Tuesday, 13 November 2012

सांस्कृतिक पुनर्जागरण का आवश्यकता 

विद्या भूषण रावत 

तमिलनाडु के धर्मपुरी जिले में वहां की ताकतवर वन्नियार जाति के लोगो ने दलितों के घर पर हमला कर लगभग 300 परिवारों के घरो को पूरी तरह से तहस नहस कर दिया। एक गाँव के दलित युवक के साथ वन्नियार जाती की एक लड़की के प्रेम विवाह के बाद यह घटना घटी। विवाह के बाद लड़की लड़का एक साथ अपने घर में रह रहे थे जब वन्नियार जाती की एक पंचायत ने निर्णय लिया के लड़की को अपने पिता के वापस आ जाये लेकिन ऐसा नहीं हुआ। लड़की के पिता इस से बहुत आहात हुए और उन्होंने फांसी लगाकर आत्महत्या कर डाली। इसके बाद तो जैसे तूफान खड़ा हो गया। वन्नियार लोगो ने दलित के घरो पर हमले शुरू कर दिए और पुलिस के बावजूद हिंसा जारी रही। सभी दलित, जो आदि द्रविदा जाति  के थे, उन्हें अपने घरो से भागना पड़ा . दिव्या और उनके पति भी अपने घर से भाग चुके थे नहीं तो उनके साथ क्या स्थिथि होती इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। रास्ट्रीय दलित आयोग के सदस्य भी वह गए और उस हिंसा को प्रायोजित बताया।

इस घटना के कई पहलु हैं और उन पर विचार करना चाहिए। तमिलनाडु ने गैर ब्राह्मणवाद के नाम पर बड़ी राजनीती हुयी है और उसके फलस्वरूप बहुत बड़ी पिछडी जातियों को सत्ता पर भागीदारी भी मिली . स्वंतंत्रता के बाद तमिलनाडु पिछड़ी जातियों के नाम पर राज कर रही पार्टियों के चंगुल में रहा हैं। उन्होंने बहुत अच्छे काम भी किये होंगे लेकिन दलित अस्मिता के प्रश्न पर तमिलनाडु के पिछडो ने दलितों के साथ बहुत  ही हिंसक वर्ताव किया है।  दलित अस्मिता के प्रश्न को हिंसक तरीके से दबाया गया है।

वन्नियार एक ताकतवर पिछड़ी जाति हैं और पी एम् के नामक पार्टी उनकी सबसे बड़ी ताकत है। कई वर्षो से वन्नियार और थेवर नाम की  दलितों के उपर सबसे ज्यादा हिंसक बन कर उभरी हैं। आश्चर्य जनक बात यह है के सामाजिक न्याय के नाम पर चल रही इन पार्टियों और तमिलनाडु और देश के अन्य हिस्सों में दलितों पर हो रही हिंसा के उपर लिखने वालो की जुबान और कलम रुकी हुए हैं। इसका कारन यही है के हमारी कलम और जुबान भी राजनीती के समीकरणों  के अनुसार चलती है जो बेहद खतरनाक है। 

तमिलनाडु में पेरियार के गैर ब्राह्मणवादी आन्दोलन के कारण से बहुत प्रगतिशीलता के तत्वे भी आये लेकिन ब्राह्मण विरोधी आन्दोलन जातिविरोधी आन्दोलन में तब्दील नहीं हो पाया। तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश या बिहार के सामाजिक और राजिंतिक परिपेक्ष्य को देखने तो अस्मिता की राजनीती ब्राह्मण विरोधी शक्तियों के इकठ्ठा करने के लिए उपयोगी तो हो सकती है लेकिन अपने अन्दर के अन्तर्द्वन्दो और अंतरविरोधो को नहीं मिटा सकती। और इन्हें दूर करने के कोई प्रयास भी नहीं हुए क्योंकि जब एक बार सत्ता की चाबी जिस जाति के नेता के हाथ पहुंची वो उसे दुसरे के साथ साझा करने को तैयार  नही है।  आज इन पार्टियों की जुबान पर ताला लगा है। यह वोह तमिलनाडु है जहाँ श्रीलंका के मसले पर हर एक घंटे में भरी प्रदशन हो जाता है और ट्वीटर और फेसबुक पर  स्टेटस की झड़ी लग जाती है। 

