Lokayaat is a materialistic philosophy that places most of its emphasis on the here and now and life as we perceive it as we live through it. The Carvaka system only accepts perceived knowledge to be true and therefore dismisses the concept of an afterlife. It does not believe in a cult system where devotees look for a master. Our discussions must follow that route which go towards liberation and restore human dignity.
Saturday 26 October 2013
Lokaayat: राजनीती का हिंदुत्विकरण या हिंदुत्व की राजनीती
Lokaayat: राजनीती का हिंदुत्विकरण या हिंदुत्व की राजनीती: विद्या भूषण रावत गुजरात में २००२ में मुसलमानों की मौत के सौदागर अक्सर १९८४ के चुनावो का जिक्र करते हैं के राजीव गाँधी सिखों की लाश...
Friday 25 October 2013
राजनीती का हिंदुत्विकरण या हिंदुत्व की राजनीती
विद्या भूषण रावत
गुजरात में २००२ में मुसलमानों की मौत के सौदागर अक्सर १९८४ के चुनावो का जिक्र करते हैं के राजीव गाँधी सिखों की लाशो पर देश के प्रधानमंत्री बने. मैं अपने कई विश्लेषणों में कह चूका हूँ के राजीव जिस मैंडेट से प्रधानमंत्री बने थे वह हिंदुत्व का मैंडेट था पूर्णतया सांप्रदायिक था, वह चुनाव परिणाम असल में सिखों को सबक सिखाने के लिए ही था और राजीव हिन्दुओ के नायक बनकर उभर रहे थे, इंदिरागांधी एक हिन्दू बन चुकी थी जिनकी हत्या 'सिख आतंकवादियों' ने की थी. देश भर में सिखों के विरूद्ध जो हिंसा थी उसमे कांग्रेस के बड़े नेता जरुर शामिल थे लेकिन उनके लोगो ने इसको हवा नहीं दी यह कहने का कोई कारण नही है क्योंकि जो दंगे हुए थे वे कांग्रेस और सिखों के बीच नहीं हुए थे अपितु 'हिन्दुओ' ने इस हिंसा को अंजाम दिया और कांग्रेस हिन्दू राष्ट्रवाद की मुख्या पुरोधा बनकर उभरी जिसने भाजपा को मात्र २ सीटो पर ही सिमटा के रख दिया।
लेकिन राजीव की इस विशाल जीत में सेकुलरिज्म और संविधान की हार हुई. सम्प्रदायिक्ता के मुख्या श्रोतो का इस्तेमाल कर कांग्रेस ने जीत तो हासिल की लेकिन लम्बी लड़ाई लड़ने वाले संघ परिवार के लिए तो ये कर्णप्रिय संगीत था और कांग्रेस गलतियों पे गलतियाँ कर रही थी. यह सभी सांप्रदायिक लोगो को खुश करने की निति ने शाहबानो मामले पर भाजपा को मौका दिया लेकिन इससे पहले कांग्रेस पर मुस्लिम तुस्थिकरण का आरोप लगता माननीय अरुण नेहरु जी ने अयोध्या मामले में नयी पहल शुरू कर दी और जहाँ ५० वर्षो से ताला लगा था वहां अब 'राम मंदिर ' बन गया और फिर देश ने जो देखा उसको भुलाना मुश्किल है. राजीव ने राम राज लाने का वादा किया और जाने अनजाने में हिंदुत्व की जो मजबूती दी उसको केवल और केवल मंडल की ताकतों ने रोका।
हिंदुत्व की ताकतों ने ब्राह्मणवादी अन्तर्विरोधो की राजनीती को अछे से समझा और इसलिए राम मंदिर के आन्दोलन को और मज़बूत किया क्योंकि फिर 'मुस्लिम' विरोध के नाम पर बाकि गैर मुसलमानों का एकीकरण हो जाए. जो जातियां सामाजिक न्याय की बाते करती और अपने लिये अधिकार मांगती वो मुस्लिम विरोध पर एक हो जाती. हालाँकि उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा की सरकारे बनी लेकिन हकीकत में वैचारिक तौर पैर वे ब्राह्मणवाद से समझौता करके ही काम चलाते रहे और हिंदुत्व की लम्बी दुरी के निशाने पर रहे. अब उत्तर प्रदेश में माया और मुलायम कभी एक नहीं हो सकते और ये क्यों हुआ इसके लिए हमे बहुत कुछ अलग से कहने की जरुरत नहीं। किसकी गलती है और कौन कैसा है यह तो भविष्य के आँगन में है लेकिन सच्चाई यह के इसने हिंदुत्व को और मज़बूत कर दिया।
