Thursday 30 March 2017

कंधमाल का सच और न्याय प्रक्रिया की हताशा

पुस्तक समीक्षा
विद्या भूषण रावत
उड़ीशा के कंधमाल क्षेत्र में दलित और ईसाई आदिवासीओ के बीच हुए हिंसा में लगभग सौ से अधिक मौते हुई. ये हिंसा पहले दिसंबर २००७ में हुई और उसके बाद ज्यादा भयावह तौर पर अगस्त २००८ में हुई. अगस्त २००८ की हिंसा के पीछे स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या को जिम्मेवार ठहराया गया जिसकी हकीकत यह है के पूरी प्रशाशनिक रिपोर्ट ये बताती है के स्वामी के हत्या के लिए ईसाई मिशनरीज नहीं अपितु नक्सलवादी जिम्मेवार हो सकते हैं लेकिन हिंदुत्ववादी शक्तियों ने ईसाइयो के विरुद्ध अपने जहरीले अभियान से पूरे मसले को ईसाई और गैर ईसाईयो में तब्दील कर दिया।
सरकारी सूचनाओ ने दिसंबर २००८ में वालो की संख्या ३९ बताई जिसमे २ पुलिस कर्मी और ३ दंगाई भी थे लेकिन स्वतंत्र रूप से कार्य करने वाले मानवाधिकार संगठनों ने इसकी संख्या सौ से ऊपर बताई है। ६०० से अधिक गाँवो को ध्वस्त किया गया और ५६०० घरो को लूटा और जलाया गया जिसमे लगभग ५४००० लोग बेघरबार हो गए। २९५ चर्च और अन्य पूजास्थल तोड़ डाले गए। लगभग ३०,००० लोग रिलीफ कैम्पो में रह रहे है और अभी तक विस्थापित ही है। १३ स्कूल, कालेज, स्वयंसेवी संस्थाओ के कार्यालय, लेप्रोसी सेंटर आदि भी नष्ट कर दिए गए। लगभग २००० लोगो को ईसाई धर्म छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया। भय और विस्थापन के चलते १०,००० बच्चे स्कूल छोड़ने पर मज़बूर हो गए।
कंधमाल ओडिशा का एक बेहद पिछड़ा हुआ जिला है जहाँ पर कांध आदिवासियो का बहुतायत है जिनकी आबादी क्षेत्रीय जनसंख्या का ५१% है जो क्षेत्र की ७७ % जमीन के मालिक है। प्रकृति पूजक इन आदिवासियों को ईसाई मिशनरियो और हिन्दू संघठनो ने धर्मांतरण करने के प्रयास किये है जिसके कारण भी यहाँ पर तनाव बढ़ा।
कंधमाल के ऊपर बने नेशनल पीपल ट्रिब्यूनल में जस्टिस ए पी शाह ने कहा : कंधमाल में नरसंहार ईसाई समुदाय, जिसमे बहुसंख्य दलित ईसाई और आदिवासी है, और जिन लोगो ने इसका समर्थन किया और समुदाय के साथ काम किया, के विरुद्ध सांप्रदायिक हिंसा है।
पुस्तक में कंधमाल हिंसा की जाँच के लिए बने जस्टिस पाणिग्रही जांच आयोग और जस्टिस नायडू आयोग की विस्तार पूर्वक समीक्षा की गयी है जिसमे इन जांच आयोगों की क़ानूनी सीमाओ और भविष्य की रुपरेखा पर भी चर्चा की गयी है।
इस पुस्तक में सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा भारत के विभिन्न 'स्वायत्त' संस्थाओ जैसे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय अल्प संख्यक आयोग द्वारा की गयी जांच के विभिन्न पहलुओ को भी छुआ है जिसमे राज्य सरकार की आलोचना की गयी हैं हालाँकि एन एच आर सी की रिपोर्ट के विरोधाभास पर भी टिपण्णी की गयी हैं. स्वायत संघठनो की सीमाओ और उनकी रिपोर्ट का इस सन्दर्भ में खुलकर विश्लेषण पहली बार हुआ है और इसके लिए लेखक द्वय बधाई के पात्र हैं क्योंकि ये बात सामने आयी है के कैसे एन एच आर सी ने कह दिया के ईसाइयो के विरुद्ध हिंसा पूर्वनियोजित नहीं थी जबकि उसके पास इसके पूरे तथ्य थे। इसी प्रकार पुलिस को क्लीन-चिट देना के उनका दंगाईयो के साथ कोई लेना देना नहीं था जबकि उन्ही ही रिपोर्ट यह कहती है के फुलबनी, रायगढ़ और पदमपुर में पुलिस की उपस्थिति में ही हिंसा हुई और पुलिस ने कोई कार्यवाही नहीं की जिससे अपराधियो के हौसले बुलंद हो गए.