Wednesday 7 August 2013

अनारक्षित सीटो को सवर्णों की बना देना गैर संवैधानिक


विद्या भूषण रावत 

क्या कँवल भारती की गिरफ़्तारी की निंदा केवल इसलिए नहीं करनी है के इससे 'बहुजन' शाशन बदनाम हो रहा है और 'ब्राह्मणवादी' अफसरशाही ताकतवर हो रही है. लेकिन ऐसा करने में एक गलती के बाद दूसरी गलती करने वाले लोग कौन हैं ? उत्तर प्रदेश की  सरकार ने प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा आरक्षण के मुद्दे को जिस बेशर्मी से दबाया है वो निंदनीय है . जिस  तरीके से ओबीसी छात्रो की आन्दोलन को दबाने और तोड़ने की कोशिश की है वो सबके सामने है. क्या प्रदेश की सेवाओं में आरक्षण को शुरूआती दौर से लागू नहीं किया जाना चाहिए। अगर प्रदेश के प्रशाशनिक सेवाओं में आरक्षण प्रारंभिक परीक्षा से लागू नहीं हुआ तो  इंटरव्यू तक कैसे २७ प्रतिशत का कोटा तैयार होगा। इसलिए उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग ने जो निर्णय लिया था वो सही था लेकिन प्रदेश के सरकार ने वो निर्णय  लिया। प्रदेश के पिछड़े वर्ग के छात्रो के साथ इससे बड़ी कोई धोखाधड़ी नहीं हो सकती।

आज लोगो को समझाने की आवश्यकता है की आरक्षण की ऐतिहासिकता क्या है. बिना इतिहास जाने हम संघर्ष नहीं कर सकते।   इस बात की के 'जनरल' या 'सामान्य' कही जानी वाली सीटो का मतलब क्या है . भारत में रिजर्वेशन व्यवस्था लागू है रिप्रजेंटेशन नहीं जो बाबा  साहेब आंबेडकर की मुख्या मांग थी.  अतः सामान्य सीटो का मतलब सवर्णों की सीटें नहीं हैं अपितु इनका सीधा मतलब है अनारक्षित सीटें और इस पर सभी का हक है. इसलिए जो भी पिछड़ा, दलित या आदिवासी छात्र सीधे मेरिट पर उन सीटों पर निकलता है तो उसको वहां से हटाकर उनके कोटे में डालना अस्म्वैधानिक है और उसको चुनौती दी जानी चाहिए हालाँकि  अभी भी मुझे न्यायालयों के सामाजिक परिवर्तन के मसलो पर ज्यादा भरोषा नहीं है लेकिन संसद इसमें काननों बनाकर राज्यों को गाइड कर सकती है. 

साधारण भाषा में देखें तो जनरल डिब्बे में ज्यादा भीड़ होती है और आरक्षित में कम और जनरल में जो दम ख़म वाले होते हैं वे ही बैठ पाते हैं और इसलिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी ताकि आर्थिक और शैक्षणिक रूप से कमजोर लोगो के लिए विशेष व्यवस्था हो लेकिन अब इस समाज से भी लोग अनारक्षित कोच में बैठ सकते हैं क्योंकि वे लगातार मेहनत कर रहे हैं और आगे निकल रहे हैं लेकिन यही बात जातिवादियों को हज़म नहीं हो रही है. बात समझाने की है और अधिक नौकरियां पैदा करने की भी है. बात यह भी है की केवल नौकरियों में ही हमारा भविष्य है या हम बिज़नस और अन्य कार्य भी कर पाएंगे या नहीं . क्योंकि आने वाले दिनों में यह सरकारी नौकरियां मृग मरीचिका हो जायेंगी क्योंकि इसका भी इंतज़ाम हो चूका है इसलिए लोगो को आपस में भिड़ा लिया जाएगा लेकिन जब तक सरकार है वहां के लिए नौकरियां भी चाहिए होंगी और आरक्षण की व्यवस्था भी क्योंकि उसके ऐतिहासिक परिपेक्ष्य हैं. अफ्सोश्नाक यह है के सामाजिक न्याय के लम्बरदार कहलाने वाले लोग इस मुद्दे पर हाथ लगाने को तैयार नहीं है और इसका नतीजा है उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ने अपना निर्णय वापिस ले लिया है. 