अभी तमिलनाडु में मंदिरों में दलित और पिछड़ी जाति  के अर्चाको को नियुक्त करने को क्रन्तिकारी कदम बताया जा रहा है। हमारे लिहाज़ से यह दलितों को हिंदूवादी ढांचे में घुसाने की साजिश है और आश्चर्य यह है के जो पार्टी अपने को नास्तिक कहती हैं वे यह हिंदूवादी अजेंडा लागु करते हैं। दलित पिछड़े ब्राह्मण मंदिरों में मनुस्मृति को ही पढ़ाएंगे और ये दूर से क्रन्तिकारी कदम दीखता हो लेकिन क्या हमारे देश में  पिछड़े मठाधीश नहीं है जो मनुवादी शिक्षा दे रहे हैं। यदि आज के बाबाओ को देखे तो वोह शुद्रो से ज्यादा आ रहे हैं और इसे अगर कोई क्रन्तिकारी माने तो मान सकता है क्योंकि ब्रह्माण्डी मनुवादी व्यवस्था को बचाने के लिए अब नए पुलिस वालो के जरुरत है जो इसको बचा सके। आश्चर्य यह के दलितों पे हिंसा पे सब चुप हैं। ऐसा क्यों यह समझ नहीं आ रहा।

  असल में जातिगत अस्मिता के नाम पर अभी राजनितिक चोंचले बाजी से आगे हम नहीं पहुंचे हैं। देश को एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की जरुरत है जो ब्राह्मणवादी जातिवादी मानसिकता और संस्कृति को समाप्त कर आगे बढे लेकिन अस्मिताओ के इस दौर में व्यक्तीगत विचारो और चाहतो का कोई मतलब नहीं है और इसीलिये प्रेम विवाह को खत्म करने में हम सभी एक हो जाते हैं। दलित  के मध्य जो राजनैतिक या सामाजिक  की बात हम करते हैं वोह एक सांस्कृतिक विकल्प के बिना संभव नहीं है। जातिगत अस्मिताएं इन विकल्पों की राह में रोड़ा हैं क्योंकि यह व्यक्तिगत चाहतो को जाति की सीमओं से बहार नहीं मानते। दुसरे, भारत में अगर सभी जातियां एक हो और केवल अपना गाँव या परिवार के नाम तक सीमित हो तो कोई  बात नहीं है लेकिन जब अस्मिता के मायने अपनी झूठी शान और दुसरे से बड़े होने की कहानी है तो सोचना पड़ेगा के व्यक्ति के अपनी अस्मिता कहाँ गायब हो जाती हैं। बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था के भारत एक रास्ट्र नहीं है क्योंकि यहाँ व्यक्ति के अस्मिता का सम्मान नहीं है क्योंकि वोह अपनी चाहत अपनी अनुसार जिंदगी नही जी सकता। जाति  और अस्मिताओं की दीवारे उसको घेरेंगी। 

अस्मिताओ से परेशानी नहीं है लेकिन वोह सामाजिक न्याय और बरबरी के उपर नही जा सकती। वैसे ही जैसे तमिलनाडु में ब्रह्मंविरोधी आन्दोलन जाति  विरोधी आन्दोलन नहीं बन पाया क्योंकि जाती उन्मूलन के लिए केवल ब्राह्मण या अन्य हिन्दुओ का जाती  और उससे बहार निकलना ही काफी नहीं है अपितु दलित पिछडो को भी अपने अन्दर उसको समाप्त करना पड़ेगा और धर्मपुरी जैसी घटनाओ  की पुनाराविरती तब नहीं हो पायेगी। जब बाबा  साहेब आंबेडकर ने नवयान की स्थापन की तो इसका एक ही सन्देश था के जातिगत खांचो से बहार निकलकर एक नयी जिंदगी की शुरुआत करें क्योंकि केवल विरोध की राजनीती से हम एक नए समाज का निर्माण नहीं  कर पाएंगे इसलिए एक विकल्प की जरुरत होगी और इसलिए ब्राह्मणवादी जातिवादी मानसिकता से बहार निकलकर बुद्ध के करुना और बरबरी के मार्ग को उन्होंने अपनाया। बाबा साहेब ने उसकी स्वयं व्याख्या को और उसके नीति निर्देश दिए। 

