Saturday 20 May 2017

भगाना के जातीय उत्पीडित दलितों के न्याय प्राप्ति के लिए संघर्ष के पांच साल



विद्या भूषण रावत


२१ मई २०१२ को हरियाणा के हिसार जिले के भगाना गाँव के लगभग १५० दलित परिवार ताकतवर जाटो की दबंगई और आर्थिक सामाजिक बहिष्कार के चलते गाँव छोड़ने को मजबूर होना पड़ा था . गाँव के बच्चे, बूढ़े , युवा जिसमे महिलाए भी शामिल थी, सभी तपती धूप में एक अनिश्चय की नयी जिंदगी की और पलायन कर रहे थे . उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा के उनकी सरकार उन्हें न्याय नहीं दे पाएगी और वो पांच साल तक खुले आसमान के नीचे हिसार के मिनी सेक्रेटेरिएट में या दिल्ली के जंतर मंतर पर अपनी जिंदगी गुजारने को मजबूर रहेंगे . किसी भी व्यक्ति के जिंदगी में पांच वर्ष कम नहीं होते . छोटे बच्चो या युवाओं के लिए जब एक एक पल जीवन का महत्वपूर्ण होता है ये बच्चे दिल्ली के जंतर मंतर या हिसार के मिनी सेक्रेटेरिएट में अपने माँ बाप के साथ संघर्ष में उतरे .
पांच साल के हर एक घटना इस संघर्ष के दो झुझारू साथी सतीश कजला और जगदीश काजला को आज भी याद है . वो जानते हैं के कैसे गाँव पंचायत ने दलितों से पैसा लेकर उनको घरो के लिए प्लाट देने का वादा किया और फिर उससे मुकर गए . हालाँकि भगाना के अधिकांश दलित भूमिहीन हैं और उन्हें रोज रोज के कामो के लिए बड़े किसानो के खेतो पर काम करना पड़ता है लेकिन जब भी उन्होंने अपने मान सम्मान के लिए आवाज उठाई उन्हें सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार झेलना पड़ा है . उनकी महिलाओं को घर से बाहरनिकलना भी मुश्किल होता है और गाँव के चमार चौक को जिसे सभी दलितों ने मिलकर आंबेडकर चौक का नाम दिया था और जो मुख्यतः दलित बस्ती के बाहर गाँव समाज की खली जमीन थी, उसको चारो और से इंट की दिवार बनाकर, सभी दलितों को गाँव से बाहर भेजने की साजिश थी ताकि न उन्हें जमीन का आवंटन करना पड़ेगा और न ही उन्हें दलितों के संपर्क में आना पड़ेगा . गाँव से बाहर आने के बाद भी हिंसा जारी रही और २३ मार्च २०१४ को जब देश शहीद भगत सिंह  की शहादत को सलाम कर रहा था और भगाना के साथी मिनी सेक्रेटेरिएट हिसार और जंतर मंतर दिल्ली पर अपने अधिकारों और न्याय के लिए सड़क पर संघर्ष कर रहे थे तो बाल्मीकि समाज की ४ लडकियों का गाँव के दबंग जाट युवको ने अपहरण कर लिया और फिर सामूहिक यौनाचार के बाद धमकी देकर पंजाब के भटिंडा रेलवे स्टेशन पर बदहवास छोड़ दिया . उनके परिवारों को धमकी दी गयी के पुलिस को किसी प्रकार की जानकारी न दे . क्योंकि भगाना कांड संघर्ष समिति जंतर मंतर पर धरने पे बैठी थी इसलिए इस घटना के विरोध में दिल्ली में भारी प्रदर्शन भी हुए और रास्ट्रीय अनुशुचित जाति आयोग ने संज्ञान लेकर कार्यवाही करने का प्रयास किया लेकिन बहुत कुछ न्याय मिलता नहीं दिखाई दिया .

