Wednesday 25 November 2015

सहिष्णुता के अहंकार में डूबा समाज



विद्या भूषण रावत 

आमिर खान की पत्नी के विदेश में बसने की खबर से हर 'भारतीय' सदमे में है और उनको शाहरुख़ खान के साथ पाकिस्तान भेजने की बात कह  रहा है।  आमिर के पुतले जलाये जा रहे हैं और देश की विभिन्न अदालतों में उनके खिलाफ मुकदमे किये गए हैं जिनमे देशद्रोह का मुकदमा भी शामिल है।  सबसे मज़ेदार बात यह है के विदेशो में रहने वाले भारतीय इस अभियान को बहुत हवा दे रहे हैं वैसे भारत में रहने वाले लोग भी कह रहे हैं के आमिर ने गद्दारी की है और उनको इसके परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। है न कितनी अच्छी बात के हम पश्चिमी लोकतान्त्रिक देशो में रहकर पुरे अधिकार  के साथ भारत माता की जय बोलना चाहते हैं , मंदिर बनाना  चाहते है , मोदी  की बड़ी बड़ी रैलियां करना चाहते हैं लेकिन अपने देश में हम पूर्ण दबंगई दिखाना चाहते हैं।  अगर यही बात अमिताभ करते तो  क्या उन्हें कही भेजने की बात होती या नहीं ?

हम फ़िल्मी कलाकारों को भगवान बनाकर न देखे।   व्यक्तिगत तौर पर मैं आमिर खान को ढकोसलेबाज़ मानता हूँ क्योंकि उनकी सत्य  की जीत 'रिलायंस' के चंदे से होती है और भारत में अगर हम भ्रस्टाचार को लेकर लालू को इतना गरियाते है तो अम्बानी तो उस बिमारी के जनक थे।  क्या अर्नब गोस्वामी से भारत में 'ईमानदारी' का राग अलापने  वाले मसीहा लोग अम्बानी  और अडानी के बारे में बात करेंगे।  जब करप्शन की बात हो तो राजनेताओ का ही हिसाब किताब क्यों हो, उद्योगपतियों का क्यों नहीं, क्योंकि भ्रष्टाचार की गंगा उनकी ही दुकानो से निकलती है।  इसलिए आमिर ने जो कहा वो सोच बहुत रिहर्सल के बाद कहा और वो उनका व्यू पॉइंट है और उसे रखने की उनको छूट होनी चाहिए।  उनको पाकिस्तान भेजने और उनको गाली  देकर हिंदुत्व के लठैत आमिर की ही बात को सही साबित कर रहे हैं। 

मैं आमिर की बातो से कत्तई इतेफाक नहीं रखता।  पहले ये के आमिर का यह कहना के भारत में असिहष्णुता अचानक  बढ़ गयी बिलकुल गलत है।  हमारा देश असल में असभ्य  और क्रूर है जहाँ दहेज़ के लडकिया रोज जलती हैं , जहाँ प्रेम विवाह करने पर माँ बाप अपने ही बच्चो की निर्ममता से हत्या करने से नहीं घबराते , जहाँ किसी भी लड़की का शाम को घर से बाहर निकलना मुश्किल होता है , जहाँ सती का आज भी महिममंडन होता हो और विधवा होने पर औरतो  की जिंदगी नरक बना दी जाती हो, जहाँ आज भी मंदिरो में दलितों  के प्रवेश पर उनकी हत्या कर दी जाती हो , जहाँ किसी  के घर में क्या बन रहा हो उस पर समाज नियंत्रण करना चाहता ,हो , जहाँ स्कूलों में बच्चे इसलिए निकल जाते हो के खाना किसी दलित महिला ने बनाया हो , उस देश की महानता और संस्कृति का क्या कहे जहा  एक समाज को पढ़ने का हक़ नहीं और दूसरे को केवल मलमूत्र उठाने की जिम्मेवारी दी गयी हो , जिसके छूने भर से लोग अछूत हो जाए।  लेकिन भारत की महान सभ्यता का ढोंग करने वालो ध्यान इधर  कभी नहीं गया। ऐसा नहीं के इस विषय में लिखा नहीं गया हो या बात नहीं  की गयी हो। 

असहिषुणता का इतिहास लिखे तो शर्म आएगी लेकिन क्यों है के आमिर खान से इतनी नाराज़गी ? मतलब साफ़ है।  भारत के इलीट मुस्लिम सेकुलरिज्म के खेल में भारत की सहिष्णुता के सबसे बड़े 'ब्रांड' एम्बेसडर हैं।  और जो व्यक्ति 'अतुलनीय भारत ' की नौटंकी करता रहा हो वो अचानक पाला क्यों बदल बैठा। आमिरखान और अन्य कलाकारों ने भारत के 'सहिष्णु' होने के सबूत दिए और साथ ही दलितों या पसमांदा मुसलमानो की हालातो पर चुप रहकर उन्होंने हमेशा ही 'सहिष्णु' परम्परा का 'सम्मान' किया है।  शायद रईसी परंपरा में केवल बड़े बड़े लोगो  की बड़ी बड़ी बाते सेकुलरिज्म होती है लेकिन हलालखोर , कॅलण्डर , नट या हेला भी कोई कौम है इसका पता शायद इन्हे पता भी नहीं होगा।  हमें पता है के अभी तक मैला ढोने के प्रथा के विरुद्ध आमिर ने कभी निर्णायक बात नहीं की वो केवल टीवी शो में आंसू  बहाने तक सीमित थी। 