एक ग़लतफ़हमी जो हर वक्त फैलाई जा रही है वह यह है के ५० प्रतिशत अन्नारिक्षित सीटें सवर्णों की हैं और दलित पिछड़ी जाती के बच्चे नहीं आ सकते। पहले आरोप लगाया जाता था के दलित और पिछडो में मेरिट नहीं और ब्राह्मणवादी मानसिकता के लोग यह भ्रम फैलाते थे के १५ प्रतिशत वाले ९० प्रतिशत वाले के ऊपर हावी है और यह के मेरिट का सत्यानाश हो रहा है लेकिन पिछले कुछ वर्षो से दलित पिछड़े छात्र सभी परीक्षाओं में बहुत अच्छा कर रहे हैं और मेरिट में टॉप पर भी हैं तो जातिवादियों ने नया सगोफ्फा छेड़ दिया है के आरक्षण ५० तक है लेकिन वे यह भूल रहे हैं के जो दलित पिछड़े सामान्य सीटो से आ रहे हैं वे आरक्षित नहीं है। लेकिन हमारे न्यायालयों और नेताओं ने ५०% सामान्य करके ऐसा भ्रम फैलाया जिसका पर्दाफास करना जरुरी है. जातिवादी दिमाग के लोग बाते  फ़ैलाने,कहानियां बनाने और अफवाहें फ़ैलाने में माहिर हैं और इसलिए हमें अपनी बात को तथ्यों के साथ रखनी होगी।

अगर आरक्षण को प्रतिनिधत्व मान लिया जाए तो सवर्णों की परेशानियां बढ़ सकती हैं क्योंकि फिर तो 'जिसकी जितनी संख्या भारी  उसकी उतनी भागीदारी ' का सिद्धांत चलना चाहिए और उनका कोटा १५ प्रतिशत से भी नीचे चला जायेगा और दलित बहुजन आबादी को ८५ प्रतिशत से ऊपर शेयर देना पड़ेगा। धयान देने वाली बात यह है के सवर्णों में भी यह जांच का विषय आएगा के कौन सी जाती मलाई खा रही है. अक्सर दलित पिछडो की कुछ एक जातियों पर आरोप लगते हैं के एक या दो जातियां की आरक्षण की  मलाई खा रही हैं लेकिन यह आरोप अनारक्षित सीटो पर जनरल की नाम पर सवर्णों की जो जातियां खा रही हैं उक इतिहास सबको पता है और हमारे साथियों को उस पर भी काम करना चाहिए ताकि वहां भी जिनको अधिकार नहीं मिला उनकी बात आ सके. 

इसलिए अगर बात आरक्षण की करनी है तो अनारक्षित सीटो को सवर्णों की सीटो में बदलने की साजिश की कड़ी निंदा करनी होगी और इसके विरूद्ध  और यदि इससे भी उनके परेशानी है तो सत्ता में जनसँख्या के हिसाब से शेयर दे दिया जाए समस्याओ का समाधान हो जायेगा।

