़ दलित और आरक्षण विरोधी थी. मेरी नज़र में वो संविधान के विरुद्ध भी एक संकट था जो केवल ये कह रहा था के रामलीला मैदान में उपस्थित ये कुछ हज़ार लोग ही ‘देश’ है और ‘आम’ है और उनके हाथ खड़ा कर देने मात्र से संविधान में बदलाव आ जाना चाहिए. हम ऐसे खतरनाक मंसूबो को समझना होगा.

कांग्रेस के खिलाफ लोगो के गुस्से को बहुत धूर्तता और चालाकी से पुरोहितवादी पूंजीपरस्त ताकतों ने अपने नियंत्रण में ले लिया और आज देश में जो इन ताकतों ने राजनैतिक तौर पर प्राप्त किया उसे वे अब खोने के लिए तैयार नहीं है. सवर्ण जातियों को अब समझ आ चूका है के दलित, पिछडो, आदिवासियों में अपने साथ हुए ऐतहासिक अन्याय को अब आगे सहन करने की सहनशक्ति नहीं है और इसलिए वे इस ‘स्वर्णिम’ अवसर के जरिये इन समुदायों के लिए प्रदान किये सभी अवसरों को साम दाम दंड भेद सभी के जरिये समाप्त कर देना चाहते है. संघ परिवार और भाजपा इस मसले को मुख में राम बगल में छुरी वाले तरीके से ख़त्म कर देना चाहते है. संघ परिवार, भाजपा का आई टी सेल हिन्दू मुसलमान, भारत पाकिस्तान, राम जनम भूमि बाबरी मस्जिद की बाते करते रहेंगे और नरेन्द्र मोदी जी बाबा साहेब आंबेडकर, कबीर और हो सके तो रैदास जी का गुणगान करते रहेंगे और इन सभी के नाम कर अरबो फूंक डालेंगे, दलित और पिछडो के अंतर्व्द्वन्दो का इस्तेमाल करेंगे, दलित की अन्य जातियों को चमारो और जाटवो के खिलाफ खड़ा करेंगे, पिछडो की अन्य जातियों को यादवो के विरूद्ध करेंगे और मोटे तौर पर सभी को हिन्दू बोलकर मुसलमानों के खिलाफ लड़ाएँगे. देश का मीडिया ऐसे सभी मसलो पर बाते करता रहेगा जिसमे सवर्णों के बढ़ चढ़कर न केवल भागीदारी होती है अपितु उनका नेतृत्व भी होता है.

पिछले चार वर्षो में इस सरकार ने बड़ी धूर्तता से ब्राह्मणवादी पूंजीवादी ताकतों की मजबूती का काम किया है और दलित, पिछड़े, आदिवासियों और मुसलमानों को पुर्णतः शक्तिहीन करने के प्रयास किये. एक तरफ दलितों और मुसलमानों पर स्थान स्थान पर गाय, गौमांस, पाकिस्तान, और राष्ट्रभक्ति के नाम पर हमले होते रहे जिसमे सरकार ने दोषियों पर कार्यवाही करने के बजाय उत्पीडित लोगो को ही और तंग किया. शुरुआत में ही विश्विद्यालयो में छात्रो पर हमला किया गया. रोहित वेमुला की मौत के लिए जिम्मेवार लोग अभी भी पुरुस्कृत हो रहे है. जे एन यू जैसे संसथान में प्रसाशन जिस घटिया भूमिका में है वो आश्चर्य करती है. देश भर में विश्विद्यालयो में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति, पिछड़ी जातियों के लिए जो आरक्षण निर्धारित था उसको ख़त्म करने के लिए बेहद बेशर्मी से आरक्षण को डिपार्टमेंट वाइज कर दिया गया. मतलब ये के पहले एक विश्विद्यालय में यदि १०० सीटें होती थी तो १७% दलितों, ७% आदिवासियों और २७% पिछडो को आरक्षण मिलने की सम्भावना होती थी लेकिन भाजपा ने सत्ता में आने के बाद से ही इसको ‘क़ानूनी’ तरीके से ख़त्म करने के इंतज़ाम किये ताकि ये भी न लगे के संविधान का उलंघन है और सवर्णों को खुश भी किया जा सके. अब विभागों की सीटो के हिसाब से आरक्षण मिलेगा. यदि किसी विभाग में एक ही सीट है तो आरक्षण की कोई गुंजाइश नहीं है. इस प्रकार की व्यवस्था से सभी विश्विद्यालयो से चुपचाप आरक्षण ख़त्म कर दिया गया है.

इस वर्ष यदि आप छात्रो से पूछे तो एस सी, एस टी, ओ बी सी छात्रो को छात्र्व्रतीया तक नहीं मिली है. प्राथमिक, माध्यमिक, सेकेंडरी की कक्षाओं के हाल और भी ख़राब है. बच्चो को मिल रहा मिड डे माल अधिकांश राज्यों में ख़त्म है या उसमे कोई गंभीरता नहीं है. अभी उत्तर प्रदेश में उत्तर प्रदेश रोडवेज की बसों में भर्ती का विज्ञापन आया और शर्मनाक बात ये के उसमे पिछड़ी जातियों के आरक्षण की कोई बात नहीं कही गयी है. पिछडो पर तो कई तरीको से हमला है. उनकी खेती पर इतना जानलेवा हमला कभी नहीं था जब चालाकी से ये प्रयास किये जा रहे है के किसान स्वयं ही खेती छोड़ दे ताकि उनकी जमीनों पर कॉर्पोरेट को काबिज कर उनसे खेती करवाए. जब बाज़ार में आटे से लेकर सब्जिय तक पूंजीपतियों की दुकानों पर मिलेगा तो किसान और छोटे दुकानदार तो मरेंगे ही. पूरा गौमाता की जय जयकार का अभियान पिछड़ी जातियों पर हमला है जो अब गायो की खरीद फरोक्त नहीं कर सकते. धीरे धीरे करके भारत के विशालकाय बाज़ार पर पूंजीपति कब्ज़ा करके दूध से लेकर आटा चावल तक बेचेंगे और ये सब होगा किसान की मौत पर. किसानो को ऐसे उलजलूल सवालो में फंसाओ जो उसी तरक्की और अधिकारों से दूर हो और ऐसे आर्थिक सामजिक स्थितिया पैदा कर दो के किसान स्वयं ही खेती छोड़ दे. देश की खाद्यान्न सुरक्षा के लिए भी ये खतरनाक है लेकिन गुजराती प्रवासियों की कंपनियों को फायदा पहुचाने के लिए दालो, चीनी, प्याज आदि का भी आयात किया जा रहा है.छत्र आखिर इससे प्रभावित होने वाला समाज कौन है ?
दिल्ली विश्वविद्यालय के बहुजन अध्यापक कम से कम पिछले तीन महीनो से आरक्षण बचाने के लड़ाई लड़ रहे है. आज आलम ये है विश्विद्यालयो में छात्रो की पढ़ाई की फीस बहुत बढ़ चुकी है. सरकार और विश्विद्यालय अनुदान आयोग अब ये कह रहे है के सभी कालेज और विश्विद्यालय अपने धन की व्यवस्था खुद करेंगे. इसका मतलब क्या है. यदि सरकार शिक्षा से पुर्णतः हाथ खींच लेगी तो क्या होगा ? इसकी मार सब पर पड़ेगी, गरीब सवर्णों पर भी लेकिन जो सबसे ज्यादा प्रभावित तबका होगा वो होगा बहुजन समाज.

