Thursday 29 May 2014

ये चुप रहने और सहने का वक़्त नहीं




विद्या भूषण रावत 

बदायूं की दो बहिनो की अमानवीय और क्रूर हत्याओ ने भारत के 'सभ्य समाज ' पोल खोल के रख दी है. शर्मनाक घटना पे वादे, मुहावजे और कार्यवाही होती रहेगी लेकिन क्या हम  प्रश्न के मूल तक जायेंगे और सरकार से जवाब मांगेगे के ऐसा क्यों हो रहा है और कब तक सरकार इनके बंद होने की  गारंटी देगी। ये केवल बलात्कार और हत्या नहीं है. इस घटना ने हमारे प्रशाशन और  उसकी जातिवादी निष्ठा को भी उजागर किया है और बताया है क्यों हम मूल प्रश्नो से हटकर सत्ता चाहते हैं और नेता चुनते हैं. 

लोकतंत्र में सरकार की न जाति होती न धर्म। उसे सबके हितो के लिए काम करना होता है।  भारत का हर एक व्यक्ति सुरक्षा और इज्जत का हकदार है. लेकिन क्या वाकई में गाँव से उपजी राजनीत में ऐसा है. सत्ता हमारे गाँव में अपनी झूटी शान और ताकत का हथियार बन चुकी है. भारत की सरकार दिल्ली से नहीं चलती बल्कि भारत के जातिवादी गाँव से चलती हैं इसीलिए मुजफ्फरनगर के हत्यारे घूमते हैं और दंगे मंत्री बन जाते हैं. बलात्कार के आरोपी आराम से इज्जत से हैं. हरयाणा की खापें वैसे ही सत का मज़ा ले रही हैं और दलितों की हत्या और उनकी महिलाओ पर दुष्कर्म सरकार के लिए मायने नहीं रखता। उत्तर प्रदेश में भी यही हाल है और  मध्य प्रदेश , राजस्थान , महाराष्ट्र, आंध्र , तमिलनाडु, कर्नाटका आदि भी पीछे नहीं है क्योंकि जाति की राजनीती में दलित मानवाधिकार का मुद्दा गौण हो के रह गया है. 

भारत के गाव् मनुवाद का सबसे बड़ा अड्डा हैं।  उत्तर प्रदेश में बदायूं की दो दलित  बहिनो की बलात्कार के बाद जघन्य हत्या ने भारत में लोकतंत्र की हकीकत को उजागर कर दिया है. ये कृत्या किसी तालिबानी कृत्या से कम नहीं है. शर्मनाक इसके लिए बहुत छोटा सा शब्द है. क्या इतने जघन्य अपराधो पर हम खामोश रहेंगे। उत्तर प्रदेश की सरकार में  जाति का नंगा नाच चल रहा है. लोहिआ ने कभी सोचा भी नहीं होगा के जिस समाज की हम परिकल्पना कर रहे हैं वहां उनके शिष्यों की सरकार में गुंडे और अपराधी जाति की नाम पर अपनी चौधराहट दिखाते रहेंगे। भारत में अगर लोकतंत्र को जिन्दा रखना है  ब्राह्मणवादी व्यवस्था का खत्माँ करना होगा जिसने हमारी संवैधानिक व्यवस्था को बिलकुल कमजोर कर दिया है. क्या ऐसे समाज से हम दुनिया में सबसे बड़े लोकतंत्र का नाटक करते रहेंगे। ये घटनाएं जाति की वर्चस्व को साबित करती हैं और दलित अस्मिता और आत्म सम्मान को कुचलना चाहती हैं. आज लोकतंत्र को मनुवाद ने गुलाम बनाके रखा है और दुर्भाग्यवश शूद्र प्रभुत्ववाद ब्राह्मणवाद का ही हिस्सा  है. दुखद बात यह है के हमारे गाव में जाति की इस घिनौनी कुकृत्य को भी सही ठहराने वाले लोग मिलते हैं इसलिए जातियों की अस्मिताओं का धंधा चलता है. आज जरुरत इस बात की है के गलत को गलत कहने की हिम्मत हम रखें  चाहे वो गलती मैंने की  हो,मेरी जाति की हो या उस बिरादरी के नेता की हो या मेरे परिवार की ही क्यों न हो. अब जातियों के नाम पर गलत को सही ठहरने वालो के खिलाफ खड़े होने का है. ये चुप रहने का समय नहीं है. ऐसी घिनौनी अपराध करने वालो को माफ़ नहीं किया जा सकता।

