Monday 31 July 2017

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को इतिहास की चुनौती


विद्या भूषण रावत
रामनाथ कोविंद ने भारत के १४ राष्ट्रपति पद का कार्यभार संभाल लिया है. इस पद पर पहुचने पर हमारी शुभकामनायें.  उनके पदभार के तुरंत बाद हुए राजनैतिक घटनाक्रम ने कुछ बिन्दुओ से हमारा ध्यान हटाया लेकिन फिर भी उनकी और हमारा ध्यान जाना आवश्यक है. उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय को याद किया, वह गाँधी जी की समाधी पर जा कर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित कर आये जो भारतीय राज्य सत्ता के लोगो की एक परंपरा है उसके बाद वह सेंट्रल हॉल गए जहा उनका शपथ ग्रहण हुआ. उन्होंने डॉ राजेंद्र प्रसाद, डॉ राधा कृष्णन, डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम और श्री प्रणब मुख़र्जी की महान विरासत की बात की और कहा के उनके ऊपर बहुत बड़ी जिम्मेवारी है.
राष्ट्रपति के पहले दिन के घटनाक्रम कई और इशारा कर रहे हैं जिनको समझना जरुरी है .शपथ ग्रहण के तुरंत बाद अपने उद्बोधन में उन्होंने गाँधी जी और दीन दयाल उपाध्याय को भारतीय स्वाधीनता की लड़ाई का नायक बताया और फिर सरदार पटेल और अंत में आंबेडकर को थोडा बहुत याद किया .संसद में उनके भाषण के समाप्त होने पर जय श्री राम और भारत माता की जय के नारे भी लगे . वैसे तो नारे बाजी ऐसे अवसरों पर शोभा नहीं देता लेकिन ये साबित करता है के भारतीय राजनितिक पटल पर गंभीरता का स्थान जुमलो और नारेबाजी ने ले लिया है . अगर जुमलो में ही बात करे तो हम कह सकते हैं के अगर राम नाथ कोविंद भारत के राष्ट्रपति है तो इसका श्रेय डॉ बाबा साहेब आंबेडकर को जाता है जिनकी जागरूक पीढ़ी के चलते संघ और कांग्रेस जैसी ब्राह्मणवादी पार्टियों को भी जय भीम करना पड रहा है . क्या वो संसद जो सुरक्षित सीटो से चुनकर आते हैं जय भीम का नारा नहीं लगा सकते थे आखिर संघ परिवार तो दुनिया में ये ही बताना चाहता है के उसने एक दलित को राष्ट्रपति बनवाया है और उसको चुनाव में खूब भुनवाना चाहता है लेकिन उसके संसद जय भीम कहने को तैयार नहीं क्योंकि उनकी असली विरासत तो जय श्री राम की है है. ये जरुर है के दोनों साथ नहीं रह सकते क्योंकि अंततः ऐसे अंतर्द्वंद जल्दी ही विश्फोटित हो जाते हैं क्योंकि लड़ाई वैचारिक है, लड़ाई मनुवाद और अम्बेडकरवादी मानववाद के बीच है इसलिए जो एडजस्ट करने की कोशिश कर रहे है उनको शीघ्र ही घुटन महसूस होना शुरू हो जायेगी और बाकी तो अपनी पीढियों के जुगाड़ के चक्कर में वह है उन्हें समाज से क्या लेना देना .
 वैसे तो राष्ट्रपति क्या बोले यह उनका और उनकी सरकार का अधिकार क्षेत्र है लेकिन जिस संसद को वो आज संबोधित कर रहे थे उसमे प्रथम प्रधानमंत्री के नाम को न लेना कोई भूल नहीं अपितु संघ की घृणित रजनीति का हिस्सा है . राष्ट्रपति के निजी सचिव आदि की घोषणा पहले ही प्रधानमत्री कार्यालय ने की और सभी लोग आर एस एस थिंक टैंक का हिस्सा है . प्रणब मुख़र्जी रास्त्रपति बनते ही अपने प्रिय अधिकारियों को रास्ट्रपति भवन लाये लेकिन ये सुविधा रामनाथ कोविंद को नहीं है . मतलब साफ़ है के राष्ट्रपति जी के भाषण पर संघ के ‘विशेषज्ञों’ की ‘पारखी’ नज़र होगी ताकि वह देख सके के गाँधी, पटेल का नाम हो तो नेहरु का न हो. बाबा साहेब का नाम हो लेकिन केवल दिखावे के लिए.
