Thursday 7 June 2018

क्यों सुलग रहा है शिलांग ?




विद्या भूषण रावत


भारत के उत्तर पूर्व के राज्य न केवल सामरिक दृष्टि से अपितु सांस्कृतिक दृष्टि से भी बहुत महत्फ्पूर्ण है क्योंकि ये सभी भारत की जातिवादी सामाजिक व्यवस्था के अनुसार नहीं चलते और अभी जनजातीय, बुद्धिस्ट और क्रिस्चियन धर्मो का असर यहाँ पर है. क्षेत्र के दो राज्य त्रिपुरा और असाम में हिन्दुओ खासकर बंगालियों का अच्छा खासा दबदबा और उनके दबाव ने क्षेत्र में आदिवासियों और मूलनिवासियो को पुर्णतः सत्ता के तंत्र से बाहर कर दिया है. आपने त्रिपुरा को देख ही लिया होगा के कैसे आदिवासी बहुल राज्य में आज भी बंगाली भद्रलोक मुख्यमंत्री है.
मेघालय की स्थिति भिन्न है. ये पुर्णतः आज़ाद ख्याल राज्य है. ऐसा नहीं है के इन राज्यों में कोई सामाजिक समस्याए नहीं है लेकिन हमें याद रखना होगा के इन राज्यों की विशेष स्थिति को देखते है इन्हें संविधान की छटवी सूची में रखा गया था जिसका मतलब था के राज्य में राज्यपाल और राज्य सरकारों की कानून बनाने विशेषकर भूमि और वन से सम्बंधित मामलो में सीमित अधिकार होंगे और ज्यादा अधिक स्वायत्तता जिला और क्षेत्रीय समितियों को है जो जनता द्वारा चुन कर आती है.
शिल्लोंग अविभाजित असाम की राजधानी था. ब्रिटिश साम्राज्य का उत्तर पूर्व के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र और उससे भी ज्यादा एक बेहद खुबसूरत क्षेत्र जिसे प्रकृति ने बड़े प्यार से संवारा. सांस्कृतिक तौर पर भी खासी जनजाति के लोगो की जीवनशैली इसी प्रक्रति प्रेम पर केन्द्रित है. उस समय जब भी ब्रिटिश इधर उधर मूव करते थे तो उन्हें अपने साथ अपना ताम झाम लेकर चलना पड़ता था. दुसरे देश के विभिन्न इलाको में सफाई का कार्य करने के लिए वे अपने साथ पंजाब और उत्तर प्रदेश आदि से सफाई कर्मियों के ले गए जो मुख्यतः वाल्मीकि, मजहबी या ईसाई थे . इसका कारण यह था के कई स्थानों में खासकर जो पहाड़ी इलाके थे जहा लोगो की जीवन शैली बहुत अधिक यांत्रिक नहीं थी और शहरीकरण का असर नहीं था और सामाजिक तौर पर भी मनुवादी वर्णवादी व्यवस्था नहीं थी तो जातिविशेष का कार्यकरने वाली संस्था भी नहीं थी. दूसरे, ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध करते हुए लोग उनके साथ काम करने को तैयार नहीं थे इसलिए उन्हें स्वयं ही अपने साथ अपने द्वारा प्रसाशित राज्यों के कर्मचारियों को ही साथ लाना पड़ता था. बताया जाता है के १८५० के आस पास ब्रिटिश पंजाब से इन सफाई कर्मियों को वहा लाये थे जो मुखतः मजहबी कहा जाता है. शिल्लोंग में इन्हें पंजाबी या सिख कहा जाता है जो स्वयं पंजाब के सांस्कृतिक माहौल से बेहतरीन है जहाँ आज भी मजहबी और चूड़ा के नामो से अपमानित होता है. शायद ये मेघालय की सांस्कृतिक विरासत ही होगी जिसमे इन्हें सम्मानित शब्दों से नवाजा गया है.
जैसे के सभी महत्वपूर्ण स्थानों की कहानी है वैसे ही यहाँ की भी के ये पंजाबी शहर के सबसे महत्वपूर्ण इलाको में रहते थे लेकिन ये भी हकीकत है के आज जब शहरों के हालत बदल गए है और सफाई के पुराने तरीके बदल गए हों तो सफाई पेशे वाले समुदाय भी अवांछित हो गए है. अब समाज को उनकी आवश्यकता नहीं रही और उनका दुसरे कार्य करना भी लोगो को मंजूर नहीं होता. कई बार ये भी होता है के कोई बड़ा नेता वहां कुछ और बिज़नस या माल खोलना चाहता है और इसलिए उनको हटाने के तरीके अपनाये जाते है. पाकिस्तान से लेकर जहा उन्हें ईसाई बोला जाता है और ईशनिंदा कानून आसानी से लगता है भारत के गाँवों तक, हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाइयों सभी ने वाल्मीकियो के साथ बेहद अपमान जनक व्यवहार किया है. और तो और, खुद दलित आन्दोलन ने भी साथ नहीं दिया है. अब आदिवासी इलाको में वे अलग थलग ही रहते है लेकिन ये भी हो सकता है के उत्तर पूर्व के सांस्कृतिक ढांचे में वे नहीं फिट हो पा रहे. ए क और क्रूर सच्चाई के समस्या शासक वर्ग द्वारा पैदा की गयी है. ब्रिटिश ने ये काम किया और उनका स्थाई बंदोबस्त करना चाहिए था लेकिन कही पर भी ये व्यवस्था नहीं है. इसका मतलब ये के ब्रिटिश शासन ने उनका पूरा इस्तेमाल किया लेकिन उन्हें सर ढकने के छत की व्यवस्था नहीं की और ये पूरे भारत की कहानी है. जहा भी वे रहे है लोगो की 'कृपा' पे रहे और इस कारण उनका कोई मज़बूत आत्मस्वाभिमान वाला आन्दोलन नहीं चल पाया.