भगाना का मामला भारत की राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था की पोल खोलता है . ये दिखाताहै के भारत में लोकतंत्र केवल दबंगई का है और इस वक़त लम्पट उसका ज्यादा लाभ उठा रहे हैं . वैसे  लोकतंत्र की सबसे बेहतरीन परिभाषा अंतरास्ट्रीय मापदंडो के हिसाब से वह प्रशाशनिक व्यवस्था है जिसमे रहने वाला कमजोर से कमजोर शख्स भी कानून के द्वारा संरक्षित हो और अपने को सुरक्षित समझता हो लेकिन पिछले पांच साल में भगाना के संघर्ष को मैंने बहुत नजदीकी से देखा है . गाँव में लोगो के घर पर ताले लगे हैं और जो दो चार लोग हैं भी वो भय और बायकाट की जिंदगी जीते हैं. गाँव में अब दलितों को खेती पर काम नहीं मिलता और गाँव के ऑटोवाले भी दलितों को वहां से हिस्सार जाने के लिए नहीं बैठाते. शामलात की जो जमीन दलितों को बंटनी थी उसके खिलाफ ५८ गाँवो की खापो ने फैसला दे दिया था के दलितों को न दी जाय. सारी जमीन पर गाँव के दबंग कब्ज़ा करके आपस में बाटना चाहते थे .भगाना की २५० एकड़ जमीन की प्लाटिंग होकर  दलितों में बांटी जानी चाहिए थी लेकिन आज के दौर में आसमान छूती जमीन की कीमतों के कारण सामंतो के नज़र उस पर थी और उसके लिए जरुरी था के दलितों को गाँव से बाहर कर दिया जाए  इसिलए इतनी तिकड़मे चली जा रही थी. हरियाणा की हूडा सरकार ने इसके लिए कुछ नहीं किया अपितु बिरदरिबाद को ही मज़बूत किया . भगाना के दलितों ने सभी नेताओं के चक्कर लगाये जिसमे सत्तारूढ़ दलों के दलित सांसद भी थे लेकिन उनको कोई मदद नहीं मिली .

रास्ट्रीय अनुशुचित जाति आयोगों में कई चक्कर लगे लेकिन न्याय नहीं मिला. मुझे याद है के भगाना गाँव से लगभग ६० लोग पिछले वर्ष आये आयोग के दफ्तर में . मुझे आयोग के अन्दर जाने के लिए रिसेप्शन पर खूब पापड़ बेलने पड़े और शर्म आती है इन सरकारी कर्मचारियों पर जो लोगो की मज़बूरी का फायदा उठाते हैं. ऊपर जाकर देखा तो बच्चे, बूढ़े, महिलाए , युवा सभी माननीय सदस्य का इंतज़ार कर रहे थे . सुबह १० बजे से ही लोग पहुँच गए से हिसार से चलकर . सुना के डीजी पी पुलिस और एक अन्य अधिकारी को आना था , उनको समन जारी हुए थे लेकिन ४  बजे तक लोग भूखे प्यासे इंतज़ार करते रहे लेकिन अधिकारी नहीं आये . आज भी मुझे याद है जब बलात्कार की शिकार चार लडकिया और गाँव की महिलाओं और बच्चो के साथ हम आयोग के दफ्तर में गए थे तो माननीय सदस्य महोदय ने पहले से ही एक लोकल चैनल वाले को खबर की थी और उन बच्चियों के सामने उन्होंने लम्बा चौड़ा भाषण दिया था लेकिन उसके बाद क्या हुआ कोई ढंग से नहीं जानता .

भगाना के साथियो को तो अपने संघर्ष के लिए ही अनेक आरोप झेलने पड़े . आज से पांच साल पहले दिल्ली में सॉलिडेरिटी समिति बनी थी और जब जब भगाना का मसला गूँजा सभी लोग आये . बड़ी संस्थाए, संगठन, सामाजिक कार्यकर्ता और बहुत सारे लोग लेकिन क्या कारण है के बहुत से चेहरे जो उस वक़्त थे वो अब नहीं हैं ? समिति के एक प्रमुख सदस्य जगदीश काजला बताते हैं के हमारे पास लोग अभी भी आते हैं लेकिन जो लोग इस आन्दोलन को संस्थाओं का प्रोजेक्ट समझ रहे थे वो यहाँ आ भी नहीं सकते थे क्योंकि वो चाहते थे के आन्दोलन का नेतृत्व उनके हाथ में हो . ये एक त्रासदी है के जब कोई घटना घटती है  तो हम सभी वहा पे जाते हैं और अपनी संवदेना, और एकजुटता भी दिखाते हैं लेकिन लम्बे समय तक हम साथ देने को तैयार नहीं है यदि लोग हमारे इशारो पे ना चले . भगाना आन्दोलन एक उदहारण है के जब हम राजनीती में नारा देते हैं के जिसका मुद्दा उसकी लड़ाई और जिसकी लड़ाई उसकी अगुआई तो आखिर भगाना के साथियो को उनके नेतृत्व में समर्थन देने में हमें क्या हर्ज़ ?

कई लोग ये मानते हैं के आन्दोलन अपनी दिशा से भटक गया . बहुत ये सोचते हैं के आखिर ये लोग चाहते क्या है ? लेकिन ये भी हकीकत है भगाना गाँव के अन्दर आज भी दलित आसानी से नहीं जा सकते हैं . हरियाणा सरकार ने जो वादा किया उस पर अमल नहीं हुआ . गाँव में दलितों को जमीन के पट्टोका वितरण होना था लेकिन नहीं हुआ . उनकी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है . कोई भी राजनितिक दल हरियाणा के अन्दर जाटो को नाराज़ करने का जोखिम नहीं उठा सकता .आये दिन दलितों पर हमले होते हैं और उनकी महिलाओं की कोई सुरक्षा नहीं है . गाँव चले भी गए तो सामाजिक आर्थिक बहिष्कार जारी है तो काम कहाँ मिलेगा.