तो फिर क्या बदला।  लोग कहते हैं कांग्रेस के ज़माने में भी सेंसरशिप लगी और फिल्मे प्रतिबंधित हुई।  बिलकुल सही बात है।  हम इमरजेंसी के विरुद्ध खड़े हुए लेकिन अब ऐसा लगता है के सत्तारूढ़ दल का मुख्य आदर्श संजय गांधी और चीखने चिल्लाने वाले मुल्ले हैं जो किसी भी उदार विचार को या उनसे विपरीत विचार को डंडे और धमका डरा के रुकवाना चाहते है।  फ़िल्मी लोगो को उतनी ही तवज्जोह मिलनी चाहिए जितना चाहिए जिसके वे हक़दार हैं।  पिछले कुछ वर्षो में बम्बइया फ़िल्मी लोग हिंदुत्व और  एजेंडा लागु करने में सबसे  प्रमुख  रहे हैं और उनकी प्रसिद्धि ने चुनाव  भी जितवाया है लेकिन उनमे कोई भी ऐसे नहीं हैं जो शाहरुख़, आमिर या अमिताभ का दूर दूर तक मुकाबला कर सके।  अमिताभ हालाँकि गुजरात  या अन्य सरकारी विज्ञापनों में आते हैं लेकिन वो भी राजनैतिक हकीकतों से वाकिफ हैं इसलिए चुप रहते हैं हालाँकि देर सवेर उन्हें मुह खोलना पड़ेगा।  आज के हिंदुत्व कॉर्पोरेट के दौर में भारत की अग्ग्रेस्सिव मार्केटिंग  चल रही हैं इसलिए आमिर या शाहरुख़ जो वाकई में भारत के सवर्णो की 'सहनशीलता' के 'प्रतीक' है इसलिए उनसे ये 'उम्मीद' ये की  जाती है के वे डॉ ए पी जे कलाम की तरह अपने 'भारतीय' होने का सबूत दे।  कोई मुसलमान यदि अपने दिल की बात रख दे तो वो 'देशद्रोही' है।   जिन लोगो को सुनकर हम बड़े हुए साहिर , दिलीप कुमार, मोहम्मद रफ़ी ,  बेगम अख्तर आज उन्हें धर्म के दायरे में डाला जा रहा क्योंकि वे अपनी रे रखती हैं।  कई बार फिल्म स्टार, गायक या खिलाडी लोग वो बात कह देते हैं जो  उनके कई प्रशंषको नहीं जचती उसमे कोई बुरी बात नहीं है।  हम आमिर खान से साम्प्रदायिकता और सहिष्णुता का ज्ञान नहीं लेते अपितु उनकी फिल्म इसलिए देखते हैं के वो साफ सुथरी फिल्म बनाते है। क्या हम रवीना टंडन, अशोक  अशोक पंडित, गजेन्द्र चौहान या मनोज तिवारी से ज्ञान ले।  हाँ फिल्मो में बहुतसे  लोग रहे हैं जिन्होंने गंभीर विषयो पर बोला है और उनकी समझ समझ है।  बाकि हमको कोई कलाकार इसलिए अच्छा लगता है क्योंकि हमें उसकी एक्टिंग अच्छी लगती है या फिल्म अच्छी लगती है।  अगर आप आमिर या शाहरुख़ की फिल्मोंी का बॉयकॉट इसलिए करना चाहते हैं के उनकी कोई बात आपको अच्छी नहीं लगी तो फैसला आपका है क्योंकि  फिर आपको  मनोज तिवारी, अनुपम खेर, अशोक पंडित, गजेन्द्र चौहान  आदि की फिल्मे देखनी पड़ेंगी क्योंकि उनके विचार आपको अच्छे लगते हैं।  

 आमिर खान ने जो कहा वो उनका हक़ था और शायद देश का बहुत बड़ा तबका वैसे ही सोच रहा है।  अपने दिल की बात को अगर वो कह दिए तो हमारा क्या फ़र्ज़ है  ? उसको गालियो से लतियाये या भरोषा दिलाएं।  आमिर ने जो गलत कहा वो के असिषुणता बढ़ रही है क्योंकि वो पहले से ही हैं।  इस देश के लोगो ने उनको प्यार दिया है।  जो लोग इस वक़्त दबंगई कर रहे है वो हमें एमेजेन्सी के संजय गांधी के गुंडों की याद दिला रहे हैं। आमिर को कहना चाहिए कौन लोग ऐसा तमाशा कर रहे हैं।  ये पुरे देश के लोग नहीं हैं ये एक पार्टी विशेष और जमात विशेष के लोग हैं जिन्होंने उन सभी को गरियाने  और धमकाने का लाइसेंस लिया हुआ है जो इनकी विचारधारा से मेल नहीं खाते।  इसलिए आमिर साहेब सबको न गरियाये।  साफ़ बोलिए वो कौन हैं जो असहिषुणता फ़ैला रहे हैं।  एमर्जेन्सी का विरोध करने वालो का सबसे बड़ा मॉडल इमरजेंसी का दौर ही है और वही व्यक्तिवादी राजनीती आज हावी है केवल फर्क इतना है के उस दौर में दूरदर्शन और रेडियो पर समाचार सरकार सेंसर करती थी और आज सरकार और सरकारी पार्टी के दरबारी पत्रकार पूरी ताकत से ये काम कर रहे हैं।  आज अर्नब गोस्वामी और सुधीर चौधरी का दौर है जिसमे सरकार से मतभेद रखने वालो की खबरे सेंसर होंगी अपितु उनको अच्छे से गरियाया जायेगे आखिर ९ बजे के प्राइम टाइम शोज का यही उद्देश्य है। हकीकत यह है के हम वाकई में एक भयानक दौर से गुजर रहे हैं जिसमे तिलिस्मी राष्ट्रवादी नारो की गूँज में हमारे मानवाधिकारों और अन्य संविधानिक अधिकारों की मांग की आवाज़ो को दबा दिया जा रहा है।  पूंजीवादी ब्राह्मणवादी  लोकतंत्र से आखिर आप उम्मीद भी क्या कर सकते हैं वो तो सन्देश वाहक को ही मारना चाहता है ताकि खबर ही न रहे और खबरे बनाने और बिगाड़ने के वर्तमान युग में मीडिया निपुण होता जा रहा है जो वहुत ही शर्मनाक है। 

