Sunday 22 July 2018

क्या सीख सकते है हम दुनिया के सबसे बड़े खेल से






फ्रांस की विविधता की जीत लेकिन दिल जीता क्रोएशिया ने




विद्या भूषण रावत

फ्रांस ने फूटबाल का विश्वकप जीत लिया. सही मायने में फाइनल वाले दिन फ्रांस ने बेहतरीन खेल का प्रदर्शन किया. क्रोएशिया की टीम से बहुत उम्मीदे थी और उनका खेल भी बेहद आक्रामक था लेकिन ९० मिनट का पूरा खेल ताकत और मस्तिष्क दोनो का मिश्रण है. रूस ने विश्वकप का शानदार आयोजन कर पच्छिमी ‘विशेषज्ञो’ और मीडिया पंडितो की पूरी आशंकाओं को झुठला दिया. ये कह सकते है के अब तक आयोजित विश्कप में ये सर्व्श्रेस्थ आयोजन था.
खेल दुनिया में भाईचारे और शांति को बढाने के लिए भी आयोजित किये जाते है. हालांकि आज उनका व्यवसायीकरण भी हो चूका है . फ़ुटबाल दुनिया का सबसे बड़ा खेल है, हकीकत में ओलिंपिक से भी बड़ा. दुनिया के छोटे से बड़े देश विभिन्न प्रतिसर्प्धाओ के जरिये विश्वकप में आते है. दुनिया भर में व्यावसायिक टीवी चैनल्स के लिए भी ये बहुत बड़ी घटना होती है इसलिए ये केवल एक खेल है यह भी कहना अपूर्ण होगा क्योंकि आज फुटबाल के जरिये डिप्लोमेसी भी हो रही है और हम राजनीतिज्ञों में होड़ भी देख रहे है लेकिन इस एक बड़ी इवेंट को यदि हम अपने भारतीय उपमहाद्वीप की संस्कृति, खेल प्रेम और राजनीती से देखेंगे तो शायद सबके लिए सीखने के लिए बहुत कुछ है.
सबसे पहले ती ये बात के कैसे छोटे से छोटे देश जो अफ्रीका और लातिनी अमेरिका में आज भी व्यवस्थित होने के लिए संघर्ष कर रहे है ताकतवर मुल्को से भिड़ते है और अपनी जी जान लगा देते है. ये बहुत शर्मनाक बात है के हमारे जैसा बड़ा देश इस सबसे बड़े समारोह से गायब है और उसके क्वालीफाइंग लीग में भी नहीं पहुँचता. हमारे देश में क्रिकेट सबसे लोकप्रिय खेल है लेकिन अगर तुलना करे तो क्रिकेट अपने आप में एक भद्रलोक खेल है और पिछले कुछ वर्षो के उदहारण छोड़ दे जो कपिल देव से शुरू होकर महेंद्र सिंह धोनी और इरफ़ान पठान की सफलता दिखा दे तो इसमें में दलितों, आदिवासियों के लिए कोई जगह नहीं बची. अगर क्रिकेट बोर्ड को देखने तो ये पुर्णतः उन लोगो द्वारा नियंत्रित है जिनके लिए खेल पैसे से बड़ा नहीं है. खेल के आयोजन की दृष्टि से देखें तो विश्व कप फूटबाल क्रिकेट से बहुत बड़ा है क्योंकि न केवल आयोजक देश में सैलानियों की संख्या में बेहद इजाफा होता है अपितु राजनैतिक दृष्टि से भी ये बड़ा खेल है. फूटबाल में विज्ञापनों की भी मारामारी है लेकिन जो एक अंतर साफ़ दिखाई देता है क्रिकेट के विज्ञापन दाताओं या आयोजको से वो ये के ९० मिनट के खेल में ब्रेक के समय ही विज्ञापन दिखाई देते है क्रिकेट की तरह नहीं की हर छक्के, हर विकेट पर विज्ञापन मैच में दर्शको के रोमांच को कम कर देता है. यहाँ किसी के गोल करने पर आपको कोक या किसी अन्य के विज्ञापन नहीं देखने को मजबूर किया जाता है.