ये बात जरुर है के लम्बी लड़ाई में लोगो में मतभेद हो जाते हैं क्योंकि हर एक उसके हिसाब से साथ नहीं आता . जैसे जगदीश काजला बताते हैं के गाँव के बहुत से लोग कई बार आरोप लगा देते हैं अब बात यह के सभी इतना आसान होता तो कोई भी अपनी पढाई और नौकरी छोड़ कर जंतर मंतर पर क्यों बैठता . किसी भी युवा के जीवन के पांच साल बहुत होते है और वो तब और मुश्किल होता है जब ऐसी लड़ाई में लोग साथ छोड़ते हैं और मनगढ़ंत आरोप लगा देते हैं . दरअसल लम्बी लड़ाई में लोग साथ नहीं देते और आजकल फास्टफूड मूवमेंट होने लगे हैं जो मूवमेंट कम और इवेंट मैनेजमेंट ज्यादा होते हैं . सोशल मीडिया के शोर में हर एक को विजिबिलिटी की बीमारी हो चुकी है इसलिए मुद्दों के लिए लम्बे समय तक और बिना पब्लिसिटी के भी मात्र सहयोगी की भूमिका में बैठना किसी को गवारा नहीं है . आज ज्यादातर आन्दोलन लम्बे समय तक न चलने के पीछे का कारण लोगो की आपसी ईगो हो गयी है और हर कार्य को उसके अंतिम परिणाम से जोड़कर देख लिया जा रहा है . भगाना ने दिखाया के राजनीतिक नेताओं ने एक सीमा के बाहर मुद्दे को छोड़ दिया. क्या कारण है के हरियाणा की विधान सभा या देश के संसद हरियाणा के इस गाँव की त्रासदी पर चर्चा नहीं कर सकती . जब विस्थापन की बात आती है तो कश्मीरी पंडितो का उदहारण दे देकर हमें बताया जाता है और सरकार भी उनकी चिंता करती है और विपक्ष भी , कोई भी ऐसे नहीं दिखना चाहता है के उनको पंडित विरोधी घोषित कर दिया जाए लेकिन भगाना के विस्थापित दलितों के लिए कोई आंसू नहीं निकलते हमारे नेताओं के पास . अगर सवर्ण प्रभुत्वाद के चलते लोग गाँव छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं तो क्या सरकार का ये कर्तव्य नहीं है के वे इन दलितों को नए स्थान पर बसाए और उनके रोजगार का इन्तेजाम करे.

दो वर्ष पूर्व जंतर मंतर पर धरने के दौरान ही भगाना के लोगो ने सामूहिक रूप से धर्मपरिवर्तन कर इस्लाम ग्रहण कर लिया . कई लोग इसे निराशावादी कदम मानते है और कई का मानना था के बाबा साहेब आंबेडकर ने तो ऐसा नहीं किया  लेकिन भगाना के लोगो ने अपनी समझ के चलते ये किया. उनके कई अनुभव थे जिसने उनको मजबूर किया लेकिन वह संघर्ष के लिए तैयार बैठे हैं . सतीश काजल और जगदीश काजल भगाना की लड़ाई को हरयाणा के दलितों की अस्मिता का संघर्ष कहते हैं और उसके लिए अब नए सिरे से आन्दोलन को गाँव गाँव लेजाने के जरुरत महसूस करते हैं .

अभी कुछ दिनों पूर्व भागना कांड के पांच वर्ष के अवसर पर जंतर मंतर में एक सभा की गयी थे . दुखद बात ये थी के लोगो की उपस्थति आशानुरूप नहीं थी लेकिन फिर भी बहुत लोग आये लेकिन जब मुद्दों पर लड़ने की बात आयी तो अधिकांश लोग उन्ही बातो को बोल गए जो वो बोलने के आदि है और जो प्रश्न हमारे सामने खड़े हैं उन पर अधिकांश चुप रहे . अक्सर ये बात दिखाई देती है के जहा लोगो को सहानुभूति एंड सहयोग की आवश्यकता होती हैं वहा बहुत से लोग अपना ज्ञान बघारते हैं और बहुत से अपनी पूरी क्रांति वही पर कर देते हैं फलतः सड़क पर उतारकर या समुदायों के साथ जाकर बैठकर, उनकी समस्याओ से रूबरू होकर संघर्ष का तो प्रश्न ही नहीं है .