उत्तर पूर्व की परिस्थितिया बिलकुल भिन्न है क्योंकि सफाई कर्मी समाज को अंग्रेज वहां लाये न के शिल्लोंग के लोग इसलिए सांस्कृतिक तौर पर मामला बिलकुल अलग है और इसीलिये मात्र पंजाब और इग्लैंड में हवा बनाकर काम नहीं कर सकते क्योंकि मामला भूमि के स्वामित्व का है. स्वीपर लेन में रहने वाले लोगो का कहना है के उनको १० दिसंबर १८५३ को वहा के राजा और ब्रिटिश शासन के मध्य हुए समझौते में ये जमीन प्रदान की गयी थी लेकिन सरकार और खासी जिला प्रशासकीय कौंसिल अभी इस बात से इंकार कर रहे है. ये समझना भी महत्वपूर्ण है के भूमि का पूरा प्रशासनिक नियंत्रण इस क्षेत्र में अनुच्छेद ६ के अंतर्गत खासी जिला प्रशासकीय कौंसिल के अंतर्गत आता है.
शिल्लोंग टाइम्स की खबर के मुताबिक कल सरकार द्वारा बनाई गई समिति की पहली बैठक हुइ है और जल्दी ही वे इस सन्दर्भ में किसी नतीजे पे पहुंचेंगे लेकिन कुछ सवाल महत्वपूर्ण है जिन पर हमें गंभीरता से सोचना होगा. पहले ये के जो भी सफाई कर्मी वह गए और मुनिसिपल कारपोरेशन में कार्य कर रहे है या रिटायर हो गए है उनके पुनर्वास की व्यवस्था की जाए. बाकि सभी लोगो की भी सम्मानजनक पुनर्वास की व्यवस्था की जाए. वैसे इस मामले में यदि देश में एक भी ऐसा मुनिसिपल कारपोरेशन है जिसने सफाई कर्मियों को इमानदारी से बसाया हो तो मैं उस नगर निगम या महापालिका को नतमस्तक हो जाऊंगा. ये प्रश्न देश के समक्ष है के उन्होंने सफाई पेशे में लिप्त समाज के साथ न्याय नहीं किया है.
एक दो दिन पूर्व एक मित्र ने एक विडियो भेजा और कहा के इसे खूब फॉरवर्ड करो. अमूमन मै इन्हें देखता भी नहीं हूँ लेकिन उस दिन मैंने देखा तो एक नौजवान इस घटनाक्रम को बिलकुल १९८४ के स्वर्ण मंदिर में सेना के हस्तक्षेप से जोड़कर देख रहा था. वो कह रहा के सिखों ने देश के लिए इतनी कुर्बानिया दी है और इसलिए हमें देखना पड़ेगा के देश विरोधी शक्तिया तो ऐसा नहीं कर रही और इनका मुकाबला करना पड़ेगा. बहुत से लोग कह रहे है के मुस्लिम, सिख और अन्य सभी को साथ मिलकर ऐसी शक्तियों का मुकाबला करना पड़ेगा. ये बहुत खतरनाक है और इस घटनाक्रम का अति साधारणीकरण है. हमें उत्तरपूर्व के पूरे ऐतिहासिक परिदृश्य को समझना होगा और आर्याव्रत के नजरिये से उनको देखने के नतीजे बेहद खतरनाक हो सकते है. भारतीय राष्ट्र-राज्य की सवर्णवादी उत्तर-भारतीय अवधारणा जो हमने कश्मीर में लगाने की कोशिश की और अब वही कोशिश हम उत्तर पूर्व में कर रहे है तो इसके परिणाम घातक होंगे.
