Thursday 29 May 2014

ये चुप रहने और सहने का वक़्त नहीं




विद्या भूषण रावत 

बदायूं की दो बहिनो की अमानवीय और क्रूर हत्याओ ने भारत के 'सभ्य समाज ' पोल खोल के रख दी है. शर्मनाक घटना पे वादे, मुहावजे और कार्यवाही होती रहेगी लेकिन क्या हम  प्रश्न के मूल तक जायेंगे और सरकार से जवाब मांगेगे के ऐसा क्यों हो रहा है और कब तक सरकार इनके बंद होने की  गारंटी देगी। ये केवल बलात्कार और हत्या नहीं है. इस घटना ने हमारे प्रशाशन और  उसकी जातिवादी निष्ठा को भी उजागर किया है और बताया है क्यों हम मूल प्रश्नो से हटकर सत्ता चाहते हैं और नेता चुनते हैं. 

लोकतंत्र में सरकार की न जाति होती न धर्म। उसे सबके हितो के लिए काम करना होता है।  भारत का हर एक व्यक्ति सुरक्षा और इज्जत का हकदार है. लेकिन क्या वाकई में गाँव से उपजी राजनीत में ऐसा है. सत्ता हमारे गाँव में अपनी झूटी शान और ताकत का हथियार बन चुकी है. भारत की सरकार दिल्ली से नहीं चलती बल्कि भारत के जातिवादी गाँव से चलती हैं इसीलिए मुजफ्फरनगर के हत्यारे घूमते हैं और दंगे मंत्री बन जाते हैं. बलात्कार के आरोपी आराम से इज्जत से हैं. हरयाणा की खापें वैसे ही सत का मज़ा ले रही हैं और दलितों की हत्या और उनकी महिलाओ पर दुष्कर्म सरकार के लिए मायने नहीं रखता। उत्तर प्रदेश में भी यही हाल है और  मध्य प्रदेश , राजस्थान , महाराष्ट्र, आंध्र , तमिलनाडु, कर्नाटका आदि भी पीछे नहीं है क्योंकि जाति की राजनीती में दलित मानवाधिकार का मुद्दा गौण हो के रह गया है. 

भारत के गाव् मनुवाद का सबसे बड़ा अड्डा हैं।  उत्तर प्रदेश में बदायूं की दो दलित  बहिनो की बलात्कार के बाद जघन्य हत्या ने भारत में लोकतंत्र की हकीकत को उजागर कर दिया है. ये कृत्या किसी तालिबानी कृत्या से कम नहीं है. शर्मनाक इसके लिए बहुत छोटा सा शब्द है. क्या इतने जघन्य अपराधो पर हम खामोश रहेंगे। उत्तर प्रदेश की सरकार में  जाति का नंगा नाच चल रहा है. लोहिआ ने कभी सोचा भी नहीं होगा के जिस समाज की हम परिकल्पना कर रहे हैं वहां उनके शिष्यों की सरकार में गुंडे और अपराधी जाति की नाम पर अपनी चौधराहट दिखाते रहेंगे। भारत में अगर लोकतंत्र को जिन्दा रखना है  ब्राह्मणवादी व्यवस्था का खत्माँ करना होगा जिसने हमारी संवैधानिक व्यवस्था को बिलकुल कमजोर कर दिया है. क्या ऐसे समाज से हम दुनिया में सबसे बड़े लोकतंत्र का नाटक करते रहेंगे। ये घटनाएं जाति की वर्चस्व को साबित करती हैं और दलित अस्मिता और आत्म सम्मान को कुचलना चाहती हैं. आज लोकतंत्र को मनुवाद ने गुलाम बनाके रखा है और दुर्भाग्यवश शूद्र प्रभुत्ववाद ब्राह्मणवाद का ही हिस्सा  है. दुखद बात यह है के हमारे गाव में जाति की इस घिनौनी कुकृत्य को भी सही ठहराने वाले लोग मिलते हैं इसलिए जातियों की अस्मिताओं का धंधा चलता है. आज जरुरत इस बात की है के गलत को गलत कहने की हिम्मत हम रखें  चाहे वो गलती मैंने की  हो,मेरी जाति की हो या उस बिरादरी के नेता की हो या मेरे परिवार की ही क्यों न हो. अब जातियों के नाम पर गलत को सही ठहरने वालो के खिलाफ खड़े होने का है. ये चुप रहने का समय नहीं है. ऐसी घिनौनी अपराध करने वालो को माफ़ नहीं किया जा सकता।

ये लोकतान्त्रिक देश है जहाँ दलित लोकतंत्र में वोट के समीकरण में पिस रहा है. हरियाणा में जाट आतंक ने अभी तक दलितों को कोई छोड़ा नहीं है और सरकार चुप है. उत्तर प्रदेश में अब भी एहि प्रभुत्ववाद जारी है।  कश्मीरी पंडितो के लिए हम यू एन में जाने को तैयार हैं, उन्हें दिल्ली में बसने दिया जाता है लेकिन लाखो दलितों को कोई व्यवस्था नहीं है. भारत सरकार ने भूमि सुधारो के कानून ईमानदारी से कभी लागू नहीं किये और इसलिए हर एक राज्य में दो चार बड़ी जातियां दलित अस्मिता के साथ खिलवाड़ करते रहती हैं, जमीनो पर कब्ज़ा करके रहते रहती है और उन्हें सम्मान पूर्वक जिंदगी भी नहीं जीने देती।  भारत के जातिवादी गाँव दलितों को रखना नहीं चाहते और यदि रखना चाहते हैं तो अपने अस्मिता को कुचल कर और गुलामी की जिंदगी जी कर. कश्मीरी ब्राह्मणो की चिंता करने वाली सरकार और वो सभी रही हैं दलितों की अस्मिता और आत्मा सम्मान के लिए उन्हें क्यों नहीं पुनर्वासित करती। क्यों नहीं सरकार दलितों को  दिल्ली, बम्बई, कलकत्ता, बंगलोर, चेन्नई, लखनऊ, हैदराबाद आदि जगहों पर इज्जत के साथ बसाती। अगर ऐसा हुआ तो दलितों को गांवो से बाहर खदेड़ने वालो के मुंह पर सबसे बड़ा तमाचा होगा। लेकिन मनुवादी तंत्र में ऐसा शायद ही संभव हो  फिर भी हम चुप नहीं रह सकते। 

बाबा साहेब का समुदाय अब लड़ने को तैयार है,  वो मरने के लिए तैयार है  लेकिन अपने अस्मिता पे ऐसे क्रूर हमले नहीं सहन करेगा। भारत की तमाम सरकारे पूर्ण तौर पर असफल हो चुकी हैं  क्योंकि मनुवाद के शिष्य सत्ता के हर गलियारे पर कब्ज़ा किये बैठे हैं और जब तक ऐसा रहेगा भारत में लोकतंत्र लूटता रहेगा क्योंकि उनकी निष्ठाएँ अपनी जातियों से हैं न की भारत के संविधान से. इस प्रश्न पर हमें अब अंतिम लड़ाई के लिए तैयार रहना पड़ेगा। राजनैतिक दल अपनी अपनी रोटी सकेंगे और नफा-नुक्सान के हिसाब से बाते करेंगे। कुछ अभी चुप रहेंगे और 'समय' पे बोलेंगे। ऐसे सभी लोगो की जितनी निंदा की जाए काम है.  आज में खुल के कहता हूँ लानत है ऐसे देश और ऐसे समाज पर जहाँ ऐसे दुष्कृत्यों के बावजूद भी हम घरो पे बैठे रहे.  जब तक एक भी महिला के ऊपर ऐसे जघन्य कृत्या होते रहेंगे हम भारत को असभ्य संस्कृति का अड्डा कहते रहेंगे जहाँ चुनाव की राजनीती आपके सारे पाप धो देती है और इसलिए दलितों को आज तक न्याय नहीं मिल पाया है. 