भगाना आत्याचार के पांच साल पर एक बात तो साफ़ है के भारत में लोकतंत्र तब तक केवल संसद, विधानसभाओं, जंतर मंतर या अखबारों और टीवी के स्टूडियोज  तक ही सीमित रहेगा जब तक भारत के गाँव में मनुस्मृति का राज है और जातियों की खापो की दबंगई चलती रहेगी . गाँव के जातीय और पॉवर रिलेशन बदले बगैर हम स्वस्थ लोकतंत्र की परिकल्पना नही हर सकते . दुर्भाग्य यह है के गाँव में लोकतान्त्रिक व्यस्था लाने का एक मात्र तरीका था रेडिकल भूमि सुधार लेकिन भारत के अन्दर ईमानदारी से वो कभी लागु नहीं किये गए . यदि गाँव में दलित और भूमिहीनों के पास जमीन होती तो उनको न तो किसी की बन्धुवागिरी करनी पड़ती और न ही उन पर अत्याचार होते . एक हकीकत यह भी है के हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार बिलकुल भी नहीं लागु हुए. मनुवादी व्यस्था में तो काम का दाम नहीं मिलता था और दलितों और अन्य तबको अपने अधिकारों के लिए बोलने की भी मनाही थी क्योंकि भाग्य और किस्मत का खेल बनाकर उनकी चेतना हो पूर्णतः अवरुद्ध करने के प्रयास किये गए . क्रांति को धार्मिक भ्रान्ति के जरिए रोक दिया गया और लोगो को अन्याय के खिलाफ बोलने के बजाय अपनी किस्मत को ही दोष देने की शातिरता इस व्यवस्था का हिस्सा था ताकि लोग सवाल नहीं करें और उसके समाधान के लिए पुरोहितो की शरण में जाए . यानि अपनी बीमारी का इलाज़ भी उनलोगों से करवाये जो उसका कारण हैं . आज जरुरत है कारणों के न केवल समझने की बल्कि उसके समाधान की भी . भगाना के इस लम्बे संघर्ष से एक विशेष सबक तो ये सीखा जाए के भूमि सुधार दलों के एजेंडा में आये और अनुसूचित जाति आयोग या मानवाधिकार आयोग को मजबूती प्रदान की जाए, अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम कानून व्यक्तिगत मामलो में तो थोडा बहुत लग भी जाता है लेकिन सामूहिक जातीय हिंसा के प्रश्नों पर नदारद है . आज तक दलित पर हिंसा के सामूहिक मामलो में हमें तो कोई फैसला नज़र नहीं आया है . संसद और विधान सभा में ये प्रश्न उठाना चाहिए और सरकार से जवाबदेहि चाहिए मात्र एक दुसरे को दोषारोपण करके पार्टिया अपनी जिम्मेवारियो से नहीं बच सकती हैं . दलितों आदिवासियों और अति पिछड़ी जातियों को राशन कार्ड, पेंशन, नरेगा और अन्य कल्याणकारी योजनाओं की लोलीपॉप देकर आप उनके सम्मानपूर्वक जिन्दगी जीने के अधिकारों के प्रश्नों को गायब नहीं कर सकते . क्या हमारी राजनितीक पार्टीया या उनके समर्थक इन प्रश्नों पर अपना मुंह खोलेंगे और अपनी पार्टियों के राजनैतिक कार्यक्रम के बारे में बताएँगे , क्या वे इस प्रश्न पर अपनी विधानसभाओं और संसद में सवाल उठा सकते हैं ? कश्मीरी पंडितो की चिंता करने वाली पार्टियाँ दलित आदिवासियों के विस्थापन और दमन पर चुप क्यों रहती हैं ? उम्मीद है भगाना के विस्ग्थापित दलित पिछडो का संघर्ष हमारे राजनैतिक विमर्श का हिस्सा बनेगा . भगाना के संघर्षरत लोगो के हमारा सलाम .

Monday 15 May 2017

बहुजन नेतृत्व अम्बेडकरवादी युवाओ की राजनैतिक आकांक्षाओं को समझें



विद्या भूषण रावत

सहारनपुर के घटना के बाद दलितों का गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा क्योंकि प्रशासन बजाय प्रभावित लोगो को मदद करने के भीम सेना को एक अपराधिक समूह घोषित करने पर आमादा है . भीम सेना के संस्थापक चंद्रशेखर आज़ाद को पुलिस तलाश कर रही है और ये सूचनाएं है के उनके ऊपर रास्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाने के तैय्यारी चल रही है . घायल दलित परिवार अस्पताल में हैं और प्रदेश से लेकर केंद्र तक का एक भी मंत्री, सांसद  या विधायक लोगो की खोज खबर लेने नहीं गया. जिन लोगो का सब कुछ लुट गया उनके सुरक्षित घर वापसी और उनके जीवन को वापस पटरी पर लाने के लिए कोई योजना अथवा समाचार अभी तक तो नहीं सुनाई दिया है . इस सरकार और उसकी रणनीति को लेकर अगर अभी भी लोगो को गलतफहमिया हैं तो वो निकाल ले . मंचो से जय भीम के नारे और प्रधान सेवक के इमोशनल भाषण चाहे बाबा साहेब को लेकर हो या बुद्ध को लेकर हो उससे ज्यादा प्रभावित होने वाले लोगो को चाहिए के दलितों और पिछडो के प्रति सरकार के पिछले कुछ सालो के कार्यकाल बता सकते हैं के आखिर सरकार ने क्या क्या किया है . रोह्ति वेमुला से लेकर जे एन यू में छात्रवर्ती का प्रश्न हो या दलितों के लिए स्पेशल कॉम्पोनेन्ट प्लान की बात हो सभी न्यूनतम हो चुके हैं . अगर वेलफेयर योजनाओं को देखे तो सरकार की उनमे कोई दिलचस्पी नहीं है. बीफ बैन हो या अन्य कोई मामला, सभी किसानो और दलित पिछडो के विरुद्ध जाते हैं .