सर्वप्रथम यह के उत्तर पूर्व में बहुत से राज्य भारत के आजाद होने के पहले तक अलग राज्य थे. उत्तर पूर्व में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में आदिवासियों की सांस्कृतिक विरासत छिपी है इसलिए उसको यदि हम उत्तर भारतीय हिंदी नज़रिए से देखेंगे तो कभी भी नहीं समझ पाएंगे. स्वीपर लेन का मसला सिखों और खासी समुदाय की लड़ाई नहीं अपितु भूमि के स्वामित्व का है. जैसे के मैंने कहा वहा की सरकार को सफाई कर्मचारियों को समस्यों को निपटाने के प्रयास करने चाहिए लेकिन वैसे ही प्रयास देश की हर जगह की नगर पालिकाओ को करने होंगे. मैंने तो कई गाँवों में देखा के जब वाल्मीकि समाज के लोग काम करने से इनकार करते है तो उन्हें गाँव से बेदखल करने की धमकी मिलती है तो क्या कभी कोई राजनैतिक दल उनके समर्थन में आया. पंजाब के अकाली और कांग्रेस दोनों जाटो की पार्टिया हैं जो मजहबी लोगो को आज भी इज्जत के साथ नहीं रख पाते और पंजाब के गाँवों में उनके जातीय बर्चस्व को सब जानते है. इसलिए शिल्लोंग में हुई घटना चिंतनीय जरुर है लेकिन ये कोई 'एथनिक क्लींजिंग' नहीं है क्योंकि न इसमें कोई मारा गया है, न ही किसी को कोई चोट आई है और न कुछ घटा है. हाँ जब ऐसी घटनाएं होती है तो लोगो अपनी रक्षा करने के लिए खड़े होते है लेकिन उसका विडियो बनाकर मसाला लगाकर टीवी चैनल न प्रस्तुत करे तो अच्छा है.
हम उम्मीद करते है के शिलोंग में स्थिति शीघ्र ही नार्मल होगी. मेघालय सरकार इस समस्या का तुरंत समाधान निकाले. जिन लोगो ने अपनी जिंदगी दूसरो की सेवा में लगाईं उनके बारे में तो ये देश सोचने को तैयार नहीं है लेकिन हम मेघालय में रहने वाले साथियो से अनुरोध करेंगे के वे कोशिश करें के इस समस्या का स्थाई हल निकले और जो भी लोग वहा रह रहे है वे रह पायें और दूसरो के लिए एक मिसाल खड़ी करे क्योंकि एक बार शिल्लोंग में सफाई कर्मियों के परिवारों का इमानदारी से पुनार्वाश होगा तो हम देश की दूसरी महापलिकाओ और सरकारों से कह सकते है के वे भी इमानदारी दिखाये और ऐसा करें. आखिर ऐसा क्यों के देश की सफाई करने वाला समाज खुद अनिश्चितता और गन्दगी के ढेर में पडा मिलता है.
उत्तर पूर्व की राजनैतिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक स्थितियों को बिना समझे किसी भी बात पर उसे उत्तर भारतीय हम और उन के बीच में लड़ाने और समझने की कोशिशे किसी काम की नहीं होंगी. ये समझ लीजिये के मेघालय की आबादी का ८५% जनजातीय है और इसलिए यह क्षेत्र उनकी सुरक्षा के लिए संविधान में प्रदत्त विशेष अधिकार कानून के दायरे में आता है. उत्तर पूर्व के सभी इलाको में हमारी एंट्री उनसे बिना पूछे है. आज भी वहा पर आज़ादी के बाद से ही भारतीय सेना का दबदबा है. सामरिक दृष्टि से ये क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण है और इसीलिये इनके सांस्कृतिक वैभव को समझे बिना हम कभी उनकी भावनाओं को नहीं समझ पाएंगे. वहा पर समाज हमारे सड़े गले वर्णवादी समाज की तरह जातिवादी महिलाविरोधी नै है. वे सभी सामूहिकता में रहने के आदि है और एक समाज हम लोगो से बहुत आगे है हालाँकि हमारी सामजिक बुराइया भी उधर अब धीरे धीरे आ रहे है लेकिन फिर भी वे हमसे बेहतर है क्योंकि उन्होंने अपने को बचा के रखा है.
भारत में बहुत से ऐसे राज्य है जिनकी सांस्कृतिक विरासत, सामरिक स्थिति की महत्ता को देखते हुए अन्य राज्यों के लोग वहा पर आसानी से जमीन आदि की खरीदारी नहीं कर सकते और ये इसलिए जरुरी था ताकि उनकी सांस्कृतिक विरासत बच सके और व्यसाय के नाम पर उनका शोषण न हो सके. हमने उत्तराखंड और हिमाचल में दुकानदारी करने वालो को देख लिया है जो हमारे प्राकृतिक संशाधनो, नदी, नालो, गदेरो और पहाड़ो को चूस चूस कर, उसकी बोटी बोटी तक नोच लेना चाहते है. उत्तरखंड में धर्म के धन्देबाजो ने दुकानदारो के साथ मिलकर पर्यावरण का जो नाश पीटा है वो देश के लिए किसी दिन एक भयानक चुनौती पेश करेगा. एक पर्यावरण प्रेमी और उत्तर पूर्वे के सांस्कृतिक विरासत का समर्थक होने के नाते मैं चाहूँगा के उन क्षेत्रो के साथ ऐसा दोहन न हो लेकिन एक ही उम्मीद के जो लोग इतने वर्षो पूर्व वहा पर लाये गए उनके साथ न्याय हो और उन्हें सम्मान सहित पुनर्वासित किया जाए. उत्तर पूर्व से बाहर के क्रांतिकारियों से अनुरोध है के इसे सांप्रदायिक या जातीय रूप न दे तो देश के लिए अच्छा होगा.