बसपा प्रमुख सुश्री मायावती ने कहा के गाँधीजी की समाधी में जाने के साथ साथ राष्ट्रपति यदि संसद के सेंट्रल हॉल में बाबा साहेब की फोटो या उनकी प्रतिमा पर माल्यार्पण कर देते तो देश को एक बहुत बड़ा सन्देश जाता. उन्होंने ऐसा नहीं किया तो साफ़ सन्देश है के वह संघ की मित्रमंडली की सलाह के अनुसार चलेंगे . अगर ट्विटर पर हुए भक्तो के हल्ले से कुछ दिखाई देता है तो वे राष्ट्रपति भवन में एक ‘राम’ के आने से बहुत प्रसन्न है क्योंकि उन्हें अब लगता है के अयोध्या में राम मंदिर के लिए अब सारे रस्ते साफ़ होते जा रहे है .
वैसे राष्ट्रपति का पद संवैधानिक तौर पर महत्र्पूर्ण होता है जिसको आप जैसे व्याखित करना चाहे कर सकते हैं. लेकिन आज कोविंद जी के रास्ट्रपति पद पर हमें उन रोल मॉडल्स को भी देखना चाहिए और फिर अन्य का भी थोडा विश्लेषण कर लेना चाहिए देश और समाज के सेहत के लिए अच्छा रहेगा क्योंकि सबको पता चलना चाहिए के संघ के लिए कुछ लोग बहुत अच्छे और कुछ घृणित क्यों हैं.
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद बड़े विद्वान थे और प्रधानमंत्री नेहरु से उनके मतभेद जगजाहिर थे . राजेंद्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर का  सरकारी खर्चे से जीर्णोधार करवाना  चाहते थे जबकि नेहरु नहीं. बाबा साहेब आंबेडकर द्वारा मेहनत से ड्राफ्ट किये गए हिन्दू कॉड बिल पर अक्सर कई लोग नेहरु को गरियाते हैं लेकिन उस वक़्त के हालत पे लोग भूल जाते हैं के रास्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद इस बिल के बहुत खिलाफ थे . वैसे एक कहानी और भी प्रचलित थी के रास्ट्रपति जी उस वक़त ब्राह्मणों के पैर धोकर भोजन करवाते थे . कुल मिलाकर एक विद्वान रास्ट्रपति लेकिन घोर परम्परावादी .
डॉ राधाकृष्णन एक बड़े विद्वान माने जाते हैं . उन्होंने वैदिक धर्मग्रंथो वेदांत, गीता की व्याख्याएं की और बुद्ध को भी हिन्दू धर्म में डालने का ‘वेदान्तिक’ प्रयास किया . वैसे उनकी पूरी जीवन कहानी उनके इतिहासकार पुत्र सर्वपल्ली गोपाल ने लिखी है सबको पढना चाहिए .
एपीजे अब्दुल कलाम को संघ शुरू से ही पसंद करता रहा है क्योंकि वो उसकी आदर्श मुस्लिम की व्याख्या में अच्छे से फिक्स होते हैं . मतलब वो मुसलमान जो गीता पढ़े और कुरान छोड़े या मुसलमानों के प्रश्न को केवल ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद के सांचे में ढाल दे. वो व्यक्ति जो मुसलमानों के मूलभूत प्रश्नों पर उनसे सवाल करने को न कहे और केवल अंपने को दोष देकर भारतीय राष्ट्र राज्य के लिए केवल सैन्य विजय की बात करता रहे .