Saturday 3 May 2014

हरियाणा में निराशा के विरुध जलती आशा की एक किरण




विद्या भूषण रावत 

आशा एक उम्मीद का नाम है. आज जब हम हरियाणा में दलित महिलाओ पे  लगातार  बढ़ रही हिंसा एवं बलात्कार की बड़ी घटनाओ पर विचार कर रहे हैं तो घनघोर निराशा में भी ऐसे लोग दिखाई देते हैं जिनसे आशा की किरण जलती दिखाई देती है. जो अपने दुःख भूलकर दुसरो  को हिम्मत बढ़ाने का कार्य करते हैं.  सितम्बर २०१२ में उनके गाँव से दबंगो ने उनका अपहरण कर दुष्कर्म किया और छोड़ के भाग गए. हिम्मती आशा किसी तरह से अपनी नानी के घर आई, लेकिन इतने बड़े दुराचार के बाद उसके अंदर कोई  हिम्मत नहीं थी की किसी को कुछ बता पाती। ऐसा लगा सब समाप्त हो गया क्योंकि किसी का भी सामना करने की हिम्मत नहीं बची. उसका स्वस्थ्य ख़राब हो गया. बहुत हिम्मत करके उसने एक हफ्ते बाद उसने अपने माता पिता को यह बात बताई। गाँव में गरीबी में भी अपनी बेटी को डाक्टर  बनाने का सपना देखने वाले पिता के लिए यह बहुत असहनीय था क्योंकि उन पर रिपोर्ट न करवाने और मामले को रफा दफा करने का दवाब पड़ रहा था इसलिए  अत्यंत दवाब में उन्होंने आत्महत्या कर ली. पिता के असामयिक मृत्यु के बाद आशा ने अपने साथ दुष्कर्म करने वालो से लड़ने की ठान ली और ऍफ़ आई आर दर्ज करवाई। मुश्किलो से झूझ रही आशा को उसकी माँ और भाई का पूरा सहयोग रहा. आज वह अपने  गम और तकलीफ भुलाकर हरयाणा में जातिवादी हिंसा का शिकार हो रही दलित लड़कियों के लिए लड़ रही है. पिछले दिनो में वह भागना के लड़कियों के संघर्ष में हिस्सा लेने के लिए दिल्ली आई और गृह मंत्री से भी मिली। आशा से मैंने विस्तार से बात की उसके संघर्शो को लेकर और  भविष्य की रणनीतियों को लेकर. एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर मैं   यह मानता हूँ के सेक्सुअल हिंसा का शिकार कोई भी महिला अपना वजूद नहीं  खोती लेकिन  भारत के कानूनो में महिला का नाम देना अपराध माना जाता है. मैं आशा की दिलेरी को सलाम करता हूँ लेकिन मुझे भी उनका असली नाम छुपाना पड रहा है. मुझे उम्मीद है के हरियाणा की ये बहादुर बेटी अपनी बहुत से बहिनो के लिए एक रोल मॉडल  है और  सबको इज्जत के साथ जिंदगी जीने की प्रेरणा देगी।  आशा के साथ प्रस्तुत है मेरी बातचीत :

प्रश्न :  अपने विषय मैं बताएं ? आपका बचपन कहाँ गुजरा और पिता क्या करते थे  ?

उत्तर : मेरा बचपन गाँव में गुजरा क्योंकि मेरे पिता खेती  करते थे. हम पूर्णतया भूमिहीन  परिवार थे और जीविकोपार्जन के लिए जाटो के खेतो में काम करना पड़ता था।  

प्रश्न :  आपके पिता ने मुशिकल हालातो में आपको पढ़ाया ? क्या सोचते थे वह आपके बारे में ? खासकर आपके भविष्य को लेकर ?

उत्तर : हाँ, मेरे पिता की माली हालत बहुत ख़राब थे लेकिन उन्होंने मुझे पढ़ाया। वो मुझे डाक्टर बनाना चाहते थे.


प्रश्न :  आप लोग पूरी  तरह से भूमिहीन परिवार थे. गाव् में दलित भूमिहीनों की क्या स्थिति है और उन्हें किस प्रकार की मुसीबते झेलनी पड़ती हैं ?

उत्तर : क्योंकि लगभग सभी दलित परिवर भूमिहीन हैं तो उनकी निर्भरता ऊँची जाती  के किसानो पर हैं जिनके यहाँ वे खेती करने जाते हैं। 

प्रश्न :  हरियाणा के गाव् में एक लड़की की जिंदगी कैसे है. गाँव् वाले महिलाओ को किस नज़र से देखते हैं ? किस प्रकार के असुरक्षा लड़कियों को देखनी पड़ती है ? क्या तुम्हारे पापा ने तुम्हारे इधर उधर जाने पर कभी रोक  टॉक लगाईं ?

उत्तर : हरियाणा में दलित लड़की होना पाप है क्योंकि ये लोग उसे कुछ समझते ही नहीं हैं और किसी भी हद तक जा सकते हैं। 

प्रश्न : आपके साथ जो हादसा हुआ वो कैसे हुआ ? उस वक़्त आप क्या  कर रही थी ? क्या आपने शोर किया ? क्या किसी ने आपको लेजाते देखा ?

उत्तर : ९ सितम्बर २०१२ का दिन था. लगभग २३० बजे  मैं अपनी नानी के यहाँ जा रही थी तभी रस्ते में मुझे अपहृत कर लिया गया. उन्होंने मुझसे कुछ नहीं कहा और खींचकर कार  में डाल  दिया। मैंने शोर मचाया लेकिन आस पास कोई नहीं था इसलिए कोई मदद भी नहीं हो सकी. मैं इतना जानती थी के वे लोग मेरे गाँव के ही थे.

 प्रश्न :  क्या आपको पहले से कोई धमकी मिल रही थी ? क्या उन लोगो से आपके या परिवार की कोई रंजिश थी ? कौन थे वे लोग जिन्होंने आपके ऊपर अत्याचार किया ?

उत्तर : नहीं मुझे पहले से कोई धमकी नहीं थी और न ही हमारा उनसे कोई लेना देना लेकिन वे गाँव की बड़ी जाती के लोग थे. हाँ हादसे के बाद उन्होंने पैसे के लें दें कर मामला दफ़न करने की कोशिश की और फिर सीधे  धमकी देना शुरू किया। उन्होंने सीधे सीधे  हमारे घर आकर हमें जान से मारने की धमकी दी. हरयाणा में दलितों के साथ ये अब  आम हो गया है.उनको लगता है के ये लोग कुछ नहीं कर पाएंगे।

प्रश्न : आपके साथ घटना के बाद आप अपनी नानी के यहाँ गयी।  क्या आप थोड़ा जानकारी दे सकते हैं। किस वक़्त ? क्या किसी ने आपको मदद की या आप अपने आप पैदल या गाड़ी ऑटो से घर गयी ?
 
उत्तर : मैं शाम को ७ बजे के समय नानी के यहाँ पहुंची। उन लोगो ने मुझे एक सुनसान जगह पे छोड़ दिया। मैंने किसी से लिफ्ट मांगी और स्कूटर पे पीछे बैठकर घर आ गयी.


प्रश्न : आपने अपने माता पिता को कब जानकारी दी के आपके साथ ऐसी घटना हुई है ? उनका क्या कहना था ? 

उत्तर : मैंने अपनी माँ को १८ तारीख को बताया और १९ को मेरे पिता ने  आत्म हत्या कर ली.

प्रश्न :  क्या पुलिस ने आपकी मदद की ? आपने मेडिकल कब करवाया ? डाक्टरों का रवैय्या कैसे था ? 

उत्तर : पुलिस का रवैय्या बिलकुल ही सहयोग वाला नहीं था. मेरे पिता की मौत के बाद ही मैंने  मेडिकल करवाया।


प्रश्न :  आपको हरियाणा सरकार की तरफ से क्या सहायता मिली ? क्या क्या वायदे किये गए थे ? क्या आप ने शासन को इस सन्दर्भ में लिखा ?

उत्तर : हरियाणा सरकार ने वायदे तो बहुत किये लेकिन हकीकत में कुछ भी नहीं किया। उन्होंने मुझे और मेरे भाई को नौकरी का वादा किया। हिसार में २०० गज का प्लाट और २५ लाख रुपैये की आर्थिक मदद की बात भी कही लेकिन कोई भी वादा पूरा नहीं हुआ. मैं और भाई नौकरी के वास्ते नेताओ के चक्कर लगाते  रहते हैं लेकिन उन्हें कोई मतलब नहीं। हरयाणा में दलितों के स्थिति बहुत ख़राब है और न कोई सुनने वाला है इसलिए अब लोगो को मदद करनी चाहिए। 


प्रश्न : अपने तरह की हिंसा का शिकार लड़कियों से आप क्या कहना चाहेगी ? ऐसे हादसों को रोकने में समाज के क्या भूमिका हो सकती है ? आपके साथ समाज और आपके साथियों का रवैय्या कैसे रहा ?

