Sunday 13 November 2011

Ambedkarwaad kee chunautiyan



आम्बेद्करवाद की चुनौतिया



विद्या भूषण रावत


देश मे लगातार चल रहे नये किस्म के आन्दोलनो के कारण आज दलित-पिछ्डो मे भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है क्योकि लोग इस बात को समझ नही पा रहे कि इतने बडे जनअन्दोलनो के पीछे कौन ताकते है और आखिर पून्जीवादी मीडिया इस बात को इतना महत्व क्यो दे रहा है. एक प्रख्यात अमेरिकी लेखक का कह्ना है कि मीडिया का वश चले तो वो हमे अपने समाज का ही सबसे बडा दुश्मन बना दे. पून्जी की ये ताकत खबरो को बनाती है और नये नायक पैदा करती है फलस्वरूप जिन प्रश्नो को लेकर समाज़ सन्घर्शरत रहता है वो हाशिये पे फेक दिये जाते है और आप एक नये प्रश्न का जवाब ढूढते रह जाते है.

जब ह्म सन ३० के दौरान बाबा साहेब अम्बेद्कर के गाधी से मतभेदो को देखते है तो अन्दाजा लगाना मुश्किल है कि उन्होने गान्धी  को चुनौती देकर सारे समाज से दुश्मनी मोल ले ली. क्या ह्म सोच सकते है कि अम्बेद्कर को कितने दवाब मे दिन गुजारने पडे होगे जबकि वो अकेले लड रहे थे और उनके साथ अम्बेद्करवादी कह्ने वाले लोग नही थे और हिन्दूवादी शक्तिया उन्हे खलनायक के तौर पर देख रही थी. उन पर ब्रिटिश के साथ समझौता करने के आरोप लग रहे थे लेकिन अम्बेड्कर ने हिम्मत नही हारी और परिस्थितियो के अनुसार निर्णय लिया. उनके कारण गाधी की जान बच गयी लेकिन खुद बकौल अम्बेड्कर इससे दलितो का हित नही था क्योकि वह प्रथक निरवाचन प्रणाली के पक्श्धर थे. एक बात समझने की जरुरत है कि अम्बेड्कर न केवल दलितो का एक नया एजेन्डा दुनिया के सामने रख रहे थे बल्कि उसका समाधान भी रख रहे थे.

आज हमारे सामने सबसे बडी चुनौती यही है कि ह्म सम्स्याये न गिनाये बल्कि समाधान बताये और नये विचारो और विकल्पो पे सोचे. अम्बेड्कर इस बात को समझते थे कि बिना विकल्प दिये हमारे समाज की स्थिति भयावह हो सकती है क्योकि दूसरी पुरातन्पन्थी ताकते समाज को दिग्भ्रमित करने की स्थिति मे है क्योकि उनके पास सशाधनो की कोई कमी नही है और देश का प्रभुत्ववादी वर्ग और उसके बुद्धिजीवी भी बह्ती धारा मे ही हाथ धोना चाह्ते है. वह यह भी जानते थे कि ये सभी लोग वर्ण व्यवस्था के दायरे मे ही अपने समाधान निकलेन्गे और अपने हितो से कोइ समझौता नही करेगे. १९३० मे ही अम्बेड्कर ने कह दिया था कि मै हिन्दु पैदा हुआ जो मेरे बस मे नही था लेकिन मरून्गा एक गैर हिन्दू होकर, और उन्होने बौध धर्म ग्रहण किया और उसके तर्कशील दर्शन और मानववादी दर्शन से दलित समाज़ को एक नया सान्स्क्रितिक दर्शन दिया. यह इसलिये भी जरूरी था क्योकि तब तक अधिकान्श लोग दलित प्रश्न को हिन्दूवादी वर्णवादी खाचे मे ही देखा. अम्बेड्कर न केवल दलितो को एक तर्कशील दर्शन दे रहे थे अपितु एक समाजवादी प्रगतिशील प्रबुध भारत का सपना भी सन्जोये हुए थे जो दलितो, पिछ्डॊ को सामाजिक न्याय दिलायेगा. यह समझन जरूरी है कि अम्बेद्कर न केवल वर्णवादी ताकतो से झूझ रहे थे अपितु पून्जीवादी ताकतो के खेल भी जानते थे. वह जानते थे कि दलितो को ना केवल वर्णवाद से खतरा है अपितु पूजीवादी ताकतो से भी उतना ही खतरा है इस्लिये ही उन्होने भूमि के रास्ट्रीयकरण की बात की और जमीन के पुनर्वितरण के प्रश्न को बहुत महत्व दिया. उनका ये भी मानना था कि सामूहिक खेती को बढावा दिया जाना चाहिये.