अब सरकार ने एक और नयी घोषणा की है. वह है के विश्विद्यालय अनुदान आयोग को ख़त्म कर वह एक उच्च शिक्षा का नया आयोग बनाना चाहती है. जिसमे अध्क्यक्ष, उपाध्यक्ष, और मेम्बर सेक्रेटरी के अलावा १२ अन्य सदस्य होंगे. इनमे एक देश के ‘नामी गिरामी’ उद्योगपति भी होंगे. उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को बनाने के नाम पर लाये जा रहे इस ड्राफ्ट बिल को देखकर तो लगता है के सरकार इस पर कोई बहस नहीं चाहती और वह सीधे यू जी सी को ख़त्म कर अपना पूरण नियंत्रण वाला आयोग बना देना चाहती है. गुणवत्ता के नाम पर स्किल इंडिया का प्रचार होगा. इसके अलावा सरकार के नए आयोग को निजी विश्विद्यालयो को खोलने की अनुमती देने का अधिकार होगा. अभी ये प्रक्रिया विधानसभाओ  या संसद के हाथ में थी. नए कमीशन को विश्विद्यालयो की मान्यता रद्द करने का अधिकार भी होगा और विदेशी विश्विद्यालयो या देश में भी नामी गिरामी कालेजो को भी विश्विद्यालाओ के समकक्ष डिग्री देने की स्वतंत्रता होगी. यानी शिक्षा में वर्ग चरित्र भी बढेगा क्योंकि दिल्ली के सेंट स्टीफेंस, लेडी श्री राम कालेज, श्रीराम कालेज ऑफ़ कॉमर्स और कई ऐसे कालेज है जिनके बारे में कहा जाता है के वे डीम्ड यूनिवर्सिटी होने के सपने देख रहे है और विदेशी विश्विद्यालयो के साथ मिलकर कार्य करना चाहते है. आज भी ऐसे विद्यालयों में आम छात्रो का एडमिशन मुश्किल होता है. क्या जब इनको क्वालिटी के नाम पर कुछ भी करने की आजदी होगी तो ये बहुजन समाज के छात्रो को कोई स्थान देंगे. हम तो ये मानते है देश में विविधता को अपने कैंपस में समेटने का थोडा बहुत काम जे एन यू ने किया है. चाहे जो है, वहा से दलित, ओ बी सी, मुस्लिम, आदिवासी छात्र छात्राए बड़ी संख्या में आये है और दिल्ली विश्विद्यालय में उनकी संख्या बढ़ी है. देश के अन्य विश्विद्यालयो में भी बहुजन छात्र भरी संख्या में आ रहे है.

प्रतियोगी परीक्षाओं में भी अब एस सी एसटी और ओ बी सी छात्र न केवल आरक्षण  से आ रहे है अपितु जनरल सीटो से भी टॉप कर रहे है लेकिन चालाकी से उनको भी आरक्षण में डाला जा रहा है. इस प्रकार से धूर्त अधिकारियों ने ‘जनरल’ या ‘सामान्य’ सीटो को सवर्णों की ‘घोषित कर दिया है जो संविधान के साथ मक्कारी है. जनरल या सामान्य का मतलब सवर्ण नहीं अनारक्षित है. जैसे रेलवे के अनारक्षित कोच में टिकेट लेकर कोई भी बैठ सकता है वैसे ही अनारक्षित सीट पर साधारण कम्पटीशन के जरिये आने वाले सफल प्रतियोगियों को आरक्षण की केटेगरी में डालना दरअसल दलित ओ बी सी , आदिवासी समुदायों के अधिकारों पर डाका डालने जैसे है.

वैसे न्यायपालिका में कही पर बहुजन समाज का प्रतिनिधित्व नहीं है. मीडिया उनकी पहुँच से बाहर है. एकेडेमिया में थोडा जगह थी वो भी हाथ से निकल चुकी है, सिविल सर्विसेज में नरेन्द्र मोदी की सरकार अब बाहर से ‘विशेषज्ञों’ के नाम पर नयी भर्ती करेगी जो सीधे सीधे आरक्षण पर हमला है. सारे काम चुप चाप या बेशर्मी से हो रहे है लेकिन दलित बहुजन समाज के राजनैतिक नेतृत्व इन प्रश्नों पर अपने साथियो के साथ में जो युवा है और समाज को वैचरिक नेत्रत्व देने के लिए आगे आयेंगे, चुप चाप है.

आज ७ जुलाय शाम तक यू जी सी को ख़त्म करने वाले ड्राफ्ट बिल पर जनता की राय देने की डेड लाइन है जो शिक्षा में सीधे सीधे निजीकरण को आगे करने और आरक्षण को ख़त्म करने की चाल है. हमारे नेता चुप है. क्यों ? शिक्षा का प्रश्न दलित बहुजन समाज के सम्मान सहित मरने जीने का प्रश्न है. राजनैतिक गणित छोड़कर अब इन प्रश्नों पर सवाल खड़े करने का प्रश्न है. शिक्षा का निजीकरण या व्यवसायीकरण सभी समाजो के गरीब और होनहार बच्चो के साथ धोखा और अन्याय है. क्या इन प्रश्नों पर अब बोलने और अनोद्लन का समय नहीं है.

७ अगस्त १९९० को विश्वनाथ प्रताप सिंह ने संसद के अन्दर पिछड़ी जातियों को आरक्षण की घोषणा की और देश में सवर्णों ने इसे अपने अधिकारों पर हमला मानते हुए उस सरकार के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया था. हम लोगो उस समय एक एक पल याद् है. अखबारों की भद्दी गालिया याद है. उस समय के योध्या लोग आज मंत्री भी है और कुछ विपक्ष में भी. क्या हम जागेंगे या नहीं. सवाल उस राजनैतिक नेतृत्व का है जो अपने युवाओं की भावनाओ से खेल रहा है और उसके प्रश्नों को दमदार तरीके से नहीं उठा रहा. ये चुनाव का प्रश्न है. अभी इस बिल और हो रही धोकेबाजी को रोकना जरुरी है. क्या हमारी साल की महत्वपूर्ण लिस्ट में आज का दिन है या नहीं. यदि नहीं तो भविष्य में ये तारीख जरुर याद दिला देगी के हम अपने अधिकारों के लिए सतर्क नहीं थे और कारवा कैसे लुटा. उम्मीद है सामाजिक न्याय और सामाजिक परिवर्तन में विश्वास करने वाले सभी लोग इस पर अपना विरोध जताएंगे और इस ड्राफ्ट बिल को वापस लेने के मजबूर करेंगे या इसमें बहुजन समाज के हितो को सुरक्षित करने के लिए व्यापक बहस की बात करेंगे. मात्र संसद में बहस से इस बिल को पास करना अन्याय होगा क्योंकि इस ड्राफ्ट पर सभी विश्विद्यालयो, और अन्य शोध संस्थानों, छात्रो और छात्र संगठनों के बीच भी चर्चा होना जरुरी है. क्या हमारे नेता थोडा समय निकालकर इन प्रश्नों पर कोई निर्णायक लड़ाई लड़ने को तैयार है या नहीं, यदि वे ऐसा नहीं करते तो भविष्य की पीढ़िया उन्हें कभी माफ़ नहीं करेंगी.




उत्पीडन की संस्कृति के विकल्प की जरुरत


   

विद्या भूषण रावत

पिछले दो हफ्तों में तीन बड़ी घटनाएं हुई है जिनपर जैसी चर्चा होनी चाहिए वैसे नहीं दिखाई दी क्योंकि गत चार वर्षो में हमारे देश के मीडिया ने मुद्दों से ध्यान भटकाने की ‘कला’ में जो महारत हासिल की है वो दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा होगी. पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश में भी मार्शल लॉ, या राजसत्ता के समय मीडिया ने विरोध दर्ज किया और सत्ता पर सवाल खड़े किये लेकिन भारत में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषक इस समय पूरी कोशिश कर रहे है के देश से विपक्ष और विरोध दोनों ही ख़त्म कर दिए जाएँ ताकि वे अपनी मर्जी का मनुवादी राज्य हमारे उपर थोप सके. जब मीडिया सार्थक बहस से बचता है तो हमारा कर्त्तव्य है उन प्रश्नों को उठाये जो भाड़े के तंत्र इन जानबूझकर छुपा दिए हैं. उन घटनाओं को समझने की कोशिश की जाए तो देश पर मंडराते खतरे दिखाई देते है जो किसी भी तथाकथित दुशमन सी ज्यादा खतरनाक और भयावह है. पहले घटनाक्रमों को देख ले और फिर उनसे अपने नतीजे निकाले.