उत्तर : ऐसे हादसे किसी के साथ भी  सकते हैं लेकिन हमें अपना हौसला नहीं खोना खोना है और इस लड़ाई को बीच में नहीं छोड़ना है. हमें बनना होगा। समाज की भूमिका बहुत बड़ी है यदि हम दुष्कर्म की शिकार लड़कियों को गलत नज़रो से ना देखें। मेरा परिवार मेरे साथ खड़ा है और यह मेरी बहुत बड़ी ताकत है. हरियाणा में अधिकांश लडकिया जिनके साथ ऐसी घटना हुई है वे गरीब परिवार की है जिनका कोई सुनने वाला नहीं है क्योंकि समाज और परिवार भी उनके साथ खड़ा नहीं होता इसलिए उनकी तकलीफ ज्यादा होती है.  मैं उनकी आवाज बनना चाहती हूँ. हालाँकि ज्यादातर मामलो में समाज साथ है लेकिन कमेंट करने वालो की कमी नहीं है. 

मैं एक गर्ल्स कॉलेज में पढ़ती हूँ. मेरी कॉलेज की कुछ सहेलियां  तो दिन भर मेरे साथ रहती हैं लेकिन सभी तो अच्छे नहीं होते। शुरुआत में कुछ लड़कियों ने मुझ पर कमेंट किये तो मैंने अपने कालेज की प्रिंसिपल से शिकायत की और उनके तुरंत एक्शन लेने के कारण ऐसी घटनाएं बंद हो गयी.

प्रश्न : आपकी माँ और भाई आपके साथ खड़े हैं ? क्या कहना चाहेगी आप ऐसे माँ बापो को जिनके बच्चे इस प्रकार की हिंसा का शिकार होते हैं ?

 उत्तर : मैं खुशनसीब हूँ के मेरी माँ और भाई मेरे साथ खड़े हैं. मैं सभी से अनुरोध करुँगी के अपनी लड़कियों को जरूर पढ़ाएं और आगे  बढ़ने के  लिए प्रोत्साहित करें। अपने बच्चो को खासकर लड़कियों को मज़बूत करें और निराश न करें। मुझे दुःख है के मेरे पिता ने आत्महत्या की।  मैं कहना चाहती हूँ के कोई  भी जंग मर के नहीं जीती जाती। मैं ऐसे माबाप से कहना चाहती हूँ के वे अपने बच्चो को पूरा सपोर्ट करे और उन पर कोई नकारात्मक या व्यंगात्मक कमेंट न करे. मैं  मीडिया से भी कहना चाहती हूँ के वे ऐसे मामले उठाये और उन्हें मुकाम तक पहुंचाए। आज मुझे मीडिया  ने सपोर्ट किया तो मुझे ताकत मिली नहीं तो एक क्षण तो ऐसा था के मैं  हादसे के बाद पूरी तरह से टूट चुकी थी. 

प्रश्न : देश दुनिया में लोग आपको  पढ़ रहे हैं , क्या कोई अपील करना चाहेगी लोगो से ? 

उत्तर : अब जागने की जरुरत है ताकि और कोई लड़की इस प्रकार की  घटना का शिकार न हो. हरियाणा में दलितों की खासकर दलित महिलाओ की हालत बहुत  भयावह हैं और उन्हें किसी प्रकार की कोई सहायता नहीं है. अधिकांश दलित परिवार भूमिहीन हैं इसलिए उनकी बड़ी जातियों खासकर जाटो के ऊपर निर्भरता है।  प्रशाशन दलितों की मदद नहीं करता और जाट दलित महिलाओ को कुछ नहीं समझते इसलिए केवल सरकार पे निर्भरता से काम नहीं चलेगा। दुनिया भर के दलितों के  लिए लड़ने वाले लोगो से मेरी अपील है के हरियाणा की दलित लड़कियों और दलित समाज की आत्मसम्मान की लड़ाई को मज़बूत करें और उन्हें हर प्रकार की मदद उपलब्ध करवाएं। 

प्रश्न : आप भगाना की लड़कियों को न्याय दिलाने के लिए कड़ी हैं ? क्या कहेंगी इन लड़कियों और उनके माता पिता से ?

उत्तर: भगाना की लड़कियां मज़बूत है.हमें ये जंग जितनी है. मैं हरयाणा सरकार से अनुरोध करती हूँ की दलितों की भावनाओ को महसूस करे. मेरी प्रार्थना  है के इन लड़कियों को  न्याय मिले।


प्रश्न :  क्या आप हिसार कोर्ट के निर्णय से संतुष्ट हैं या चाहती हैं के पुलिस अपनेकेस को और मज़बूती से लड़े ?

उत्तर: कोर्ट के निर्णय से मैं बिलकुल संतुष्ट नहीं हूँ. मैं तो क्या कोई भी ऐसे निर्णय से संतुष्ट नहीं होगा। ऐसे निर्णय दर्द देने वाले होते हैं. पुलिस को अपना काम ठीक से करना चाहिए था. पुलिस अगर ठीक से काम करती तो ऐसे निर्णय नहीं आता. यदि आप डिसीज़न की कॉपी पढ़ेंगे तो आप को लगेगा के किस बिला पे छोड़ा गया है. वैसे कल कोर्ट ने दुबारा नोटिस जारी किया के ४ लोगो को बेल कैसे  देदी गयी. अब मुझे लग रहा है के न्याय होगा।

प्रश्न : आपका सपना।

उत्तर : मैं वकील बनना चाहती हूँ और साथ ही साथ सामाजिक आंदोलनों से जुड़ना चाहती  हूँ  ताकि मेरी जैसे लड़कियों को मदद मिल सके और उनका कोई शोषण न कर सके. मैं चाहती हूँ ऐसे अपराध न हो और इसके लिए हमें लड़कियों और समाज को  जागरूक करने की जरुरत है ताकि वे पढ लिख सके और अपना जीवन इज्जत से जी सकें। मेरा सपना  हिंसा की शिकार इन लड़कियों के लड़ाई लड़ना है ताकि वे अपने जिंदगी अच्छे से जी सके और उन्हें न्याय मिल सके. 

Wednesday 26 February 2014

मज़बूरी की राजनीती या राजनीती में मज़बूरी





विद्या भूषण रावत 


उदित राज ने भाजपा में प्रवेश किया। रामदास अठावले भाजपा की मदद से राज्य सभा में आ गए और राम विलास पासवान अभी भी बात चित कर रहे हैं के समझौता किया जाए या नहीं। अभी उनका हिसाब किताब पूरा नहीं हुआ है. लेकिन मोदी अब मुद्दा नहीं है ऐसा उनका कहना था क्योंकि कोर्ट ने उनको क्लीन  चिट दे दी है और इसलिए मोदी पर बार बार आरोप लगाने का मतलब नहीं है. पासवान साहेब बहुत मंझे हुए वक्ता हैं और जब बोलते हैं तो जोश अपने आप आता है. मैंने पासवान, लालू, शरद, उदित राज सभी की सभाओ को देखा है और बहुत करीब से. जब अपने 'समय' में थे तो समर्थक लोग 'देश का नेता कैसा हो पासवान जैसा हो' या बच्चा बच्चा भीम का पासवान की टीम का' आदि नारे लगाते थे. लगता था जैसे सभी अभी प्रधानमंत्री बन्ने वाले हैं. समर्थक इतने इमोशनल होते थे के बोल्लीवूड वाला भी मात खा जाए. 

पासवान तो एन डी ए की सरकार में मंत्री भी थे और जब देखा कि स्थिति खराब है तो यू पी ए में आ गए गुजरात के नाम पर धर्मनिरपेक्षता बचाने के वास्ते लेकिन अब धरनिरपेक्षता के रहते चिराग पासवान के लिए भी जगह निकलना मुश्किल है इसलिए मोदी मुद्दा नहीं हैं अपितु उनकी हवा है. पासवान की कार्यप्रणाली को जानने वाले उनकी राजनितिक मज़बूरी भी जानते हैं.  हकीकत यह है के जिस मज़बूरी के तहत कांशीराम ने मुलायाम सिंह के साथ गठबंधन तोड़कर भाजपा का साथ अपनाया था वोही राजनैतिक मजबूरियां दलित नेतृत्व की हैं. हालाँकि ये केवल मज़बूरियाँ नहीं हैं अपितु अवसरवादिता भी है जो केवल अस्मिता के नाम पर अपने समुदायों की दूकान सजाये बैठे हैं और  संघ परिवार और  ब्राह्मणवादी शक्तियां उनकी और गिद्ध  जैसी  दृष्टि लगाए बैठे हैं/