मह्त्वाकंषाएं ख़राब नहीं होती लेकिन एक शर्मनाक हालत में मंडल शक्तियों के बीच संप्रदायीकरण,और जातियों की किलेबंदी के चलते २००९ तक इन ताकतों की हार हो चुकी थी और हिंदुत्व का विषाक्त फन देश को डसने के लिए तैयार खड़ा था. आज सभी मंडल की ताकते अलग थलग और छितराइ खड़ी हैं और किसी से भी समझौता करने को तैयार बैठी हैं. दलितों का इन शक्तियों पर ज्यादा भरोषा नहीं है क्योंकि किसानो के नाम पर जो लठैती दलितों के हितो पर हुयी है वोह भी सर्वव्याप्त है. लेकिन यह भी हकीकत है के गाँव में भुमिसुधार और उसके पुन्रवितरण के बगैर सामाजिक परिवर्तन संभव नहीं है और इसके लिए हमारे मंडलीय नेता तैयार नहीं है क़्योकी उनकी गाँव की राजीनति जाति के झूठे अहंकारो पर कड़ी है जिसका मुख्या धेयाय दलित विरोध है क्योंकि जातियों के बड़प्पन का सिद्धांत दलितों को बराबर बैठने का हक़ नहीं देता और इसीलिये गाँव में हिंदुत्व की राजनीती की धुरी में पिछड़े नेता हैं.
मंदिर की पिछड़ी राजनीती ने कल्याण सिंह को उत्तर प्रदेश का मुख्या मंत्री बनाया और उनके हौसले इतने बुलंद हो गये के उन्होंने अपनी संवैधानिक निष्ठां को भुलाकर बाबरी मस्जिद को गिरने दिया। हालाँकि उत्तर प्रदेश में उसके बाद भाजपा का सफाया हो गया लेकिन लम्बी दुरी चलने वाले संघ का पूरा पत्ता नहीं कटा था और पिक्चर अभी बाकी है. अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ध्वंश और उसके बाद मुसलमानों पर हुई हिंसा का परिणाम महारास्त्र में हुआ जहाँ शिव सेना को चुनाव में सरकार बनाने का मौका मिला। राजीव के पद्चिन्हो पर चलकर ही मोदी भी मुसलमानों को मरवाकर गुजरात में एकछत्र राज करते रहे. यानी अल्पसंख्यको के खिलाफ आग उगल कर और उनकी देशभक्ति को हमेशा संदेह के घेरे में रखकर हम देश में शासन कर सकते हैं. कांग्रेस ने तो सिख विरोधी दंगो के लिए माफ़ी भी मांगी लेकिन मोदी तो हर चुनाव में एक मिया मुशारफ ढूंढते रहे ताकि मुसलमान पूर्णतया अलग थलग रहे और गुजरात उसका उदहारण है जहाँ उन्होंने मुसलमानों को साफ तौर पर इतना अलग कर दिया है के वे खुल के कुछ कह सकने की स्थिथि में नहीं हैं .
देश के सबसे बड़ी पार्टी का हिन्दुत्वीकरण इंदिरागांधी के समय से शुरू हुआ. नेहरु की कांग्रेस ने तो सांप्रदायिक ताकतों से और पुरोहितवाद से दुरी रखी लेकिन इंदिरा गाँधी ने समय समय पर बाबाओं और धर्मगुरूओ का कंग्रेस्सिकरण कर उनको मजबूती प्रदान की और हिन्दू साम्प्रदायिकता को हवा देने के लिए आपरेशन ब्लू स्टार किया गया क्योंकि जब कांग्रेस पे यह आरोप लगे के वो सिख साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दे रही है तो हिन्दुओ की 'भावनाओं' का आदर करने के लिए लिए स्वर्ण मंदिर में सेना भेजनी पड़ी.