इस हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता के जातिगत समाज में सुधर की कोई सम्भावना नहीं है जब तक हम जातिगत अस्मिताओ को मज़बूत करेंगे। धर्मपुरी  जैसी घटनाएँ हरयाणा से एक कदम आगे हैं क्योंकि यहाँ सामाजिक न्याय के नाम पर काम करने वाली ताकते शाशन में हैं और वोह भी पिछले 50 वर्ष से। वर्ना व्यवस्था मनुवाद को ही मज़बूत करती रहेंगी और ऐसे घटनाएँ होगी रहेंगी क्योंकि जातिगत अस्मिताएं और कुच्छ नहीं जातिगत अहम् है जो सीढ़ीनुमा खांचे में अपने आप को दुसरे से श्रेस्ठ समझती हैं और दुसरी अस्मित को कुचल देना चाहती हैं। अस्मिताओ का सम्मान जातिगत समाज में नही हो सकता और ल्सिये उसके लिए आंबेडकर के दिखाए मार्ग के आलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है।

फिलहाल, तमिलनाडु में धर्मपुरी जैसी घटनाओ को रोकने के लिए जरुरी है के हमारी संवैधानिक मूल्य हमारे दैनिक जीवन के मूल्य बने। संविधान केवल एक कानून न होकर हमारे जीवन की रहन सहन और आदत बन जाये और उसका इस्तमाल हमारे मतभेदों को सुलझाने और लोगो को न्याय दिलाने के लिए हो। राजनितिक दल यदि अपनी जातिगत मूल्याङ्कन से आगे बधकर सामाजिक न्याय में विश्वास करें और संविधान के मूल्यों की इज्जत करें तो देश में एक पुन्राजागरण हो सकता है। मनुवादी जातिवादी विचार को उसके बहार आकर और संविधानिक मूल्यों को जीवन मूल्यों में तब्दील करके ही हम एक नए भारत का निर्माण  कर सकते हैं और तभी जातिगत अस्मिताओ के नाम पर या इज्जत के नाम पर हो कत्लो को रोका जा सकेगा।

Monday, 12 November 2012

Revisiting Vivekananda and Ram



विवेकानंद और राम का पुनर्वालोकन 

विद्या भूषण रावत 

नितिन गडकरी की मुसेबतें कम होने का नाम नहीं ले रही। उनकी कंपनियों का धंधा मंदा चल रहा है और विवेकानंद और द़ाउड़ इब्राहीम के आई क्यू को बराबर  बताकर उन्होंने एक नयी बहस शुरू कर दी। ऐसे लग रहा था मानो गडकरी आई क्यू विशेषज्ञ हैं क्योंकि आई क्यू की खोज विवेकानंद के निधन के बहुत बाद हुयी है। दूसरी बात, जब आप बात कर रहे हो तो तुलना का अध्ययन कैसे हो और किससे हो यह भी तो समझ का विषय है। यदि दाउड़ इब्राहीम कोई दार्शनिक होता तो या समाज सुधारक होता और उनके विचारो का कोई मतभेद होता तो बात थी। या फिर विवेकानंद को कोई गंग होता और फिर दाउद से तुलना होती तो बात थी। 

अब प्रश्न यह नही के क्या हम विवेकानंद को मानते हैं या नहीं। भाजपा के तो शीर्ष पर विवेकानंद हमेशा रहे हैं और 'वेदों की और लौटो' और 'वेदान्तिक दिमाग' के जन्मदाता ने बहुत सी जगहों पर ब्राह्मणों और वर्ण  व्यवस्था को गरियाया भी है लेकिन उसका समाधान अंत में वेदांत और वेदों में घुसकर अपने बदलाव का सारा बेडा गर्क कर दिया। लोगो को उनका वेदान्तिक बुद्धि'तो पसंद आ गया लेकिन 'इस्लामिक शरीर ' को छोड़ दिया। याद रहे विवेकानंद ने कहा एक मज़बूत भारत के लिए वेदान्तिक दिमाग और इस्लअमिक शारीर की जरुरत है। यानी सफलता के लिए ब्राह्मण बुद्धि और इस्लाम  की तरह की निष्ठा बहुत जरुरी है। वैसे इस्लाम के बारे में विवाकनद के विचारो को उनकी पुस्तकों के प्रकाशकों ने चुपचाप साफ़ भी कर दिया क्योंकी आज के राजनैतिक परिपेक्ष्य में वोह नरेन्द्र मोदी जैसे घृणा के सरदारों के काम नहीं आयेंगे। 