दलित आंदोलन की सबसे बड़ी त्रासदी ये है कि बाबा साहेब आंबेडकर के बाद वैचारिक तौर पर सशक्त और निष्टावान नेतृत्व उसको नहीं मिल पाया हालाँकि आम दलित कार्यकर्ता अपने नेताओ के जान तक कुर्बान करने को तैयार है. आज यदि ये सभी नेता मज़बूत दिखाई देते हैं तो इसके पीछे मज़बूर कार्यकर्ता भी हैं जो अपने नेता के नाम पर लड़ने मरने को तैयार हैं. सत्ता से जुड़ना राजनैतिक मज़बूरी बन गयी है और इसमें सारा नेतृत्व आपस में लड़ रहा है. अगर हम शुरू से देखें तो राजनैतिक आंदोलन का चरित्र पता चल जाएगा। बाबा साहेब आंबेडकर ने समाज के लिए सब कुछ कुर्बान किया। उन्होंने वक़्त के अनुसार अपनी नीतिया  निर्धारित की लेकिन कभी अपने मूल्यों से समझौता नहीं किया। लेकिन बाबा साहेब के वक़्त भी  जगजीवन राम थे. हालाँकि उनके समर्थक यह कहते हैं के बाबूजी ने सरकार में  दलित प्रतिनिधत्व को मज़बूत किया लेकिन  आंबेडकर वादी  जानते हैं के उनका इस्तेमाल आंबेडकर आंदोलन की धार को कुंड करने के लिए किया गया.

लेकिन यह भी हकीकत है के अपनी मृत्यु से पहले तक बाबूजी के दम पर दलित कांग्रेस के साथ जुड़ा रहा।  बाबूजी की मृत्यु के बाद  कांशीरामजी का उदय  हुआ।  अपनी  मेंहनत और निष्ठा से उन्होंने बिखरे आंबेडकरवादी समाज को जोडा और नतीजा सपा के साथ सरकार बनी. लेकिन  बाद में कांशीरामजी की समझ में भी आ गया के मुलायम सिंह के साथ रहकर मायावती कभी भी मुख्यमंत्री नहीं बन सकती और इसलिए गठबंधन टूट गया. बसपा ने भाजपा के साथ गठबंधन किया और प्रदेश में सरकार बनी. हालांकि बह बहुत अच्छा नहीं रहा लेकिन पिछले चुनाव में बसपा ने इसी राजनैतिक गठबंधन को सामाजिक बनाकर  जीता। मतलब ये के मायावती ने सर्वजन का नारा देकर ब्रह्मणो और अन्य ताकतवर लोगो को अपने साथ जोड़ा क्योंकि उनका दलित वोट पक्का था.

जैसे जैसे लोकतंत्र की बयार नीचे जायेगी हमारे राजनैतिक नेताओ की महत्वाकांक्षा बढ़ती चली जायेगी। कांशीराम ने एक प्रयोग किया और वह सफल हो गया लेकिन उसकी बहुत से कारण थे. न केवल उन्होंने अम्बेडकरवादियों को पकड़ा अपितु उत्तर प्रदेश में चमार जाति का राजनैतिकरण  पहले से ही था।  बाबा साहेब आंबेडकर के मिशन के नाम पर बहुत से लोग छोटी छोटी पत्रिकाएं,  छोटे मोटे कार्यक्रम, सेमिनार इत्यादि पहले से ही चल रहे थे।  रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया का उत्तर प्रदेश में बहुत बड़ा वजूद था।  उत्तर भारत में चमारो की बहुत बड़ी संख्या है जो राजनैतिक तौर पर बहुत परिपक्व हो चुके थे इसलिए कांशीराम ने  जगजीवन राम की मृत्यु की बाद हुए राजनैतिक गैप को न केवल भर दिया अपितु बाबा साहेब के आंदोलन को एक नै राजनैतिक धार भी दी. सही हो या गलत, बसपा के उदय ने दलितो को देश भर में एक नई ताकत दी. कांशीराम ने उत्तर प्रदेश में ऐसी जातियों को पकड़ा जो राजनैतिक तौर पर हासिये पर थी और उनको मौका दे कर उन्होंने इन जातियों को आंदोलन से जोड़ दिया।  
लेकिन ऐसे भी हुआ के उनकी मौत के बाद बहुत सी  बातें ऐसे हो गयी जो  उनके सिद्धांतो के बिलकुल विपरीत हो गयी. जब दलितो की बहुत सी जातिया और उनका नेतृत्व बसपा के सर्वजन के चक्कर में हाशिये पर चला गया तो उन्होंने भी वही तरकीब निकाली जो कांशीराम ने किया। हरेक अपने को उसी लाइन पे लेकर अपनी जातियों का वोट बैंक बनाकर दूसरे से समझौता करता लेकिन ये खेल पिट गया क्योंकि सभी जातियां तो चमार और यादवो की तरह राजनैतिक तौर पर परिपक्व और संघर्षील नहीं थी। उनकी संख्या भी पुरे प्रदेश में नहीं थी इसलिए काम और मुश्किल हो गया।   सोने लाल पटेल ने अपना दल बनाया था और उनके पुत्री ने संगर्ष चलाया भी लेकिन अब सुनाई दे रहा है के वह भी हिंदुत्व के साथ वार्तालाप कर रही  है।  ओम प्रकाश राजभर ने एक पार्टी बनाई लेकिन चली नहीं। अन्य कई छोटे छोटे दल बने लेकिन पिट गए क्योंकि केवल संख्या नहीं अपितु संगर्ष शील समाज चाहिए तभी तो काम बनेगा।

कई जातियां तो हिंदुत्व विरोधी होना थोडा मुश्किल है क्योंकि आर्थिक हालत ऐसे हैं।  अधिकांशतः दलित  वही परम्परा, त्यौहार मानते हैं जो हिंदूवादी हैं. दो चार अम्बेडकरवादी जो हैं  भी, वे भी परम्पराओ पे चलने के लिए अपनी पत्नियों और परिवार का बहाना बनाकर उसको सही साबित करने की  कोशिश करते हैं।  जब विचार की राजनीती की बजाये केवल अपनी जाति की राजनीती होनी है तो नतीजे ये ही होंगे। उदित राज ने जब बुद्ध धर्म ग्रहण किया तो उन्हें लगा के अब वे देश के दलितो को मायावती का विकल्प दे पाएंगे। अखबारो के सुर्खियो में वे छाये रहे. आरक्षण के मुद्दे पर लगातार लड़ते रहे लेकिन सामाजिक तौर पर वह कुछ नहीं कर पाये जो बुद्ध धर्म अंगीकार उन्होंने किया। असल में केवल परिसंघ और सरकारी कर्मचारियों के बदोलत आप राजनीती नहीं कर सकते। कांशीराम इसको जानते थे और इसलिए उन्होंने सरकारी लोगो से दुरी बनाये रखी और आम कार्यकर्ता को तरजीह दी जो आज के युग में दिखाई नहीं देता। दूसरे, कांशीराम में कभी दम्भ नहीं आया और राजनीती में धन और वेशभूषा को उन्होंने कभी तरजीह नहीं दी. मैंने तो शायद ही उन्हें कभी टाई पहने देखा। राजीनति में लोगो से जुड़कर होना होता है वो आज के नेताओ में नहीं दिखाई देता क्योंकि कांशीराम तो वह बनना चाहते हैं लेकिन  उतना साधारण होकर जनता से जुड़ना नहीं चाहते। उदित राज के पास भी संख्या नहीं थी क्योंकि उनकी बिरादरी शहरो तक सीमित है और वो भी मुखर रूप से अम्बेडकरवादी विचार से कभी ज्यादा नहीं जुडी। 

उदित राज ने बहुत काम किया लेकिन जो सांकृतिक कार्य उन्होंने किया वो समाज में ले जाना मुश्किल था।  उत्तर प्रदेश के जातियों के खेल में उनके नेतृत्व को नहीं स्वीकारा गया।  कुछ लोग कहते हैं के वो खटीक जाति के हैं इसलिए चमारो ने उन्हें नहीं  स्वीकारा लेकिन ये पूरा सत्य नहीं है. उत्तर प्रदेश में अभी भी मायावती तन के कड़ी हैं और चमार अभी उनसे नाराज हो सकता है लेकिन उनके विरुद्ध नहीं जा सकता। दो चार लेख लिखने वाले अपना दावा कर सकते हैं लेकिन बृहत्तर समाज में अभी भी बसपा प्रथम नम्बर की पार्टी है।  जिसने भी मायवती को बुरा भला कहा या पार्टी के खिलाफ काम किया उसको उत्तर प्रदेश के चमारो ने कभी स्वीकार नहीं किया चाहे वो उनकी बिरादरी का ही क्यों न हो।  मायावती को इसका बहुत लाभ मिला है लेकिन क्योंकि लोग उनमे अभी भी सम्भावनाएं देखते हैं इसलिए ऐसे स्थिति आती है।  