अभी तो उत्तर प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री और उनके परिवार के सदस्य सरकारी बाबुओ से भिड रहे हैं और आरक्षण आदि के मुद्दे से उन्हें कोई मतलब नहीं है क्योंकि वे जानते हैं के जब चुनाव आएगा तो जातीय निष्ठाएं काम आ जाएँगी और उनका कोई कुछ नहीं बिगड़ पायेगा। कितनी बड़ी त्रासदी है इस लोकतंत्र की के यह जाति के चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल पा रहा और सामाजिक परिवर्तन की पूरी लड़ाई को इसी खांचे ने रोक दिया है अगर उससे बहार निकलना है तो अपने नेताओं और सरकारों से सवाल करने पड़ेंगे . दुर्गा नागपाल को मीडिया महान बना रहा है और वोह ऐसा करेगा लेकिन कँवल भारती की क्या गलती के उन्हें जेल जाना पड़ा क्या केवल इसलिए उत्तर प्रदेश की सरकार की  आलोचना न की जाए के वोह 'बहुजन' की सरकार है. क्या बौद्धिकता को हम कैद कर दे और फिर तुलनात्मक अध्यन करेंगे . गलत को गलत कहना पड़ेगा। अफ़सोस  हमारे बहुत से साथी या तो चुप हैं या किन्तु परन्तु लगाकर बोल रहें हैं। चलिए जिनकी राजनैतिक या जातीय मजबूरियां हैं हम उन्हें कुछ नहीं कहेंगे क्योंकि  सबको अपना कल की चिंता होनी चाहिए खैर हमारे यहाँ तो ऐसा नहीं है क्योंकि हमने तो लड़ने का वादा किया और साथ खड़े होने का भी इसलिए जो अपने अधिकारों के लड़ रहे हैं उनको हमारा सलाम। 

Tuesday 6 August 2013

कँवल भारती की गिरफ्तारी उत्तर प्रदेश सरकार की हताशा



विद्या भूषण रावत 

आज सुबह जब कँवल भारती जी की गिरफ्तारी की खबर पता चली तो अंदाज लग गया के उत्तर प्रदेश में कैसी सरकार  चल रही है. जिन लोगो ने आपातकाल में इंदिरागांधी की निरंकुशता का विरोध  किया और जो अपनी 'महानता' के गुणगान किये फिरते हैं वेही आज बिलकुल निरकुंश और तानाशाही की और अग्रसर दिखाई दे रहे हैं और किसी भी प्रकार की वैचारिक भिन्नता को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. 

सबसे  पहले तो वह सोशल मीडिया को गरियाते हैं और कहते हैं के इसकी कोई ताकत नहीं है और यह केवल बद्बोलो का आपसी वार्तालाप है, इनका दुनियादारी और ग्रास्स्रूट्स से कोई मतलाब नहीं लेकिन सपा जैसी ग्रामीण परिवेश में ढली पार्टी यदि फेसबुक अपडेट से घबरा गयी तो मतलब साफ़ है के हम सही रस्ते पर चल रहे हैं. मतलब यह भी की सोशल मीडिया से लोगो में खासकर मीडिया और  राजनैतिक  दलों  में घबराहट है क्योंकि इसकी पहुँच को वे जानते हैं और यह के आज ये ओपिनियन मेकर का काम कर रहा है और लोग खबरों को जानने के लिए अखबार जरुर पढ़ते होंगे लेकिन विचारों के लिए वह अब सोशल मीडिया की और रुख कर रहे हैं. इसलिए हमें तो ख़ुशी होनीचाहिए के सरकार में बैठे लोग सोशल मीडिया को गंभीरता से ले रहे हैं. 

आखिर  कँवल जी के अपडेट में ऐसा क्या था के कोई दंगा फसाद होने के चांसेस थे जैसा की पुलिश की ऍफ़ आई आर कहती है ? क्या कंवलजी ने किसी को माँरने की धमकी दी  या किसी धर्मस्थल को तोड़ने की या किसी की दिवार गिराने की कोशिश की जो उन पर लोगो को भड़काने के आरोप लगाए गए हैं. मुझे उम्मीद है कभी सुप्रीम कोर्ट इस बारे में निर्देश करेगा की सत्ताधारियों को  आने वाले  समय में सोशल मीडिया को कैसे हैंडल  करना चाहिए।

