Thursday 11 July 2013

जज साहेब कृपया सांप्रदायिक पार्टियों और धार्मिक आयोजनों पर भी रोक लगे क्योंकि मेरी भावनाएं आहत होती हैं



विद्या भूषण रावत 



जातीय आयोजनों पर हाई कोर्ट ने रोक लगा दी लेकिन उत्तर  प्रदेश में हिंदुत्व का सांप्रदायिक अजेंडा चलता रहेगा और गुजरात के सांप्रदायिक दंगो के अपराधी उत्तर प्रदेश को गुजरात बनाने की फिराक में हैं। क्या अल्लाहाबाद हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट देश में सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ने  वाली ताकतों के खिलाफ कुछ कठोर कदम उतायेगा। क्या राम मंदिर के नाम की दूकान पर राजनीती करने वालो को अयोग्य घोषित करने की ताकत हमारे न्यायालयों में है और यदि हाँ तो क्या 'न्यायालय' का सम्मान करने की हिम्मत हिंदुत्व के लठैतो में आएगी। जातिगत सम्मलेन बंद होने पर ऐसे खुश हो रहे हैं मानो कुछ मैडल मिल गया हो लेकिन अगर अभी सावन के नवरात्रों में जो विभस्त शोर और नौटंकियाँ हम संस्कृति के नाम पर देखते हैं उन्हें बंद कर दिया जाए तो सारे प्रगतिशील लोगो को सांप सूंघ जायेगा। इसलिए महामना न्यायाधिशो से ज्यादा उम्मीद न करें असल में वोह भी राजनीती कर रहे हैं और हमारे पार्टियाँ उनका और वे पार्टियों का मज़ा ले रहे हैं . अगर कोर्ट का फैसला हमारे हिसाब सो हमारे न्यायलय महान और नहीं हो 'विचार' किया जायेगा। राजनैतिक अवसरवादिता और अस्थिरता का लाभ वो संस्थाएं ले रही हैं जिनकी सामजिक न्याय में कोई आस्था नहीं है। आरक्षण और भूमी सुधार और उसका पुनर्वितरण सामाजिक न्याय और सत्ता में भागीदारी के सबसे बड़े हथियार हैं लेकिन  इन दोनों ही महत्वपूर्ण प्रश्नों  पर हमारे न्यायालयों का द्रष्टिकोण बहुत ही निराशावादी रहा है . मीडिया और सामाजिक न्याय विरोधी  इन बातो  का आनंद लेती हैं। न्यायधिशो को भी पता है के कई मामले हमारी सत्तारूढ़ तकते 'राजनैतिक' 'मजबूरी' के नहीं कह सकती इसलिए उनके हस्तक्षेप के बाद मामला बदल जाता है। 

मैं तो माननीय न्यायाधिसो से आग्रह करूंगा के सावन के   में,  दशहरे में और दिवाली में  जो शोर होता है उसे रोकने के आदेश दे। जो हमारे अन्दर आस्था का  जबरन घुसाया  जाता है उसे रोकने के इंतज़ाम  करें .  बुजुर्ग लोग या बीमार  जिन्हें शोर या प्रदुषण से दिक्कत होती हैं उनकी भावनाएं भी समझे। पुरे त्योहारों में जो नुक्सान छात्रो को होता है वो समझे और नवरात्रों में 'भंगेड़ी' और लठैती में माहिर इन भक्तो की  मनमानियों को रोके जो हरिद्वार से दिल्ली के रस्ते में  होती हैं। क्या एक  तरफ का रास्ता बंद करना उनलोगों के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं है जो इन ढकोसलो को नहीं  मानते। 