प्रणब मुख़र्जी को संसदीय प्रणाली का गुरु माना जाता है . इतने वर्षो तक वह कांग्रेस पार्टी, इसके विभिन्न मंत्रालयों, उसकी विशेषग्य समितियों के प्रमुख रहे के उनके विरोधी भी उनके संसदीय ज्ञान और उस पर पकड़ का सम्मान करते हैं लेकिन मुख़र्जी के जीवन में एक भी ऐसा वाकया नहीं होगा जहाँ वह सामाजिक न्याय की मजबूती से वकालत करते नजर आये हो . पिछले तीन वर्षो में उन्होंने कोई ऐसा काम नहीं किया जिस पर कोई यह कह सके के वो एक मज़बूत रास्ट्रपति थे जो अपनी बातो को शब्दों की बाजीगरी से हटकर मजबूती से रखे . जो थोडा बहुत ‘क्रांति’ उनके वक्तव्यों में दिखाई दी वो भी तब जब उन्हें अंदेशा हो चूका था के अब दोबारा इस पद पर वे नामित नहीं होने जा रहे .
बहुत से लोगो को ये शिकायत थी राष्ट्रपति जी ने पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायणन का नाम तक नहीं लिया लेकिन क्यों ले . नारायणन ने अटल विहारी वाजपेयी के समय रबर स्टैम्प बनने से मना कर दिया . उन्होंने बहुत से बिल वापस किये और आँख बंद कर हर कागज़ पर दस्तखत नहीं किये . उस वक़त के सरकार उनके वक्तव्यों से परेशान थी. नारायणन ने उस दौर में देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप और उसकी विरासत को अपने भाषणों और कार्यो से जिन्दा रखा. ये पहली बार हुआ जब किसी राष्ट्रपति ने बाबा साहेब आंबेडकर को इतने बेहतरीन तरीके से विश्लेषित कर जनता के समक्ष रखा . जातिगत भेदभाव, छुआछूत और गरीबी पर उन्होंने जिस तरीके से देश की संसद और अन्य स्थानों पर बाबा साहेब आंबेडकर की बातो को रखा, वो अविश्मरनीय है .
राष्ट्रपति भवन को जिस सख्सियत ने सबसे मजबूती प्रदान की वह थे ज्ञानी जैल सिंह जिन्होंने बता दिया के वह सरकार की हर बात को मानने को तैयार नहीं हैं और सरकार को उन्हें जानकारी देनी ही पड़ेगी. सभी जानते हैं के ज्ञानीजी को श्रीमती इंदिरागांधी ने १९८२ में कांग्रेस पार्टी की और से रास्ट्रपति पद के लिए मनोनीत किया था और पार्टी की शक्ति के चलते वो आसानी से रास्ट्रपति बने थे . उनके राष्ट्रपति बनने पर ऐसा कहा गया के उन्होंने कहा के अगर श्रीमती गाँधी बोलेंगी तो मैं उनके घर में झाड़ू भी लगाने को तैयार हूँ. जो लोग भारतीय राजनीती को जानते हैं वो ये जरुर जानते होंगे के व्यक्तिगत निष्ठां सत्ता के करीब आने का एक बहुत बड़ा कारण होता है और अगर जैल सिंह को इंदिराजी ने चुना तो वो इसलिए के वह १९७५ के फखरूदीन अली अहमद की तरह कार्य कर सके जिन्होंने २५ जून १९७५ को कैबिनेट के बिना मीटिंग के किये गए विधेयक पर दस्तखत कर देश में आपातकालीन स्थिति के घोषणा कर दी थी . श्रीमती गाँधी जैसे सशक्त व्यक्तित्व को राष्ट्रपति भवन में ऐसा व्यक्ति चाहिए था जो उनके इशारों पर काम करे और कोई अडंगा न लगाए . दुर्भाग्यवश अक्टूबर १९८४ में श्रीमती गाँधी की हत्या हो गयी. ज्ञानी जी यहाँ पर फखरूदीन अली अहमद का रोल निभाया . उन्होंने कांग्रेस पार्टी की संसदीय दल की बैठक के बिना ही अरुण नेहरु और आर के धवन के इशारे पे राजीव गाँधी को कांग्रेस पार्टी के नेता के तौर पर प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी .ये कार्य इतना द्रुतगति से हुआ के देश में इस पर चर्चा करने का समय भी नहीं था . असल में राजीव उस समय बंगाल के दौरे पर थे और जब उन्हें तुरंत दिल्ली आने की सुचना दी गयी तो उनके साथ में प्रणब मुख़र्जी थे . ऐसा कहा जाता है के हवाई जहाज से दिल्ली आते समय राजीव ने प्रणब मुख़र्जी से पुछा के प्रधानमंत्री किस बनाया जाना चाहिए तो प्रणब मुख़र्जी ने संसदीय परम्पराओं का हवाला देते हुए कैबिनेट के सबसे सीनियर मंत्री जो प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में कैबिनेट की अध्यक्षता करता हो, उसका नाम कहा . बात साफ थे प्रणब चाहते थे उनका नाम आगे किया जाए. वैसे नरसिम्हाराव की भी वही चाहत थी. प्रणब मुखर्जी की बात से राजीव शायद बहुत डिस्टर्ब हुए क्योंकि उनके दिमाग में यह रहा होगा के प्रणब मुख़र्जी उनके नाम की बात कहें . खैर, ज्ञानी जी अपना व्यक्तिगत धर्म निभाया और राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी . प्रधानमंत्री बनने के एक महीने के अन्दर ही कांग्रेस ने आम चुनावों की घोषणा कर दी और दिसंबर १९८४ हुए इन आम चुनावों में राजीव गाँधी के कांग्रेस को अभूतपूर्व बहुमत मिला जिसमे विपक्ष का सुपडा साफ़ हो गया . संसद विपक्षहीन हो गयी. इस अप्रत्याशित जीत ने राजीव को अतिविश्वासी बना दिया  और उन्होंने संसदीय परम्पराओं को अनदेखी करना शुरू कर दी. सबसे बड़ी बात यह हुई के धीरे धीरे राजीव ने ज्ञानी जी के साथ भी परम्परागत शिष्टाचार छोड़ दिया क्योंकि राजीव जिस बैकग्राउंड से आये थे उसमे अपने अलावा किसी और को महत्व न देना एक महत्वपूर्ण बात थी . जब ज्ञानी जी ने इसकी शिकायत की तो उनको अनसूना कर दिया गया . ज्ञानी जी पंजाब से पिछड़ी जाति से आते हैं और बहुत ही मिलनसार और जमीनी व्यक्तिव थे . उन्हें गुरमुखी और उर्दू में महारत थी लेकिन हिंदी भी ठीक ठाक बोलते थे लेकिन भारत के शहरी मध्यमवर्गीय समाज में अक्सर उनकी मजाक उड़ाई जाती क्योंकि वो अंग्रेजी नहीं जानते थे. राजीव उस वक़्त शहरी हिन्दुओ के अभिजात्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे, बढ़िया अंग्रेजी और चलताऊ हिंदी बोलते थे इसलिए लोगो को उन पर फक्र था . जैल सिंह सज्जन, उर्दू की शेरो-शायरी करने वाले व्यक्ति, तकनीक तौर पर कम पढ़े लिखे इसलिए सवर्ण मानसिकता के हिन्दुओ में उनके ज्ञान और भाषा को लेकर चुटकुले और घटिया मजाक होते थे . शायद यही मानसिकता के चलते राजीव उन्हें महत्त्व नहीं देते थे लेकिन प्रश्न व्यक्ति का नहीं अपितु उस पद का था जिस पर ज्ञानी जी बैठे थे और उसका अपमान नहीं बर्दास्त किया जा सकता था लेकिन ऐसा हुआ .