Monday 12 October 2015

Temple Entry movement : Mental slavery or a human rights issue

दलितों का मंदिर प्रवेश आंदोलन : दिमागी गुलामी या मानवाधिकारों का प्रश्न 


विद्या भूषण रावत 

दो वर्ष पूर्व बर्मिंघम में घूमते हुए हमारे मित्र देविन्दर चन्दर जी ने बताया के कैसे इंग्लैंड के कई पुराने और ऐतिहासिक चर्च अब खाली पड़े हैं और सिख उन्हें खरीद रहे हैं।  इन गिरजो में अब कोई क्यों नहीं जाता ये समझना जरुरी है और क्या 'सिखो द्वारा गुरुद्वारा बना लेने से कोई अंतर उसमे आ जायेगा क्योंकि ये केवल धनाढ्य सिख धार्मिक नेताओ को ही मजबूत करेंगे और उसके अलावा उस समाज के किसी भी सेक्युलर सेक्युलर तबके को आकर्षित नहीं कर पाएंगे।   जैसे जैसे कोई समाज सभ्यता और स्वतंत्र सोच की और अग्रसर होता है उसे भगवानो, पुजारियों और पूजास्थलों की आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि वह अपनी स्वतंत्रता को कायम रखने के लिए अपनी मनपसन्दीदा साहित्य और मनोरंजन को ढूंढता है और धर्म और उसके किताबे उसे अपनी आज़ादी पर बंदिश लगाने वाली नज़र आती हैं.  सिख समाज जरूर पैसे से मजबूत है लेकिन धार्मिक नेतृत्व  के चलते उनका बहुत नुक्सान भी हुआ है और अभी भी सिख अपने धार्मिक कठमुल्लाओं के खिलाफ बहुत मज़बूती से नहीं बोल पाये हैं।  पश्चिम में समाज ने आर्थिक, सामाजिक सांस्कृतिक तरक्क़ी की है इसलिए व्यक्ति अपने जीने के लिए पुस्तको और प्रकृति की और ज्यादा दौड़ता है बजाये पूजास्थलों की और जाने के। 

ये बात लिखने का आशय इसलिए के भारत में मंदिरो में प्रवेश को लेकर कई प्रकार के आंदोलन चल रहे हैं। बहुत से 'संतो' और 'क्रांतिकारियों ' ने दलितों के मंदिर प्रवेश के लिए कई स्थानो पे आंदोलन किये लेकिन इन सभी में नेतृत्व करने वाले 'महात्मा' तो पुरुस्कृत और महान हो गए लेकिन दलितों को अपमान और हिंसा ही सहनी पड़ी क्योंकि अधिकांश आंदोलन संकेतात्मक थे और उनसे बहुत बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि जब धार्मिक विचारधारा और उसमे व्याप्त कुरीतियां, अन्धविश्वाश, जातिवाद, छुआछूत पर हमला नही होगा तो मंदिर प्रवेश ब्राह्मणवाद और हिन्दुवाद को ही मज़बूत करेगा। 

 पिछले महीने मैं जौनसार (उत्तराखंड) क्षेत्र में था जहाँ दलितों को कई स्थानीय मंदिरो में प्रवेश पर प्रतिबन्ध है। इस इलाके में दलित अल्पसंख्यक हैं और विकास की धरा से यह क्षेत्र अभी कोसो दूर है।  वैसे यहाँ पर राजनैतिक नेतृत्व ने हमेशा से लोगो की अज्ञानता का आनंद उठाया है क्योंकि अविघाजीत उत्तर प्रदेश से लेकर उत्तराखंड बनने तक आदिवासी नेतृत्व के नाम पर पर इस क्षेत्र का एक मंत्री अवश्य बनता है लेकिन उनको भी यहाँ की असमानता और भेदभाव नज़र नहीं आता।  जब हमने वहां मौजूद लोगो से बात की तो अधिकांश साथियो को आंबेडकर नाम का पता तो था लेकिन उनके विचार क्या थे उसका दूर दूर तक अंदाज नहीं था।  एक अम्बेडकरवादी कमसे कम अपनी गरीबी के बावजूद भी विद्रोह का झंडा बुलंद रखता है लेकिन  यहाँ नौजवानो में मैं मंदिर प्रवेश के लिए उतावलापन देख रहा था ना के वर्ण व्यस्था के लिए कोई घृणा.  इसलिए जन समस्याओ को लेकर एक मित्र ने जब  बड़ा सम्मेल्लन बुलाया था तो उसमे  कई स्थानीय मुद्दे सामने आये लेकिन सभी ने शराबबंदी और मंदिर प्रवेश को मुख्य मुद्दा बताया।  मेरी दृष्टि में ये प्रश्न ही नहीं हैं और दलितों को शाकाहारी ब्राह्मणवादी चालो में घसीटने की कोशिश है क्योंकि सांस्कृतिक और स्थानीय आदतो पर हम अपने वैष्णवादी सोच लागु कर असली समस्याओ से ध्यान भटका देते हैं। 