हालाँकि प्रधान्सेवक बाबा साहेब आंबेडकर और बुद्ध का बहुत नाम ले रहे हैं पर उत्तर प्रदेश के प्रधान सेवक को अम्बेडकरवाद में बहुत दिलचस्पी हो ऐसा नज़र नहीं आता और ये उनकी कार्यशैली से पता चल जाता है . अभी मेरठ के एक दिवसीय दौरे पर एक दलित बस्ती में जाते समय वो बाबा साहेब आंबेडकर के प्रतिमा को माल्यार्पण नहीं किये जबकि लोग उनका इंतज़ार कर रहे थे.  ऐसी बाते भूल से नहीं होती अपितु उनके पीछे अपने वोट बैंक को एक सन्देश भी देना होता है के हम सबकी तरह नहीं है .

योगी आदित्यनाथ के आने के बाद से उत्तर प्रदेश के राजपूत अति उत्साहित है . हो सकता है के बहुत सारे उन्हें महाराणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहान के बाद का सबसे मजबूत राजा मान रहे हो क्योंकि आज तक खुले तौर पर योगी आदित्यनाथ इस व्यस्था के पोषक दिखाई दे रहे हैं जो वर्णवादी है . उनके प्रसाशन पर राजपूतो के पकड़ दिखाई देती है और ये अनायास ही नहीं के वे लखनऊ में समाजवादी नेता चंद्रशेखर के जन्म दिवस अप्रेल १९ को एक कार्यक्रम में अतिथि बन कर गए और उनकी स्मृति में एक पुस्तक का विमोचन किया . मंच पर मुख्या अतिथियों में राजा भैया भी दिखाई दिए और ये कोई आश्चर्य की बात नहीं क्योंकि चंर्दाशेखर जी हालांकी खांटी समाजवादी थे लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवो में उनकी ताकत उनकी जाति ही थी लोगो को उनके समाजवाद से कम और ठाकुर होने से ज्यादा मतलब था और क्षेत्र के तमाम स्वनामधन्य नेताओं से उनके संपर्क थे और उन्होंने उसे कभी छुपाया भी नहीं . मंडल कमीशन के लागु होने पर उसके विरोध में सबसे ज्यादा चंद्रशेखर ही थे और अंत तक उनका विरोध था . उनके क्षेत्र के दलित पिछडो को चंद्रशेखर जी की राजनीती में कोई भरोषा नहीं था लेकिन वह नेताओं के नेता थे और माननीय मुलायम सिंह जी ने भी उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर जी की स्मृति में एक दिन की छुट्टी की घोषणा की थी . अब सभी चंद्रशेखर जी के समाजवाद से कम और ठाकुरवाद से ज्यादा प्रभावित थे .