सोनिया की कांग्रेस कई मामलो में भिन्न है. यह साझा सरकारों का समय है और भारत अब बदल भी चूका है इसलिए पहले की तरह हाथ हिलाकर यहाँ वोट भी नहीं मिलते। फिर भी सोनिया गाँधी को बहुत सी बातो के लिए श्रेय देना जरुरी है . कांग्रेस में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया बढ़ी है, मुख्यमंत्री दिल्ली से आसानी से नहीं बदले जाते और पार्टी ने कुछ बेहतरीन कानून भी पारित करवाए हैं चाहे मनरेगा हो या खाद्य सुरक्षा कानून, भूमि कानून हो या सुचना का अधिकार यह सभी ऐतिहासिक हैं हालाँकि इनमे कमियां अपनी जगह व्याप्त हैं . सोनिया के कांग्रेस असल में सरकार के आगे असहाय हो गयी और राज्य सभा के जरिये की जुगाद्बाजी का शिकार हो गयी. पार्टी के ऊपर सरकार के हावी होने से जिस बेतरबी से सरकार ने सेज और अन्य कार्यो के लिए भूमि अधिग्रहण किया वो देश में भारी असंतोष का कारण बना. सरकार की आर्थिक नीतियाँ वो लोगो बना रहे थे जो पूर्णतया पूंजीवादी व्यस्त में यकीं करते थे और उनका हिंदुत्व से कोई बहुत बड़ा वैचारिक भेद नहीं था इसीलिए प्लानिंग कमीशन ने बार बार नरेन्द्र मोदी के गुजरात को अच्छा राज्य बताया और राजीव गाँधी फाउंडेशन के कई लोग आज मोदी की 'फाउंडेशन' बनाने में लगे हैं.
कांग्रेस आज की जरुरत है क्योंकि देश में दलित आदिवासियों मजदूरों की अभी कोई एक जुट आवाज नहीं दिखती जो हिंदुत्व को हरा सके. देश का यह कर्तव्य है के हिंदुत्व की इन जातिवादी ताकतों को नेस्तनाबूद करें लेकिन उसके लिए कांग्रेस के सेक्युलर होनी की गारंटी चाहिए और उसमे सभी वर्गों, दलितों, पिछडो, मुस्लिम और अन्य तबको की भागीदारी देनी होगी। कांग्रेस को सॉफ्ट हिंदुत्व से साफ़ अपनी दुरी बनानी होगी और चिदंबरम, मोंटेक, मनमोहन की आर्थिक सोच को पूर्णतया तिलांजलि देनी होगी।
इसलिए राहुल जो बात कहे हैं वो महत्वपूर्ण है . जब न्याय नहीं मिलता तो व्यक्ति कुछ भी कर सकता है . साम्प्रदायिकता का सबसे बड़ा पहलों यह है के वो लोगो में जहर घोलता है और जब इस देश के अन्दर मुसलमानों को न्याय नहीं मिलेगा तो कई लोग हिंसा का सहारा ले सकते हैं. आज देश के अधिकांश जेलो में मुस्लिम युवा हैं. आतंकवाद के नाम पर उनको घसीटा जा रहा है. परिवार बर्बाद हो चुके हैं और हम हिंदुस्तान पाकिस्तान की बात करते हैं. कांग्रेस के नेता यह समझ ले के इंडिया केवल भारत है न के हिंदुस्तान। भारत को गोलवलकर और सावरकर के हिंदुस्तान की तरफ न धकेले कांग्रेस। और उसके लिए जरुरी है के सरकार अपना राजधर्म निभाए और पार्टी पूर्णतया संवैधानिक तंत्रों को मज़बूत करे . हिन्दू साम्प्रदायिकता के आगे घुटने टेक कर कांग्रेस ने पहले ही देश के धर्मनिरपेक्ष समाज को निराश किया है. आज भारत को बचाने की लड़ाई है. राहुल की बात के जो मतलब निकले लेकिन एक बात की पुष्टि इतिहास ने की के भारत की राजनीती इस वक़्त पूर्णतया हिंदूवादी है और सभी पार्टियाँ उसमे ही अपने उत्तर ढूंढ रही है और यही कारण है के मुंबई के दंगो से पीड़ित मुसलमानों को न्याय तो नहीं मिलता लेकिन शिव सेना सत्ता में आती है, दाऊद और उसके साथी तो भाग गए और इसलिए पुलिस हजारो निर्दोष मुस्लिम युवाओं को जेल में ठूंसती है लेकिन हिंदुत्व के दंगाई कभी नहीं पकडे जाते, जब निर्दोष मुसलमान जेल में जाते हैं तो समाज पर उसका असर होता है और असहायता की स्थिथि होती है यह बहुत गंभीर है . चुनाव व्यवस्था ये के हज़ारो मुसलमानों या सिखों , दलितों का कत्लेआम से आप देश के शाशक बन जाते हैं या लाइन पे लगे हैं लेकिन उनलोगों को कभी न्याय नहीं मिलता जो हिन्दू साम्प्रदायिकता के शिकार रहे हैं . क्या कांग्रेस पार्टी एक साफ़ लाइन लेने को तैयार है ? क्या हरयाणा के दलितों को न्याय मिलेगा ? क्या महारास्ट्र के १९९३ के दंगा पीडितो को इन्साफ मिलेगा . दाऊद या आई एस आई को खत्म करने के लिए मुसलमानों को न्याय और सत्ता समाज में भागीदारी और इज्जत चाहिए न की जुमलेबाजी और लफ्फाजी। राहुल ने स्वीकार किया के न्याय नहीं मिलेगा तो मुस्लिम युवा भटक सकते हैं लेकिन प्रश्न यह है के क्या केंद्र की उनकी पार्टी की सरकार और विभिन्न राज्यों में उनके मुख्यमंत्री ऐसा करेंगे के मुसलमानों का उन पर भरोषा आये ? हिंदुत्व की चुनौती बड़ी है लेकिन केवल भय से काम नहीं चलेगा अब अपनी मानसिकता को भी साफ़ करना पड़ेगा .