यह मै इसलिये लिख रहा हू क्योकि मुझे लगता है कि अम्बेड्करवादी चिन्तन मे मानववादी मूल्यो को किनारे कर हम एक सम्वैधानिक अम्बेद्कर पर ही चर्चा करते है और वह अम्बेड्कर के दर्शन और उनकी क्रन्ति को बहुत छोटा करके आकने जैसा है. आज जब हम अम्बेड्कर की धम्म यात्रा को देखते है तो उनके विशालकाय व्यक्तित्व को समझना आवश्यक है. न केवल उनके बोलने और करने मे कोई फ़र्क नही था अपितु उनका व्याक्तिगत समय भी जनता के लिये समपित था. वह चाहते थे कि अम्बेड्करवादी कहने वाले लोग न केवल स्वयम मे प्रगतिशील हो अपितु दूसरो से बेह्तर हो. और इसीलिये उन्होने बहुत से लोगो को अपने ख्रर्चे से विदेश भेजा ताकि ये लोग वापस आकर अछ्छे पदो पर पहुन्चे और पूरी ईमान्दारी और आत्मविश्वास के साथ अपने कार्य का निर्वहन कर सके. ह्म सोच सकते है के बाबा साहेब ने अकेले कितना जिम्मा उठाया और बहुत से कालेजो के स्थापना की ताकि दलित समाज के सदस्य आगे बढ सके .

अम्बेड्कर की क्रान्ति का ही असर है के आज जिन जातियो ने उनके विचारो को अपनाया वो बहुत आगे निकल चुकी है और जो नही अपना सके वो अभी भी वर्णवादी दायरे मे ही अपने उत्तर तलाश रहे है. कोशिश होनी चाहिये उन सभी को अम्बेद्करवाद के दायरे मे लाने की जो किसी गलतफ़ह्मी के शिकार है. आज अम्बेद्कर को जातियो मे बाट्ने की कोशिश है जो उनके मिशन को कमजोर करेगी. जब ह्म ने मानवादी बॊध व्यवस्था को स्वीकार कर लिया तो फिर से उस जाति धर्म के ढाचे मे क्यो बहस शुरु करते है. य़ाद रहे के बाबा साहेब को ह्म इसलिये याद नही करते के उन्होने हमारा सम्विधान बनाया अपितु उन्होने हमे जीवन जीने  की नयी शैली दी और आत्मसम्मान का मन्त्र दिया.

ईसलिये अब अम्बेड्करवाद को मात्र दूसरो के प्रश्नो का उत्तर देने मे नही अपितु अपने घर को दुरस्त करने मे इस्तेमाल करना होगा. राजनैतिक लडाई से बडी है सान्स्क्रितिक और आर्थिक लडाई और वर्ण्व्यव्स्था के दायरे से बाहर निकलकर यदि ह्म नही आये तो जाति की घुट्न मे परेशान होते रहेगे और सिवाय गाली गलोज़ के कुछ नही कर पायेगे. व्यव्श्था बद्लने की जिम्मेवारी हमारे
ऊपर है कि हम कौन सा रस्ता अख्तियार करना चाह्ते है. केवल ब्राह्मण्वाद को कोसने से काम बनने वाला नही है. हमे नये रास्तो को लगातार तलाशना होगा और नये लेखक, कवि, इतिहास्कार, सन्गीतकार, समाजसेवी, खिलाडी, उद्योग्पति तैयार करने पडेगे ताकि सही मायने मे सम्पूर्ण समाज का विकास हो सके. सत्ता की चाबी राजनीति से ही नही खुलती सन्स्क्रिति और अर्थ तन्त्र को नियन्त्रन करके भी खुलती है. य़दि हमारा समाज इतना परिपक्व हो जाये कि सवाल खडे करना शुरु कर दे और आम्बेद्कर के दर्शन को भली प्रकार से समझ ले तो उसे कोई ताकत नही शोष्ण कर पायेगी.

आज यह समय की माग है कि हम बाबा सहेब के मिश्न को लोक्तन्त्र के मजबूति मानकर अपने समाज़ के सामने चुनौतियो को समझे और उस प्र सकारत्म्क कार्य कर एक नयी दिशा दे. आज हमारे बच्चे हर क्शेत्र मे आगे है और उन्की सफ़लता पे मन्त्रमुग्ध ही नही होना है अपितु उनकी उर्जा को समाज़ के विकास से जोडना है. य़दि हम ऐसा नही कर पाये तो धर्म और पूजी की खतरनाक शक्तिया हमारी युवा पीडी को गुमराह कर डालेन्गी. य़े वो शक्तिया है जिन्हे बाबा साहेब के क्रन्तिकारी चिन्तन से अपनी सन्स्क्रिति के खतरा नज़र आता है. आइये बाबा साहेब के मिशन को आगे ले जाये ताकि २१वि शताब्दी मे आम्बेडकरवादी दर्शन से पूरी दुनिया को लाभ मिले और ब्राह्मणवादी पुरातन्पन्धी ताकतो की करारी हार हो.