गडकरी को माफ़ी मंगनी पड़ी लेकिन अब राम जेठमलानी ने नया राग अलापा के राम एक अच्छा पति नहीं था। और लक्ष्मण तो और भी ख़राब था जो अपनी भाभी की सुरक्षा नहीं कर पाया। संघ परिवार में हडकंप है क्योंकि उन्ह्होने तो राम की दूकान चलाई और आगे भी उसके नाम पर वोट लेना चाहते हैं। राम जेथ्मलाई का हक बनता है क्योंकि राम तो उनके आगे वैसे भी लगा है और उनको दुःख हो रहा होगा के यदि आज के ज़माने की बात होती तो जेठमलानी को बहुत बड़ा केस मिलता कोर्ट में लड़ने के लिए। उन्होंने इतने बड़े केस लडे हैं के अभी राम भक्त उनका कुछ  नहीं बिगड़ सकते क्योंकि इस देश में इतने राजनेता हैं जिनको कोर्ट में उनसे बहुत काम हैं और राम तो सबका बेडा पार करते हैं।

इसलिए एक बात पे मैं जेठमलानी के साथ नहीं हूँ हालाँकि जो उन्होंने राम के बारे में कहाँ वोह तो बिलकुल सत्य है और अगर सत्य नही भी है तो हमें उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आदर करना चाहिए लेकिन यदि यह केस आज हुआ होता तो जेठमलानी क्या करते। क्या वोह सीता का केस लड़ते और राम को जेल भिजवाते। सत्य बात यह है के सीता पर केस लड़ने के लिए पैसे भी नहीं होते और राम जेठमलानी को राम पहले ही अपनी पार्टी  में लेकर अपनी पैरवी करवाते . आज की हकीकत यही है। राम जेठमलानी उसी पार्टी की पैरवी कर रहे हैं जिसके पास सीता के अपमान का बदला लेने के लिए शब्द नही है और जो इन सड़ी गली परम्पराओं  को देश पर लाद कर असली मुद्दों से हमारा ध्यान हटाना चाहते हैं। आज भी हज़ारो सीतायें हमारे समाज में हैं जिन्हें हमारे समर्थन की जरुरत है और सामाजिक न्याय चाहिए और जिनके साथ अन्याय होने के बावजूद भी समाज उन्ही से उत्तर मांगता है। हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, और देश के अन्य राज्यों पर महिलाओ पर अत्याचार जारी हैं और अत्याचारी समाज में  से  है और महिला को मुंह ढक के रहना पड़ता है। राम की महिमा का मंडान करने वाले पूरी राम सीता कथा से अनेकार्थ निकल सकते हैं और सोच सकते हैं के आज की सीता कहाँ है और क्या आज का समाज वोह सब नहीं कर रहा है जो राम ने सीता के साथ किया था लेकिन आज के कानून के हिसाब वोह अपराध है। जेठमलानी उस पार्टी में जो आज के कानून को नहीं मानती और जिसका आदर्श मनुस्मृति है इसलिए जेठमलानी सत्य तो कह रहे हैं लेकिन उन  जैसे लोगो पर कितना विश्वास करें यह सोचने की बात है।

America Mandalised

अमेरिका का मंडलीकरण 

विद्या भूषण रावत 

अमेरिका में राष्ट्रपति बराक ओबामा का चुनाव जीतना एक नए समीकरण की और संकेत कर रहा है। अमेरिका की दक्षिणपंथी तकते अफ्रीकी मूल के लोगो, अप्रवासियों, अल्पसंख्यको और महिलाओ के इस नए समीकरण को ख़त्म करने के लिए कोई अयोध्या कांड करने का प्रयास करेंगी . क्योंकि अमेरिका में कोई बाबरी मस्जिद नहीं है तो यह सब या तो ईरान पर हमला करवाने के प्रयास होंगे या शिव सेना स्टाइल में आप्रवासियों के विरुद्ध मोर्चा खोला जायेगा क्योंकि उद्योपति और पूंजीपति सब रिपब्लिकन  पार्टी के प्रमुख समर्थक रहे हैं इसलिए भारत की तरह अमेरिका में भी धार्मिक उन्मादियों और पूँजी का एक सशक्त गठबंधन बन सकता है। क्योंकि अमेरका के कई प्रान्तों में समलैंगिक विवाहों को भी लोगो ने मान्यता दे दी है जिसके विरुद्ध अमेरिकन चर्च और उनके कट्टरपंथी पादरी लगातार आवाज उठा रहे थे।