उदित राज ने बहुत प्रयास किये लेकिन उनकी जाति के  समीकरण कभी उन्हें सांस्कृतिक राजनैतिक क्रांति के हथियार नहीं बनने नहीं दिए   खटीकों की संख्या बहुत कम है जो मुख्यतः शहरो में रहते हैं इसलिए उनका मुख्य अल्लयेन्स हिंदुत्व की ताकतो से ही बनता है. मुख्यतः  फल विक्रेता या  मीट विक्रेता का ही उनका मुख्या काम है और शहर में उनका मुख्या ग्राहक हिन्दू है क्योंकि हलाल और झटका भी हमारी सोच को सीधे सीधे प्रभावित करता है।  आपका ग्राहक कौन है ये आपकी सामाजिक राजनैतिक सोच को प्रभावित करता है इसलिए खटीक मुख्यतः 
व्यापारी वर्ग है और उनका सीधा रिश्ता हिन्दुओ से है बुद्ध धर्म से वे ज्यादा प्रभावित नहीं होने वाले। ये इस देश की त्रास्दी है के अपनी जाति के आलावा हमारी स्वीकार्यता नहीं बन पाती इसलिए उदित राज का निर्णय उनकी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए एक राजनैतिक निर्णय है जिसे उनके समुदाय का पूरा  समर्थन होगा क्योंकि वह पहले से ही भाजपा के साथ है. 

उदित राज के भाजपा में शामिल होने को मैं उनका एक राजनैतिक निर्णय मानता हूँ जो राजनैतिक सामाजिक मज़बूरियों के तहत है क्योंकि अगर नहीं करते तो उनका वज़ूद समाप्त हो जाता। रामविलास के मज़बूरी भी वही है क्योंकि उन्हें लालू की छाया में नहीं रहना और अपने परिवार को किसी तरह से उसकी 'जागीर' सौंपनी है इसलिए वह जानते हैं के इस वक़त संघ और हिंदुत्व को दलितो की आवश्यकता है इसलिए वो अपनी राजनैतिक गोटियां शेक रहे हैं.  रामदास अठावले ने तो आर पी आई को हिंदुत्व के दर्शन करा दिए इस्ल्ये इससे  अधिक शर्म की  बात  क्या होगी।  गले में माला और कई कई अंगूठी पहनने वाले संजय पासवान संघ के सेवक होकर अपने को  अम्बेडकरवादी कहते हैं और हम सभी को अपने  मंचो पे बुलाकर महिमांडन करते हैं. 

दलित आंदोलन का ये अंतर्द्वंद रहा है के राजनैतिक ताकत को अति महत्व देकर सांस्कृतिक सामाजिक परिवर्तनो के मुद्दो को हासिये पर रखा है. मैं ये मानता हूँ के बिना सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन के राजनैतिक परिवर्तन अंत में नाकाम होंगे और सभी को ब्राह्मणवादी व्यवस्था में समाहित कर लेंगे। राजनैतिक परिवर्तन की हवा में बहकर हम सभी उसे अपना  अंतिम लक्ष्य मान लेते हैं और फिर उसकी प्राप्ति के लिए साम दाम दंड भेद लगाते हैं और अपने मूल्यों और सिद्धांतो का कत्ल करते हैं. सत्ता की चाबी राजनीती है ने अब फायदे के बजाय नुक्सान करना सुरु कर दिया है क्योंकि इतनी बड़ी संख्या में रहते हुए भी इस देश के अंदर सही मायनो में सम्पति का बँटवारा नहीं हो पाया और भूमि सुधार केवल कानून की किताबो में रहे. देश के अधिकांश दलित आबदी आज भी भूमिहीन है और सत्ता के गलियारो में उसकी भूमिका १% सरकारी नौकरियों से है जिस पर भी हंगामा बरपा है।  

दलित आंदोलन को केवल सरकारी नौकरियों और चुनावो की राजनीती तक सीमित कर देना उसकी विद्रोहात्मक क्रांतिकारी धार को ख़त्म करदेने जैसा है।  आंबेडकर को केवल भारत का कानून  मंत्री  और भारत के संविधान निर्माता तक सीमित करके हम उनके क्रांतिकारी सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन के वाहक की भूमिका को नगण्य कर देते हैं। सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई के लिए हमें ऐसे क्रांतिकारी योद्धा चाहिए जो सत्ता से  दूर रहकर ईमानदारी से जोड़ने का काम कर सके. हमारे सामने बहुत बड़े  उदहारण हैं जिन्होंने बिना राजनीती के दूरगामी परिवर्तन किये। फुले, आंबेडकर, पेरियार, आदि इसलिए हमारे महापुरुष नहीं हैं क्योंकि किसी विभाग के मंत्री थे अपितु इसलिए के समाज बनाने के लड़ाई को उहोने बिना किसी  मोल भाव के लड़ा. उनके लिए भारत निर्माण का  सपना था हो ब्राह्मणवादी व्यवस्था को समाप्त करके ही बन सकती है. इसीलिए सत्ता का टेम्पटेशन बहुत खतरनाक होता है क्योंकि ये  विद्रोहियों को  सत्ता में समाहित कर बहुसंख्यक जनमानस को गुलाम बनाकर  रखता है. ब्राह्मणवादी व्यस्था में आंबेडकर का विद्रोह किसी भी दूसरे विद्रोह से बड़ा है क्योंकि इसमें उस व्यवस्था की चूले हिला दी.

 सवाल ये नहीं के दलितो को राजनीती नहीं करनी या राजनितिक हिस्सेदारी नहीं करनी लेकिन ये भी  देखना पड़ेगा के संसदीय राजनीती में दलित अकेले निर्णायक नहीं है और इसलिए दलित नेतृत्व के मज़बूरी है के वो अपनी नेटवर्किंग को बड़ा करे. दलित बहुजन मिलकर इस राजीनति को एक नयी दिशा दे सकते थे लेकिन व्यक्तिगत  महत्वाकांक्षाओ के कारण  पूरे आंदोलन को बहुत नुक्सान हुआ है.  दूसरे मात्र नेताओ को गाली देकर काम बनाने से रहा क्योंकि जो लोग आज हिंदुत्व के साथ दिखाई दे रहे हैं उनमे से बहुत को कोई भी आज भी ब्राह्मणवादी नहीं कहेगा। आज न केवल दलित आंदोलन अपितु अपने को  धर्मनिरपेक्ष कहने वाले लोगो को प्रश्न पोछना पड़ेगा के ऐसा क्यों हो रहा है. अगर कांग्रेस और रास्ट्रवादी कांग्रेस में रामदास अठावले के रस्ते बंद हैं तो वो क्या करें ? अगर बसपा, सपा, कांग्रेस और अन्य स्थानो पर उदित राज के लिए एंट्री बंद है तो वो क्या करें ? राजनीती में या तो आओ मत और यदि आ गए तो ये तिकड़मे तो करनी पड़ेगी क्योंकि एक बार आप हासिये पे गए तो फिर कोई पास में नहीं होगा और आप किसी काम के नहीं रहेंगे। क्योंकि आज की राजनीती में अपने को समाप्त कर समाज के लिए जीने के न तो जिजीविषा और न ही इतना बौद्धिक ताकत। क्या ये दलित आंदोलन या सेक्युलर आंदोलन की कमजोरी नहीं के नामदेव ढसाल जैसे अम्बेडकरवादी अंत में  शिवसेना की तरफदारी करते दिखे ?  क्या हम अपने आप में झांकेंगे या नहीं ?

यह भी एक कटु सत्य है के उदित राज, रामविलास और अठावले ने भाजपा के साथ पहले हे समझौता करके मायवती के एन डी ए में आने के संभावनाओ को फिलहाल तो समाप्त कर दिया है. सभी जानते थे के बहिनजी भी एन वक़्त पर समझौता कर लेंगी और फिर इन लोगो की  पार्टी में जाने कि या अलाएंस की सम्भावनाएं पूर्णतः ख़त्म हो जाती। इसको सिद्धांतो से न जोड़कर देखें तो अच्छा। भारत में वैसे भी राजीनति की मुख्यधारा अवसरवादिता है इसलिए दलित  राजनीती उससे अछूता कैसे  रह सकती  है ?  