ये लोकतान्त्रिक देश है जहाँ दलित लोकतंत्र में वोट के समीकरण में पिस रहा है. हरियाणा में जाट आतंक ने अभी तक दलितों को कोई छोड़ा नहीं है और सरकार चुप है. उत्तर प्रदेश में अब भी एहि प्रभुत्ववाद जारी है।  कश्मीरी पंडितो के लिए हम यू एन में जाने को तैयार हैं, उन्हें दिल्ली में बसने दिया जाता है लेकिन लाखो दलितों को कोई व्यवस्था नहीं है. भारत सरकार ने भूमि सुधारो के कानून ईमानदारी से कभी लागू नहीं किये और इसलिए हर एक राज्य में दो चार बड़ी जातियां दलित अस्मिता के साथ खिलवाड़ करते रहती हैं, जमीनो पर कब्ज़ा करके रहते रहती है और उन्हें सम्मान पूर्वक जिंदगी भी नहीं जीने देती।  भारत के जातिवादी गाँव दलितों को रखना नहीं चाहते और यदि रखना चाहते हैं तो अपने अस्मिता को कुचल कर और गुलामी की जिंदगी जी कर. कश्मीरी ब्राह्मणो की चिंता करने वाली सरकार और वो सभी रही हैं दलितों की अस्मिता और आत्मा सम्मान के लिए उन्हें क्यों नहीं पुनर्वासित करती। क्यों नहीं सरकार दलितों को  दिल्ली, बम्बई, कलकत्ता, बंगलोर, चेन्नई, लखनऊ, हैदराबाद आदि जगहों पर इज्जत के साथ बसाती। अगर ऐसा हुआ तो दलितों को गांवो से बाहर खदेड़ने वालो के मुंह पर सबसे बड़ा तमाचा होगा। लेकिन मनुवादी तंत्र में ऐसा शायद ही संभव हो  फिर भी हम चुप नहीं रह सकते। 

बाबा साहेब का समुदाय अब लड़ने को तैयार है,  वो मरने के लिए तैयार है  लेकिन अपने अस्मिता पे ऐसे क्रूर हमले नहीं सहन करेगा। भारत की तमाम सरकारे पूर्ण तौर पर असफल हो चुकी हैं  क्योंकि मनुवाद के शिष्य सत्ता के हर गलियारे पर कब्ज़ा किये बैठे हैं और जब तक ऐसा रहेगा भारत में लोकतंत्र लूटता रहेगा क्योंकि उनकी निष्ठाएँ अपनी जातियों से हैं न की भारत के संविधान से. इस प्रश्न पर हमें अब अंतिम लड़ाई के लिए तैयार रहना पड़ेगा। राजनैतिक दल अपनी अपनी रोटी सकेंगे और नफा-नुक्सान के हिसाब से बाते करेंगे। कुछ अभी चुप रहेंगे और 'समय' पे बोलेंगे। ऐसे सभी लोगो की जितनी निंदा की जाए काम है.  आज में खुल के कहता हूँ लानत है ऐसे देश और ऐसे समाज पर जहाँ ऐसे दुष्कृत्यों के बावजूद भी हम घरो पे बैठे रहे.  जब तक एक भी महिला के ऊपर ऐसे जघन्य कृत्या होते रहेंगे हम भारत को असभ्य संस्कृति का अड्डा कहते रहेंगे जहाँ चुनाव की राजनीती आपके सारे पाप धो देती है और इसलिए दलितों को आज तक न्याय नहीं मिल पाया है.