असल में सत्ताधारी तिलमिला गए हैं और वोह किसी भी प्रकार की आलोचना को स्वीकार नहीं कर पा रहे है. टी वी स्टूडियो में बैठे  बड़े पत्रकारों को वो हाथ भी नहीं लगा सकते जो सबह शाम अखिलेश के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं और पुरे राजनैतिक तंत्र को गेरुआ बनाने की कोशिशो में  लगे हुए हैं  और दुर्गा नागपाल के बहाने जिस तरीके से सरकारी बाबु लोगो और मीडिया का नया गठबंधन दिखाई दे रहा है उससे धर्मनिरपेक्ष जातिविरोधी अम्बेडकरवादी प्रगतिशील ताकते ही लड़ सकती हैं लेकिन मुलायम सिंह यादव की पार्टी के अति उत्साहित नेताओं ने कँवल भारती जैसे साहित्यकार को  सबक सिखाने की जो कोशिश की है वोह उनकी पार्टी को भारी पड़ेगी और इसका लाभ हिंदुत्व की सेना लेने की कोशिश करेगी . 

समाजवादी पार्टी को सेकुलरिज्म से कोई मतलब नहीं वो तो उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की 'सुरक्षा' की लम्बरदार है और इसलिए वह हर एक ऐसा काम करेगी जहाँ यह दिखाई दे के मुसलमानों का 'भला' हो रहा हो चाहे वह सचर आयोग की सिफ़ारिशो को लागु करे या नहीं। वोह बताये की उत्तर प्रदेश पुलिश और प्रशाशन में कितने मुसलमान हैं ? असल में इस प्रकार के घटनाक्रम मुसलमानों का लाभ कम और हानि ज्यादा करते हैं क्योंकि वो सांप्रदायिक ताकतों को और मौका देते हैं लेकिन मुलायम और उनकी पार्टी भी मुसलमानों की राजनीती की करती है लेकिन अफ़सोस के देश के १५-२० करोड़ मुसलमानों में उसे जनता में काम करने वाले इमानदार मुस्लिम नेता नहीं दिखाई देते ?

कँवल भारती की गिरफ्तारी की कड़ी निंदा की जानी चाहिए और लेखको, साहित्यकारों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को सड़क पर आना होगा क्योंकि सत्ताधारी अब साम दाम दंड भेद की रणनीति की अपना रहे है. उनका टारगेट आम आदमी है और वे उनको डरा धमका कर उनका मुह बंद करना चाहते हैं. अभिव्यक्ति की आज़ादी पर इतना खतरा कभी नहीं था जितना आज दिखाई देता है और आज साथ खड़े होने का वक़्त है, आज लोहिया को याद करने का वक़्त है और उनकी क्रांतिकारी बात को भी बताने का वक़्त है के सोशल मीडिया के समय में जनता 'पांच साल इंतज़ार नहीं करेगी'. अब धैर्य रखने का और चुप रखने का वक़्त नहीं, जुबान  खोलनी पड़ेगी। हम सब अभिव्यक्ति की आज़ादी इस संघर्ष में साथ साथ हैं। 

