Friday 10 January 2014

बौद्धिकता की जाति या जाति कि बौद्धिकता





विद्या भूषण रावत

वह बहुत अच्छा बोल रहे थे और मुद्दतो के बाद दक्षिण भारत में मैंने चक सफ़ेद धोती कुरता में एक बिहारी सख्स को सांस्कृतिक अंग्रेजी बोलते सुना तो प्रसन्नता हुई. उन्होंने लोकायत, चार्वाक, बुद्धा आदि के दर्शन के बारे में बोला। मैं खुश था के क्यों एक गांधीवादी इतना अधिक विद्रोही हो सकता है जो खुद गांधी नहीं थे. खैर मुझे लगा के उन्हें ज्ञान है और वो महज़ लफ्फाजी नहीं कर रहे थे. कार्यक्रम के बाद मैंने उन्हें धन्यवाद दिया के मैं उनके अभिभाषण से प्रभावित हुआ और मैंने कहा हमें बात करनी चाहिए और इसलिए अगले दिन उनसे नाश्ते पर बात करने का समय निर्धारित कर लिया।

अगले दिन जब मिले तो मैंने उनसे अपने राजनैतिक अनुभव बताने को कहा. वह पूर्व सांसद थे और इतना ज्ञान तो आजकल के सांसदो को नहीं है. उन्होंने बताया वो जय प्रकाश नारायण के आंदोलन से जुड़े थे और पहली और शायद आखरी बार संसद जनता पार्टी के समय पर ही बने. वैसे जयप्रकाश के आंदोलन से मैं कभी प्रभावित नहीं रहा और बिहार के बारे में जो मिथ है वो इसे आंदोलन के कारण बना है के बिहार एक 'क्रांतिकारी' जमीन है जो हकीकत में नहीं है. जिस प्रचुर मात्र में ब्राह्मणवाद का दबदबा बिहार में है और उसके त्योहारो और परम्पराओ से वो चला है जेपी ने उस ब्राह्मणवाद को राजनैतिक तौर पर और मज़बूत किया।

खैर मैंने उन्हें बताया के मैं भारत के तर्कवादी मानववादी विरासत में चार्वाक, बुद्धा, आंबेडकर, फुले, भगत सिंह, पेरियार, राहुल सांकृत्यायन, आदि को शामिल करता हूँ. बातो बातो में चर्चा के दौरान उनके कई विरोधाभास नज़ार आ रहे थे. उन्होंने कहा के अब आरक्षण को ख़त्म कर देना चाहिए क्योंकि यह तो केवल दस वर्ष के लिए दिया गया था. मैंने कहा डॉ आंबेडकर ने तो एक आरक्षण की मांग ही नहीं कि थी क्योंकि वह तो पृथक निर्वाचन की मांग कर रहे थे जिसे  पूना  पैक्ट की जालसाजी ने समाप्त कर दिया। आज भी अम्बेडकरवादी मानते हैं के पूना पैक्ट के आभाव में दलित नेतृत्व सवर्णो की मांगो को पूरा करता है और अपने समुदाय की और ध्यान नहीं दे पाता/  मैंने कहा आरक्षण जब ढंग से लागु नहीं होता तो उसे ख़त्म कैसे कर दे ? वह महाशय बोले के उहोने जनता पार्टी के समय इस आरक्षण को बढाने का बिल संसद में रखा और उसका नतीज़ा यह हुआ के वो डेढ़ लाख से अधिक मतों से चुनाव हार गए और उनके समुदाय ने उन्हें कभी वोट नहीं दिया।

वो अपने को लोहिया का शिष्य कहे और आंबेडकर में 'केवल' दलित और आदिवासियों की लड़ाई देखते हैं जबकि लोहिया का द्रिस्तिकोण बहुत विस्तृत था और पिछड़ी जातियों और सवर्णो को भी साथ लेकर चलने का. मैंने कहाँ आंबेडकर का दृष्टिकोण बहुत बृहत्तर है और अंतराष्ट्रीय है उसको समझने की जरुरत है और उनके दर्शन में सभी के लिए आज़ादी है जबकि लोहियावाद गांधीवाद का ही एक शाखा है. ये बात झूठी है के आंबेडकर ने पिछड़ो के लिए कुछ नहीं किया। बुद्धा और आंबेडकर के दर्शन में सबके लिए है और वहाँ लोग अपने जातिगत पूर्वाग्रह छोड़ कर ही आ सकते है.