 जौनसार का सम्पूर्ण  इलाका अनुसूचित जनजाति क्षेत्र  घोषित है।  देहरादून से करीब ७० किलोमीटर आगे चकराता, कलसी, विकशनगर आदि के इलाके जौनसार कहलाता है। पूरा इलाके में दलितों पे अत्याचार होता है और मंदिरो पर उनके प्रवेश पर पाबंदी है।  सबसे खतरनाक बात यह है के अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम यहाँ लागू नहीं होता क्योंकि पूरा इलाका आदिवासी क्षेत्र माना जाता है लेकिन ये आज से नहीं  अपितु उस समय से है जब उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा था और राज्य सरकारों ने कभी कोशिश नहीं की के इसे ठीक से समझा जाए और इसमें बदलाव लाया जाए.  क्योंकि इलाका आदिवासियों का था इसलिए मांग उठी थी के इसे आदिवासी इलाका  लेकिन अधिकारियो और राजनेताओ की चाल बाजी का नतीजा था के उन्होंने इस कमी की और ध्यान नहीं दिया और लिहाज़ा दलितों और आदिवासियों को इसका नुक्सान भुगतना पड़ रहा है क्योंकि आरक्षण का लाभ इस क्षेत्र के सवर्ण उठा रहे हैं लेकिन  छेत्र के आदिवासी नेता मंत्री कभी इस प्रश्न को नहीं उठाते।   इसीलिए मैं हमेशा से कहता रहा हूँ के समस्याओ के अति सामान्यीकरण से बहुत नुक्सान होता है।  जौनसार क्षेत्र का राजनैतिक नेतृत्व अपने को आदिवासी कहता है लेकिन यहाँ के दलितों पर हो रहे अत्याचार और इलाके में मौजूद अन्धविश्वास को अपनी संस्कृति बनाकर इस्तेमाल कर रहा है। पूरे क्षेत्र को आदिवासी जनजाति घोषित करने के अर्थ ये है के यहाँ रहने वाले हिन्दू सवर्ण सभी संवैधानिक तौर पर आदिवासी घोषित हो गए और वो सारे लाभ ले रहे हैं जो अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष तौर पर संविधान में बनाये गए है। दुखद और खतरनाक बात यह है के सवर्णो के अत्याचार पर दलित अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम का सहारा नहीं ले सकते लिहाज़ा दलितों पर अत्याचारों की कोई रिपोर्टिंग भी नहीं होती। वैसे एक सुचना के मुताबिक एक संसदीय समिति ने पूरे इलाके को आदिवासी घोषित कर सभी लोगो को आरक्षण का लाभ देने का विरोध किया है लेकिन न उस रिपोर्ट का कुछ पता ना ही सरकार  की उसमे कोई दिलचस्पी दिखाई देती है। 

जब मैं युवाओ से बात कर रहा था तो मैंने उनसे पूछा के मंदिर प्रवेश क्यों बड़ा  मुद्दा है ? भाई, अगर सवर्णो को अपने मंदिरो में गर्व है और वो दलितों को अपने मंदिरो में नहीं आने देना चाहते तो वो एहि साबित कर रहे हैं के दलित  हिन्दू नहीं है क्योंकि आप यदि हिन्दू हैं तो आपको मंदिर प्रवेश का अधिकार है।  मैं इस सवाल को दो तरीको से देखता हूँ।  एक तो व्यक्ति के अधिकार का मामला क्योंकि आधिकारिक तौर पर दलित हिन्दू हैं और भारत के संविधान ने छुआछूत को गैरकानूनी घोषित किया है इसलिए दलितों के मंदिर प्रवेश के अधिकार को साफतौर पर क़ानूनी सहमति है और उसे कोई ताकत रोक नहीं सकती क्योंकि धर्मस्थल सार्वजानिक सम्पति हैं और लोगो को पूजा के उनके अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।  ये एक मानवाधिकारों की लड़ाई है  और भारतीय संविधान  की पूरी ताकत उनके साथ है.  लेकिन एक अम्बेडकरवादी नज़रिये से जब हम इन चीजो को देखते हैं तो बाबा साहेब के मिशन का धयान आता है जब उन्होंने लोगो से गुलामी की जंजीरो को तोड़ने के लिए कहा था, बाइस प्रतिज्ञाएँ करवाई थी और लाखो लोगो के साथ बुद्ध धर्म ग्रहण किया था इसलिए बहुत बड़ी जिम्मेवारी लोगो के ऊपर भी है के वे अपनी मानसिक गुलामी को तोड़ने में कामयाब होते हैं या नहीं।   हम अगर सारी उम्मीदे राज्य सत्ता के ऊपर लगाकर चैन की नींद सोना चाहते हैं तो ये समझना होगा के मनुवादी सोच के मठाधीशो को मानववादी सोच के संविधान की 'रक्षा' का दायित्व है इसलिए दलितों के मंदिर प्रवेश के अधिकार को सरकार असहायता से देख रही है क्योंकि सारे जौनसार के हिन्दू अब दलितों के मंदिर प्रवेश को रोकना चाहते हैं। 