आज के परिणामो से साबित हो गया है के अमेरिका के हासिये के लोग अब सत्ता में भागीदारी चाहते हैं। वे चाहते हैं स्वस्थ्य सेवाओ का रस्त्रियाकरण जिसके विरुद्ध प्राइवेट कंपनियों की कोशिश जारी है। बुश के मुस्लिम विरोधी स्वरों को अमेरकी गोरो ने बहुत समर्थन दिया और इस्लाम को निशाना बनाकर वह का चर्च दक्षिणपंथी अजेंडा लागू कर रहा था। भगवन और भाग्य को तभी लाया जाता है जब हासिये के लोग अपने अधिकारों के लिए सड़क पर आते हैं। अमेरिका के काले लोगो ने आप्रवासियों और महिलाओ के साथ गठबंधन करके अपनी त्क्कत दिखा तो दी लेकिन व्यवस्था में बदलाव आएगा ऐसा नहीं कहा जा सकता। ये सिस्टम ताकतवर लोगो के लिए बना है। हम सब जानते हैं के अमेरिका के चुनावो में बेतहाशा खर्च होता है और पूंजी का बहुत बड़ा रोल है। 

अमेरिकी लोकतंत्र को जनतंत्र बनाने में समय लगेगा और वह तभी सफल हो सकता है जब बराक ओबामा के समर्थक समूह अपनी पहचान और अस्मिता के आलावा अमेरिका में अपने भविष्य को ध्यान में रख कर अपनी रणनिति बनाये। लोतंत्र में उनकी भूमिका ओबामा को चुनाव जीताकर ख़त्म नहीं हो जाती। दुर्भ्ग्यवाश अमेरिकी चुनाव प्रणाली ऐसी नहीं है के जिसमे गोरी ताकत को रोका जा सके। यह वैसे ही है  जैसे भारत में राजनैतिक सत्ता परिवर्तन के बावजूद भी सत्ता की नकेल अभी भी ताकतवर जातियों के हाथ में ही है। और जब उसको ख़त्म करने का प्रश्न उठाया जाता है तो अन्य प्रश्न खड़े कर दिए जाते हैं। ओबमा को चाहिए के सामाजिक न्याय की शक्तियों को मज़बूत करे और अम्बेडकर और फुले के संघर्ष को समझे। यह भी अच्चा होगा के अमेरिका दुसरे देशो में दखलंदाजी देना बंद करदे तो वहां के पूंजीवादी तबके की दुकान बंद हो जाएगी। यह वोही तबका है जो अमेरिकी घृणा फैलने वाले चर्च के साथ मिलकर दुनिया पर अपनी दादागिरी  रखना चाहता है।

अमेरिका के चारसौ वर्षो के इतिहाश में पहली बार 20% महिलाएं सीनेट में जीत कर आयी हैं और उम्मीद है वे बदलाव वाली ताकतों के साथ रहेंगी' अमेरिका की प्रतिनिधि सभ में रिपब्लिकन पार्टी का कब्ज़ा बना हुआ है। वैसे चुनाव हरे हुए मिट रोमनी ने रास्त्रपति को तुरंत बधाई दी और सहयोग का वादा किया। भारत में मुख्या विक्पक्षी दल और उसके वेट लिस्टेड प्रधानमंत्री श्री लाल कृष्णा अडवाणी आज तक नहीं पचा पाए हैं के वे सरकार में नहीं हैं। 

अमेरिका से बहुत उम्मीद तो नहीं कर सकते क्योंकि पूंजी और धर्म की भूमिका वह बहुत ज्यादा है और सबसे बड़ा खतरा यह है के काले, हिस्पैनिक और आप्रवासियों के अन्दर आ रहे बदलाव को पूंजी और धर्म की ताकते ख़त्म करने का माद्दा रखती हैं। यह वैसे ही है जैसे भारत में हिंदुत्व और पूंजी का भयावह गठबंधन बदलाव की सारी ताकतों को रोके हुए है हालाँकि वो सत्ता में नहीं दिखाई देता फिर भी उसके बिना सत्ता चलते नहीं और वोह हमरे मीडिया और पूंजी तंत्र पर हावी है।