क्या हमारे न्यायाधिश धर्म के राजनैतिक डकैतों पर  प्रतिबन्ध लगायेंगे जिन्होंने अपनी सत्ता के लिए देश में सांप्रदायिक दंगे करवाए जिसमे हजारो लोगो की जाने गयी . क्या उतर प्रदेश में सांप्रदायिक राजनीती का जो खेल चल रहा है उस पर हमारे मान्यवर न्यायाधीश  कुछ आदेश देंगे देंगे . क्या गुजरात के दंगो के  जिम्मेवार लोगो की राजनीती पर  प्रतिबन्ध नहीं  लगना चाहिए ? क्या बाबरी मस्जिद को गिराने वाले जेल के सींखचो के पीछे नहीं होने चाहिए  लेकिन उनके हौसले बुलंद हैं और वोह 'राम मंदिर' के निर्माण की बात कर रहे है . इस देश में साम्प्रादायिक दंगो को फ़ैलाने वाले ठेकेदारों के लिए क्या कोई फैसला आएगा और क्या धर्म के नाम पर देश को बर्बाद करने वाले पार्टियों पर तुरंत प्रतिबन्ध नहीं लग्न चाहिए। उम्मीद है हमारे न्यायलय कुछ सोचेंगे और हमारी सरकारे भी ध्यान देंगी। साम्प्रादायिकता एक  भयावह अपराध है और देशद्रोह है क्योंकि ये हमारी संवैधानिक मर्यादा के विरुद्ध है लेकिन उसके लम्बरदार खुले में घुम्र रहे हैं और हमारा अजेंडा बना रहे हैं। क्या इस देश के लिए इससे बड़ी कोई शर्म की बात हो सकती है के हज़ारो लोगो के कत्ल के जिम्मेवार जेल जाने की बजाय ७  रेस कोर्स रोड में बैठने के सपने देख रहे हैं। हमारे न्यायालयों को बहुत की सावधानी से विचार करना चाहिए ताकि उनके फैसलों को तोड़मरोड़ कर  न किया जा सके। फिलहाल इलाहबाद हाई कोर्ट के फैसले का विस्तार होना चाहिए तभी यह एक निष्पक्ष फैसला माना जायेगा नहीं तो जातिवाद ख़त्म करने की जिम्मेवारी यदि साम्प्रादायिक लोगो के  हाथ में आ गयी तो देश का बहुत नुक्सान होगा। हकीकत यह है के जातीय असिम्ताओ के चलते ही सांप्रदायिक शक्तियों पर रोक लग पायी क्योंकि गुजरात मध्य प्रदेश राजस्थान आदि स्थानों पर सांप्रदायिक ताकतों ने जातीय अस्मिताओ को दबा दिया और मुसलमानों के विरुद्ध इस्तेमाल कर दिया इसलिए यह प्रदेश साम्प्रदायिक राजनीती से प्रभावित हैं . देश को सांप्रदायिक राजनीती और उनके घृणा की राजनीती से बचने में उत्तर प्रदेश और बिहार की 'जातिवादी' जनता के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता जिनकी बदोलत हिंदुत्व का देश पर राज करने का सपना कभी कामयाब नहीं हो पाया। 

जातिवाद को ख़त्म करने में किसकी दिलचस्पी है ? केवल चुप रहकर और छुपाकर जातीयता के कोढ़ को ज्यादा समय तक छुपाया नहीं जा सक्त. जाति ख़त्म हो गयी तो तथाकथित 'धर्म' खत्म. क्या कोर्ट हिन्दू धर्म को खत्म करना चाहेगा क्योंकि उसकी बुनियाद ही जाती है। हम तो चाहेंगे के कोर्ट एक निर्णय और देदे के जातिवाद को खत्म करने के लिए देश के बड़े बड़े मंदिरों में जो एक जाति की जो ठेकेदारी है उसे तुरंत समाप्त करे और यहाँ के  सब मंदिरों   पर हो रही आय पर   भक्तो का  कब्ज़ा हो . कोर्ट ये निर्णय भी दे मलमूत्र साफ़ करने का ठेका एक विशेष जाती के लोग क्यों करें . क्या हम तैयार हैं इन सब बातो से लड़ने के लिये.  दुर्भाग्य के हमारी राजनैतिक  अवसरवादिता के चलते ऐसे निर्णय आयेंगे और सांप्रदायिक पूंजीवादी  शक्तियां उसका लाभ उठाने के लिए तैयार बैठी हैं .

Dangerous Idea of Dera Sachha Sauda regarding Women's of Uttarakhand who lost their Husbands