फूटबाल में सबसे बड़ा रोमांच इस खेल की पुर्णतः अनिश्चितता है. यानि खेल में बड़े बड़े दादा भी पहले राउंड में बाहर हो जाते है और जैसे जैसे अफ्रीका, लैटिन आमेरिका, यूरोप, और एशिया के छोटे छोटे देश इसमें एंट्री कर रहे है वैसे वैसे इसकी शान में इजाफा हो रहा है और खेल में कम्पटीशन बढ़ रहा है. इस वर्ष के आयोजन में इटली और हंगरी जैसी बड़ी टीमे नहीं थी क्योंकि वो क्वालीफाइंग राउंड में ही हार चुकी थी. इटली चार बार का विश्च चैंपियन है. इसी प्रकार स्पेन, जर्मनी, अर्जेंटीना आदि टीमे भी शुरूआती दौर में निकल गयी. जापान, पराग्वे, कोलम्बिया, रूस आदि नयी टीमो ने संकेत दे दिया के भविष्य में प्रतिस्पर्धा और ज्यादा बड़ी होने वाली है. पांच बार की विश्व चैंपियन और पहले विश्कप से लेकर अभी तक सभी टूर्नामेंट में खेलने वाली ब्राजील की टीम भी कुछ विशेष नहीं कर पायी. कारण है जबरदस्त प्रतिस्पर्धा और नए देशो में फूटबाल का बढ़ता जूनून.
इस प्रकार के भव्य आयोजन हमें बहुत से नयी बाते सिखला देते है. दुनिया के २११ देशो में फीफा से जुडी संगठन है जो विश्वकप में अंतिम राउंड में खेलने के सभी संघर्ष करती है जिन पर पूरी दुनिया फ़िदा रहती है. विश्व्कप में फ्रांस इस वर्ष का विजेता रहा जहाँ उसने मध्य यूरोप के छोटे से देश क्रोएशिया को हराया. फ्रांस की राष्ट्रीय टीम में ७ खिलाडी अफ़्रीकी मूल के मुस्लिम है. फ्रांस पिछले कुछ वर्षो में आतंकवाद का शिकार भी रहा है क्योंकि फ्रांस के राजकीय सेकुलरिज्म की पहचान धर्म और धार्मिक अस्मिताओ से राज्य की पुर्णतः असहमति है. फ्रांस का सेकुलरिज्म मल्टी-कल्चरलिज्म नहीं है जैसा दुनिया के अन्य देशो में होता है. यहाँ धर्म आपका व्यक्तिगत मामला है और राज्य धर्म आधारित अस्मिताओ के आधार पर आपको विशेष दर्जा नहीं देता. इस सिद्धांत में दिक्कते भी है लेकिन फ्रांस खड़ा रहा. बहुत से लोगो ने कहा विश्वकप की ये जीत अफ्रीका की है लेकिन ये भी उस बात को नज़रन्दाज करना होगा जिसके फलस्वरूप ये खिलाडी फ्रांस की टीम के सदस्य बने है. दक्षिणी अफ्रीका में रंगभेद सरकारी तौर पर ख़त्म हो चूका है लेकिन जब हम वहा की क्रिकेट टीम को देखते है तो उसमे अभी अभी श्वेत मूल के खिलाडी अधिक है. इसका मतलब ये के ब्रिटेन और फ्रांस तो दुनिया की सबसे बड़ी औपनिवेशिक ताकते थी उन्होंने अपने आपको बदलने में समय नहीं लगाया और नयी परिस्थितयो के अनुसार अपने यहाँ अपने उपनिवेशों से आये लोगो को समान अवसर दिया फलस्वरूप वे आज इनकी टीमो के प्रमुख सदस्य बन गए. ये समान अवसर का सिद्धांत सबसे महत्वपूर्ण है. भारत में भी हाकी और क्रिकेट की टीमो में ऐसी विविधता पहले दिखती थी. लेकिन इस दौर में जब अल्प संख्यको और शरणार्थियो के विरुद्ध पूरी दुनिया में मौहोल पैदा किया जा रहा है तो ऐसी जीत सौहार्द पैदा करने में नयी भूमिका अदा कर सकते है. अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रम्प ने जिस प्रकार से इमीग्रेशन के खिलाफ बोलना शुरू किया और यूरोप से उनको भगाने की बात की उसका उत्तर फ्रांस की जीत ने दे दिया. उम्मीद है इन देशो में अब इमिग्रेंट्स को बोझ या बेकार