Monday 5 August 2013

सांस्कृतिक बदलाव के बिना राजनैतिक परिवर्तन बेकाम का



विद्या भूषण रावत 

७ अगस्त १९९० को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने संसद में घोषणा की के मंडल आयोग की सिफारिसो को सरकार ने स्वीकार कर लिया है और अन्य पिछड़े वर्ग के लोगो के लिए २७% आरक्षण लागु किया जायेगा। घोषणा का सर्वत्र स्वागत किया गया और बात बीत गयी. १५ अगस्त को प्रधानमंत्री ने आंबेडकर जयंती पर सार्वजानिक अवकाश की घोषणा की . उससे पहले वह १२ अप्रेल १९९० को बाबा साहेब आंबेडकर चित्र को संसद में सम्मानपूर्वक स्थान दिला  चुके थे और उन्हें भारत रत्न से सम्मानित करने का फैसला किया। इसी वर्ष बाबा साहेब की जन्मसदी को भारत सरकार ने बहुत धूम धाम से मनाया और आंबेडकर सह्हित्य को हिंदी में प्रकाशित करवाने के लिए प्रयास किये. इसी वर्ष नव्बौधो को अनुसूचित जाति के आरक्षण में शामिल किया गया. यह  मैं इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि अक्सर मंडल आयोग की सिफरिसो को लागु करने के लिए भी हमारे बहुत से 'महात्मा' विश्वनाथ प्रताप सिंह को श्रेय नहीं देना चाहते। कुछ कहते हैं के यह एक राजनैतिक निर्णय था जो देवीलाल से टकराने के उद्देश्य से लिया गया लेकिन बात यह है के हर चीज में राजनीती होती है और इसलिए यदि मंडल का निर्णय गलत नहीं था तो मुलायम को देवीलाल के साथ देने की जरुरत नहीं थी लेकिन उन्होंने ऐसा ही किया और वह मंडल के धुर  विरोधी चंद्रशेखर के पास चले गए. मैं यह मानता हूँ के चाहे कैसे भी यह निर्णय लिया गया यह भारत की राजनीती में एक दूरगामी परिवर्तन लाने वाले ऐतिहासिक निर्णय बना

मेरे कहने का मतलब  यह है के स्वाधीन भारत में यह एकमात्र ऐसे सरकार थी जो वाकई में दलित पिछडो और आदिवासियों के हितो के प्रति सोच रखती थी और इसलिए उसके हरेक निर्णय न केवल गहन संकेतो वाले थे अपितु उन्होंने लोगो में गहरी छाप छोड़ी। क्या यह हकीकत नहीं है के स्वाधीनता के  गुजरने के बाद भी सरकारों ने बाबा साहेब आंबेडकर को वोह स्थान नही प्रदान किया जिसके वे हकदार थे और उनके साहित्य जो जनता से छुपाया गया. इसलिए विश्वनाथ प्रताप और उनकी सरकार को मात्र मंडल से न जोड़े अपितु उनके एक्शन की हकीकत को समझने की जरुरत है जिसने भारत की राजनीती में दूरगामी परिवर्तन ला दिया है. 

मंडल ने विश्वनाथ प्रताप को भारत की राजनीती का सबसे बड़ा खलनायक बनाया और उनके सबसे शुभचिंतक भी उनके दुश्मन हो गए. वोह लोग जो उनकी इमानदारी पर कसीदे पढ़ते थे वो एकदम उनके विरोध में खड़े हो गए. इससे यह बात भी जाहिर होती है के ऊँची जाति की 'विशेषज्ञ' कभी भी इमानदार लोगो के  साथ नहीं खड़े रहे क्योंकि अगर जातीय सर्वोच्चता और ईमानदारी में एक को चुनना हो तो वे जातीय सर्वोच्चता को चुनेंगे और इसलिए विश्नाथ प्रताप उनके सबसे बड़े दुश्मन हो गए और उनकी मौत तक उन्हें सवर्ण हिन्दुओ की गालियाँ पड़ी लेकिन इतना सत्य है आने वाली पीढियां  जब भी इतहास इतिहास का आंकलन   करेंगी तो  विश्वनाथ प्रताप की ऐतिहासिक भूमिका को नज़रंदाज़ नहीं कर पाएंगी। 