उत्तर प्रदेश के राजनीती में बर्चस्व की राजनीती हावी है और नेताओं को दूसरीजाति पर भरोषा नहीं होता और वे अपनी अपनी जातियों के अधिकारियों को महत्वपूर्ण पदों पे पहुंचाते हैं . ये हकीकत सबको पता है और इसिलए हिंदुत्व भी ब्राह्मणवादी राजनीती है लेकिन अब योगी जी को भी बिरादरी की आवशयकता महसूस हो रही है . कल उत्तर प्रदेश के एक साथी कह रहे थे के योगी जी अच्चा काम कर रहे हैं लेकिन भाजपा के महत्वकांक्षी नेता उन्हें कुछ करने नहीं देंगे . हकीकत यह है के  छोटी छोटे निर्णयों के लेकर मीडिया ने लालू, अखिलेश और मायावती को तो घोर जातिवादी करार दे दिया जबकि दोनों की किचन कैबिनेट में भी ब्राह्मणों की अच्छी खासी भूमिका थी . इस वक़्त योगी और मोदी को मीडियाकर्मी उनके नेतृत्व के तौर पर नहीं अपितु  प्रशंशक के तौर पर देख रहा है अतः उनकी न तो आलोचना हो सकती है और न ही कोई सवाल उनसे किया जा सकता है . उनके भक्तो की जमात उनसे सवाल करने वाले लोगो से बदला लेने को तैयार है . मेरा सवाल यह है के इतने दिनों से उत्तर प्रदेश में गौ रक्षा के नाम पर मुसलमानों और दलितों का उत्पीडन हो रहा है लेकिन न तो प्रधान सेवक और न ही मुख्यमंत्री ने एक भी शब्द उनके बारे में कहा, तो क्या यह अच्छी बात है ? उन्होंने अपने लोगो से खुले तौर पर यह नहीं कहा के कानून हाथ में न लो . हम ये मानते हैं के संघ के जिन कार्यकर्ताओं की ट्रेनिंग शुरू से ही जाति और धर्म के संकीर्ण दायरे में हुई हो तो वो अचानक से नहीं बदलेंगे. उन्हें अभी भी नहीं लग रहा के सरकार में आने के बाद सत्तारूढ़ पार्टी को ज्यादा जिम्मेवार और समझदारी से बोलना होता है . लोग आपसे सवाल करेंगे और आपकी सरकार की उपलब्धिया मांगगे लेकिन उसके उत्तर में उन्हें गौसेवक, राष्ट्रवाद और अब सहारनपुर के दंगे ही दिखाई देंगे .

सहारनपुर के दंगो के पीछे साफ़ तौर पर जिले की राजनीती में सवर्ण बर्चस्व कायम करना है . सहारनपुर में दलितों के आर्थिक सामाजिक राजनैतिक हालत उत्तर प्रदेश के दूसरे इलाको से बेहतर हैं और इसलिए ये बसपा का गढ़ भी रहा है . उत्तर प्रदेश में भाजपा के लम्बी रणनीति के तहत हिन्दू मुसलमान की राजनीती में पिछडो और दलितों के नेतृत्व को पूर्णतया समाप्त करने की है. जातियों के बर्चस्व को कायम करने के लिए ही महाराणाप्रताप के जन्मदिन को मनाने की बात हुयी. लेकिन दिल में रहने वाली घृणा को देखिये के ठाकुर लोग बाबा साहेब आंबेडकर की मूर्ति की स्थापना चमार बस्ती में भी नहीं करने देना चाहते हैं . ये साफ़ नज़र आता है के वर्णवादी सवर्णों को अम्बेडकरवादी अस्मिता से बहुत परेशानी है क्योंकि वो व्यस्था को चुनौती दे रहे हैं .

सहारनपुर घटनाक्रम से भीम आर्मी का बहुत जिक्र हो रहा है . बहुत से ऑनलाइन पोर्टल्स में आर्मी के संस्थापक चन्द्रशेकर आजाद और उसके अध्यक्ष के साक्षात्कार सुनाये गए हैं . चंद्रशेखर राजनैतिक तौर पर जागरूक व्यक्ति नज़र आते हैं और उन्होंने कोई ऐसी बात नहीं की है जो समाज विरोधी या संविधान विरोधी हो . हकीकत बात यह है भीम आर्मी ने लोगो को न केवल जागरुक किया है अपितु उन्हें स्वरोजगार और व्यवसाय की तरफ भी आकर्षित किया है . भीम आर्मी अभी तक दलितवर्ग में आत्मसम्मान जगाने हेतु और उनमे एकता लाने का कार्य कर रही है  लेकिन भीम आर्मी को समझना पड़ेगा के उनका इस्तेमाल बसपा की ताकत को समाप्त करने के लिये  भी किया जा सकता है इसलिए आवश्यकता इस बात की है के आन्दोलन अभी सामाजिक ही रहे और राजनीतिक प्रयोग करने का प्रयास न करे क्योंकि उत्तर प्रदेश में २०१९ तक बहुजन समाज को अपनी स्थापित पार्टियों में ही परिवर्तन लाकर मज़बूत करना होगा नहीं तो मनुवादी शक्तियों के ही हाथ मज़बूत होंगे .
अभी तक बसपा की ओर से सहारनपुर हिंसा पर बहुत कुछ वक्तव्य नहीं आया है . भीम आर्मी से पार्टी ने पूर्णतया किनारा कर लिया है लेकिन वो ठीक नहीं है. बसपा मान्यवर कांशीराम द्वारा खड़ा किया गया आत्मसम्मान का आन्दोलन है और ये सब आसानी से नहीं होता. इसलिए जो लोग भीमसेना या कोई और लोगो को बसपा के विकल्प के तौर पर खड़ा करने की कोशिश करेंगे तो वो केवल वोट काटू की भूमिका में रहेंगे और कुछ नहीं कर पाएंगे . राजनीती के धरातल की हकीकत कुछ और होती है . बसपा प्रमुख सुश्री मायावती को चाहिए के वो भीम सेना या देश भर में हुए छात्रा आन्दोलन के नेताओं को एक मंच प्रदान करें . पिछले तीन वर्षो में हैदराबाद से लेकर जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय और अखलाक से लेकर पहलु खान तक की मौत ने, रोहित वेमुला से लेकर नजीब तक के लिए न्याय मांगते छात्र सडको पे हैं . विश्विद्यालयो की पढाई अब मुश्किल होती जा रही है और शिक्षा में हिंदुत्व का अजेंडा अब लागु हो चूका है जहा एक तरफ शिक्षा निजीकरण की और बढ़ रही है वही पाठ्यक्रम में मनुवादी विचारधारा घुसाई जा रही है . क्या बसपा या सपा जैसी पार्टिया युवाओं और छात्रो के ज्वलंत सवालो से मुंह चुरा सकती है . क्या ये अवसर नहीं के ये दोनों दल अपने अन्दर पूर्णतया पारदर्शिता लाये, युवा नेतृत्व विकसित करें और देश के युवा नेतृत्व चाहे भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर आजाद हो जिग्नेश मेवानी या कोई और, सबको कार्यक्रमों के जरिये एक मंच पर लाये ताकि जो युवा बदलाव के लिए संघर्ष कर रहे है उन्हें एक राजनैतिक मंच मिल सके .

