Friday 24 January 2014

खास आदमी आम टोपी और हासिये के लोग


  

विद्या भूषण रावत 

दिल्ली में ठण्ड से इतनी मौते मैंने पिछले बीस सालो में तो नहीं सुनी जितनी इस बार हुई हैं. बताते हैं के २३ दिनों में अभी तक १७० से अधिक लोग मर चुके हैं. अरविन्द केजरीवाल ने तो पहले ही दिल्ली के हरेक नागरिक को आम आदमी बता दिया इसलिए ये भूख और ठण्ड से मरने वाले लोग तो निस्चय ही आम आदमी नहीं थे. वे वी आई पी भी नहीं थी क्योंकि अगर होते तो खुली सड़क पे न मरते। मंत्री गण जो रात भर लोगो के घरों पर छापे मारी कर रहे थे वे भी इन लोगो को नहीं बचा सके. कहाँ हैं वो ४७ शेल्टर होम्स जो मुख्यमंत्री ने पद ग्रहण करने के तुरंत बाद आर्डर किये थे ? मामला साफ़ है आप का कोई काम बिना मीडिया के नहीं होता और अगर मीडिया इनकी रिपोर्टिंग बंद कर दे सो शायद बहुत से नेता तो बीमार हो जाएँ।

प्रश्न इस बात का नहीं है के ये मौतें कैसी हुई क्योंकि मात्र एक माह में हम सरकार का आंकलन नहीं कर सकते लेकिन सरकार को चलाने वाले यदि अभी भी उसी मोड में हैं जो रामलीला मैदान में हुआ करता था तो फिर हमें गम्भीरता से सोचना पड़ेगा। मेरे जैसे लोग तो रामलीला मैदान के घटनाक्रम से ही मानते हैं कि आप एक तानशाही वाला फासीवादी लोगो का गुट है जो संसद की सर्वोच्चता को नहीं मानता और स्वतंत्र भारत के सभी संस्थानो को ध्वस्त करना चाहता है. ये वे ही लोग है जो हमारे संविधान से बहुत परेशान है और उसको बदलना चाहते हैं. मुझसे समझ नहीं आता के आखिर हमारे संविधान में ऐसे क्या ख़राब बात है जो बदली नहीं जा सकती आखिर संविधान सभा ने तो संसद को हक़ दिया के वो संविधान में संशोधन कर सकती है और आज़ादी के बाद अभी तक तीन सौ से ऊपर संशोधन हो चुके हैं जो इस संविधान की ज्वलंतता की कहानी कहते हैं. अगर बिजली पानी ही हमारे देश का मुद्दा हैं तो दिल्ली उसे लागु करने का सबसे घटिया उदहारण क्योंकि दिल्ली की मध्यमवर्गीय सवरण जनता तो वैसे भी ज्यादा मुंहलगी है. सरकारी कानून तो लोगो को तमीज सिखाते नहीं इसलिए अगर दिल्ली को महिलाओ की दृष्टि से सबसे घटिया शहर माना जाता है तो इसलिए नहीं के दिल्ली पुलिस के जवान कम हैं अपितु इसलिए के हमारा सामाजिक ढांचा निहायत ही सामंतवादी और जातिवादी है तथा उसको ख़त्म करने के लिए हमारे 'क्रांतिकारियों' ने कभी कोई पहल नहीं की.

मुझे बहुत बार लोग कहते हैं के तुम्हे संविधान से बहुत प्यार है आखिर इस संविधान ने हमें दिया क्या ? मैंने कहा सबसे पहली बात तो यह है के संविधान से नाराज़ लोग कौन कौन है ? जिन लोगो ने मलाई खाई वोही शिकायती भी बन गए ? दलित, पिछड़ो, आदिवासियों को संविधान से शिकायत नहीं है क्योंकि अगर ये संविधान नहीं होता तो वो कहाँ होते ? इस संविधान कि शिकायत करने वाले क्रांतिकारी मनुवादी संविधान पे चुप रहते हैं ? आखिर हमारा संविधान तो मात्र राजनैतिक तौर पर लागु होता है क्योंकि उसके लागु करने वाले तो खाप वाड़ी हैं और यदि जातिवादियों के हाथ में संविधान होगा तो वो क्या होगा ? हमारे सामाजिक ढांचे में जो मनु का विधान चल रहा है उसके लिए हमारे कितने  'क्रांतिकारी' धरना, प्रदर्शन, भूख हड़ताल कर रहे हैं ? क्या हम गीता, कुरआन, बाइबल, रामायण की एक भी पक्ति बदल सकते हैं जो इंसानियत के विरुद्ध हो ? नहीं क्योंकि हमारा इसी बात में फायदा है. जिस संविधान ने भारत के संविधान को ख़ारिज किया है वो मनुवाद हमारे समाज में भयानक तौर पर व्याप्त है और नैतिकता की बाते करने वाले तमाम पुजारी उस पर बात भी नहीं करना चाहते ?