डेरा सच्चा  सौदा के 'महात्मा' का कहना है के उनके १५ ० ० अनुयायी उत्तराखंड की त्राशादी में विधवा हुयी महिलाओं के साथ विवाह करने को तैयार हैं। सवाल इस बात का है के क्या यह एक क्रांतिकारी कदम है या बाबा उत्तराखंड में पूरा दफ्तर बनाना चाहते हैं . क्या किसी ने इन महिलाओं से पुछा और उनसे बात भी की के उनकी क्या समस्या हैं ? क्या इन महिलाओं की घरेलु जिनदगी की और किसी का ध्यान गया? क्या बाबा की बात में यह नज़र नहीं आता के महिलायें पति के बिना 'अबला' नहीं  हैं और उन्होंने संघर्ष किया हैं , । पहाड़ो में जिन्दगी बहुत कठिन है लेकिन महिलाओं ने अपना संघर्ष किया है और वो पुरुषो से अधिक काम करती रही हैं इसलिए उनको अबला कहना अपमान है। भारत के समाज में महिलाओं के साथ जो  हुआ है उस अपमान को आप पुनः परंपरा के खूंटे से ना बंधे तो अच्छा होग. हम तो चाहते हैं के महिलायें अपने दर्द को भुला कर अपनी जिंदगी को पुनः शुरू करें और जो मदद सर्कार और समाज को करनी है वोह करें। यह बहुत ही बेवकूफी की बात होगी की अभी घटना को घटे एक महिना भी नहीं हुआ है और हम शादी के प्रपोजल लेकर वहां पहुंचे ? शायाद पुरुषवादी मानसिकता का नतीजा है के अभी से महिलाओं के बारे निर्णय ले रहे हैं और उन्हें लग रहा है जैसे बहुत बड़ी क्रांतिकारी बात कर रहे हो . हम तो चाहेंगे के समय आने पर महिलायें स्वयं इनका निर्णय लें और यह तभी संभव होगा जब वे सार्वजानिक जीवन में आयें और समाज उनको उत्साहित करे. किसी भी समाज में बदलाव के लिए बाहर से 'क्रांतिकारियों' को आयात करने की आवश्यकता नहीं है . हमें उम्मीद है के उत्तराखंड के अन्दर भी ऐसे जुझारू साथी होंगे जो समय आने पर सही निर्णय ले सकते हैं लेकिन महिलाओं को 'अबला' समझकर एहसान करने वालो से सावधान रहने की जरुरत है खासकर वो लोग जो धर्म की दुकानदारी लगाकर अपना व्यापार आगे बढ़ाना चाहते हैं ।  उत्तराखन्ड में महिलायें किसी भी दुसरे प्रान्त से बेहतरीन स्थिथि में हैं और अपने अधिकार जानती हैं। यह वो जगह हैं जहाँ साक्षरता और लिंग अनुपात रास्ट्रीय औसत से ज्यादा है इसलिए हमारे क्रन्तिकारी बाबा यदि समाज की मदद करना चाहते हैं तो अच्छा लेकिन अहसान और भीख देने की कोशिश न करें तो बेहतरीन होगा।

आइये एक दिया जलाएं इल्वारसन की याद में



विद्या भूषण रावत 

तमिलनाडू की धर्मपुरी जिले में रहने वाले इल्वार्सन  ने प्यार करके शायद बहुत बड़ा गुनाह कर दिया क्योंकि जिले के वन्नियार लोगो ने उनकी दलित बस्ती को जल दल और उसके प्रेमिका दिव्या के पिता ने अपनी बेटी के इस विद्र्हो से डरकर आत्महत्या कर ली। और फिर दवाब और ब्लैकमेल की इस पूरी व्यवस्था ने अंततः इल्वारासन की जान भी ले ली। हालाँकि मामला कोर्ट में है और इल्वारासन के माता पिता ने दोबारा पोस्ट मार्टम की मांग की है लेकिन इस घटना ने हमारे समाज के विभत्स सच को उजागर कर दिया के जाति व्यवस्था की जड़े हमारे दिमागो में कूट कूट कर भरी हुयी है और उसको थोडा से भी छेड़ने पर मौत की सजा के आलावा और कुछ नहीं है और हमारी सेक्युलर दिखने वाली सरकार और उसका प्रशाशन कुछ नहीं कर पाटा क्योंकि हकीकत यह है सेकुलरिज्म केवल किताबी बाते है क्योंकि कानून लागु करने वाले मनु के चेले उसको नहीं मानते और यह भी सोचना जरुरी है के ब्राह्मणवाद को बचने की लड़ाई अब केवल ब्राह्मणों या सवर्णों के हाथ में ही नहीं है अपितु शुद्रो को तो उसकी सबसे बड़ी जिम्मेवारी दी गयी लगती है। यह ही हिंदुत्व का अजेंडा है और जरुरत है के हम एक मानववादी समाज की स्थापना की बात कहें जो हमारे संविधान के मूल्यों को ईमानदारी से लागु करके ही संभव है .