सर्वप्रथम, भारत के राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद की दो प्रख्यात मंदिरों में हुई यात्राओ के दौरान उनके साथ हुई बदसलूकी पर देश के किसी भी नेता खासकर जो सरकार में है, एक भी बयान नहीं आया. देश के राष्ट्रपति को इन मंदिरों में उनकी जाति की याद दिलाई गयी और जब भारत का प्रथम नागरिक इन स्थानों में सुरक्षित नहीं है तो देश के लाखो गैर द्विज इनमे अपना सम्मान प्राप्त करेंगे. देश में समरसता की बात करने वाला संघ परिवार इस मामले में चुप है. देश के नामी गिरामी बाबा जो देश के संस्कृति का बखान करते रहते है अचानक से चुप है, आखिर क्यों ? जो कहते है के देश से जाति ख़त्म हो गयी है, छुआछूत मिट चुकी है वे सभी चुप है या मज़े ले रहे है.


दूसरी घटना उत्तराखंड की राजधानी में मुख्यमंत्री के जनता दरबार में हुई जहा एक महिला प्राध्यापक अपने स्थानांतरण के सिलसिले में उनसे मिलने आई थी. मुख्यमंत्री महोदय उस महिला के सवाल पूछने से इतने खफा हुए के उन्होंने महिला को तुरंत निलंबित करने और उसकी गिरफ़्तारी के आदेश दे दिये . मुख्यमंत्री का कहना था के उनके जनता दरबार में सरकारी लोगो के स्थानांतरण से सम्बंधित कोई बात नहीं होनी चाहिए और इसके सम्बन्ध में एक निति बनेगी. बिलकुल बात सही है इन कहानियो के पीछे की कहानी क्या है ये भी हमें नहीं पता हालाँकि ये भी विदित है के इन्ही महिला को एक और भाजपाई मुख्यमंत्री ने जो कुम्भ के मेले में खूब कमाई के लिए बिख्यात हुए, ने निलंबित किया था. दोनों मुख्यमंत्रियों की पत्निया भी अध्यापिकाएं है और वर्तमान मुख्यमंत्री की पत्नी देहरादून में पिछले १७ वर्षो से कार्यरत है और उनका कोई स्थानांतरण कभी नहीं हुआ. वैसे इतने पूरे वर्षो में तो भाजपा की सरकार नहीं थी लेकिन नेताओं की आपसी रिश्तेदारी तो सबको पता है उनके कोई काम नहीं रुकते. तकनीक तौर पर ट्रान्सफर क्यों नहीं हुआ या महिला पहले भी निलंबित हुई या मुख्यमंत्री या अन्य नेताओं की बीवियों के तबादले क्यों नहीं हुए इन पर तो अवश्य चर्चा होनी चाहिए और मीडिया को इनका पर्दाफाश भी करना चाहिए लेकिन जो एक बात मुख्यमंत्री के दरबार से दिखाई दिया वो है हमारा सामंती चरित्र. क्योंकि ऊँची आवाज में बोलना हमारे नेताओं को अखरता है और वह भी जब एक महिला आँख में आँख डाले सवाल पूछे तो अपने आप ही ‘चरित्रहीन’ हो जाती है. वैसे भी संघ की आदर्श महिला वो है जो नौकरी भी करे तो पहले पत्नी, बहु, बेटी की भूमिका ढंग से निभाये और महीने के आखिर में सैलरी घर पर थमा दे, रोज ऑफिस से आये तो सीधे किचन में घुसे और बिना ऊफ के काम शुरू कर दे ताकि ‘परिवार’ खुश रह सके.
अब तीसरी घटना को देखिये जहाँ आपको संघी मानसिकता के दर्शन मिलते है. सुषमा स्वराज जी संघ परिवार की डिक्शनरी की आदर्श महिला है. अभी भी परम्पराओं में ‘पूरी’ तरह से ढली हुई, सुष्माजी ने तो कर्वाचोथ के व्रत को रोमांटिक बनाकर बहुत पोपुलर बना दिया. तीज पर उनका झूला झूलना और देश भर में हो रहे महिलाओं के अत्याचारों पर बिलकुल चुप्पी साधकर बैठना ये संघ के अवसरवाद के उदहारण है. जब हिंदुत्व के संगठन जम्मू में कठुआ कांड के आरोपियों को बचाने के लिए सड़क पर आ रहे थे और एक मासूम लड़की के पक्ष में लड़ रही एक बहादुर महिला को बायकाट करने की धमकी दे रहे थे तब भी वह चुप थी लेकिन पाकिस्तान के कुछ बीमार बच्चो को और लखनऊ में एक हिन्दू मुस्लिम जोड़े को पासपोर्ट बनाने के मामले में जो त्वरित कार्यवाही उन्होंने की उस पर उनकी पार्टी के ऑनलाइन भक्तो ने उन्हें ही ट्रोल करना शुरू कर दिया. सुषमा जी जैसे महिला जिसने हिंदुत्व के लिए अपना सर्वस्व कुर्बान किया हो आज उनके ऑनलाइन गुंडों की गालिया खा रही है. अगर उनके ट्विटर हैंडल पर गालिया देखे तो उनके पति स्वराज कौशल को लिखा जा रहा है कि अपनी पत्नी की जमकर पिटाई करें, लेकिन सिवाय राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी के एक भी मंत्री ने उनके बचाव में एक शब्द नहीं कहा है उसमे भी नितिन गडकरी ने केवल येही कहा के सुषमा जी तो भारत में थी ही नहीं जब ये निर्णय लिया गया. मतलब ये के इन्टरनेट के गुंडों को कुछ भी कहने से डर रहे भारत सरकार के मंत्री और भाजपा के नेता क्योंकि येही अब उसके काडर है और इन्ही की लगातार क्लास अमित शाह लेते है. अभी तक इतनी मोब लिंचिंग की घटनाएं हुई है जिसमे इतने मासूम मारे गए है महाराष्ट्र से लेकर त्रिपुरा, बिहार, बंगाल, तेलंगाना, आंध्र और ओडिशा तक, लेकिन भारत सरकार का मौन है. जब पिछले एक हफ्ते में करीब २१ लोग भीड़ ही हिंसा का शिकार हो गए जिसमे पांच लोग महाराष्ट्र के धुले में बच्चा उठाने के आरोप में मारे गए तो दुनिया भर में बदनामी से डरने के लिए सरकार के मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने कहा के व्हात्सप्प को कुछ करना चाहिए. व्हात्सप्प या ट्विटर तो कोई भी काम करेंगे अगर सरकार चाहे तो और उससे ज्यादा जो लम्पट काडर है, जिसको सारे नेता आशीर्वाद दे रहे है क्योंकि भाजपा ये मान चुकी है के सोशल मीडिया का ये लम्पट काडर ही चुनावो में उसकी नैय्या पार लगाएगा.

राजनीती में मतभेद होते है लेकिन मन्भेद  नहीं होने चाहिए ये अटल जी के शब्द है परन्तु आज जिस तरीके से विरोधियो और आपसे मतभेद रखने वालो से निपटने के तरीके ढूंढें गए है वे निहायत निंदनीय और देश को खतरे में डालने वाले है. अगर इन घटिया हरकतों के लिए कोई पार्टी अपने कार्यकर्ताओ के खिलाफ कार्यवाही नहीं करती या उसके नेताओं के पास उसकी निंदा के शब्द नहीं है तो इसका साफ़ मतलब है के ये जानबूझकर प्रोत्साहित किये जा रहे है. अभी एक महारथी ने जिनके ट्विटर हैंडल पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम की धनुर्धारी तस्वीर थी, उन्होंने कांग्रेस पार्टी की प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी की बेटी से बलात्कार कर डालने की धमकी खुले तौर उन्हें दे डाली. प्रियंका ने पुलिस में रिपोर्ट करवाई है लेकिन अभी तक कुछ हासिल नहीं हुआ है लेकिन अभी तक सरकारी और संस्कारी पार्टी के एक भी नेता ने इस पर कुछ नहीं बोला है. भारत में हिन्दुओ का नेतृत्व करने वाले संघ की चुप्पी तो हम सबको पता है के जिंदगी भर उन्होंने कभी भी जातिप्रथा के खिलाफ बात नहीं की और न ही कभी महिला हिंसा पर कुछ बोला . मुझे इन शब्दों को लिखने में भी अफ़सोस होता है लेकिन क्या करें यदि हम सब इस दौर में चुप रहे और अन्याय के खिलाफ नहीं बोले तो ये देश किसी का नहीं रहेगा.