बसपा राजनितिक मजबूरियों के तहत चाहे ब्राह्मणों के साथ ‘अन्याय’ की बात कहे लेकिन वो दलितों, अकलियतो पर हो रहे अत्याचारों पर अगर खुल कर सामने नहीं आती है और यदि ऐसे आन्दोलनों का समर्थन नहीं करती जो दलितों की अस्मिताओ की रक्षा और उनकी सामाजिक आन मान के लिए बनायी गयी हैं तो उसका अस्तित्व नहीं रहेगा. बसपा को अभी भी समाज का समर्थन प्राप्त है लेकिन एक बात बसपा नेतृत्व को समझनी पड़ेगी के लोगो की सहनशीलता जवाब दे रही है . बसपा की मजबूती दलित अस्मिता के लिए जरुरी है लेकिन इसके साथ ही बसपा के अन्दर नए युवा नेतृत्व को विकसित करना पड़ेगा . आज से २० साल बाद बसपा का नेतृत्व क्या होगा और कौन करेगा इसके लिए एक नहीं कई युवा खड़े करने पड़ेंगे .

सहारनपुर का घटनाक्रम योगी आदित्यनाथ की राजनीती और उनके आड़ में ठाकुरशाही चलाने वालो के लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है . संघ दलित और पिछडो के बीच के अंतर्द्वंद का लाभ लेता आया है . मुसलमानों को जबरन बीच में डालकर उसने सवर्ण नेत्रत्व को सबके उपर लाद दिया है . लेकिन जहाँ दलित पिछडो के अंतर्द्वंद हैं वही ब्राह्मण ठाकुरों के भी गंभीर अंतर्द्वंद हैं और उनकी एकता का एक ही बिंदु है वो दलित पिछड़ा विरोध की राजनीती लेकिन जब सत्ता के मलाई की बात आती है तो दोनों के अंतर्द्वंद आपस में टकरायेंगे और सुश्री मायावती ने ब्राह्मणों के साथ हो रहे ‘अन्याय’ को लेकर उस मुद्दे को खड़ा करने की कोशिश की है लेकिन वो अभी नहीं कामयाब होगी क्योंकि ब्राह्मण और ठाकुर या अन्य सवर्ण जातिया अभी हिंदुत्व को छोड़कर कही और जाने से रही क्योंकि मोदी और योगी युग स्वर्ण प्रभुत्वाद की एक नयी शुरुआत है और इसको वो आसानी से हाथ से जाने नहीं देंगे .

फिलहाल सहारनपुर में दलितों को न्याय देने की बात अभी तक एक भी मंत्री ने नहीं की है . सारा प्रशाश्निक फोकस ऐसा लगता है, भीम सेना पर है  और घायल लोगो और उनके उजड़े घर बार कैसे बसेंगे इसके लिए कोई प्रयास नहीं किये जा रहे . दुखद बाद यह है कोई भी राजनैतिक दल अभी संघ की चालो को समझ नहीं पा रहे या उसकी काट नहीं ढूंढ पा रहे और ये उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है . जरुरत है दलितों के साथ अन्याय को ख़त्म करने की और सरकार को दलित परिवारों पर हमला करने वाले लोगो को गिरफ्तार करने की और लोगो को समय पर मुवावजा दिलवाने की . सहारनपुर के दलितों को सुरक्षा और सम्मान चाहिए और जिन भी लोगो ने दलित बस्ती को जलाया या उनकी महिलाओं और पुरुषो पर अत्याचार किया उनके खिलाफ तुरंत कार्यवाही करे क्योंकि उसके अभाव में युवा इस क्षेत्र में शांति व्यवस्था कायम करना बहुत मुश्किल होगा .