मंडल के महिमंडल को कम करने के लिए ही  लाल कृष्णा अडवाणी और संघ परिवार ने अपनी कुत्सित रणनीति भी बना ली और रथयात्री ने सोमनाथ से अयोध्या तक की यात्रा करने का निर्णय लिया और खुले तौर पर अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की घोषणा की. यह बात में साफ तौर पर कहना चाहता हूँ के संघ परिवार का निशाना मुसलमानों पर जरुर था लेकिन उनके असली निशाने परे दलित पिछड़ी जातियां थी क्योंकि मंडल के बाद इन जातियों में आपसी तालमेल बढ़ रहा था वोह ब्राह्मणवादी शक्तियों के लिए खतरनाक था. संघ को पिछडो को नौकरियों में आरक्षण से कुछ खतरा नहीं था उन्हें  असली डर था दलित पिछडो के हाथ दिल्ली की सत्ता की आने से \. मंडल विरोध में दिल्ली और अन्य नगरो में पाखंडी हिन्दुओ का जो नाटक हुआ उस पर मुझे ज्यादा बोलने की जरुरत नहीं लेकिन उसने ये साबित किया हिन्दुओ के लिए दलित और पिछड़े उनकी जनसँख्या बढाने के आलावा कुछ नहीं। जब सत्ता में बदलाव की बात आती है तो सवर्ण हिन्दू तिलमिलाने लगते हैं और उनकी इन उलजलूल हरकतों को जातिवादी स्वर्न्वादी मीडिया ने जिस तरीके से प्रचार किया उससे पता चलता है के यह हिंदी अखबार नहीं अपितु हिन्दू अख़बार बन गए थे. 

दलित और पिछडो के आत्म स्वाभिमान जागने से संघ और उनके मठाधिशो की दूकान बंद होने का खतरा था इसलिए हिन्दू स्वाभिमान ने नाम पर राम मंदिर का आन्दोलन चला और मुसलमानों को निशान बनाकर दलित पिछडो के अन्दिर अस्मिता की लड़ाई को दबाने की कोशिश हुइ लेकिन वोह कामयाब नहीं हुई. उत्तर प्रदेश और बिहार ने मंडल के बाद नई शक्तियों का उदय देखा और उनसे उम्मीद की गयी थी के वे अस्मिता की इस जंग को आगे  ले जायेंगे और समाज को नई दिशा देंगे। मुलायम ने कभी मंडल का समर्थन नहीं किया और उसको लागु करवाने में भी वी पी को बहुत मशक्क्त  करनी पड़ी. 

विश्वनाथ प्रताप की सरकार अयोध्या में हिन्दू आतंकवादियों के उन्माद से बाबरी मस्जिद को बचाने में कामयाब रही लेकिन उसे अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी . उस सरकार ने समझौता परस्ती नहीं की इसलिए वो चली नहीं। यह एक दुखद सत्य है के वह सरकार संविधान को बचाकर चली गयी लेकिन उसके बाद की सरकारों ने संविधान के साथ खिलवाड़ किया और  तब भी बेशर्मी से चलती रही. 

मंडल के नाम पर मलाई खाने वाले राजनीतिज्ञों ने मंडल की क्रांति को रोका है इसलिए समय आने पर जनता उनसे हिसाब लेगी। मंडल  सामाजिक न्याय का राजनैतिक हथियार है जो जातिगत अस्मिता की राजनीती तक सीमित नहीं किया जा सकता। मंडल भारत के अन्दर प्रभुत्ववाद की राजनीती को समाप्त करने का सबसे बड़ा साधन है इसलिए यदि मंडल की राजनीती से उपजी पीढी  प्रभुत्ववाद और परिवारवाद की सबसे बड़ी पोषक होगई तो वोह केवल अमंगल करेंगी और अमंडल भी. नतीजा सामने है. बिहार और उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय के नाम पर जातीय पूर्वाग्रहों का खुला खेल दिखाई दिया और जो ताकत प्रभुत्ववादियों को समाप्त करने में लगनी चाहिए थी वोह दलितों के विरोध में चली गयी जो बेहद शर्मनाक है. मामला केवल यही तक सीमित नहीं रहा मौका परस्ती देखिये तो पिछडो को भी आरक्षण के नाम पर धोखा दे दिया गया. 