चुनाव जीतने पर राष्ट्रपति ओबामा को बधाई और उम्मीद करते हैं की अमेरिका प्रोपगेंडा आधारित  नहीं करेगा और दुसरे देशो पर अपनी मिलिट्री ताकत की आजमाइश नहीं करेगा। हम यह भी उम्मीद करते हैं के ओबामा अपनी घरेलु समस्याओ पर ज्यादा ध्यान देंगे और आतंकवाद के नाम पर चल रही दुन्कानो को बंद करेंगे। अमेरिका अगर अपने को अलग थलग नहीं चाहता तो उसे दादागिरी छोड़ लोकतान्त्रिक परम्पराव को बढ़ाना पड़ेगा। हम सब लोकतंत्र चाहते हैं लेकिन उसकी मजबूती  अमेरिकी द्रोंतंत्र के जरिये नहीं हो सकती। फिलहाल अमेरिकी अफ्रीकी लोगो और वहां की धार्मिक, भाषाई, और सेक्सुअल अल्पसंख्यको को केवल एक सलाह के भारत के दलित बहुजनो के राजनितिक संघर्ष से कुच्छ सीख सकते हैं। अमेरिका के मंडलीकरण की शुरुआत हो चुकी है और असली नतीजे 2020 के बाद दिखाई देंगे।

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Women and customs


असभ्यता के स्थलों से खुद को मुक्त करने की आवश्यकता 

विद्या भूषण रावत 

बम्बई की हाजी अली दरगाह में औरतो के प्रवेश पर पर्तिबंध से बहुत से लोग आहात हैं लेकिन प्रश्न यह है के क्या यह हमारे 
समय की पहली घटना है ? बहुत से लोगो ने कहा के धर्म ऐसी इजाजत नहीं देता और इसलिए वोह दरगाह में महिलाओ के ऊपर प्रतिबन्ध के खिलाफ बोलेंगे। बहुत से मानवाधिकार कार्यकर्ताओ ने भी प्रश्न उठाये हैं के पुजस्थालो में जाना किसी भी भक्त का मूल अधिकार है। क्या बात इतनी आसांन है। क्या हम धर्मस्थलो पे अपने आधुनिक कानून लागु कर सकते हैं। 

यह जानना आवश्यक है के मंदिर प्रवेश की लड़ाई धर्म की सत्ता को मज़बूत करने के लड़ाई है और जो लोग उसमे विश्वाश करते हैं मैं उनसे केवल इतना कहना चाहता हूँ के क्या मज़हब वाकई में स्त्री और पुरुष को बराबर समझते हैं। असल में धर्मो की सत्ता तो इसबात में होते है की कुच्छ लोगो पर भगवन की विशेष कृपा है और कुच्छ पर कम। जिस पर कम कृपा है उसे अनलकी कहा जाता है और फिर पुरोहित उसकी अज्ञानता या भय का लाभ लेते हुए टोन टोटके बताता है। 

सूफी स्थलों को प्रेम का सन्देश देने वाले स्थल बताने वालो की कमी नहीं है। उन्हें धर्मनिरपेक्ष बताने वालो की भी कमी नहीं लेकिन वे धर्मनिरपेक्ष केवल अज्ञानता और जाडु टोने के सन्दर्भ में हैं जहाँ लोग अपने 'काम' करवाने आते हैं, मन्नते मांगते हैं और जब वे 'पूरी' हो जाती हैं तो फिर चढ़ावा चढाने आता हैं। अगर सूफी स्थलों को देखे तो ज्यादातर स्थानों पर औरतो के प्रवेश पर पाबन्दी है और वोह खुल के होती हैं। महिलाएं उसे 'गर्भ गृह' तक प्रवेश नहीं कर सकती। एक सूफी स्थल पर मुझे वहः के खादिम ने बड़े फक्र से बताया के औरतो को इसलिए अन्दर नहीं बुला सकते क्योंकि वे 'गन्दी' होती हैं। वैसे 'गंदे' का मतलब सब जानते हैं और यह तो बहुत से मंदिरों और अन्य धर्म स्थलों में भी है के महिलाओ के माहवारी के समय उन्हें इन स्थल पर जाने की इजात नाहे है और इस बात को पुक्ता करने के लिए उनके प्रवेश को उम्र से जोड़ दिया गया के या तो 8 वर्ष से कम की लड़की हो या 60 वर्ष से उपर की उम्रदाज। सबरीमाला के मंदिर में महिलाओ का प्रवेश बंद है।