देश भर में बलात्कार की बढती घटनाओं का भी भाजपा और संघ परिवार ने संप्रदायीकरण किया. कठुआ हुआ तो गुंडों के पक्ष में नारे लगवाए. मंदसौर में क्योंकि अपराधी मुसलमान है तो भाजपाई उसे तुरंत फांसी पर लटकाने के लिए कहते है और आरोप लगाते है के ‘सेक्युलर’ लोग अब कैंडल लाइट मार्च क्यों नहीं निकालते. मंदसौर की घटना को वे कठुआ की काट मानकर लगे हुए है लेकिन मै तो उनके नेताओं से सवाल करना चाहता हूँ के उन्नाव के विधायक कुलदीप सिंह सेंगर पर अपनी ही राजपूत जाति की लड़की के साथ बलात्कार का आरोप लगा और एक भी नेता कुछ नहीं बोला. शर्मनाक बात तो ये के नेता के समर्थन में लोग सडको पे आये. राजपूतो को फर्जी विषयो में तो अपने समुदाय की इज्जत याद आती लेकिन अपने समाज की एक गरीब लड़की का विधायक द्वारा किया गया शोषण उनके समाज के लिए कोई सवाल नहीं बना. उन्नाव की घटना को इसलिए दबाया गया है क्योंकि ये हिंदुत्व के राष्ट्रवाद की पोल खोल सकती है. कठुआ और मंदसौर सेकुलरो और हिन्दुत्ववादियो के अपने अजेंडे में फिक्स होने वाली कहानिया है इसलिए शोर है. सवाल है के उन्नाव को लेकर क्यों है संघ को और उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को कटघरे में खडा किया गया जिसने अपराधी को बचाने की पूरी कोशिश की.

मेरे एक मित्र ने बरसो पहले आर एस एस का मतलब रयुमर स्प्रेअडिंग सोसाइटी रख दिया लेकिन आज हम जो स्वरूप देख रहे है वो बेहद भयावह और डरावना है. व्हात्सप्प पर कोई भी कहानी बनाकर आप किसी के खिलाफ ही जो भीड़ तंत्र के न्याय को केवल अपनी राजनितिक रोटिया सेंकने के लिए जो आगे बढ़ा रहे हो वो देश के तानें बाने को नष्ट कर देगा जो आज़ादी के बाद बेहद मुश्किलों के बाद हमने बनाया था. इतने बड़े देश में व्यापक धार्मिक, भाषाई और जातीय विविधताओं को स्वीकारते हुए हमने सबके लिए एक कानून बनाया ताकि देश एक रहे. आजदी के वक़्त जवाहर लाल नेहरु का प्रदेश और जाति बिलकुल ऐसी थी के अगर वह चाहते तो भारत को हिन्दू राष्ट्र बना सकते थे लेकिन उन्हें पता था के इसके कितने खतरनाक नतीजे हो सकते है.

आज सत्ता में रहने वाले लोग पिछले चार वर्षो में उनकी सरकार के लगातार असफलताओं को छुपाने के लिए फिर से उन्होई मुद्दों को खडा कर रहे है जो केवल इमोशन पर आधारित है, धर्म और जाति या इतिहास से गड़े मुर्दों को खोद खोद कर निकलकर ये लोग अपने झूठे वादे और विकास की आड़ में मनुवादी संस्कृति थोपकर केवल दो चार गुजराती पूंजीपतियों के हाथ हमारे देश की सम्पति को सौंप देना चाहते है. देश की उर्जा, सम्पति, संशाथान जब इन व्यक्तिगत मुनाफाखोरो के पास जाता है, बैंक जब डूबने को तैयार बैठे हैं लेकिन ये बड़े बड़े चोर फोर्ड की लिस्ट में आते है, मीडिया उनके बच्चो की शादियों को दिखाकर मध्यवर्ग की लालसा को बढाता है लेकिन उनको सवाल करने को नहीं कहता . पत्रकार जब चारण होते है और मालिक का महिमामंडन कर जनता को भ्रमित करते है तो समझ लीजिये के देश पर संकट है.

इस देश में जो आग लगाने का आज षड़यंत्र चल रहा है उसका मुकाबला सभी लोगो को एकता से करना होगा. एक समाज को दुसरे के खिलाफ खड़ा करके, आत्म सम्मान के साथ खड़े लोगो विशेषकर महिलाओं के खिलाफ ऑनलाइन गुंडागर्दी को आगे बढाकर एक सन्देश दिया जा रहा है के या तो चुप रहिये या मार खाइए और यदि आप फिर भी नहीं डरते तो आपकी फिर तंत्र आपको डराएगा. आजकल उसके भी अनेको तरीके है. भाड़े का मीडिया है, खबरे पकाई जायेंगी, तड़का लगेगा और अन्य कई तरीको से आपकी मौत के इन्तेजाम हैं. ये सब भी झेल लिया तो बदनाम करने के तरीके बहुत से है. स्थिति बहुत गंभीर है और जो लोग आपातकाल चिल्ला रहे है वे आज के दौर को बहुत हलके में ले रहे है. आपातकाल में एक दूरदर्शन था और मीडिया का अशिकंश हिस्सा झुक चूका था लेकिन फिर भी वो इतने बदतमीज नहीं हुए थे जितना आज का मीडिया हो चूका है. हम लोग ऐसे पत्रकारिता को पीत पत्रकारिता कहते है जो चरित्र हनन और सेंसेशन पैदा करते है लेकिन आज के दौर की पत्रकारिता तो पूरी तरीके से गेरुआ हो चुकी है और आकाओ के आग्गे नतमस्तक है.

देश की संस्कृति के ‘रक्षक’ चुप है. वो अपने लोगो को हथियार देकर लड़ना सिखा रहे है. शायद भूल रहे है के बन्दुक से आप न तो कभी लक्ष्य तक पन्हुन्चेंगे और न ही कोई बदलाव कभी आया. दुनिया में हिंसा के कारण बदलाव लाने वाले मिट गए और मिटा दिए गए. बुद्ध, कबीर, नानक, रैदास, आंबेडकर, फुले,भगत सिंह, राहुल संकृत्यायन का देश और संस्कृति सवाल पूछेगी और वैचारिक क्रांति करेगी. देश में आने वाले बदलाव से जिनके तख़्त ताज हिलेंगे वो ही बन्दुक और हिंसा की बात करते है. देश की सत्ता पर काबिज  अल्पसंख्यक आज बहुजन समाज में आ रहे बदलाव और जागरण से घबराये हुए है क्योंकि बाबा साहेब आंबेडकर और तर्क के अन्य योद्धयो के विचारो की पैनी धार से बहुजन समाज आज राजनीतिक तौर अपनी लड़ाई लड़ रहा है और ब्राह्मणवाद का  वैकल्पिक सांस्कृतिक धरातल खड़ा कर रहा है. जिनके पास तर्क नहीं है और दिमाग पर अंधभक्ति का पर्दा पड चुका है वे न कोई बदलाव कर सकते और न ही उसको सहन कर सकते. इसलिए तर्क के योद्धाओं को यथास्थितिवादी, सामंतवादी, पूंजीवादी और पुरोहितवादी पित्र्सत्तातामक ताकतों का जमकर विरोध करना पड़ेगा तभी हम एक नए प्रगतिशील भारत का निर्माण कर पाएंगे.









Thursday 7 June 2018

क्यों सुलग रहा है शिलांग ?