आखिर क्यों हरयाणा में दलितो पर हमला करने वाले लोगो पर कार्यवाही नहीं होती ? क्यों अभी तक मुजफ्फरनगर के आतताई खुले में घूम रहे हैं ? गुजरात, मुम्बई, दिल्ली के दंगो के बादशाह क्यों सत्ता के नशे में हैं ? क्यों अभी तक एक भी नरसंहार के करता धर्ता हमारी न्याय प्रक्रिया से बाइज्जत बरी हो जाते हैं ? केजरीवाल और उनके लोगो ने जब भी दिल्ली में धरना प्रदर्शन किये हैं वो देश के संविधान को  चुनौती दिए हैं और सरकार ने उनकी आवा भगत अच्छे से की है. मैं पूछना चाहता हूँ के सरकार से हिसाब पूछने का अगर ऐसा ही  प्रदर्शन और मेरे हिसाब से इनसे लाख गुना बड़े प्रदर्शन यदि कश्मीर, उत्तरपूर्व और छत्तीशगढ़ में होते हैं या हो जाएँ तो क्या पुलिस वाले इतने प्यार से पेस आयेंगे ? अगर मुस्लिम संघठन रामलीला मैदान में  बेमियादी धरने पर बैठ जाएँ और कहें के गुजरात और मुज्जफ्फरनगर के लोगो को न्याय दिलये बगैर वे उठेंगे नहीं और रास्ता जाम कर देंगे तो पुलिस का रवैया कैसे रहेगा ? 

हम सभी जानते हैं अरविन्द केजरिवाल और  यूथ फॉर इक्वलिटी अभियान को ? ये मनीष कुमार शर्मा नामक तत्त्व अज्ञानता में ही आप में नहीं आ गए ? ये किरण बेदी और अन्य महारथी यू ही अन्ना आंदोलन से नहीं जुड़े ? असल में ये सभी देश में आने वाले बदलाव से परेशान थे ? ये बदलाव दलित बहुजन ताकते ही ला सकती थे और इसलिए मंडल की प्रतिक्रांति की जरुरत थी और आप उसका सबसे बड़ा हथियार बना. अगर अन्ना आंदोलन से आम आदमी पार्टी की सरकारी यात्रा को देखें तो पता चलेगा के धुर आरक्षण विरोधी और दलितो को हिकारत भरी नज़र से देखने वाले लोगो का जमावड़ा है आप. और मंडल आंदोलन के दौरान जैसे हमारे  मध्यवर्गीय सवर्ण वामपंथियों का चरित्र साफ़ दिखाई दिया था वो आज फिर से वैसे ही नज़र आ गया और वे सभी लोगो जो राजनैतिक मज़बूरियों के आरक्षण का विरोध नहीं कर सकते लेकिन आप के जरिये  प्रतिबद्धता का पता चल चूका है।  

वाल्मीकि समाज की राखी बिरला ने बिना किसी सोच के ही नहीं कह दिया के आरक्षण से कुछ नहीं होता। राखी को इतना भी ख्याल नहीं के उसकी माँ जो सफाई का काम कर रही है वो भी सामाजिक आरक्षण है जिसके खिलाफ आज तक कोई धरना और प्रदर्शन नहीं हुआ, न ही ये क्रांतिकारी उसके विरुद्ध कुछ कहेंगे। केजरीवाल तो सभी को आम आदमी कहता है / इसका मतलब यह के इन 'आम आदमियों' के घरो के लैट्रिन साफ़ करने वाला भी 'आम आदमी' है और उसके उतनी ही औकात है जितनी इन 'आम आदमियों' की है. 