सवाल इस बात का है के क्या वाकई हिन्दू दलितों के मंदिर प्रवेश को रोकना चाहते हैं ?  मैं ये मानता हूँ के हिन्दू दलितों को भिखारी के तौर पर देखना  चाहते हैं नाकि इज्जत और बराबरी का हक़ लेकर अपनी शर्तो वाले व्यक्ति को लेकर इसलिए अगर झुककर, छुपकर आप मंदिर में घुश गए तो कुछ समस्या नहीं है लेकिन यदि अपनी पहचान के साथ इज्जत के साथ जाओगे तो वर्णव्यस्था को खतरा है।  खतरा असल में मंदिर प्रवेश से नहीं अपितु दलितों में बढ़ रही जातीय अस्मिता से है क्योंकि ये जानते  हैं के दलितों और पिछडो के गए बिना हिन्दुओ के मंदिर खाली पड़ जायेंगे और उनमे जाने वाले नहीं मिलंेगे। आज दलित हिन्दू केवल उनकी आबादी बढ़ने के लिए हैं अन्यथा हिन्दू व्यवस्था में उनका  कोई सम्मान नहीं है इसीलिए बाबा साहेब आंबेडकर ने उन्हें बुद्ध की शरण में जाने की  सलाह दी क्योंकि उस जगह जबरन घुश्ने का कोई मतलब नहीं जहाँ दिल के दरवाजे बंद हैं और दुनियाभर का छलकपट मौजूद हो।  आज भी हिन्दू समाज और उनके राजनैतिक संघठनो ने समाज बदलने का कोई प्रयास नहीं किया और न ही छुआछूत  विरुद्ध कोई आंदोलन किया।  दलितों के घर में एक दिन आकर मेला लगाने और तथाकथित रोटी  खा लेने भर से समाज में व्याप्त कुरीतियां नहीं जाने वाली क्योंकि जातियों को  वोट बटोरने तक ही सिमित कर दिया गया है। अभी भी हमारे नेता खाप पंचायतो के विरुद्ध बात करने को तैयार नहीं है।  आखिर हिन्दुओ को अगर दलितों के साथ रहने में दिक्कत है  तो दलित उनके साथ रहने को क्यों लालायित रहे ? 

आज जौनसार का दलित आरक्षण का लाभ भी नहीं ले पा रहा लेकिन मुझे दुःख हुआ जब मैंने कुछ नौजवानो से कहा के उन्हें मंदिर में जाने के बजाये संविधान को  पढ़ना चाहिए ताकि वे अपनी लड़ाई लड़ सके।  मनुवादियों की शरण में जाकर दलितों का उद्धार नहीं हो सकता।  भगवान और पुरोहितवाद बराबरी  और मानवता के दुश्मन हैं और वे अब बदलने वाले नहीं हैं और डंडे के बल पर आप मंदिर चले भी गए तो क्या करोगे जब पूरा साहित्य और धर्म ग्रन्थ आपको गरियाते नहीं थकते।  इसलिए अगर आप हिन्दू हैं तो आपके मंदिर जाने  के हक़ का मैं समर्थन करता हूँ और यदि नहीं तो आप अब चिंता छोड़िये।  मंदिरो, मस्जिदो, गुरुद्वारों या चर्चो में दलितों की आज़ादी नहीं छिपी है।  अगर दलितों की आजादी कही है तो वो है बाबा साहेब के तर्कवादी मानववदी दर्शन में और उनके बनाये संविधान में जो  मनुवादी समाज की आँख का कांटा बना हुआ है इसलिए उसको बचाने की हमारी जिम्मेवारी कहीं बड़ी है।  याकि मानिये आप मंदिर प्रवेश करके अपने इमोशन को तो बचा पाएंगे लेकिन आप मनुवाद को ही मज़बूत कर रहे है जो दिल से कभी बराबरी नहीं चाहता।  यदि उत्तराखंड के जौनसार या किसी  भी हिस्से के हिन्दू दलितों को मंदिर प्रवेश के लिए आंदोलन करें तो हम कहेंगे के बातो पर विचार करो लेकिन दलितों को अपने मंदिर प्रवेश के लिए खुद ही लड़ाई लड़नी पड़े और फिर मनुवादी ताकते उनको मार काटने के लिए तैयार खड़ी  हों तो ऐसे लड़ाई का कोई लाभ नहीं क्योंकि ये तो ब्राह्मणवाद के हाथो में खेलना है।  याद रहे आपका जीवन महत्वपूर्ण है और उसको सही दिशा में लेजाइये।  मंदिरो या पूजास्थलों में जाना बंद करें और चढ़ावे को अपने बच्चो की शिक्षा में लगाये तो भला होगा।  यकीं मानिये दलित जिस दिन पोंगा पंडितो और मंदिरो के पास जाना बंद  करदेंगे इन मंदिरो पे ताले पड़  जायेंगे और वे ज्यादा आज़ाद ख्याल रहेंगे और उनपर कोई अत्याचार भी नहीं होगा। 


 उत्तराखंड की सरकार और दो सवर्णवादी पार्टियो से मैं यही कहूँगा  के वे दोगली राजनीती बंद करें।  वो साफ़ करें के एक नागरिक  क्या अपने धर्मस्थल में नहीं जा सकता ? यह सरकार का दायित्व  है कि  लोगो को भयमुक्त प्रशाशन दे ताकि सभी अपनी इच्छा अनुसार पूजा अर्चना कर सके।  सरकार लोगो को पुजस्थल में प्रवेश करने से न तो रोक सकती है और ना ही उन्हें धार्मिक गुंडों के हवाले छोड़ सकती है।  यदि ६० वर्ष बाद भी एक व्यक्ति अपने पूजा अर्चना के अधिकार से वंचित है तो धिक्कार है इस व्यवस्था का और हमारे राजनेताओ पर। राज्य सरकार का यह उत्तरदायित्व है के पुरे प्रदेश में छुआछूत और जातिवाद के विरुद्ध एक बड़े एक बड़े कार्य्रकम की घोषणा करे ताकि ऐसी घटिया मानवविरोधी मानसिकता समाज में न पनपे और सभी लोग सम्मान के साथ जीवन यापन कर सके। हरियाणा में भगाना के लोगो ने मानसिक उत्पीड़न से तंग आकर  हिन्दू  धर्म का परित्याग किया।  कई बार उनलोगो को धमकी भी मिली लेकिन लोग डिगे नहीं और उन्होंने अपना रास्ता अख्तियार किया क्योंकि वहां की सरकार दलितों को सम्मान और सुरक्षा देने में पूरी तरह  विफल रही।  हम केवल इतना कहना कहना चाहते हैं के स्वतंत्र भारत का संविधान दलितों को मंदिर प्रवेश की आज़दी देता है और उनकी सुरक्षा और आपसी भाईचारा बनाने की जिम्मेवारी सरकार की है न के दलितों की अतः उनको अपनी जायज मांग रखने का हक़ है। 