Thursday 24 October 2013
सुर न सजे क्या क्या गाउ मैं …
विद्या भूषण रावत
आज सुबह मन्ना डे के निधन की खबर से दुःख तो हुआ लेकिन इसके लिए हम तैयार भी थे. अपने जिंदगी को भरपूर तरीके से अपनी शर्तो पर जीते मन्ना दा चले गए और उनके इतने वर्षो की सुर साधना की खास बात यह रही के उन्होंने उसूलो से कभी समझौता नहीं किया। उनको 'एक आँख मारू तो रास्ता रुक जाए' या अन्य इसी प्रकार के सड़क छाप गाने गाना मंज़ूर नहीं था. बम्बई अच्छी नहीं लगी तो बंगलोर का रुख कर लिया और जब फिल्मो में उनके मतलब की बाते नहीं आ रही थी तो 'मधुशाला' जैसे महान कविता संग्रह को उन्होंने और अमर बना दिया।
मन्नाडे उस दौर में आये जब सिनेमा के पटल पर राज कपूर, दिलीप कुमार और देवानंद का राज चलता था और इन तीनो महान अदाकारों की अपनी विशेष छवि थी जिसके अनुसार ही उनके प्लेबैक सिंगर्स मशहूर हुए और संगीत भी तैयार हुआ क्योंकि यह लोग संगीत की भी अच्छी समझ रखते थे. राज कपूर तो मुकेश-शैलेन्द्र-हसरत जयपुरी और
शंकर जयकिशन के साथ जोड़ी बना लिए तो दिलीप कुमार की अधिकांश फिल्मो के लिए गायन मोहम्मद रफ़ी का था और संगीत नौशाद और गीत अक्सर शकील बदायुनी के होते थे. देवानंद के लिए सचिन देव बर्मन ने धुनें तैयार की और मजरूह के खुबसूरत गानों को किशोर कुमार ने और हसीं बना दिया। इन सभी महान कलाकारों के चलते मन्ना डे ने अपना एक ऐसा मुकाम बनाया जो उनके इन सबसे अलग करता है और महान भी बनता है. मन्ना डे ने उन गानों को सुर दिया जिसे शायद दूसरा वैसा सुर नहीं दे पाता।
अगर १९५० के समय से संगीत के दौर को देखें तो पता चलेगा के जिस विविधता से मन्ना डे ने अपने गानों में रंग भरा वो किसी के लिए दोहराना मुश्किल है इसलिए उनके गानों के नकली कसेट आपको कम मिलेंगे। नदी में चलते माझी के गानों को क्या उनसे अच्छा कोई गा पायेगा। हरेक स्वर में सुन्दरता है और दिल की पुकार है . नदिया चले चले रे धारा ( फिल्म सफ़र ), या अपनी कहानी छोड़ जा कुछ तो निशानी छोड़ जा ( दो बीघा जमीन ) को शायद ही कोई भुला पाए . फिल्म सीमा का बलराजसाहनी पर फिल्माया गया यह बेहतरीन गाना ' तू प्यार का सागर है, तेरी एक बूँद के प्यासे हम', आज भी हमारे दिलो को सीधे असर करता है. काबुलीवाला फिल्म में ' ऐ मेरे प्यारे वतन तुझपे दिल कुर्बान' या उपकार का ' कसमे वादे प्यार वफ़ा सब बाते हैं बातो का क्या' आज भी दिलो को झकझोरते हैं.