विद्या भूषण रावत


भारत के उत्तर पूर्व के राज्य न केवल सामरिक दृष्टि से अपितु सांस्कृतिक दृष्टि से भी बहुत महत्फ्पूर्ण है क्योंकि ये सभी भारत की जातिवादी सामाजिक व्यवस्था के अनुसार नहीं चलते और अभी जनजातीय, बुद्धिस्ट और क्रिस्चियन धर्मो का असर यहाँ पर है. क्षेत्र के दो राज्य त्रिपुरा और असाम में हिन्दुओ खासकर बंगालियों का अच्छा खासा दबदबा और उनके दबाव ने क्षेत्र में आदिवासियों और मूलनिवासियो को पुर्णतः सत्ता के तंत्र से बाहर कर दिया है. आपने त्रिपुरा को देख ही लिया होगा के कैसे आदिवासी बहुल राज्य में आज भी बंगाली भद्रलोक मुख्यमंत्री है.
मेघालय की स्थिति भिन्न है. ये पुर्णतः आज़ाद ख्याल राज्य है. ऐसा नहीं है के इन राज्यों में कोई सामाजिक समस्याए नहीं है लेकिन हमें याद रखना होगा के इन राज्यों की विशेष स्थिति को देखते है इन्हें संविधान की छटवी सूची में रखा गया था जिसका मतलब था के राज्य में राज्यपाल और राज्य सरकारों की कानून बनाने विशेषकर भूमि और वन से सम्बंधित मामलो में सीमित अधिकार होंगे और ज्यादा अधिक स्वायत्तता जिला और क्षेत्रीय समितियों को है जो जनता द्वारा चुन कर आती है.
शिल्लोंग अविभाजित असाम की राजधानी था. ब्रिटिश साम्राज्य का उत्तर पूर्व के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र और उससे भी ज्यादा एक बेहद खुबसूरत क्षेत्र जिसे प्रकृति ने बड़े प्यार से संवारा. सांस्कृतिक तौर पर भी खासी जनजाति के लोगो की जीवनशैली इसी प्रक्रति प्रेम पर केन्द्रित है. उस समय जब भी ब्रिटिश इधर उधर मूव करते थे तो उन्हें अपने साथ अपना ताम झाम लेकर चलना पड़ता था. दुसरे देश के विभिन्न इलाको में सफाई का कार्य करने के लिए वे अपने साथ पंजाब और उत्तर प्रदेश आदि से सफाई कर्मियों के ले गए जो मुख्यतः वाल्मीकि, मजहबी या ईसाई थे . इसका कारण यह था के कई स्थानों में खासकर जो पहाड़ी इलाके थे जहा लोगो की जीवन शैली बहुत अधिक यांत्रिक नहीं थी और शहरीकरण का असर नहीं था और सामाजिक तौर पर भी मनुवादी वर्णवादी व्यवस्था नहीं थी तो जातिविशेष का कार्यकरने वाली संस्था भी नहीं थी. दूसरे, ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध करते हुए लोग उनके साथ काम करने को तैयार नहीं थे इसलिए उन्हें स्वयं ही अपने साथ अपने द्वारा प्रसाशित राज्यों के कर्मचारियों को ही साथ लाना पड़ता था. बताया जाता है के १८५० के आस पास ब्रिटिश पंजाब से इन सफाई कर्मियों को वहा लाये थे जो मुखतः मजहबी कहा जाता है. शिल्लोंग में इन्हें पंजाबी या सिख कहा जाता है जो स्वयं पंजाब के सांस्कृतिक माहौल से बेहतरीन है जहाँ आज भी मजहबी और चूड़ा के नामो से अपमानित होता है. शायद ये मेघालय की सांस्कृतिक विरासत ही होगी जिसमे इन्हें सम्मानित शब्दों से नवाजा गया है.
जैसे के सभी महत्वपूर्ण स्थानों की कहानी है वैसे ही यहाँ की भी के ये पंजाबी शहर के सबसे महत्वपूर्ण इलाको में रहते थे लेकिन ये भी हकीकत है के आज जब शहरों के हालत बदल गए है और सफाई के पुराने तरीके बदल गए हों तो सफाई पेशे वाले समुदाय भी अवांछित हो गए है. अब समाज को उनकी आवश्यकता नहीं रही और उनका दुसरे कार्य करना भी लोगो को मंजूर नहीं होता. कई बार ये भी होता है के कोई बड़ा नेता वहां कुछ और बिज़नस या माल खोलना चाहता है और इसलिए उनको हटाने के तरीके अपनाये जाते है. पाकिस्तान से लेकर जहा उन्हें ईसाई बोला जाता है और ईशनिंदा कानून आसानी से लगता है भारत के गाँवों तक, हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाइयों सभी ने वाल्मीकियो के साथ बेहद अपमान जनक व्यवहार किया है. और तो और, खुद दलित आन्दोलन ने भी साथ नहीं दिया है. अब आदिवासी इलाको में वे अलग थलग ही रहते है लेकिन ये भी हो सकता है के उत्तर पूर्व के सांस्कृतिक ढांचे में वे नहीं फिट हो पा रहे. ए क और क्रूर सच्चाई के समस्या शासक वर्ग द्वारा पैदा की गयी है. ब्रिटिश ने ये काम किया और उनका स्थाई बंदोबस्त करना चाहिए था लेकिन कही पर भी ये व्यवस्था नहीं है. इसका मतलब ये के ब्रिटिश शासन ने उनका पूरा इस्तेमाल किया लेकिन उन्हें सर ढकने के छत की व्यवस्था नहीं की और ये पूरे भारत की कहानी है. जहा भी वे रहे है लोगो की 'कृपा' पे रहे और इस कारण उनका कोई मज़बूत आत्मस्वाभिमान वाला आन्दोलन नहीं चल पाया.
उत्तर पूर्व की परिस्थितिया बिलकुल भिन्न है क्योंकि सफाई कर्मी समाज को अंग्रेज वहां लाये न के शिल्लोंग के लोग इसलिए सांस्कृतिक तौर पर मामला बिलकुल अलग है और इसीलिये मात्र पंजाब और इग्लैंड में हवा बनाकर काम नहीं कर सकते क्योंकि मामला भूमि के स्वामित्व का है. स्वीपर लेन में रहने वाले लोगो का कहना है के उनको १० दिसंबर १८५३ को वहा के राजा और ब्रिटिश शासन के मध्य हुए समझौते में ये जमीन प्रदान की गयी थी लेकिन सरकार और खासी जिला प्रशासकीय कौंसिल अभी इस बात से इंकार कर रहे है. ये समझना भी महत्वपूर्ण है के भूमि का पूरा प्रशासनिक नियंत्रण इस क्षेत्र में अनुच्छेद ६ के अंतर्गत खासी जिला प्रशासकीय कौंसिल के अंतर्गत आता है.
शिल्लोंग टाइम्स की खबर के मुताबिक कल सरकार द्वारा बनाई गई समिति की पहली बैठक हुइ है और जल्दी ही वे इस सन्दर्भ में किसी नतीजे पे पहुंचेंगे लेकिन कुछ सवाल महत्वपूर्ण है जिन पर हमें गंभीरता से सोचना होगा. पहले ये के जो भी सफाई कर्मी वह गए और मुनिसिपल कारपोरेशन में कार्य कर रहे है या रिटायर हो गए है उनके पुनर्वास की व्यवस्था की जाए. बाकि सभी लोगो की भी सम्मानजनक पुनर्वास की व्यवस्था की जाए. वैसे इस मामले में यदि देश में एक भी ऐसा मुनिसिपल कारपोरेशन है जिसने सफाई कर्मियों को इमानदारी से बसाया हो तो मैं उस नगर निगम या महापालिका को नतमस्तक हो जाऊंगा. ये प्रश्न देश के समक्ष है के उन्होंने सफाई पेशे में लिप्त समाज के साथ न्याय नहीं किया है.
एक दो दिन पूर्व एक मित्र ने एक विडियो भेजा और कहा के इसे खूब फॉरवर्ड करो. अमूमन मै इन्हें देखता भी नहीं हूँ लेकिन उस दिन मैंने देखा तो एक नौजवान इस घटनाक्रम को बिलकुल १९८४ के स्वर्ण मंदिर में सेना के हस्तक्षेप से जोड़कर देख रहा था. वो कह रहा के सिखों ने देश के लिए इतनी कुर्बानिया दी है और इसलिए हमें देखना पड़ेगा के देश विरोधी शक्तिया तो ऐसा नहीं कर रही और इनका मुकाबला करना पड़ेगा. बहुत से लोग कह रहे है के मुस्लिम, सिख और अन्य सभी को साथ मिलकर ऐसी शक्तियों का मुकाबला करना पड़ेगा. ये बहुत खतरनाक है और इस घटनाक्रम का अति साधारणीकरण है. हमें उत्तरपूर्व के पूरे ऐतिहासिक परिदृश्य को समझना होगा और आर्याव्रत के नजरिये से उनको देखने के नतीजे बेहद खतरनाक हो सकते है. भारतीय राष्ट्र-राज्य की सवर्णवादी उत्तर-भारतीय अवधारणा जो हमने कश्मीर में लगाने की कोशिश की और अब वही कोशिश हम उत्तर पूर्व में कर रहे है तो इसके परिणाम घातक होंगे.
सर्वप्रथम यह के उत्तर पूर्व में बहुत से राज्य भारत के आजाद होने के पहले तक अलग राज्य थे. उत्तर पूर्व में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में आदिवासियों की सांस्कृतिक विरासत छिपी है इसलिए उसको यदि हम उत्तर भारतीय हिंदी नज़रिए से देखेंगे तो कभी भी नहीं समझ पाएंगे. स्वीपर लेन का मसला सिखों और खासी समुदाय की लड़ाई नहीं अपितु भूमि के स्वामित्व का है. जैसे के मैंने कहा वहा की सरकार को सफाई कर्मचारियों को समस्यों को निपटाने के प्रयास करने चाहिए लेकिन वैसे ही प्रयास देश की हर जगह की नगर पालिकाओ को करने होंगे. मैंने तो कई गाँवों में देखा के जब वाल्मीकि समाज के लोग काम करने से इनकार करते है तो उन्हें गाँव से बेदखल करने की धमकी मिलती है तो क्या कभी कोई राजनैतिक दल उनके समर्थन में आया. पंजाब के अकाली और कांग्रेस दोनों जाटो की पार्टिया हैं जो मजहबी लोगो को आज भी इज्जत के साथ नहीं रख पाते और पंजाब के गाँवों में उनके जातीय बर्चस्व को सब जानते है. इसलिए शिल्लोंग में हुई घटना चिंतनीय जरुर है लेकिन ये कोई 'एथनिक क्लींजिंग' नहीं है क्योंकि न इसमें कोई मारा गया है, न ही किसी को कोई चोट आई है और न कुछ घटा है. हाँ जब ऐसी घटनाएं होती है तो लोगो अपनी रक्षा करने के लिए खड़े होते है लेकिन उसका विडियो बनाकर मसाला लगाकर टीवी चैनल न प्रस्तुत करे तो अच्छा है.
हम उम्मीद करते है के शिलोंग में स्थिति शीघ्र ही नार्मल होगी. मेघालय सरकार इस समस्या का तुरंत समाधान निकाले. जिन लोगो ने अपनी जिंदगी दूसरो की सेवा में लगाईं उनके बारे में तो ये देश सोचने को तैयार नहीं है लेकिन हम मेघालय में रहने वाले साथियो से अनुरोध करेंगे के वे कोशिश करें के इस समस्या का स्थाई हल निकले और जो भी लोग वहा रह रहे है वे रह पायें और दूसरो के लिए एक मिसाल खड़ी करे क्योंकि एक बार शिल्लोंग में सफाई कर्मियों के परिवारों का इमानदारी से पुनार्वाश होगा तो हम देश की दूसरी महापलिकाओ और सरकारों से कह सकते है के वे भी इमानदारी दिखाये और ऐसा करें. आखिर ऐसा क्यों के देश की सफाई करने वाला समाज खुद अनिश्चितता और गन्दगी के ढेर में पडा मिलता है.
उत्तर पूर्व की राजनैतिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक स्थितियों को बिना समझे किसी भी बात पर उसे उत्तर भारतीय हम और उन के बीच में लड़ाने और समझने की कोशिशे किसी काम की नहीं होंगी. ये समझ लीजिये के मेघालय की आबादी का ८५% जनजातीय है और इसलिए यह क्षेत्र उनकी सुरक्षा के लिए संविधान में प्रदत्त विशेष अधिकार कानून के दायरे में आता है. उत्तर पूर्व के सभी इलाको में हमारी एंट्री उनसे बिना पूछे है. आज भी वहा पर आज़ादी के बाद से ही भारतीय सेना का दबदबा है. सामरिक दृष्टि से ये क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण है और इसीलिये इनके सांस्कृतिक वैभव को समझे बिना हम कभी उनकी भावनाओं को नहीं समझ पाएंगे. वहा पर समाज हमारे सड़े गले वर्णवादी समाज की तरह जातिवादी महिलाविरोधी नै है. वे सभी सामूहिकता में रहने के आदि है और एक समाज हम लोगो से बहुत आगे है हालाँकि हमारी सामजिक बुराइया भी उधर अब धीरे धीरे आ रहे है लेकिन फिर भी वे हमसे बेहतर है क्योंकि उन्होंने अपने को बचा के रखा है.
भारत में बहुत से ऐसे राज्य है जिनकी सांस्कृतिक विरासत, सामरिक स्थिति की महत्ता को देखते हुए अन्य राज्यों के लोग वहा पर आसानी से जमीन आदि की खरीदारी नहीं कर सकते और ये इसलिए जरुरी था ताकि उनकी सांस्कृतिक विरासत बच सके और व्यसाय के नाम पर उनका शोषण न हो सके. हमने उत्तराखंड और हिमाचल में दुकानदारी करने वालो को देख लिया है जो हमारे प्राकृतिक संशाधनो, नदी, नालो, गदेरो और पहाड़ो को चूस चूस कर, उसकी बोटी बोटी तक नोच लेना चाहते है. उत्तरखंड में धर्म के धन्देबाजो ने दुकानदारो के साथ मिलकर पर्यावरण का जो नाश पीटा है वो देश के लिए किसी दिन एक भयानक चुनौती पेश करेगा. एक पर्यावरण प्रेमी और उत्तर पूर्वे के सांस्कृतिक विरासत का समर्थक होने के नाते मैं चाहूँगा के उन क्षेत्रो के साथ ऐसा दोहन न हो लेकिन एक ही उम्मीद के जो लोग इतने वर्षो पूर्व वहा पर लाये गए उनके साथ न्याय हो और उन्हें सम्मान सहित पुनर्वासित किया जाए. उत्तर पूर्व से बाहर के क्रांतिकारियों से अनुरोध है के इसे सांप्रदायिक या जातीय रूप न दे तो देश के लिए अच्छा होगा.