Friday 2 October 2015

हिंदुत्व की अराजकता का दौर






विद्या भूषण रावत 


उत्तर प्रदेश में पिछले बीस वर्षो में नॉएडा सभी सरकारों के लिए 'धन उगाही ' का एक बेहतरीन अड्डा बन गया है।  देश के सभी बड़े टीवी चैनल्स के बड़े बड़े स्टूडियोज और दफ्तर यहाँ है, कई समाचार पत्र भी यहाँ से प्रकाशित हो रहे हैं और बड़ी बड़ी कम्पनियो के कार्यालय भी यहाँ मौजूद है।  शॉपिंग माल्स, सिनेमा हॉल्स, बुद्धा इंटरनेशनल सर्किट , आगरा एक्सप्रेस हाईवे और क्या नहीं, नॉएडा, उत्तर प्रदेश के 'समृद्धता' का 'प्रतीक' बताया जाता है, ठीक उसी प्रकार से जैसे गुडगाँव की ऊंची इमारते और लम्बे चौड़े हाइवेज देखकर हमें बताया जाता है के हरयाणा में बहुत तरक्क़ी हो चुकी है।  लेकिन महिलाओ और दलितों पर हो रहे अत्याचार बताते हैं के मात्र नोट आ जाने से दिमाग नहीं बदलता  और आज भारत को आर्थिक बदलाव से अधिक सामजिक और सांस्कृतिक बदलाव की  जरुरत है।  बिना सांस्कृतिक बदलाव के कोई भी राजनैतिक और आर्थिक बदलाव एक बड़ी बेईमानी है और हम उसका नतीजा भुगत रहे हैं। 

अभी स्वचछ भारत और सशक्त भारत के नारे केवल विदेशो में रहने वाले भारतीयों और देशी अंग्रेजो को खुश करने की जुमलेबाजी हैं हालाँकि प्रयास पूरा है के 'भारतीय' नज़र आएं और इसलिए संयुक्त रास्त्र महासभा को भी बिहार की चुनाव सभा में बदलने में कोई गुरेज नहीं है।  जुमलेबाजी केवल इन सभाओ में नहीं है अपितु दुनिया भर में इवेंट मैनेजमेंट करके उसको 'बौद्धिकता' का जाम पहनाया जा रहा है ताकि जुमलों को ऐतिहासिक दस्तावेज और आंकड़ों की तरह इस्तेमाल कर अफवाहों को बढ़ाया जाए और मुसलमानो को अलग थलग किया जाए ताके दलित पिछड़े सभी हिन्दू बनकर  ब्राह्मण-बनिए नेतृत्व के अंदर समां जाये। 

मोदी के सत्ता सँभालने पर हिंदुत्व के महारथी अब खुलकर गालीगलौज पर उत्तर आये हैं और इसके लिए उन्होंने कई मोर्चे एक साथ खोल लिए हैं।  उद्देश्य है अलग अलग तरीके से विभिन्न जातियों को बांटा जाए और जरुरत पड़े तो उन्हें मुसलमानो के खिलाफ इस्तेमाल किया जाए।  मीडिया का भरपूर इस्तेमाल किया जाए और पाकिस्तान, इस्लाम आदि के नाम पर मुसलमानो पर दवाब डाला जाए. दूसरी और आरक्षण को लेकर दलितों और पिछडो को बदनाम करने वाली बाते और आलेख टीवी और प्रिंट मीडिया में छापे जाएँ।  जातिगत आंकड़ों की बात करने वालो को जातिवादी घोषित कर दिया जाए ताकि 'ब्राह्मणवादी' 'सत्ताधारी अपनी जड़े मज़बूत कर सके। सत्ता में आने पर संघ ने दलित पिछडो के दो चार नेताओ को कुछ दाना तो फेंका पर सत्ता पर ब्राह्मण, बनियो का बर्चस्व इतना पहले कभी नहीं था  जितना आज है। 

सबसे पहले चालाकी थी जनसँख्या के आंकड़ों को धार्मिक आधार पर प्रकाशित करना और उसके जरिये मुस्लिम आबादी के बढ़ने को दिखाकर गाँव गाँव उस पर  बहस चलाने की कोशिश करना जब के पुरे देश में दलित पिछड़े और आदिवासी जनसंख्या के आंकड़ों को  जातीय आधार पर प्रकाशित करने की बात कर रहे थे और उसके विरूद्ध आंदोलन कर रहे थे ? आखिर जनसँख्या के आंकड़े जातीय आधार पर न कर धार्मिक आधार पर क्यों किये गए ? मतलब साफ़ है , संघ के ब्राह्मण बनिए अल्पसंख्यक धर्म के आधार पर ही बहुसंख्यक होने का दावा कर दादागिरी कर सकते हैं क्योंकि जाति के आधार पर उनकी गुंडई हर जगह पर नहीं चल पाएगी और बहुसहंक्यक होने के उनके दावे की पोल खुल जायेगी। इसलिए मैं ये बात दावे से कह रहा हूँ के भारत के हिन्दू रास्त्र बनाने से सबसे पहले शामत इन्ही जातियों की आ सकती है इसलिए वे हिन्दू रास्त्र का शोर मुसलमानो के खिलाफ ध्रुवीकरण और ब्राह्मण बनिए वर्चस्व को बरक़रार करने के लिए करेंगे। 