मन्ना डे टाइप्ड गायक नहीं थे. उन्होंने ऐसे गीत गाये जो गाने में बहुत मुश्किल थे इसलिए आज भी आसान नहीं है उनकी नक़ल करना या उनको दोहरा देना। जहाँ वह राजेश खन्ना के लिए आनंद में 'जिंदगी कैसी है पहेली' गा रहे थे तो वहीँ प्राण के लिए फिल्म जंजीर में गायी उनकी कव्वाली का आज भी जवाब नहीं। आज भी ' यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी' एक मास्टरपीस है जिसने प्राण को अमर कर दिया। महमूद के लिए भी मन्ना दा ने बेहतरीन गीत दिए.
जिस समय राज कपूर मुकेश को अपनी आत्मा की आवाज कह रहे थे वहीँ उन्होंने मन्ना डे की प्रतिभा को पहचाना और बात ऐसे बनी की राजकपूर की फिल्मो के बहुत से अविस्मरणीय गीत दिए. दिल का हाल सुने दिल वाला, फिल्म श्री ४२० का ऐसा गाना है के आज भी हमें नाचने पर मजबूर करता है. फिल्म मेरा नाम जोकर का प्रसिद्द गीत, ' ऐ भाई जरा देख के चलो', या फिल्म दिल ही तो है का ', लागा चुनरी में दाग' आज भी बहुत चाव और सम्मान से सुने जाते हैं. बलराज साहनी पर फिल्माया 'वक़्त ' फिल्म में उनका यह चुलबुला गीत आज भी बेमिशाल है और उतना ही जवान है जैसे उस वक़्त था ', ऐ मेरी जोहरा जबी, तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक हैं हसीं और मैं जवान, तुझपे कुर्बान मेरी जान मेरी जान. शायद आज भी इन गीतों के मुकाबले न तो गीत आये न संगीत पैदा हुआ क्योंकि मन्ना डे के लिए संगीत साधना थी एक धंधा नहीं था.
जब सुरों में साधना होती है और इमानदारी होती है तो सुर खुबसूरत बन जाते हैं और यही बात मन्ना दा के सुरों के साथ थी. आज भी ' ये रात भीगी भीगी, ये मस्त बिघायें, उठा धीरे धीरे वोह चाँद प्यारा प्यारा, या आजा सनम मधुर चांदनी में हम, तुम मिले तो वीराने में भी आ जायेगी बहार, झुमने लगेगा आसमा, आदि गीत हमारे दिलो पर राज करते हैं और सबसे बेह्तरीन रोमांटिक गीतों में शुमार किये जाते हैं.
मन्ना डे ने सही समय पर बम्बई को टाटा कर दिया था नहीं तो रफ़ी, किशोर, आदि की तरह उन्हें भी आँख मारने वाले या लड़की पटाने वाले गाने गाने पड़ते जो उनके लिए मुश्किल था. मन्ना डे खुद बताते हैं के कैसे उन्होंने किशोर कुमार के साथ 'एक चतुर नार गाया' जिसमे उनको किशोर से हारना था और किशोर कुमार के कहने पर उन्होंने यह गाना स्वीकार किया जिसे हम सब बहुत मस्ती से सुनते हैं. जो हुआ वो अवश्यम्भावी था लेकिन ये जरुर है के मन्ना डे के बात एक पूरी पीढ़ी ने बम्बई की फिल्मो से विदाई ले ली है. मुकेश, रफ़ी, किशोर की पीढ़ी और जज्बे के इस महान कलाकार के जाने से एक युग का अंत है लेकिन जैसे के मैंने पहले भी कहा लेजेंड्स कभी मरते नहीं हैं, वे हमेशा जिन्दा रहते हैं अपने कला के साथ, अपनी साधना के साथ लोगो को सन्देश देते हैं बेहतरीन करने का और कर्णप्रिय संगीत देने का. जब जब सुरों की बात होगी, संगीत की धुन बजेगी मन्ना डे की मधुर आवाज हमेशा याद की जायेगी क्योंकि संगीत एक बहता दरिया है जो रुकता नहीं है, चलता रहता है अनवरत।
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