Tuesday 29 May 2018

भारत के पहली अम्बेडकरवादी संस्कृत शिक्षिका : कुमुद पावडे


अम्बेडकरी विचारधारा को समर्पित कुमुद पावडे

विद्या भूषण रावत

सर्व प्रथम मै इस आलेख के लिए अपने अम्बेडकरवादी मित्र रजनी तिलक जी का धन्यवाद करना चाहता हूँ के उन्होंने मुझे कुमुद पावडे जी के बारे में जानकारी दी जिसके फलस्वरूप मैंने उनका साक्षात्कार उनके निवास स्थान पर नागपुर में किया.

कुमुद जी का जन्म के फुलेवादी-अम्बेडकरवादी परिवार में नागपुर में १८ नवम्बर १९३८ को हुआ. उनके पिता ज्योति बा फुले के विचारो से बहुत प्रभावित थे और अक्टूबर १४, १९५६ को दीक्षा भूमि के कार्यक्रम में बाबा साहेब की अगुवाई में लाखो लोगो में कुमुद जी और उनके परिवार के सदस्य भी शामिल थे. वह कहती है : उस समय मै १८ वर्ष की थी और स्नातक द्वितीय वर्ष की छात्रा. हम लोग इस वारे में अत्यधिक प्रसान थे . हमें बाबा साहेब के हर आन्दोलन की जानकारी होती थी. ये जानकर हम सभी बहुत गौरवान्वित होते थे के दुनिया का सबसे अधिक पढ़ा लिखा व्यक्ति हमारे आन्दोलन का नेतृत्व कर रहा है. हमने बाबा साहेब को उनके लेखो से जो समता, बहिष्कृत भारत और जनता में छपते थे, के जरिये और अधिक जान लिया था.