हकीकत यह है के मुसलमानो पर हमले होते रहेंगे ताकि उनके दलित विरोधी, आदिवासी विरोधी और पिछड़ा विरोधी नीतियों और कानूनो पर कोई बहस न हो।  संघ प्रमुख ने आरक्षण पर हमला कर दिया है और ये कोई नयी बात नहीं है के साम्प्रदायिकता के अधिकांश पुजारी सामाजिक न्याय के घोर विरोधी है और उनका ये चरित्र समय समय पर दिखाई भी दिया है।  १९९० के मंडल विरोधी आंदोलन को हवा देने वाले लोग ही राम मंदिर आंदोलन के जनक थे। आखिर ये क्यों होता है के संघ परिवार का हिन्दुवाद दलितों, पिछडो और आदिवासियों के अधिकारों को लेकर हमेशा से शक के घेरे में रहा है।  ये कब हुआ के संघ के लोगो ने छुआछूत, जातिप्रथा, दलितों पे हिंसा, महिला उत्पीड़न, दहेज़, आदिवासियों के जंगल पर अधिकार और नक्सल के नाम पर उनका उत्पीड़न के विरुद्ध कभी कोई आवाज उठाई हो।  उलटे इसके आरक्षण उनके दिलो को कचोटता रहता है आज तक मोहन भगवत ने ब्राह्मणो के लिए मंदिरो में दिए गए आरक्षण को  ख़त्म करने की बात नहीं की है।  क्या सारे ब्राह्मण संस्कृत के  प्रकांड विद्वान है ? क्या मंदिरो में पुजारी होने के लिए उनका ज्ञानवान होना जरुरी है या ब्राह्मण होना।  मेरिट का आर्गुमेंट ब्राह्मणो पर क्यों नहीं लगता।  लेकिन क्योंकि ब्राह्मणो को मंदिरो में आरक्षण और अन्य ऐताहिसिक सुविधाएं ब्रह्मा जी की कारण मिली हुई है इसलिए भारत का कानून उसके सामने असहाय नजर आता है. दूसरी और दलितों, आदिवासियों और पिछडो को आरक्षण भारतीय संविधान ने दिया है इसलिए ब्रह्मा के भक्त इस संविधान से खार खाए बैठे हैं। दलितों, पिछडो और आदिवासियों को केवल 'गिनती' के लिए हिन्दू माना जा रहा है। 

हम सवाल पूछते है के भूमि अधिग्रहण बिल को क्यों इतनी जोर शोर से लागु करना चाहती है।  क्या सरकार इतने वर्षो  हुए आदिवासी उत्पीड़न और बेदखली पर कोई श्वेत पत्र लाएगी ? क्या ये  बताएगी के नक्सलवाद के नाम पर कितने आदिवासियों का कत्लेआम हुआ है और कितने लोग अपने जंगल और जमीन से विस्थापित हुए है।  उस सरकार से क्या उम्मीद करें जो सफाई के नाम पर इतनी बड़ी नौटंकी कर रही है लेकिन मैला धोने वाले लोगो के साथ हो रहे दुर्व्यवहार, अत्याचार, छूआछूत पर मुंह खोलने को तैयार नहीं।  क्या सफाई अभियान भारत में व्याप्त व्यापक तौर पर हो रहे  मानव मल ढोने के कारण हिन्दू समाज के वर्णवादी नस्लवादी दैत्य रूप को छुपाने की साजिश तो नहीं है। भगाना के दलितों ने अत्याचार से परेशान होकर इस्लाम कबूल कर लिया लेकिन वो रास्ता भी अधिकांश स्थानो पर बंद कर दिया गया है।  धर्मान्तरण के कारण न तो दलितों को नौकरी में आरक्षण मिलेगा और न ही  अन्य सरकारी योजनाओ में उनके लिए कोई व्यवस्था होगी।  ऊपर से संघ के ध्वजधारी धर्मान्तरण को लेकर अपना हिंसक अभियान जारी रखेंगे। 

इसलिए जब भी आप इन प्रश्नो का  उत्तर ढूंढने का प्रयास करेंगे तो हमें एक अख़लाक़ की लाश मिलेगी।  क्योंकि आज दलितों, पिछडो और आदिवासियों के हको की लड़ाई से ध्यान बटाने के लिए हमें मुसलमानो के संस्कृति और उनकी संख्या का भय दिखाया जाएगा और यह बड़ी रणनीति के तहत हो रहा है।  छोटे कस्बो और गाँव में अफवाहों के जरिये दलितों और पिछडो को मुसलमानो के  खिलाफ खड़ा करो।  दादरी की घटना कोई अकेली घटना नहीं है और ये अंत भी नहीं है।   जिस संघ परिवार ने अफवाहों के जरिये दुनियाभर में गणेश जी को दूध पिलवा दिया वो आज फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सऐप के जरिये अपनी अफवाहों को फ़ैला रहा है।  दादरी में अखलाक़ के मरने को हादसा बताकर वहाँ के सांसद  और केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा ने प्रशाशन को पहले ही आगाह कर दिया के हिंदुत्व के आतताइयों के विरूद्ध कोई कदम उठाने की कोशिश न करें।  और याद रहे इस प्रकार की अफवाहे फैलाकर दंगे फ़ैलाने का कार्यक्रम  चलता रहेगा। 