क्या मंडल के सही वारिस कभी दलित विरोधी हो सकते हैं और क्या उन्हें ऐसा होना चाहिए।मंडल की मार में सबसे ज्यादा गालियाँ वी पी, राम विलास पासवान और शरद यादव को पड़ी और मंडल की लड़ाई में सबसे आगे दलित थे . उस वक़्त तक पिछड़ा आन्दोलन और नेतृत्व ना के बराबर था इसलिए सडको पर दलितों ने लाठी  डंडा खाया। यह इसलिए लिखना पड़ रहा है क्योंकि उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ने जिस बेशर्मी से पदोन्नतियों में आरक्षण के विरूद्ध संसद में बदतमीजी की और उसके बाद उत्तर प्रदेश के जातिवादी सरकारी कर्मचारियों को दलित कर्मचारियों के विरुद्ध खड़ा किया उसकी मिसाल देते नहीं बनेगी . यह निहायत ही घटिया और तुच्छ राजनीती का प्रतीक थी. हमें  अखिलेश यादव से बहुत उम्मीदे थी लेकिन लगता है के कई चाचाओं और दाद्दाओ के चलते वो कोई भी स्वतंत्र निर्णय लेने में असमर्थ हैं . दलितों के आरक्षण के मसले को पिछड़ी जातियों की घृणा में बदलना शर्मनाक था और यह केवल आरक्षण तक ही सीमित नहीं था गाँव में दलितो को धमकाना और गरियाना एक धंधा बन गया. लेकिन दलित बहुजन प्रश्नों को यदि सही समझ हम रखते हैं हैं तो पिछडो को भी पता चल गया के वर्तमान सरकार आरक्षण में पिछडो को न्याय नहीं दिल पाएगी। लेकिन वो जानती हैं के जाति उसके साथ है और यही हमारी सबसे बड़ी हार है . जातिवाद बहुजन आन्दोलन को ले डूबेगा इसलिए अब जाती के खूंटो को काटकर सांस्कृतिक क्रांति की भी जरुरत थी. बाबा साहेब आंबेडकर का प्रबुध भारत का सपना केवल दलितों के लिए ही नहीं था वोह पिछड़ी जातियों और न्य सभी पर भी लागू होता है और बुद्धा केवल एक  वर्ग या जाति विशेष के नहीं थी अपितु दुनिया को भारत की सबसे बड़ी धरोहर हैं और यदि बहुजन समाज भी बुद्ध से कुछ प्रेरणा ग्रहण करेगा तो कोई बुराई नहीं है क्योंकि सांस्कृतिक क्रांति के आभाव में बहुजन समाज ब्राह्मणवादी  परम्पराओं का सबसे बड़ा पोषक रहेगा और बदलाव की दिशा का सबसे बड़ा रोड़ा।

पिछड़ी जातियों के राजनैतिक चिंतन में यदि आंबेडकर फुले पेरियार नहीं तो वोह अवसरवादी मनुवादी जातिवादी राजनीती ही करेंगी और उसका पूरा शिकार दलित और अति पिछड़ा होगा। मंडल ने प्रभुत्ववाद को खत्म किया अतः इसके जरिये यदि फिर से प्रभुत्वाद पैदा होगा तो अन्य जातियां विद्रोह करेंगी। राजनैतिक समझ के चलते लोग और जातियां प्रभुत्ववादी और वर्चस्वादी विचारधारो को छोड़ेंगे और इसलिए ही इतने नए दल और  नेता आ रहे हैं. मैं साफ कहना चाहता हूँ के सांस्कृतिक परिवर्तन में उनको भी लगना  पड़ेगा नहीं तो उनकी स्थिति मनुवाद के 'स्वयंसेवक' की होगी ।