कुमुद जी के मामा शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के विदर्भ इकाई के ट्रेजरार थे. उनके विचारों के कुमुद जी की माता जी पर बहुत असर था और अक्सर वह महिलाओं को पढ़ाने के लिए और गरीब बच्चो की मदद के लिए विभिन्न कार्यक्रमों में जाति थी. वह कहते है : हालाँकि मेरे पिता फुलेवादी थे लेकिन वही लोग अम्बेडकरवादी भी होते है. अम्बेडकरवादी लोगो ने ही फुलेवाद का दर्शन जिन्दा रखा है.

वह कहती है, ‘ मै ये मानती हूँ के दलितों में बाबा साहेब के प्रति असीम श्रद्धा है. महिलाओं उनकी आरती उतारती थी. महाड सत्याग्रह के समय से उन्होंने हर आन्दोलन में महिलाओं का एक विंग बनाना शुरू कर दिया था. नागपुर में एक कार्यक्रम में उनको सुनने लगभग पच्चीस हज़ार महिलाए आई. महिलाओं उनकी काल पर कहीं भी जाने को तैयार थी. ऐसा नहीं था के महिलाए केवल उनकी कार्यकर्त्ता थी अपितु महत्वपूर्ण पदों पर भी थी. नासिक की शांता बाई दाने ने शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बड़ा काम किया. महिलाये कार्यक्रमों में आई भी और उन्होंने दूसरो को भी प्रभावित किया.

श्रीमती कुमुद पावडे ने संस्कृत भाषा में स्नात्कोत्तर अध्ययन किया. मेरे लिए ये सवाल बहुत मजेदार था के एक अम्बेडकरवादी बुद्धिस्ट परिवार की महिला का संस्कृत के प्रति लगाव कैसे हुआ. कुमुद जी बताती है, “ हमारे घर के पास एक मंदिर था और उसी के पास एक लाइब्रेरी थी जिसमे बहुत से किताबे थी. वही ‘मैंने’ बाबा साहेब के बारे में बहुत से पुस्तके पढ़ी जिसमे एक में जिक्र था के वह संस्कृत से प्यार करते है लेकिन नहीं पढ़ पाए बस मैंने भी संस्कृत पढने का निर्णय ले लिया. स्कूल में तो कोई दिक्कत नहीं हुई लेकिन स्नातक और स्नात्तकोत्तर के समय उनके ब्राह्मण अध्यापक उन्हें पढ़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं लेते थे. कुछ तो ये साफ़ मानते थे के महार लड़की को संस्कृत से क्या मतलब ये तो केवल ब्राह्मणों का काम है. ये सब वे आपस में बात करते थे लेकिन बावजूद इसके मुझे सबसे अधिक मार्क्स मिले. मैंने टॉप किया. एक ब्राह्मण अध्यापक ने मेरी मदद की और मुझे प्रोत्साहित किया. कुमुद जी बताती है के उनके संस्कृत पढने से केवल ब्राह्मणों में ही नहीं उनके अपने समाज में भी बहुत परेशानी थी. बहुत से बोले, इस मृत भाषा को सीखकर क्या करोगे.

श्रीमती कुमुद पावडे ने ३६ वर्ष तक संस्कृत पढ़ाई. मोरिस कालेज में आज भी लोग उनको याद रखते है. महत्वपूर्ण बात यह के कुमुद जी केवल संस्कृत की ही ज्ञाता नहीं थी उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में भी एम् ए किया.

मेरे लिए ये जानना महत्वपूर्ण था के संकृत भाषा जो ब्राह्मणों के लिए रिज़र्व है, उन्हें कैसे नौकरी मिली. क्या उनके साथ कभी भेदभाव हुआ. इस बात का उत्तर तो और भी मजेदार है. वह बताती है : ‘ मुझे बहुत सी परेशानियों का सामना हुआ. एम् ए करने के दो साल तक भी मुझे कही नौकरी नहीं मिली. समझ आ रहा था के जाति के कारण ऐसा हो रहा है. इसलिए मैंने बाबु जगजीवन राम को पत्र लिखा और बताया के आप तो कहते है के हमारे लिए आरक्षण है लेकिन एक मेरिट वाली छात्रा होने के बावजूद भी मुझे कोई नौकरी नहीं मिल रही. बाबु जगजीवन राम ने वह पत्र तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को फॉरवर्ड कर दिया. कुछ दिनों बात नेहरु जी का पत्र कुमुद जी को प्राप्त हुआ जिसमे उनसे कहा गया के वह डॉ शंकर दयाल शर्मा से बात करें और वह कोई न कोई इंतज़ाम कर देंगे. पत्र में कुमुद के लिए २५० रुपैय्या भी भेजा गया था ताके वह मध्य प्रदेश जाकर इंटरव्यू आदि दे दे. कुमुद जी ये संस्मरण सुनकर मै अवाक् रह गया क्योंकि एक प्रधानमंत्री अपना समय निकालकर आपको पत्र लिखे और उसमे सहयोग राशि भी भेजे. जवाहर लाल नेहरु की पॉपुलैरिटी का क्या राज, आज पता चल गया और शायद इसीलिये संघी मानसकिता के लोग उनसे आज भी डरते है. आज के दौर में तो एक कॉर्पोरटर भी छिट्ठी का जवाब नहीं देते.

कुमुद जी कुछ समय मध्य प्रदेश में कार्य करने के बाद महाराष्ट्र में आई जहा उन्हें अमरावती में कार्य मिला और बाद में उन्हें नागपुर में नौकरी मिली. लेकिन वह कहती है के महारास्ट्र में ये सब इसलिए हुआ के उनकी पति मोती राम पावडे कुनबी जाति से थे जिसके कारण उन्हें नौकरी मिली क्योंकि जब लोगो को उनके महार होने का पता चलता था तो वो फिर बाते बनाने लगते.

कुमुद जी और उनके पति मोती राम पावडे ने प्रेम विवाह किया. दोनों के बीच प्यार मोती राम जी के एक रात्रिकालीन स्कूल में कार्य करने से हुई. एक क्रिस्चियन मिशनरी की प्रेरणा से खोला गया यह स्कूल गरीब महिलाओं को शिक्षा देने के लिए खोला गया. मिशनरी चाहते थे के जो खुद व्यवस्था का शिकार है उन्हें ही इस स्कूल की शुरुआत करनी चाहिए. इनके पति एक फुलेवादी थे और बाबा साहेब से बहुत प्रभावित थे. अपने कालेज में उन्होंने उस दौर में बाबा साहेब आंबेडकर के फोटो लगाया था. वह एक छात्र नेता भी थे.

दोनों में प्रेम के बाद विवाह तक होने में बहुत कठिनाई आई. हालाँकि दो परिवार अम्बेडकरवादी फुलेवादी होने का दावा करते थे लेकिन महार और कुनबी जातियों का होने के कारण उनमे इस विवाह के प्रति बहुत परेशानी थी. कुमुद जी के पिता का उनके हर कार्य के प्रति सहयोग और समर्थन था लेकिन उनके जाति में लोगो में गुस्सा था. जगह जगह बैठके हो रही थी लेकिन उनके पिता ने सभी लोगो को समझा बुझा कर मामला शांत कर दिया लेकिन मोती राम पावडे के परिवार के सदस्य मानने को तैयार नहीं थे. उनके पिता ने इस विवाह को स्वीकार ही नहीं किया हालाँकि उनकी माँ ने अंततः अपने बेटे की खातिर इसे स्वीकार कर लिया.