आज हमें स्वयं से सवाल पूछने हैं क्योंकि यह वक्त चुप रहने का नहीं है और न ही दुसरे को दोष देने का ? हम अपने लेवल पर एक सभ्य समाज बनाने के लिए क्या कर रहे हैं ? जातिवादी व्यवस्था का शिकार बने इल्वार्सन के लिए क्या हम कोई कैंडल लाइट मार्च कर सकते हैं ? भारत की वर्णवादी व्यस्था का सबसे कटु सत्य है जातिवाद और उसके सहारे राजनीती करने वाले लोग. इस हत्या ने तमिनाडु की 'द्रविड़ियन' राजनीती की भी पोल खोल दी है जो गैर ब्राह्मणवाद के नाम पर शुरू हुयी थी और जिसने दलितों को और अधिक हाशिये पर दखेल दिया। 

पिछले पचास वर्षो से बदलाव की बात करने वाले तमिलनाडु में एक दलित लड़के का वन्नियार यानि पिछड़ी जाती की लड़की के साथ प्रेम सम्बन्ध अगर दलितों के घर जलाने और अंत में  इल्वारासन की मौत से होती है तो मामला गंभीर है और तमिलनाडु सरकार को इस पर कार्यवाही करनी चाहिये। शर्मनाक बात यह है के एक तरफ हमारा संविधान कहता है हमें आधुनिक बनना है और दो बालिग युवक युवतियों को अपनी मर्जी से शादी करने की अनुम्पति होनी चाहिए लेकिन हमारा समाज इसके लिए तैयार नहीं है. 

हम सभी जातियों के उन्मूलन की बात करते हैं और वो बाबा साहेब आंबेडकर का सपना था और यही पेरियार का सपना भी था लेकिन यह बात समझ में नहीं आती के उसका उन्मूलन कैसे होगा यदि हमारा समाज अपने पूर्वाग्रहों को समाप्त करने के लिए तैयार नहीं है। दुखद बात यह है के इन पूर्वाग्रहों की बुनियाद पर बहुत से नेता अपनी दूकान चला रहे हैं यह वो दल हैं जो मंडल कमीशन के समय दलित बहुजन एकता का नारा देते हैं और इन्हें पता है के मंडल की सबसे बड़ी लड़ाई पिछडो ने नहीं दलितों ने लड़ी। आज सवाल इस बात का है के अपने को पिछड़ी जातियों का नुमैन्दा कहने वाली यह पार्टियाँ क्यों ऐसी घटनाओं का विरोध नहीं करती। जातिवाद का विरोध केवल ब्राह्मणवाद के नाम पर ब्राह्मण विरोध से नहीं हो सकता अपितु हर प्रकार के कट्टरवाद और यथास्थिति वाद के विरोध से करना पड़ेगा। यह भी जरुरी है के हम सभी को अपने युवाओं को अपने साथी चुनने की आज़ादी देनी होगी तभी जातिवाद और वर्णव्यस्था टूटेगी अन्यथा शादिय और प्यार केवल दुनिया को दिखने के लिए नहीं होता और कोई भी व्यक्ति केवल अंतरजातीय विवाह करने के लिए स्वयं तैयार नहीं होंगे। वर्णव्यस्था का सबसे बड़ा खेल पित्र्सत्ता की सर्वोच्चता और महिलाओं की 'पवित्रतता' है और इन सिद्धांतो पर हमला करे बगैर हम कभी एक सभ्य समाज की स्थापना नहीं कर सकते। सभी ब्रह्मवादी शक्तियों को गरियाते हैं लेकिन यह भूल जाते हैं की सामंतवाद की यह विचारधारा किसी के जरिये भी आ सकती है और इसलिए इसे समाप्त करने लिए एक बेहतरीन विचार की जरुरत होगी।

इल्वारासन की मौत अपने प्यार के लिए हुऎ चाहे वो आत्महत्या हो या हत्या क्योंकि दोनों ही मामलो में उस पर समाज का दवाब था और सरकार उसे सुरक्षा नहीं प्रदान कर पाई . क्या हम ऐसी कुर्बानियों को बेकार जाने देंगे जो हमारे देश के वर्णव्यस्था को तोड़ने का सबसे बड़ा साधन है . आइये प्यार पर कुर्बान इस जांबाज़ साथी की याद में एक रौशनी जलाएं। क्या हम तैयार हैं ? क्या हम जातिवाद के इस खतरनाक किले को तोड़ने के लिए तैयार हैं ?