जिस दिन सभी वर्गों में राजनैतिक चेतना होगी और सांस्कृतिक परिवर्तन आ गया तो वोह हिंदुत्व के छिपे अजेंडे को पहचान सकेंगे क्योंकि 'अस्मिता' के मनोविज्ञान को सबसे पहले संघ परिवार समझा इसलिए राम मंदिर आन्दोलन के लिए ईंटे  चुनने का काम दलित पिछडो को सौंपा गया और आंबेडकर भी 'प्रातः स्मरणीय' हो गए. अब यह कौन बताये की आंबेडकर ने तो राम और कृष्ण की पहलियों को अछ्छे से बुझा। इसलिए संघ और हिंदुत्व उन  अंतरविरोधो पर अपनी राजनीती करते हैं जो इस वर्णवादी व्यवस्था की देंन हैं और इसीलिये  एक के बाद एक 'सांस्कृतिक' क्रांति के लिए पिछड़ी जाति  के बाबाओं की कतार लग गयी जो हमारी राजनैतिक चेतना को खत्म करने के लिए काफी है . किसी भी समाज की राजनैतिक चेतना को खत्म करने के लिए उसे विचारारिक रूप से पंगु बनाने के लिए उसके हाथ में कमंडल पकड़ा दो और धर्म की ढकोस्लेबाजी में उसको फंसा दो ताकि वह उससे बाहर न निकल सके. जिस  समाज में राजनैतिक चेतना का अभाव होगा तो वोह कभी भी बदलाव नहीं ल सकते  इसलिए मंडल का आन्दोलन केवल जातिवादी नहीं हो सकता बल्कि सांस्कृतिक राजनैतिक क्रांति का एक बहुत जबरदस्त हथियार बन सकता है और उस हथियार को मजबूत करने के लिए बहुजन समाज के सभी लोगो को वैचारिक परिवर्तन की लड़ाई भी लडनी पड़ेगी और उसके लिए भारत की अर्जक और मानववादी चेतना के सारे योध्धाओ को अपना नेता मानना पड़ेगा और अपनी जाति के ब्राह्मणवादी नेताओं और परिवारों के विरूद्ध  बगावत करनी पड़ेगी। अब समय आ गया है एक नयी राजनैतिक पहल का जो दलित पिछडो आदिवासियों मुसलमानों और अन्य संघर्षशील अन्दोलनो की एकता का जो भारत की विविधता का सम्मान करे और हमारे धर्मनिरपेक्ष और  समाजवादी संविधान  को मज़बूत करे, आदिवासियों, दलितों और अन्य लोगो के जल जंगल और जमीन के  अधिकारों को  बचा सके. आज के पूंजीवादी व्यवस्था ने पहले ही सरकार का  हस्तक्षेप  ख़त्म कर दिया है और समाज के अर्जक तबको को सबसे मुश्किल हालातो में डाला है. पूंजी के वर्चस्व ने एक नए प्रभुत्व को जन्मदिया है और हमारी वर्तमान राजनैतिक दल इससे निपटने में पूर्णतया फ़ैल रहे है क्योंकि की पूंजी और पैसे के आगे वे भी घुटने टेक चुके हैं. इसलिए मंडल को इस सन्दर्भ में देखना पड़ेगा के हम हर प्रकार के प्रभुत्ववाद का विरोध  करेंगे और सत्ता में सबकी भागीदारी के लिए संघर्ष करते रहेंगे . मंडल की ताकते  धार्मिक प्रतिक्रियावादी ताकतों का जमकर विरोध करेंगी और भारत को एक प्रगतिशील भारत बनाने के लिए न केवल सत्ता और राजनैतिक परिवर्तन को  हथियार बनायेंगी अपितु सांस्कृतिक परिवर्तन की लड़ाई भी लड़ेंगी क्योंकि उसके आभाव से में वे हमेशा अपनी पहचान के संकट से गुजरती रहेंगी। अभी तो बस इतना ही की मंडल दिवस अब सामाजिक न्याय ही नहीं सामाजिक परिवर्तन का दिवस बने यही कामना है