राजनीती को समाज परिवर्तन का साधन मानने वाले भूल गए के बुद्ध ने सत्ता को लात मारकर दुनिया में परिवर्तन की क्रांति की और बाबा साहेब आंबेडकर ने अंत में ये मान लिया था के सांस्कृतिक क्रांति के बिना भारत प्रबुद्ध नहीं बन सकता है ?  भारत को प्रबुद्ध बनाने के रस्ते में सबसे बड़ी रुकावटे अस्मिताओं के नाम पर जातियों की दुकानदारी लगाने वाले लोग. समय आ गया है कि हम सभी प्रश्नो पर सोचे और विचारकर एक क्रांतिकारी सामाजिक आंदोलन  खड़ा करें जो विहचारधारा का खिलवाड़ कर रहे नेताओ को उनका  रास्ता दिखाए। दलित आंदोलन को अपने अंदर की विविधता को स्वीकारना होगा। 



 राजनैतिक  विचारधारा  में रहने वाले लोग आज हासिये पर हैं लेकिन वे खुश रहते हैं. नेता जानते हैं के एक बार वे सत्ता में आ गए तो लोग उनके 'कुकर्मो' को भूल जायेंगे। इसलिए वे इस बात की परवाह नहीं करते के किस विचारधारा के साथ समझौता कर रहे हैं क्योंकि उनके पास हर बात का 'जवाब' है और एक बार मंत्री बन गए तो जी हज़ूरी के लिए तो लोग खड़े हैं।  जो लोग हिंदुत्व को गली देते हैं अपने मंचो पर उन्ही के नेताओ के आने पर बम बम हो जाते है. हमारे नेता हमारे समाज का प्रतिनिधत्व हैं और इसलिए वे बेलगाम हैं क्योंकि वे जानते हैं के उनकी जनता उन्हें 'मंत्री', 'सांसद' या '  विधायक' बनते देखना चाहती है. सत्ता के इस राजनीती के मुहावरे को नेताओ ने बहुत भुनाया है और इस्तेमाल कर  जनता'को  भ्रमजाल में रखा है. सिद्धांतो की राजनीती के लिए आपको कुछ मिलने वाला नहीं क्योंकि आपके पास चार चमचे भी नहीं रहेंगे। कांशीराम ने चमचो से सावधान रहने को कहा लेकिन चमचो के बिना नेता एक प्रकार की सजाये मौत है जो कोई नहीं चाहता और चमचे बिना सत्ता के मिल नहीं सकते इसलिए ये कुचक्र चलता रहेगा। बाबा साहेब ने कहा था कि हिन्दू रास्त्र देश के लिए सबसे खतरनाक होगा क्योंकि ये  वैसे ही होगा जैसे कोई इस्लामिक राष्ट्र और इसलिए भारत के विकास के लिए सभी को साथ लेकर चलने वाले लोग चाहिए। अम्बेडकरवादी वो हो सकते थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि वो आंदोलन को आगे लेजाने की बजाये अब  पीछे की तरफ खींच रहे हैं क्योंकि इस राजनीती का मकसद आज़ादी नहीं अपितु सत्ता है जो व्यक्तिगत महत्वकाक्षाओ को पूरा करने के लिए समाज के बली देने को तैयार हैं. अब सवाल यह के क्या समाज बली का बकरा बनने को तैयार है या नहीं ? 

Friday 24 January 2014

खास आदमी आम टोपी और हासिये के लोग


  

विद्या भूषण रावत 

दिल्ली में ठण्ड से इतनी मौते मैंने पिछले बीस सालो में तो नहीं सुनी जितनी इस बार हुई हैं. बताते हैं के २३ दिनों में अभी तक १७० से अधिक लोग मर चुके हैं. अरविन्द केजरीवाल ने तो पहले ही दिल्ली के हरेक नागरिक को आम आदमी बता दिया इसलिए ये भूख और ठण्ड से मरने वाले लोग तो निस्चय ही आम आदमी नहीं थे. वे वी आई पी भी नहीं थी क्योंकि अगर होते तो खुली सड़क पे न मरते। मंत्री गण जो रात भर लोगो के घरों पर छापे मारी कर रहे थे वे भी इन लोगो को नहीं बचा सके. कहाँ हैं वो ४७ शेल्टर होम्स जो मुख्यमंत्री ने पद ग्रहण करने के तुरंत बाद आर्डर किये थे ? मामला साफ़ है आप का कोई काम बिना मीडिया के नहीं होता और अगर मीडिया इनकी रिपोर्टिंग बंद कर दे सो शायद बहुत से नेता तो बीमार हो जाएँ।

प्रश्न इस बात का नहीं है के ये मौतें कैसी हुई क्योंकि मात्र एक माह में हम सरकार का आंकलन नहीं कर सकते लेकिन सरकार को चलाने वाले यदि अभी भी उसी मोड में हैं जो रामलीला मैदान में हुआ करता था तो फिर हमें गम्भीरता से सोचना पड़ेगा। मेरे जैसे लोग तो रामलीला मैदान के घटनाक्रम से ही मानते हैं कि आप एक तानशाही वाला फासीवादी लोगो का गुट है जो संसद की सर्वोच्चता को नहीं मानता और स्वतंत्र भारत के सभी संस्थानो को ध्वस्त करना चाहता है. ये वे ही लोग है जो हमारे संविधान से बहुत परेशान है और उसको बदलना चाहते हैं. मुझसे समझ नहीं आता के आखिर हमारे संविधान में ऐसे क्या ख़राब बात है जो बदली नहीं जा सकती आखिर संविधान सभा ने तो संसद को हक़ दिया के वो संविधान में संशोधन कर सकती है और आज़ादी के बाद अभी तक तीन सौ से ऊपर संशोधन हो चुके हैं जो इस संविधान की ज्वलंतता की कहानी कहते हैं. अगर बिजली पानी ही हमारे देश का मुद्दा हैं तो दिल्ली उसे लागु करने का सबसे घटिया उदहारण क्योंकि दिल्ली की मध्यमवर्गीय सवरण जनता तो वैसे भी ज्यादा मुंहलगी है. सरकारी कानून तो लोगो को तमीज सिखाते नहीं इसलिए अगर दिल्ली को महिलाओ की दृष्टि से सबसे घटिया शहर माना जाता है तो इसलिए नहीं के दिल्ली पुलिस के जवान कम हैं अपितु इसलिए के हमारा सामाजिक ढांचा निहायत ही सामंतवादी और जातिवादी है तथा उसको ख़त्म करने के लिए हमारे 'क्रांतिकारियों' ने कभी कोई पहल नहीं की.

मुझे बहुत बार लोग कहते हैं के तुम्हे संविधान से बहुत प्यार है आखिर इस संविधान ने हमें दिया क्या ? मैंने कहा सबसे पहली बात तो यह है के संविधान से नाराज़ लोग कौन कौन है ? जिन लोगो ने मलाई खाई वोही शिकायती भी बन गए ? दलित, पिछड़ो, आदिवासियों को संविधान से शिकायत नहीं है क्योंकि अगर ये संविधान नहीं होता तो वो कहाँ होते ? इस संविधान कि शिकायत करने वाले क्रांतिकारी मनुवादी संविधान पे चुप रहते हैं ? आखिर हमारा संविधान तो मात्र राजनैतिक तौर पर लागु होता है क्योंकि उसके लागु करने वाले तो खाप वाड़ी हैं और यदि जातिवादियों के हाथ में संविधान होगा तो वो क्या होगा ? हमारे सामाजिक ढांचे में जो मनु का विधान चल रहा है उसके लिए हमारे कितने  'क्रांतिकारी' धरना, प्रदर्शन, भूख हड़ताल कर रहे हैं ? क्या हम गीता, कुरआन, बाइबल, रामायण की एक भी पक्ति बदल सकते हैं जो इंसानियत के विरुद्ध हो ? नहीं क्योंकि हमारा इसी बात में फायदा है. जिस संविधान ने भारत के संविधान को ख़ारिज किया है वो मनुवाद हमारे समाज में भयानक तौर पर व्याप्त है और नैतिकता की बाते करने वाले तमाम पुजारी उस पर बात भी नहीं करना चाहते ?