मंदिरों में या अन्य धर्मस्थलो में महिलाओ और दलितों के प्रवेश के विरुद्ध कानून कम नहीं कर सकते। बात यह भी है हमारे कानून आज की परिस्थतियो के अनुसार बनते हैं जबकि धार्मिक परम्पराएँ जब से बनी हैं उनमे कोई बदलाव नहीं आता क्योंकि उन्हें 'इश्वर' या 'अल्लाह' ने 'स्वयं' बनाया है इसलिए उसमे सुधर नहीं किया जा सकता। अब तक सभी धर्मो और व्यवस्थाओ में औरतो को पुरुषो के समकक्ष कभी नहीं मन गया है। वे उस संस्कृति के वाहक और पोषक हैं जो उनकी शोषक है और इसलिए मंदिर और इन स्थलों में प्रवेश के आन्दोलन उसी व्यवस्था को मज़बूत करती हैं जिसने औरतो को कभी बराबरी का दर्जा नहीं दिया। 

बाबा साहेब आंबेडकर ने बताया के दलितों को मंदिर प्रवेश की जरुरत नही है क्योंकि वहां उनकी इज्जत नहीं है और इसलिए कालाराम मंदिर आन्दोलन के बाद उन्होंने मंदिर प्रवेश के आन्दोलन को बंद कर दिया और नयी व्यवस्था के निर्माण में लगे। अगर महिलाओ को अपने पे विश्वाश है तो उन्हें ऐसी व्यवस्था में नहीं जाना चाहिए जहाँ उनकी इज्जत नहीं है और इसलिए ऐसे भगवन को बता दो के अगर तू हमें बराबर मानने को तैयार नहीं तो हम भी तेरे द्वार पे आने को तैयार नहीं। आज की सबसे बड़ी चुनौती यह है के आधुनिक संविधान हमारे समाज को नहीं बदल पा रहे हैं क्योंकि धार्मिक ताकते अभी भी हावी हैं और हमारी अज्ञानता और भय के चलते इन पाखंडी परम्परआओ की शिकार बनी  है क्योंकि उसकी सामाजिक पहचान भी यही से है और समाज में अलग थलग होने का वोह खतरा उठा नहीं सकती और अंत में उन्ही सदी गली परम्पराव को ढोटी चली जाती हैं जो उसके खिलाफ हैं।

लेकिन आज के समाज की जरूरती है के औरतो को ऐसे सभी स्थानों को पूर्ण बायकाट करना चाहिए जहाँ उसे बरबरी की दृष्टी से नहीं देखा जाता और जहाँ वह अभी भी पुराणी दकियानूसी परम्पराओं के आधार पर अपमानित की जाती हैं। समय आ गया है के ऐसी परमपराओ, ऐसे धर्मस्थलो और लोगो को पूर्णतया नकार दो जो इंसानी बराबरी में विश्वाश नहीं करते और आज़ादी, बराबरी और सम्मान के मानवीय मूल्यों को नहीं समझते। 


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Women and Karwachowth



महिलाएं और संस्कृति 

विद्या भूषण रावत 




करवा चौथ का व्रत आज बड़े जोश खरोश से मनाया जा रहा है बाजारों में रौनक है और टीवी के भीतर भी बहुत बहस है। सुष्माजी का यह 37 व करवाचौथ है और उनके पति का प्यार 37 गुना बढ़ चूका है। यह  नहीं सुषमा जी ने टीवी पर खुद कहा है। महिलाएं कह रही है के ये उनका प्यार है और कोई उनको दबाव नहीं दल रहा। वैसे यश चोपड़ा के सिनेमा ने करवा चौथ का इतना महिमा मंडान किया और उसकी रंगीनियों को ऐसे दिखाया मनो हर एक महिला जो करवाचौथ रख रही है, स्विट्ज़रलैंड जाने वाली हो। खैर, रंजना कुमारी जी ने कहा है के करवा एक लें दें भी है और अगर दबाव नहीं है तो उन्हें इसमें कोई ऐतेराज नहीं है। बात ये के आज के युग में भी ऐसे सड़ी गली परमपरो के तहत अगर हम जी रहे हैं तो उस देश का क्या कहने 