कल हमीरपुर की घटना में एक ९० वर्षीया दलित को मंदिर प्रवेश करने पर जिन्दा जला दिया गया और  शंकराचार्य और हिंदुत्व के ध्वजधारी शासक चुप हैं।  जो व्यक्ति सेल्फ़ी और ट्विटर के बगैर जिंदगी नहीं जी सकता वो दलितों पर बढ़ रहे हिन्दू अत्याचार पर लगातार खामोश रहा रहा है।  एक भारतीय नागरिक को जिसका बेटा एयरफोर्स में कार्यरत है लोग उसके घरके अंदर मार देते हैं और हमारे संस्कृति के ध्वजवाहक हमसे कहते हैं  इसका 'राजनीतिकरण' न करें  . खाप पंचायते देश भर में अंतर्जातीय विवाहो के विरोध में हैं क्योंकि इसके कारण से जातीय विभाजन काम होंगे और ब्राह्मणीय सत्ता मज़बूत रहेगी इसलिए संघ और उसके कोई भी माननीय बाबा या दार्शनिक ने कभी भी छुआछूत और जातीय उत्पीड़न के विरुद्ध कुछ नहीं कहा अपितु उन्होंने  ऐसी बातो को सामजिक परम्पराओ के नाम पर सही साबित करने के प्रयास  किये हैं। 

आज देश आराजकता की और है और हिंदुत्व के ये लम्बरदार साम दाम दंड भेद इस्तेमाल करके भारत में धार्मिक विभाजन करना चाहते हैं ताकि उनकी जातिगत सल्तनत बची रहे।  मुसलमान इस वक़त ब्राह्मणवाद को बचाने और बनाने के लिए सबसे बड़ा हथियार हैं।  उनके नाम पर अफवाहे फैलाओ और राजनीती की फसल काटो लेकिन ये देश के लिए बहुत खतरनाक हो सकती है।  इन्हे नहीं पता के इन्होने देश और सामाज का कितना बड़ा नुक्सान कर दिया  है।  सैकड़ो सालो से यहाँ रहने वाले लोगों ने जिन्होंने इस देश को अपनाया आज अपने ही देश में बेगाने महसूस कर रहे हैं।  समय आ गया है के हम अपने दिमाग की संकीर्णताओं से बाहर निकले और ये माने के हमारे खान, पान, रहन सहन, प्रेम सम्बन्ध इत्यादि हमारी अपनी व्यक्तिगत चाहत है और सरकार और समाज को उसमे दखलंदाजी का कोई हक़ नहीं है।  मतलब ये के यदि अख़लाक़ बीफ भी खा रहा था तो उसको दण्डित करने का किसी  की अधिकार नही क्योंकि अपने घर के अंदर हम क्या खाते  हैं और कैसे रहते है ये हमारी इच्छा है।  क्या हिंदुत्व के ये ठेकेदार तय करेंगे के मुझे क्या खाना है और कहाँ जाना है , कैसे रहना है।  सावधान, ऐसे लोगो के धंधे चल रहे हैं और उन पर लगाम कसने की जरुरत है।  भारत को बचाने की जरुरत है क्योंकि ये घृणा, द्वेष देश को एक ऐसे गली में ली जाएगा जिसका कोई अंत नहीं। अखलाक़ को मारने के लिए दस बहाने ढूंढ निकाले  गए और कहा गया राजनीती न करें परन्तु ये जातिवादी सनातनी ये बताएं हमीरपुर में एक दलित के मंदिर प्रवेश पर उसे क्यों जिन्दा जला दिया गया, उसका कोई बहाना है क्या ? 

ऐसा लगता है के हिंदुत्व के महारथियों के लिए तालिबान, इस्लामिक स्टेट और साउदी अरब सबसे अच्छे उदहारण हैं जो विविधता में यकीं नहीं करते और जिन्होंने असहमति को हिंसक कानूनो के जरिये कुचलने की नीति अपनायी है।  भारत जैसे विविध भाषाई,  धार्मिक और जातीय राज्य में इस प्रकार की रणनीति कब तक चलेगी ये देखने वाली बात है लेकिन ये जरूर है के लोकतंत्र में ब्राह्मणवाद के जिन्दा रहने के लिए मीडिया और तंत्र की जरुरत है और वह उसका साथ भरपूर तरीके से दे रहा है इसलिए इन सभी कुत्सित चालो का मुकाबला हमारे संविधान के मुलचरित्र को मजबूत करके और एक प्रगतिशील सेक्युलर वैकल्पिक मीडिया के जरिये ही किया सकता है. ये सूचना का युग है और हम ऐसे पुरातनपंथी ताकतों का मुकाबला उनकी वैचारिक शातिरता को अपनी बहसों और वैकल्पिक प्लेटफॉर्म्स के जरिये ही कर सकते हैं और इसलिए जरुरी है के हम चुप न रहे और गलत को गलत कहने की हिम्मत रखे चाहे उसमे हमारी  जाति बिरादरी या धर्म का व्यक्ति क्यों न फंसा हो।  वैचारिक अनीति का मुकाबला  वैचारिक ईमानदारी से ही दिया जा सकता है जो हमारे समाज के अंतर्विरोधों को समझती हो और उन्हें हल करने का प्रयास करे न के  उनमे घुसकर अपनी राजनीती करने का।   ये सबसे खतरनाक दौर है और हर स्तर  पर इसका मुकाबला करना होगा।  अफवाहबाजो से सावधान रहना होगा और संवैधानिक नैतिकता को अपनाना होगा क्योंकि केवल जुमलेबाजी से न तो बदलाव आएगा और न ही पुरातनपंथी ताकतों की हार होगी। दलित पिछड़ी मुस्लिम राजनीती के लम्बरदारो को एक मंच पर आने के अलावा कोई अन्य रास्ता अभी नहीं है क्योंकि इस वक़त यदि उन्होंने सही निर्णय नहीं लिए और जातिवादी ताकतों के साथ समझौता किया तो भविष्य की पीढ़िया कभी माफ़ नहीं करेंगी।