का नहीं समझा जाएगा. हम सभी इस भयावह दौर से गुजर रहे है जब अल्प संख्यको को बताया जा रहा है के उनसे देश की सुरक्षा खतरे में है और देश को उनकी जरुरत नहीं है और उनके कारण से ही ‘विकास’ रुका पड़ा है. ऐसे हालत में फ्रांस की जीत बहुत विश्वास पैदा करते है. यूरोप के सभी टीमो ने कोशिश की के उनमे नस्लीय विविधता दिखाई दे. बहुत सी ऐसी टीमे भी थी जिनमे केवल गोरे खिलाडी ही थे जैसे क्रोएशिया, आयरलैंड और पोलैंड लेकिन ऐसी भी टीमे थी जिनमे अफ़्रीकी मूल के खिलाडियों और मुस्लिम खिलाडियों का प्रतिनिधत्व उनके द्वारा इस विविधता का सम्मान करने जैसे था. बेल्जियम की टीम में ७०% गोरे, २२% अफ़्रीकी मूल के थे और १५% मुस्लिम भी जो अधिकतर काले थे. फ्रांस की टीम में तो केवल 33% ही गोरे या यूरोपियन मूल के थे बाकि सभी अफ़्रीकी मूल के थे हो बहुत बड़ी बात है. इंग्लैंड की टीम में ६३% ही गोरे थे और बाकि सभी अफ़्रीकी मूल के खिलाडी थे. ये जानना बहुत जरुरी है के आज खेलो के जरिये भी हम अपने देश की सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे को प्रदर्शित करते है. ये देश के सभी नागरिको में एक भावना भरते है के हाँ उनकी भी राष्ट्र निर्माण में कोई भूमिका है और हाँ कहीं पर भी ‘मेरिट’ से समझौता नहीं होता. यहे तो सिद्ध हो चूका है के इन्ही इमिग्रेंट्स ने यूरोपियन टीमो की ताकत को बढ़ाया है.
जापान की टीम अपने मैच को हारने के बाद भी पूरे स्टेडियम को साफ़ की जो उनकी परंपरा है. हर एक टीम के खिलाडियों ने मैच शुरू होने से पहले रंगभेद के खिलाफ कसमे खाई जो फीफा के द्वारा उठाया गया सराहनीय कदम है. मेरा तो ये मानना है के पोपुलर फिल्म्स और स्पोर्ट्स के जरिये हम बहुत से महत्वपूर्ण प्रश्नों पर संवेदना और जाग्रति का कार्य कर सकते है लेकिन जहा स्पोर्ट्स केवल पैसे लूटने का धंधा बन जाये फिर समस्या है. अब क्रिकेट हमारे उप-महाद्वीप का सबसे बड़ा खेल है और कुछ एक खिलाडियों को छोड़ दे तो अभी भी ‘संभ्रांत’ समझे जाने वाले शहरी घरानों का खेल है. हमारे उपमहाद्वीप में इस समय जाति भेद, धार्मिक हिंसा, महिला हिंसा लगातार बढती जा रही है. क्या कभी क्रिकेट टूर्नामेंट में हम इन प्रमुख मसलो खासकर घृणा के खिलाफ एक अंतर-रास्ट्रीय मुहीम चला सकते है ? मुझे अभी भी शक है.
क्रोएशिया की टीम और उनकी प्रधानमंत्री की बहुत सराहना हुई. बहुत से साथियो ने वाजिब सवाल भी किया के इस टीम का नस्लवाद और फासीवाद के प्रति क्या ख्याल है. मैंने शुरू से ही क्रोएशिया की टीम की तारीफ की, क्योंकि वे अच्छा खेले. हमने अच्छे खेल की सराहना की और यदि कोई खिलाडी या उनकी टीम नस्लभेद का समर्थन करते है तो उन्हें खेल से बाहर कर दिया जाना चाहिए.
यही बात कई लोगो ने क्रोएशिया के राष्ट्रपति के बारे में कही. कुछ ने कहा के वह अपनी पी आर का काम कर रही है, उनको बहुत सपोर्ट मिला और न जाने क्या क्या. हमने फ्रांस के राष्ट्रिपति मच्क्रौन्न को भी देखा के कैसे वे खिलाडियों से मिले और उनका स्वागत किया. फ्रांस के विजयी टीम को वहा के रास्ट्रपति भवन में ऐसा स्वागत किया गया के हम  उसकी उम्मीद भी नहीं कर सकते.