वैसे ब्राह्मणवादी परम्पराव में महिलाओ को बहुत से व्रत करने के लिए दिए गए हैं जैसे करवाचौथ में पति की लम्बी उम्र के लिए और फिर कुच्छ दिनों बाद भाई दूज आएगा और सभी बहिने अपने भाइयों की आरती उतरेंगी। रक्षा  तो जा चूका है जब बहिनों ने अपने बहियों को राखी बंधी और अपने   जीवन को धन्य बनाया। फिर माएं अपने बेटो की खातिर व्रत रखती हैं। हमारे समाज में भी अलग अलग डिपार्टमेंट हैं भगवानो के। जैसे संतोषी माँ भाई या बेटा  देती हैं, शिवजी, अच्छा  पति देते हैं,..काम देव के महिमा न्यारी वोह प्यार और रोमांस की ताकत देते है। 

वैसे औरतो की मज़बूरी तो वर्णाश्रमधर्मियों पहले की बना दी थी जब उन्होंने कहा के उसे आज़ाद रहने का अधिकार नहीं है और बचपन में वो अपने पिता के अधीन रहेंगी और फिर अपने पति के और अगर पति नहीं रहे तो बेटे के अधीन रहना चाहिए और शायद इन्ही रिश्तो के टूटने के भय से इतने दवाब में रहकर ये व्रत रखे जाते हैं के अगर नहीं रखे तो बहुत संकट होगा . घर पर एक पुरुष जरुरी है और बेटे के चाहत पति का प्यार, और पिता का आशीर्वाद तो बम्बई की फिल्मे भी बहुत बाँट रहते है लेकिन वोह सब ब्रह्मनिया संस्कृति का हिस्सा है जिसे बहुत हे स्टाइल में बाज़ार द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे यह बहुत बड़े प्रेम और बराबरी का त्यौहार है। ठीक होता यदि करुआ में महिला और पुरुष के बराबरी होती। यह सभी त्यौहार पुरुषो के प्रधानता का प्रतीक है और इनको प्रेम का त्यौहार बताने का धंधा करनेवाले लोग पूंजी और धर्म का बहुत बेहतरीन घालमेल करते हैं इसलिए कमाई की कमाई और परम्परऔ को पुनर्स्थापित करने का संकल्प। इससे अच्छे बात क्या हो सकती है के महिलाएं ही खुद कहें के यह तो बहुत महँ त्यौहार है और यह वे अपने मर्जी से करते हैं।

खैर जो व्रत रख रही है उनसे तो हम नहीं कह सकते के उनके व्रत से उनके पति की कितनी उम्र बढ़ेगी और फिर पति की उम्र की  बढे, पत्नियों के क्यों नाही। लेकिन भारतीय समाज की क्रूरता और विधवाओ के हालत को जिसने देखा है वोह बता सकता है के अधिकांश स्त्रियाँ उस सोच से ही घबराती हैं और पाती से पहले मरने की कामना करती हैं। यह एक असिई हकीकत है के जब पत्नी पहले ही चली जाए तो ब्रह्मनिया संस्कृति में सुहाग्वंती होकर मरने को बहुत बड़ा बताया गया है। अतः हम समझ सकते हैं काहे महिलाएं इतने व्रत रखती है।

अब समस्या व्रतियों की नहीं है। उन्होंने तो सिद्ध कर दिया के वे अपने पतियों को बहुत चाहती है चाहे बाकि दिन वे पतियों को पीते या पति उनको पीते इसके कोई मतलब नहीं लेकिन जिन महिलाओं ने व्रत नहीं रखा वोह तो समाज के ताने सुन रही होंगी . उन्हें इन व्रतियों ने अलग थलग खलनायिका   बना दिया है। 

वैसे अधिक्नाश पति कहते हैं जिनमे क्रन्तिकारी भी शामिल हैं के उनकी पत्नियों के आगे उनकी नहीं चलती और वे अपनी पत्नियों के सी प्यार के आगे असहाय हैं यह जाहिर करता है के क्रांति के यह दूत दुसरो के घर पर भगत सिंह देखना चाहते हैं और अपने घर के मनुवाद को जिन्दा देखते रहना चाहते हैं। वैसे भारतीय समाज का पाखंड यही है के हम सब कहते हैं लेकिन व्यक्तिगत जीवन में फ़ैल हैं और भारत में साड़ी क्रांतियों के असफलता का कारण भी वर्णाश्रम की कुतिय्ल्ताओ में फंसी हमारी जिंदगी है और जब तक उसे उखाड़ नहीं फेंकेंगे तब तक बदलाव नहीं आएगा। 

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