मुझे धीरे धीरे करके उनके सामुदायिक बड़प्पन का अहसास हो रहा था. मैं समझ चूका था के वो किस समाज से थे.  उन्हें लालू से परेशानी थी. ,मैंने उनसे पूछा के बिहार में भूमि सुधार क्यों नहीं हुआ. जमीने बँटी क्यों नहीं ? वह बोले के अब जमीन कहाँ है ? अब किसानी में कोई लाभ नहीं है और इसलिए लोगो ने अपनी जमीने बेच दी हैं. मैंने कहा कृपया यह बताएं के बिहार में सवर्णो में खासकर भूमिहारो में दलितो के प्रति इतना प्रतिरोध क्यों है. क्या अधिकारो की लड़ाई कोई गुनाह है ? 'देखिये, भूमिहार लोग विद्रोही प्रवति के होते हैं।  वे देश की आज़ादी की लड़ाई में सबसे आगे थे, वे भूदान आंदोलन में भी सबसे आगे आये और जब कम्युनिस्ट पार्टियां आंदोलन कर रही थी तो भी भूमिहार ही सबसे आगे आये/ मैंने कहा शायद आंदोलनो को ध्वस्त करने के ताकतवर जातियों की रणनीति यही है के वहाँ घुस कर उनके नेतृत्व को ख़त्म कर दिया जाए और जाति के प्रश्न को पुरे डिस्कोर्स से गायब करदिया जाए। मैंने उनकी बातो से सहमति जताई और बताया के हम सी पी आई के बिहार और यू पी यूनिट को भूमिहार पार्टी ही कहते थे क्योंकि पार्टी में डालती पिछड़ो के लिए कोई स्थान ही नहीं था और शायद इसीलिये कम्युनिस्ट पार्टियों का यू पी और बिहार से सफाया ही हो गया है।

खैर मैंने पूछ दिया के आखिर भूमिहार लोग दलितो पे इतना अत्याचार क्यों करते हैं और ये रणवीर सेना इत्यादि बनाने की क्या जरुरत है. मेरे बुजुर्ग मित्र  बोले फिर कभी मिलेंगे और चर्चा करेंगे लेकिन जाते जाते कह गए के लालू ने भूमिहारो को छेड़ा इसलिए वो विद्रोही हो गए क्योंकि प्रशाशन उनके विरुद्ध काम कर रहा था. मुझे अभी भी आश्चर्य है के क्या बिहार का प्रशाशन कभी इतनी मज़बूती से ताकतवर जातियों के विरुद्ध गया है  ? क्या कभी रणवीर सेना के मठाधीशो को जेल होगी ? नितीश भी बंदोपाध्याय कमिटी की रिपोर्ट अपने दफ्तर में छुपा के रखे हैं क्योंकि पता है जमीने बाँटने के लिए वो छीननी भी पड़ेगी और अगर ऐसा होता है तो क्या ताकतवर जातियां अपने नेताओ के जरिये आंदोलन नहीं खड़ा कर देंगी। संविधान के पुरे प्रश्न जातिगत अहंकार और आंकड़ो की बाजीगरी में छुप से गए हैं. लोकतंत्र केवल जाति तंत्र में तब्दील हो चूका है और सबसे हासिये पे रहने वाले को केवल झूठ की परोसा जा रहा है. इस पोस्ट के जरिये मैं केवल ये बताना चाह रहा हूँ के ज्ञान की भी जाती होती है और हमारे मित्र ब्रज रंजन मणि की नई पुस्तक नॉलेज एंड पॉवर में बहुत खूबसूरती से उन्होंने ये बताया है. आने वाले दिनों में उनकी पुस्तक का विश्लेषण आपके सामने रखूँगा। इस वक़्त तो इतना ही के भारत का सबसे बड़ा नुक्सान विद्वता के पाखंड और जातीयकरण के कारण से हुआ है. नेताओ से तो आप बच जाओगे लेकिन जातीय पूर्वाग्रहों से युक्त बौध्हिक बेईमानी से लड़ने के लिए एक बेहतरीन विचारिक विकल्प चाहिए और शायद आंबेडकरवाद भारत के सन्दर्भ में वो विकल्प दे सकता हैं.