फ़्रांस से ज्यादा लोगो में क्रोएशिया का समर्थन किया. कारण ये था के मात्र ४० लाख की आबादी वाला ये देश सबको प्रभावित कर रहा था . उसके कप्तान की जीवन कहानी बड़ी जीवत थी. क्रोएशिया की राष्ट्रिपति कोलिंदा ग्राबर कितारोविच ने सबका दिल जीता. एक बार फिर मैं ये कहना चाहता हूँ के उनकी राजनीती कैसे है इस पर चर्चा नहीं हो रही है. इकॉनमी क्लास के टिकेट में मैच देखने के लिये आना और बिलकुल आम लोगो की तरह स्टैंड पर अपने देश की टी शर्ट पहनकर खिलाडियों को मज्गूत करना हरेक के बस की बात नहीं. मात्र ऐसा नही नहीं था, उन्होंने खिलाडियों के ड्रेसिंग रूम में जाकर भी उनका हौसला बढाया. फाइनल मैच में वो एक आम दर्शक की तरह मैच देख रही थी और उनकी भावनाओं में कही पर नहीं दिखाई दिया के वो कोई एक्टिंग कर रही थी. उनकी भावनाए बिलकुल नेचुरल थी. फाइनल मैच में जब क्रोएशिया हार गया तो मैच के बाद बारिश में भी वह दोनों टीमो के खिलाडियों से गले मिली और क्रोएशिया की टीम के खिलाडियों ओर कोच से तो बहुत देर तक गले मिली और उनको प्रोत्साहित किया और ये सब फ्रांस ओर क्रोएशिया के राष्ट्रपति बारिश की बौछारों के बीच करते रहे. एक मिनट भी ऐसा नहीं लगा के वे परेशान है. दोनों ने मैच का पूरा आनंद उठाया और बिलकुल एक आम दर्शक की तरह.
अब तुलना कीजिये अपने देश के नेताओं के साथ. क्या आप उम्मीद करते है हमारे नेता इतने खिलाडियों को कभी गले मिल पाएंगे ? अगर मिल्नेगे पहले अपने बारे में सोचते रहेंगे ? क्या कभी हमारे नेता अपने अहम् को छोड़कर, अपने भक्तो से दूर रहकर किसी ऐतिहासिक घटना का आनद ले पाएंगे. क्या हमारे प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति कभी इस प्रकार से कोई खेल का आनंद ले सकते है. हमने देखा है कैसे क्रिकेट में कोई टूर्नामेंट जीतने पे नीता प्रकट होते है और पुरुस्कार वितरण करके तुरंत खिसक लेते है. लेकिन मास्को में पुतिन से लेकर मैक्रॉन से लेकर कोलिंदर और अन्य सभी राष्ट्रधय्क्शो ने मैच का पूरा आनंद लिया.
हम जानते है हर एक देश में कोई समस्या होती है. कई लोग नेताओं की बातो को पब्लिक रिलेशन का स्टंट मानते है.. सब सही है लेकिन मुझे नहीं लगता के इनमे उनकी भावनाए झूठी थी. हमारे यहाँ तो वो भी दिखावा होता है. और ये सब इसलिए क्योंकि हमारे समाज में जो जातिगत और सामंती  पूर्वाग्रह है वो हमको हरेक से गले मिलने से रोकते है, वो हमें एक दुसरे के पास आने नहीं देते और केवल दूर से मनस्ते करके हमारे नेता खिसक लेते है. जिस देश में इतने पूर्वाग्रह हो वहा खेलो का कल्चर कैसे बनेगा ? भारत में खेलो की संस्कृति को विकसित करने के लिए समाज के लोकतंत्रीकरण की जरुरत है ताकि दलित, पिछड़े, आदिवासी समाज के लोगो को जो प्रकृति के नजदीक रहते है और ज्यादा श्रमशील है, जातिव्यवस्था भारत के बहुजन समाज को स्वतंत्र निर्णय लेंने से रोकती है और उनके रस्ते में अनेक प्रकार की अडचने खड़ी करती है. हमें सोचना पड़ेगा, जिस समाज में खान पान को लेकर इतनी रोक टोक  है, वो समाज कभी खेल में आगे नहीं आ सकता  और जो लोग खेलो में आगे बढ़ सकते है वह जाति प्रथा के मार्गदर्शक रोड़े अटकाटे है ताकि बहुजन समाज आगे न बढ़ सके क्योंकि खेलो में बहुत पैसा आ चूका है और इसमें सामंती लोग अपनी मोनोपोली चाहते है इसलिए भारत में क्रिकेट जैसा खेल ही पनपेगा. फ़्रांस की जीत और क्रोएशिया के संघर्ष से सीखना पड़ेगा के खेलो में डाइवर्सिटी कितनी आवश्यक है और सक्षम राजनैतिक नेतृत्व भी खिलाडियों की हौसलाफजाई करता है. उम्मीद करते है कभी इस देश का समाज बदलेगा और देश में खेलो की एक मज़बूत संस्कृति बनेगी ताकि हम भी दुनिया के खेलो के नक़्शे में अपनी जगह बना सके