अफ्रीकन मूल के लोगो के साथ 'इन आम आदमियों' की घृणा वैसी है जैसे आरक्षण के विरुद्ध इनका दलित पिछड़ो के प्रति नफरत . इतना बड़प्पन, इतना दम्भ, इतना नाटक और कही नहीं होता और आज प्रगतिशील दिखने वाले वामपंथी भी  उनके झांसे में फंसे हैं. आज भारत के अंदर छुपे रंगभेद का पर्दाफास हो रहा है. अफ्रीकी मूल के लोग हो या उत्तर पूर्व के लोग, दलित हो या पिछड़े, आदिवासी और मुसलमान, अरविन्द केजरीवाल के आम आदमी महा जातिवादी, दम्भी और नसलभेदी हैं और जिस प्रकार से रात्रिकालीन घटनाक्रम को सही साबित करने की कोशिश हो रही है वो  शर्मनाक है ? ये वो लोग हैं जो दूसरे को एक मिनट का समय देने को तैयार नहीं ? नैतिकता जैसी इनके आलावा और कही नहीं और यह इम्मानदारी का सर्टिफिकेट देते रहेंगे। अपने मंत्री को पूरा समय देंगे लेकिन पुलिस अधिकारी को नहीं ? पुलिस यदि ख़राब है तो उसको सही बनाया जाए लेकिन अगर मंत्री अपनी मर्जी से छापे मारी करने लगे तो क्या होगा ? लेकिन केजरीवाल का डायरेक्ट डेमोक्रेसी भीड़ का शाशन ही तो है जिसे आंबेडकर ने ख़ारिज कर दिया था. गांधी के ग्राम स्वराज्य में जातीय दम्भ और पूर्वाग्रहों पर आधारित जो लोकतंत्र बनेगा वोही सपना केजरीवाल देखते हैं क्योंकि ऐसी डायरेक्ट डेमोक्रेसी में सारी बाते वैसे ही मैनेज होंगी जैसे आप का मीडिया मैनेजमेंट है. हमें ऐसा लोकतंत्र नहीं चाहिए जो देश और संसद को खाप पंचयात में तब्दील कर दे और देश में   मनुवादी न्यायव्यवस्था लागू करवाये जहाँ एक ही आरोप पर जाति के  अनुसार दंड की व्यवस्था हो। 

केजरीवाल ने जातिवादी सामंती लोगो को आम आदमी कि टोपी पहनाकर आम आदमी को बहस से ही गायब कर दिया है क्योंकि उसके मुद्दे और नेतृत्व तो उनलोगो के हाथ में है जो व्यवस्था के मज़े लूटकर अब टोपी पहनकर 'आम' दिखने कि कोशिश कर रहा है लेकिन ये लोगो को गुमराह करने राजनीती है. आम आदमी तो और भी हासिये पे चला गया है क्योंकि जिस बिरादरी को केजरीवाल इतना ईमानदार बना रहे हैं उनके दूकान पर काम करने वाले उस अनाम आदमी का ख्याल कौन करेगा जिसको न न्यूनतम मजदुरी है , न कोई छट्टी, न मेडिकल और न अन्य कोई सामाजिक योजना। केजरीवाल के पास तो सरकारी नौकरी को बिना छोड़े अमेरिका जा कर लाखो कमाने कि छूट थी लेकिन उस अनाम आदमी के पास ये कोई आप्शन आज भी नहीं है के वह बनिया की दूकान से आधे घंटे पहले अपने घर जा सकता है या नहीं।

दिल्ली की सड़को पर ठण्ड से मरने वाले अनाम लोगो की तादाद बढ़ रही है और कडुवी हकीकत यह है के दिल्ली का  बदमिजाज और बदतमीज 'आम आदमी' को इसकी कोई परवाह भी नहीं है और न ही इससे कोई मतलब। दिल्ली को दुनिया में महिलाओ के लिए सबसे असुरक्षित जगह इसलिए नहीं कहते के गृह मंत्रालय दिल्ली सरकार के पास नहीं है. दिल्ली को जरुरत है सभ्य बनाने की और उसके लिए आत्मचिंतन की जरुरत होती है।  अपनी खामियों को स्वीकारना पड़ता है. हमेशा दुसरो को कोस कर हम अपनी कमी को नहीं छुपा सकते।  व्यवस्था परिवर्तन सरकार बदलने और दो चार कानून बनाने से नहीं आने वाला। हमारे सामाजिक ताने बाने को जब तक हम हिलाएंगे नहीं तब तक अनाम आदमी ऐसे ही मरता रहेगा और ये खास लोगो आम आदमी के नाम से मनुवादी व्यवस्था के सबसे सरक्षक बने रहेंगे। 

मनुवाद और प्रगतिशील गणतंत्र के बीच ये युद्ध चलता रहेगा जब तक पुरे समाज का गणतन्त्रिकरण ना हो जाए. हमें उसी दिशा में चलना है नहीं तो ये सभी ताकते गणतंत्र को बदनाम कर मनुतंत्र के मुंह में धकेलने की पूरी साजिश कर रही हैं. हमारा यकीं है हम अपने उन पुरखो की  क़ुरबानी को बर्बाद नहीं करेंगे जिनके संघर्षो और विचारो की बदौलत हम आज यहाँ खड़े हैं. एक लोकतान्त्रिक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी  गणराज्य ही हमारे अधिकारो और भागीदारी कि गारंटी है और उसको बचाने के लिए हमें हर संघर्ष के लिए तैयार रहना है।