उनका विवाह वैदिक रीती रिवाज के साथ हुआ क्योंकि बुद्धिस्ट तरीके से विवाह अभी मान्य नहीं हुए थे और कुमुद जी नहीं चाहती थी के इतनी परेशानियों के बाद उनकी शादी भी कोई कच्चे तरीके से हो. उन्होंने एक विवाह पहले भी देखा था जो परेशानी में रहा इसलिए वह हर बात पक्की कर देना चाहती थी. क्योंकि एक परिवार विरोध में था और लोगो ने भी खूब लाठिया और तलवार भांजी इसलिए कुमुद नहीं चाहती थी के विवाह के बाद भी परेशानिया बढे. विवाह अमरज्योति नामक मंदंप में हुई जिसके बुकिंग उनके पति ने की थी लेकिन जब वह के खाना बनाने वालो, काम काजी महिलाओं को पता चला के दुल्हन महार जाति के है तो सभी काम छोड़ कर चले गए. तब खाना बनाने और अन्य सम्बंधित कार्य कुमुद जी के परिवार के सदस्यों ने मिलकर किया.

विवाह तो संपन्न को गया लेकिन हकीकत ये है के उनकी परेशानिया कम नहीं हुइ क्योंकि उनके ससुर ने उनको स्वीकार नहीं किया. उनके बच्चे को हाथ तक नहीं लगाया और उनके हाथो से पानी तक नहीं पिया. उन्हें अपमानित करने का हर तरीका ढूँढा गया लेकिन धीरे धीरे उनकी सास उनके सास खड़ी हुई और अपने पति के खिलाफ भी केस करना चाहती थी लेकिन कुमुद जी बताती है के उन्होंने अपने घर के मामले को अन्दर तक ही सीमित रखा.

महत्वपूर्ण बात यह की बाद में जब कुमुद जी का बेटा डाक्टर बन गया और उसके दादा ने उसके उपलब्धियों के बारे में सुना तो फिर ख़ुशी ख़ुशी अपना लिया. यह बात साबित करती है के सफलता के साथ जुड़ने को हर एक तैयार रहता है.

कुमुद जी कहती है के ‘जाति अभी भी जिन्दा है. लोग आपको सफलताओं के बावजूद भी स्वीकार नहीं करते. आरक्षण तो जातिगत है. हमने धर्म तो बदल दिया लेकिन अपनी जाति को ढोते रहे. मुसलमानों और इस्साइयो में भी दलित है लेकिन बुद्धिज़्म में आने के बाद उपजाति के प्रश्न कम हुए हैं .

आज अम्बेडकरवादी आन्दोलन मज़बूत है और उसमे महिलाए हर जगह भागीदारी कर रही है, इसका उन्हें गर्व है.  वह कहती है , ‘ हमें बाबा साहेब के भाषण पढने चाहिए और उन पर अमल करना चाहिए. आज हम मनुवादियों को जातीय शोषण के लिए तो गाली देते है लेकिन जब महिलाओं का प्रश्न आता है तो हम स्वयं मनुवादी हो जाते है. महिलाये को स्थिति बहुत ही चिंतनीय है.”
वह आगे कहती है : ‘आज दलित महिलाओं को हिन्दू धर्म के खिलाफ लड़ने की आवश्यकता है . हमें पश्चिम के फेमिनिस्म से कुछ नहीं मिलेगा. जो लोग स्त्रीमुक्ति की बात करते है वे हमारे परिपेक्ष्य को नहीं सम्क्झते. अम्बेडकरवादी होने के नाते हमें मानवमुक्ति की बात करनी होगी जो मात्र स्त्रीमुक्ति से कही ज्यादा बड़ा है. मानवमुक्ति का आन्दोलन भगवान् गौतम बुद्धा और बाबा साहेब आंबेडकर ने चलाया था और आज अम्बेडकरवादी महिलाओं को मानवमुक्ति आन्दोलन का नेतृत्व करने की आवशयकता है.. अम्बेडकरवादी होने के कारण हमें सभी की मुक्ति का आन्दोलन करना है.”
कुमुद जी कहती है हमें महिलाओं को कमतर नहीं आंकना चाहिए. महिलाओं को ज्ञान और प्रज्ञा की देने की आवश्यकता है. हिन्दू धर्म उस कपडे की तरह जो पुर्णतः फट चुका है और जिसे पहना नहीं जा सकता और न ही इसे ठीक किया जा सकता है. बेहतर है के इसे उतारकर फैंककर हम नया मार्ग चुने जो धम्म का था और जिसे बाबा साहेब आंबेडकर ने हमें बताया.

कुमुद पावडे जी के आत्मकथा अन्त्स्फोट मराठी में आनंद प्रकाशन औरंगाबाद ने प्रकाशित की है.
वह कहती है के बाबा साहेब के विचार महिलाओं और पुरुषो में भेद नहीं करते. हमें सभी को सम्मान देना चाहिए और जाति उपजाति और लिंग भेद से दूर रहना चाहिए. बुद्धामय भारत के लिए आवश्यक है कम जातियों को ध्वस्त करें और महिलाओ को आगे बढाए.

जब मैंने उनसे पुछा के प्रबुद्ध भारत के लिए क्या बाते आवश्यक है तो कुमुद जी कहती है :
“भारत के प्रबुद्ध राष्ट्र बनने के लिए हमें सभी प्रकार के लोगो की जरुरत है. ये केवल दलितों के अकेले प्रबुद्ध बन्ने से नहीं होगा.  सभी को इसे स्वीकार करना होगा. ये ९७% गैर द्विज आबादी का प्रश्न है जिसमे ५०% महिलाए है. तीन प्रतिशत द्विज जो बदलने को तैयार नही है और जिन्होंने हमारे समाजो के साथ अपना रवैय्या नहीं बदला है और जो अपनी जाति के विशेषाधिकारो को छोड़ने को तैयार नहीं वे हमारे लोग नहीं हो सकते. बुद्ध ने कहा था बहुजन सुखाय बहुजन हिताय और येही हमारा मूल मन्त्र होना चाहिए.”  वह यह भी कहती है के हमें किसी को दुःख नहीं पहुचाना चाहिए और न ही किसी का शोषण करना चाहिए.

कुमुद पावडे जी अक्टूबर १९९६ में रिटायर हुई और नागपुर विश्विद्यालय की डाक्टरल कमिटी की सदस्य थी. वह आल इंडिया प्रगतिशील महिला संगठन की अध्यक्ष है. उन्होंने दुनिया भर की यात्रा की और सेमिनारो और सम्मेल्लानो में हिस्सा लिया है. १९९५ में उन्हें विश्व महिला सम्मेल्लन में बीजिंग में भागीदारी की और २००१ में नस्लभेद के विरुद्ध डरबन सम्मलेन में भी हिस्सा लिया.
कुमुद पावडे जी का जीवन एक उदहारण है के कैसे दलित महिलाए घर के अन्दर और बाहर दोनों तक शोषण झेलती है. उनका जीवन ये भी बताता है के पूर्वाग्रहों से युक्त होकर हम कभी आगे नहीं बढ़ सकते और आपको सामान विचारों के लोग हमेशा मिलेंगे. उन्होंने संस्कृत पढ़ी और पढ़ाई लेकिन अपनी अम्बेडकरवादी बुद्धिस्ट अस्मिता और पहचान से कोई समझौता नहीं किया. न्याय प्राप्ति के लिए उन्होंने बाबु जगजीवन राम से लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु तक को लिखा जो उनके व्यक्तित्व को दर्शाता है के जब आपका उद्देश्य साफ़ हो तो आपको हर वो जगह और दरवाजा खटखटाना पड़ता है जहाँ से न्याय और सहायता की उम्मीद होती है. वह जवाहर लाल नेहरु की प्रशंशक बनी लेकिन अम्बेडकरवादी मिशन को पुर्णतः समर्पित रही. उनके जीवन से यह भी पता चलता है के मात्र अम्बेडकरवादी या फुलेवाड़ी कह् देने मात्र से हमारे ख़यालात नहीं बदल जाते और ये की परिवार आज भी जाति के बन्धनों को तोड़ने ने बहुत दिक्कत महसूस करते है लेकिन फिर भी कुमुद जी जैसे लोगो ने तो जिन्दगो को अपनी शर्तो पर जिया और समाज के हर ‘नॉर्म’ को चुनौती दी और अपने लिए एक मुकाम बनाया. उनके संघर्षो से हम सभी को अपना जीवन आत्मसम्मान से जीने की प्रेरणा मिलती है.