आखिर क्यों हरयाणा में दलितो पर हमला करने वाले लोगो पर कार्यवाही नहीं होती ? क्यों अभी तक मुजफ्फरनगर के आतताई खुले में घूम रहे हैं ? गुजरात, मुम्बई, दिल्ली के दंगो के बादशाह क्यों सत्ता के नशे में हैं ? क्यों अभी तक एक भी नरसंहार के करता धर्ता हमारी न्याय प्रक्रिया से बाइज्जत बरी हो जाते हैं ? केजरीवाल और उनके लोगो ने जब भी दिल्ली में धरना प्रदर्शन किये हैं वो देश के संविधान को  चुनौती दिए हैं और सरकार ने उनकी आवा भगत अच्छे से की है. मैं पूछना चाहता हूँ के सरकार से हिसाब पूछने का अगर ऐसा ही  प्रदर्शन और मेरे हिसाब से इनसे लाख गुना बड़े प्रदर्शन यदि कश्मीर, उत्तरपूर्व और छत्तीशगढ़ में होते हैं या हो जाएँ तो क्या पुलिस वाले इतने प्यार से पेस आयेंगे ? अगर मुस्लिम संघठन रामलीला मैदान में  बेमियादी धरने पर बैठ जाएँ और कहें के गुजरात और मुज्जफ्फरनगर के लोगो को न्याय दिलये बगैर वे उठेंगे नहीं और रास्ता जाम कर देंगे तो पुलिस का रवैया कैसे रहेगा ? 

हम सभी जानते हैं अरविन्द केजरिवाल और  यूथ फॉर इक्वलिटी अभियान को ? ये मनीष कुमार शर्मा नामक तत्त्व अज्ञानता में ही आप में नहीं आ गए ? ये किरण बेदी और अन्य महारथी यू ही अन्ना आंदोलन से नहीं जुड़े ? असल में ये सभी देश में आने वाले बदलाव से परेशान थे ? ये बदलाव दलित बहुजन ताकते ही ला सकती थे और इसलिए मंडल की प्रतिक्रांति की जरुरत थी और आप उसका सबसे बड़ा हथियार बना. अगर अन्ना आंदोलन से आम आदमी पार्टी की सरकारी यात्रा को देखें तो पता चलेगा के धुर आरक्षण विरोधी और दलितो को हिकारत भरी नज़र से देखने वाले लोगो का जमावड़ा है आप. और मंडल आंदोलन के दौरान जैसे हमारे  मध्यवर्गीय सवर्ण वामपंथियों का चरित्र साफ़ दिखाई दिया था वो आज फिर से वैसे ही नज़र आ गया और वे सभी लोगो जो राजनैतिक मज़बूरियों के आरक्षण का विरोध नहीं कर सकते लेकिन आप के जरिये  प्रतिबद्धता का पता चल चूका है।  

वाल्मीकि समाज की राखी बिरला ने बिना किसी सोच के ही नहीं कह दिया के आरक्षण से कुछ नहीं होता। राखी को इतना भी ख्याल नहीं के उसकी माँ जो सफाई का काम कर रही है वो भी सामाजिक आरक्षण है जिसके खिलाफ आज तक कोई धरना और प्रदर्शन नहीं हुआ, न ही ये क्रांतिकारी उसके विरुद्ध कुछ कहेंगे। केजरीवाल तो सभी को आम आदमी कहता है / इसका मतलब यह के इन 'आम आदमियों' के घरो के लैट्रिन साफ़ करने वाला भी 'आम आदमी' है और उसके उतनी ही औकात है जितनी इन 'आम आदमियों' की है. 

अफ्रीकन मूल के लोगो के साथ 'इन आम आदमियों' की घृणा वैसी है जैसे आरक्षण के विरुद्ध इनका दलित पिछड़ो के प्रति नफरत . इतना बड़प्पन, इतना दम्भ, इतना नाटक और कही नहीं होता और आज प्रगतिशील दिखने वाले वामपंथी भी  उनके झांसे में फंसे हैं. आज भारत के अंदर छुपे रंगभेद का पर्दाफास हो रहा है. अफ्रीकी मूल के लोग हो या उत्तर पूर्व के लोग, दलित हो या पिछड़े, आदिवासी और मुसलमान, अरविन्द केजरीवाल के आम आदमी महा जातिवादी, दम्भी और नसलभेदी हैं और जिस प्रकार से रात्रिकालीन घटनाक्रम को सही साबित करने की कोशिश हो रही है वो  शर्मनाक है ? ये वो लोग हैं जो दूसरे को एक मिनट का समय देने को तैयार नहीं ? नैतिकता जैसी इनके आलावा और कही नहीं और यह इम्मानदारी का सर्टिफिकेट देते रहेंगे। अपने मंत्री को पूरा समय देंगे लेकिन पुलिस अधिकारी को नहीं ? पुलिस यदि ख़राब है तो उसको सही बनाया जाए लेकिन अगर मंत्री अपनी मर्जी से छापे मारी करने लगे तो क्या होगा ? लेकिन केजरीवाल का डायरेक्ट डेमोक्रेसी भीड़ का शाशन ही तो है जिसे आंबेडकर ने ख़ारिज कर दिया था. गांधी के ग्राम स्वराज्य में जातीय दम्भ और पूर्वाग्रहों पर आधारित जो लोकतंत्र बनेगा वोही सपना केजरीवाल देखते हैं क्योंकि ऐसी डायरेक्ट डेमोक्रेसी में सारी बाते वैसे ही मैनेज होंगी जैसे आप का मीडिया मैनेजमेंट है. हमें ऐसा लोकतंत्र नहीं चाहिए जो देश और संसद को खाप पंचयात में तब्दील कर दे और देश में   मनुवादी न्यायव्यवस्था लागू करवाये जहाँ एक ही आरोप पर जाति के  अनुसार दंड की व्यवस्था हो। 

केजरीवाल ने जातिवादी सामंती लोगो को आम आदमी कि टोपी पहनाकर आम आदमी को बहस से ही गायब कर दिया है क्योंकि उसके मुद्दे और नेतृत्व तो उनलोगो के हाथ में है जो व्यवस्था के मज़े लूटकर अब टोपी पहनकर 'आम' दिखने कि कोशिश कर रहा है लेकिन ये लोगो को गुमराह करने राजनीती है. आम आदमी तो और भी हासिये पे चला गया है क्योंकि जिस बिरादरी को केजरीवाल इतना ईमानदार बना रहे हैं उनके दूकान पर काम करने वाले उस अनाम आदमी का ख्याल कौन करेगा जिसको न न्यूनतम मजदुरी है , न कोई छट्टी, न मेडिकल और न अन्य कोई सामाजिक योजना। केजरीवाल के पास तो सरकारी नौकरी को बिना छोड़े अमेरिका जा कर लाखो कमाने कि छूट थी लेकिन उस अनाम आदमी के पास ये कोई आप्शन आज भी नहीं है के वह बनिया की दूकान से आधे घंटे पहले अपने घर जा सकता है या नहीं।

दिल्ली की सड़को पर ठण्ड से मरने वाले अनाम लोगो की तादाद बढ़ रही है और कडुवी हकीकत यह है के दिल्ली का  बदमिजाज और बदतमीज 'आम आदमी' को इसकी कोई परवाह भी नहीं है और न ही इससे कोई मतलब। दिल्ली को दुनिया में महिलाओ के लिए सबसे असुरक्षित जगह इसलिए नहीं कहते के गृह मंत्रालय दिल्ली सरकार के पास नहीं है. दिल्ली को जरुरत है सभ्य बनाने की और उसके लिए आत्मचिंतन की जरुरत होती है।  अपनी खामियों को स्वीकारना पड़ता है. हमेशा दुसरो को कोस कर हम अपनी कमी को नहीं छुपा सकते।  व्यवस्था परिवर्तन सरकार बदलने और दो चार कानून बनाने से नहीं आने वाला। हमारे सामाजिक ताने बाने को जब तक हम हिलाएंगे नहीं तब तक अनाम आदमी ऐसे ही मरता रहेगा और ये खास लोगो आम आदमी के नाम से मनुवादी व्यवस्था के सबसे सरक्षक बने रहेंगे। 

मनुवाद और प्रगतिशील गणतंत्र के बीच ये युद्ध चलता रहेगा जब तक पुरे समाज का गणतन्त्रिकरण ना हो जाए. हमें उसी दिशा में चलना है नहीं तो ये सभी ताकते गणतंत्र को बदनाम कर मनुतंत्र के मुंह में धकेलने की पूरी साजिश कर रही हैं. हमारा यकीं है हम अपने उन पुरखो की  क़ुरबानी को बर्बाद नहीं करेंगे जिनके संघर्षो और विचारो की बदौलत हम आज यहाँ खड़े हैं. एक लोकतान्त्रिक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी  गणराज्य ही हमारे अधिकारो और भागीदारी कि गारंटी है और उसको बचाने के लिए हमें हर संघर्ष के लिए तैयार रहना है। 