राजीव का अति आत्मविश्वास के चलते ही वो भ्रस्टाचार के आरोपों में घिरते चले गए . वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को पहले रक्षा मंत्रालय भेजा गया और फिर वहा से कांग्रेस पार्टी से ही निकाल दिया गया. ज्ञानी जी एक प्रखर राजनीतिज्ञ थे क्योंकि वो पंजाब के मुख्यमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री भी थे और उन्हें शाशन की छोटी छोटी बातो का ज्ञान था . ज्ञानी जी ने संविधान विशेषज्ञों को बुलाना शुरू किया और रास्ट्रपति के अधिकारों को लेकर बहस शुरू हुई. राजीव ने रास्ट्रपति भवन पर ही आरोप लगा दिया के वह साजिश कर रहे हैं . राजीव के चमचो की एक बहुत बड़ी फौज थी जो ज्ञानी जी और वी पी सिंह को टारगेट कर रही थी . मीडिया में एम् जे अकबर जैसे उनके पिट्ठू झूठो का पुलिंदा छाप रहे थे.
ऐसा कहा जाता है के ज्ञानी जी वी पी सिंह को राष्ट्रपति भवन बुलाकर उन्हें प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव किया था लेकिन वी पी न केवल एक मझे हुए राजनेता थे लेकिन नैतिकता के मापदंडो पर उनके समकक्ष आज भी कोई समकालीन नेता नहीं टिकता . उन्हें इस प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया था . देश के दो सबसे मूर्धन्य पत्रकारों के बीच बड़ी बहस हो रही थे . ये थे टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संपादक श्री गिरी लाल जैन और दुसरे इंडियन एक्सप्रेस के श्री अरुण शौरी . हालाँकि दोनों ही संघ के ‘विद्वानों’ की श्रेणी में आ चुके थे . जैन का कहना था के राष्ट्रपति को कानूनन चुनी हुइ सरकार को बर्खास्त करने का कोई अधिकार नहीं है लेकिन शौरी कह रहे थे के यदि सरकार रास्ट्रपति को उसके कार्यकलापो की जानकारी नहीं देती तो उन्हें ऐसा करने का अधिकार है .देश के बड़े बड़े संविधान विशेषज्ञ इस बहस में कूद गए लेकिन अंत में ऐसा नहीं हो पाया क्योंकि एक समझदार राजनेता ने उनका मुहरा बनने से मना कर दिया. ऐसा सभी जानते हैं के वी पी उस वक़्त भी प्रधानमंत्री बनते तो उनकी पॉपुलैरिटी राजीव से बहुत आगे बढ़ चुकी थी और लोग भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में उन्हें एक प्रमुख स्तम्भ मान रहे थे. हालाँकि ज्ञानी जी भी बहुत आगे बढ़ चुके थे लेकिन यह भी हकीकत है के सत्ता का नशा जब सर के ऊपर से चला जाता है तो लोग इन संवेधानिक मर्यादाओं को भूल जाते हैं . जैल सिंह ने राजीव गाँधी की मजबूत सरकार को अंतत ये बता दिया के रास्ट्रपति मात्र सरकार के कामकाजो पर मुहर लगाने वाला व्यक्ति नहीं ये अपितु उसके ऊपर संविधान की मर्यादाओं को बचाने की जिम्मेवारी भी है .
राम कोविंद जी को पता नहीं याद है या नहीं लेकिन ये बहुत महत्वपूर्ण है. उन्होंने न के आरं नारायणन और न के जैल सिंह को याद किया . आज का दौर भी कुछ राजीव गाँधी की तरह है . आज नरेन्द्र मोदी के रूप में एक ताकतवर नेता प्रधानमंत्री है और संघ अपना एजेंडा चलाना चाहता है . क्या राम कोविंद देश के संविधान की हिफाजत करेंगे या फखरूदीन अली अहमद बनेंगे जिन्होंने बिना कागज देखे दस्तखत कर देश के ऊपर राजनैतिक आपातकाल लगा दिया. आज का दौर १९७५ और १९८४ से ज्यादा भयावह है जब गैर संवैधानिक शक्तिया देश में हाहाकर मचा देना चाहती हैं और संविधान की मूल भावना को ही खोद देना चाहती है ऐसे में देश के राष्ट्रपति पर एक बहुत बड़ी जिम्मेवारी है जिसको वह ईमानदारी निभाकर वह इतिहास में दर्ज हो जायेंगे नहीं तो फखरूदीन अली अहमद की तरह भुला दिए जायेंगे .