वैसे भी संघ का अजेंडा दलित बहुत समाज और अन्य विपक्ष  को नेतृत्वविहीन कर देने का है . बसपा में विघटन का प्रयास किया गया है और अब नसीमुद्दीन सिद्दीकी मीडिया को रोज ‘ब्रेक न्यूज़’ देंगे जैसे कपिल मिश्र दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल के लिए और कांग्रेस के कई नेता अब सोनिया और राहुल के खिलाफ बोल रहे हैं वैसे ही मुलायम सिंह को लगातार खबरों में रखा जायेगा ताकि अखिलेश यादव भी लाइन पे रहे . लालू यादव को पहले ही फंसाने की पूरी तैय्यारी है . मतलब यह के विपक्ष में खुले तौर पर फूट डालने का अजेंडा है और इसे समझने की जरुरत है .

इस बात को भी समझना पड़ेगा के मुख्य धारा की राजनीती ने अभी तक जनता के ज्वलंत प्रश्नों पर गहरी चुप्पी साधे हुई है . चाहे वो बस्तर में आदिवासियों के जंगल में अधिकार का मामला हो या कश्मीर में राजनैतिक पहल , झारखण्ड के आदिवासियों का संघर्ष हो या विश्विद्यालयो में छात्रो के संघर्ष सभी जगह स्वयंस्फूर्त आन्दोलन खड़े हैं और राजनैतिक दल कुछ कह नहीं पा रहे हैं . या तो पार्टियों में इन सवालो पे ज्यादा चर्चा नहीं है अथवा नेतृत्व इन प्रश्नों को सही नहीं मानते हैं . हकीकत यह के अम्बेडकरवादी युवा अब अन्याय सहने को तैयार नहीं है चाहे वो रोहित वेमुला हो या भीम सेना का प्रश्न, लोग नेताओं का इंतज़ार नहीं करेंगे और आन्दोलन होंगे . बहुजन राजनीती को चाहिए के वे इन युवाओं के सपनो और आकांक्षाओं को मज़बूत करे और उन्हें रजिनैतिक रूप दे अन्यथा आन्दोलन किसी प्रश्न से शुरू होते हैं और राजनैतिक भटकाव का शिकार हो जाते हैं जो अंततः उस आन्दोलन को नुक्सान करते हैं जिसकी मजबूती के लिए वे शुरुआत करते हैं . हमारे सामने बहुत उदाहरण हैं जब नेकनीयती से किये आन्दोलन भटकाव का शिकार हो जाते हैं क्योंकि वो राजनैतिक तिकड़मे नहीं जानते . आवश्यक है के बहुजन राजनीती इन आन्दोलनों से बात करे और भविष्य की और देखे ताकि बिखराव की स्थिति पैदा न हो . उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामो से लोगो में बहुत निराशा भी है लेकिन भीम सेना ने उनमे पुनः उर्जा का संचार किया है . जब बहुजन राजनीती इन प्रश्नों पर खामोश रहेगी तो लोग अपना रास्ता खुद तय कर लेंगे लेकिन वो स्थिति बहुत अच्छी नहीं होगी क्योंकि उस परिस्थिति का लाभ वो लोग लेंगे जिन्होंने योज्नाबद्ध तरीके से सहारनपुर के घटनाक्रम को अंजाम दिया . देश में युवाओं की बहुत बड़ी आबादी जिसके मन में मौजूदा नेतृत्व और उसके तौर तरीको के प्रति घहरी निराशा है क्योंकि वो उनकी भावनाओं और महत्वाकांक्षाओ को समझने में या तो नाकाम रहा है या जानबूझकर उनकी अनदेखी कर रहा है  जो लम्बे समय में राजनैतिक तौर पर नुक्सान्वर्धक हो सकता है. राजनैतिक तौर पर पार्टियों को समझना पड़ेगा के यदि प्रशाशन उत्पीडित समूहों को न्याय देने में अक्षम रहा और यदि हिंदुत्व की सेनाए लोगो को जहा तहां पीटती रही और प्रशाशन कोई कार्यवाही नहीं करेगा तो जवाब में लोग भी अन्याय का मुकाबला करने के लिए जातीय राजनीती और उसकी अक्षमता के फलस्वरूप जातीय सेनाओं पर भरोषा करना शुरू करते हैं जो अंततः लोकतंत्र के लिए खतरनाक है लेकिन अगर बिहार में रणवीर सेना दलितों का उत्पीडन नहीं करती तो जवाबी सेनाये नहीं बनती  इसलिए जरुरी है के प्रशाशन कानून का शाशन स्थापित करे और लोगो को न्याय मिले