Friday 10 January 2014

बौद्धिकता की जाति या जाति कि बौद्धिकता





विद्या भूषण रावत

वह बहुत अच्छा बोल रहे थे और मुद्दतो के बाद दक्षिण भारत में मैंने चक सफ़ेद धोती कुरता में एक बिहारी सख्स को सांस्कृतिक अंग्रेजी बोलते सुना तो प्रसन्नता हुई. उन्होंने लोकायत, चार्वाक, बुद्धा आदि के दर्शन के बारे में बोला। मैं खुश था के क्यों एक गांधीवादी इतना अधिक विद्रोही हो सकता है जो खुद गांधी नहीं थे. खैर मुझे लगा के उन्हें ज्ञान है और वो महज़ लफ्फाजी नहीं कर रहे थे. कार्यक्रम के बाद मैंने उन्हें धन्यवाद दिया के मैं उनके अभिभाषण से प्रभावित हुआ और मैंने कहा हमें बात करनी चाहिए और इसलिए अगले दिन उनसे नाश्ते पर बात करने का समय निर्धारित कर लिया।

अगले दिन जब मिले तो मैंने उनसे अपने राजनैतिक अनुभव बताने को कहा. वह पूर्व सांसद थे और इतना ज्ञान तो आजकल के सांसदो को नहीं है. उन्होंने बताया वो जय प्रकाश नारायण के आंदोलन से जुड़े थे और पहली और शायद आखरी बार संसद जनता पार्टी के समय पर ही बने. वैसे जयप्रकाश के आंदोलन से मैं कभी प्रभावित नहीं रहा और बिहार के बारे में जो मिथ है वो इसे आंदोलन के कारण बना है के बिहार एक 'क्रांतिकारी' जमीन है जो हकीकत में नहीं है. जिस प्रचुर मात्र में ब्राह्मणवाद का दबदबा बिहार में है और उसके त्योहारो और परम्पराओ से वो चला है जेपी ने उस ब्राह्मणवाद को राजनैतिक तौर पर और मज़बूत किया।

खैर मैंने उन्हें बताया के मैं भारत के तर्कवादी मानववादी विरासत में चार्वाक, बुद्धा, आंबेडकर, फुले, भगत सिंह, पेरियार, राहुल सांकृत्यायन, आदि को शामिल करता हूँ. बातो बातो में चर्चा के दौरान उनके कई विरोधाभास नज़ार आ रहे थे. उन्होंने कहा के अब आरक्षण को ख़त्म कर देना चाहिए क्योंकि यह तो केवल दस वर्ष के लिए दिया गया था. मैंने कहा डॉ आंबेडकर ने तो एक आरक्षण की मांग ही नहीं कि थी क्योंकि वह तो पृथक निर्वाचन की मांग कर रहे थे जिसे  पूना  पैक्ट की जालसाजी ने समाप्त कर दिया। आज भी अम्बेडकरवादी मानते हैं के पूना पैक्ट के आभाव में दलित नेतृत्व सवर्णो की मांगो को पूरा करता है और अपने समुदाय की और ध्यान नहीं दे पाता/  मैंने कहा आरक्षण जब ढंग से लागु नहीं होता तो उसे ख़त्म कैसे कर दे ? वह महाशय बोले के उहोने जनता पार्टी के समय इस आरक्षण को बढाने का बिल संसद में रखा और उसका नतीज़ा यह हुआ के वो डेढ़ लाख से अधिक मतों से चुनाव हार गए और उनके समुदाय ने उन्हें कभी वोट नहीं दिया।

वो अपने को लोहिया का शिष्य कहे और आंबेडकर में 'केवल' दलित और आदिवासियों की लड़ाई देखते हैं जबकि लोहिया का द्रिस्तिकोण बहुत विस्तृत था और पिछड़ी जातियों और सवर्णो को भी साथ लेकर चलने का. मैंने कहाँ आंबेडकर का दृष्टिकोण बहुत बृहत्तर है और अंतराष्ट्रीय है उसको समझने की जरुरत है और उनके दर्शन में सभी के लिए आज़ादी है जबकि लोहियावाद गांधीवाद का ही एक शाखा है. ये बात झूठी है के आंबेडकर ने पिछड़ो के लिए कुछ नहीं किया। बुद्धा और आंबेडकर के दर्शन में सबके लिए है और वहाँ लोग अपने जातिगत पूर्वाग्रह छोड़ कर ही आ सकते है.

मुझे धीरे धीरे करके उनके सामुदायिक बड़प्पन का अहसास हो रहा था. मैं समझ चूका था के वो किस समाज से थे.  उन्हें लालू से परेशानी थी. ,मैंने उनसे पूछा के बिहार में भूमि सुधार क्यों नहीं हुआ. जमीने बँटी क्यों नहीं ? वह बोले के अब जमीन कहाँ है ? अब किसानी में कोई लाभ नहीं है और इसलिए लोगो ने अपनी जमीने बेच दी हैं. मैंने कहा कृपया यह बताएं के बिहार में सवर्णो में खासकर भूमिहारो में दलितो के प्रति इतना प्रतिरोध क्यों है. क्या अधिकारो की लड़ाई कोई गुनाह है ? 'देखिये, भूमिहार लोग विद्रोही प्रवति के होते हैं।  वे देश की आज़ादी की लड़ाई में सबसे आगे थे, वे भूदान आंदोलन में भी सबसे आगे आये और जब कम्युनिस्ट पार्टियां आंदोलन कर रही थी तो भी भूमिहार ही सबसे आगे आये/ मैंने कहा शायद आंदोलनो को ध्वस्त करने के ताकतवर जातियों की रणनीति यही है के वहाँ घुस कर उनके नेतृत्व को ख़त्म कर दिया जाए और जाति के प्रश्न को पुरे डिस्कोर्स से गायब करदिया जाए। मैंने उनकी बातो से सहमति जताई और बताया के हम सी पी आई के बिहार और यू पी यूनिट को भूमिहार पार्टी ही कहते थे क्योंकि पार्टी में डालती पिछड़ो के लिए कोई स्थान ही नहीं था और शायद इसीलिये कम्युनिस्ट पार्टियों का यू पी और बिहार से सफाया ही हो गया है।

खैर मैंने पूछ दिया के आखिर भूमिहार लोग दलितो पे इतना अत्याचार क्यों करते हैं और ये रणवीर सेना इत्यादि बनाने की क्या जरुरत है. मेरे बुजुर्ग मित्र  बोले फिर कभी मिलेंगे और चर्चा करेंगे लेकिन जाते जाते कह गए के लालू ने भूमिहारो को छेड़ा इसलिए वो विद्रोही हो गए क्योंकि प्रशाशन उनके विरुद्ध काम कर रहा था. मुझे अभी भी आश्चर्य है के क्या बिहार का प्रशाशन कभी इतनी मज़बूती से ताकतवर जातियों के विरुद्ध गया है  ? क्या कभी रणवीर सेना के मठाधीशो को जेल होगी ? नितीश भी बंदोपाध्याय कमिटी की रिपोर्ट अपने दफ्तर में छुपा के रखे हैं क्योंकि पता है जमीने बाँटने के लिए वो छीननी भी पड़ेगी और अगर ऐसा होता है तो क्या ताकतवर जातियां अपने नेताओ के जरिये आंदोलन नहीं खड़ा कर देंगी। संविधान के पुरे प्रश्न जातिगत अहंकार और आंकड़ो की बाजीगरी में छुप से गए हैं. लोकतंत्र केवल जाति तंत्र में तब्दील हो चूका है और सबसे हासिये पे रहने वाले को केवल झूठ की परोसा जा रहा है. इस पोस्ट के जरिये मैं केवल ये बताना चाह रहा हूँ के ज्ञान की भी जाती होती है और हमारे मित्र ब्रज रंजन मणि की नई पुस्तक नॉलेज एंड पॉवर में बहुत खूबसूरती से उन्होंने ये बताया है. आने वाले दिनों में उनकी पुस्तक का विश्लेषण आपके सामने रखूँगा। इस वक़्त तो इतना ही के भारत का सबसे बड़ा नुक्सान विद्वता के पाखंड और जातीयकरण के कारण से हुआ है. नेताओ से तो आप बच जाओगे लेकिन जातीय पूर्वाग्रहों से युक्त बौध्हिक बेईमानी से लड़ने के लिए एक बेहतरीन विचारिक विकल्प चाहिए और शायद आंबेडकरवाद भारत के सन्दर्भ में वो विकल्प दे सकता हैं.