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना किन परिस्थितयो में हुई और इसकी क्या सीमायें हैं। बहुत ज्यादा हुए भी मैं यह बात रखना चाहता हूँ के भारत में अधिकांश आयोगों में उनलोगों की नियुक्तियां होती हैं जिनका उन विषयो पे काम का न तो कोई अनुभव रहा है और न ही इस सन्दर्भ में उनका कोई इतिहास। ज्यादातर नियुक्तियां राजनैतिक होती हैं जो लालबत्तियों की खातिर होती हैं हालाँकि गुजरात के दंगो के सिलसिले में मानवाधिकार आयोग ने कुछ अच्छा कार्य किया।इसमें कोई दो राय नहीं के इन आयोगों में एक भी शब्द आने से लोगो में विश्वास जगता है लेकिन आयोग की भूमिका उन मसलो में ज्यादा शक्तिशाली नहीं है जो मामले राजनैतिक दीखते हैं और जहा शक की सुई सत्ताधारी पक्ष पर जाती हो। आयोग उत्तर पूर्व और कश्मीर के मसले पर भी बहुत कुछ नहीं कर पाया है और न ही भारत में जातीय और धर्म आधारित भेदभाव के ऊपर ज्यादा प्रभाशाली बात रखने में सक्षम हुआ है।
पुस्तक के तीसरे अध्याय में पूरी न्यायिक प्रक्रिया का बहुत विस्तार पूर्वक विश्लेषण है जो साम्प्रदायिकता के प्रश्नों और राजनीती से प्रेरित सामूहिक हिंसा के सवालो पर काम करने वाले लोगो और विशेषञो के लिए अत्यन्त आवश्यक है। ऐसा इसलिए भी जरुरी है क्योंकि हिंसा के बाद किसी भी स्थान को एक तीर्थस्थल में तब्दील करदेना हमारे हवाई कार्यकर्ताओ और मीडिया का 'नैतिक'' कार्य बन चूका है लेकिन घटना को लंबे समय तक फॉलोअप करने ले लिए बहुत धैर्य, संघर्ष और सैद्धान्तिक निष्ठा की जरुरत होती है। हमने जो अधिकांश ऐसे मामले देखे है वहां पर क़ानूनी परमर्शदाताओ से लेकर 'सामाजिक कार्यकर्त्ता' अखबारों में छपास टीवी पे दिखने की बीमारी से ग्रस्त नज़र आते हैं लेकिन इस पुस्तक को देखने बाद लगता है के यदि ईमानदारी के साथ तथ्यों को इकठ्ठा किया जाए और जनता के साथ लगातार संवाद की स्थिति हो तो लोगो को न्याय मिल सकता है। जब हम न्याय की बात करते हैं तो मात्र किसी को जेल पहुँचाना या सजा दिलवाना न्याय नहीं है अपितु प्रभावित लोगो को मुआवजा, उनका सम्मानपूर्वक पुनर्वास न्याय प्रक्रिया का बहुत बड़ा हिस्सा होना चाहिए जो भारत के अधिकांश मामलो में नहीं हुआ है क्योंकि मीडिया और पब्लिसिटी में ''फांसी का फंदा'' ज्यादा टी आर पी वाला होता है लिहाज़ा असली बाते छूट जाती हैं।
मुझे पता है के कंधमाल के लोगो को न्याय दिलवाने के लिए मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत साथी जॉन दयाल और फादर अजय कुमार सिंह ने बहुत भाग दौड़ की है और लगातार दस्तावेजो को इकठ्ठा करने और गवाहों के साथ मज़बूती से खड़े होने के लिए बहुत संघर्ष किया है और उसी का नतीजा है के ये केस अभी लगातार चल रहा है और लोगो में विश्वाश के भावना जगी है।
हम सभी जानते हैं के दंगे होते नहीं है प्रायोजित करवाये जाते हैं और उन जगहों के ताकतवर लोग उसके पीछे होते हैं जिन्हें भरोषा होता है के उन्हें राजनैतिक प्रश्रय मिलेगा और व्याज सहित राजनैतिक लाभांश भी मिलेगा. १९८४ से लेकर, २००२ से २०१२ गुजरात, फिर आम चुनाव और अब उत्तर प्रदेश साम्प्रदायिकता की फसल लगातार मज़बूत हो रही है और उसका कारण सेक्युलर ताकतों के न केवल कमज़ोरी है अपितु कानून के लेवल पर अंतरास्ट्रीय मापदंडो को पूर्णतः लागू करवाने में हमारी असफलता. बहुत समय से हम कम्युनल वायलेंस बिल की बात कर रहे थे के समूहिंक नरसंहार या हिंसा में मारे जाने पर आज तक देश में एक भी व्यक्ति को सजा नहीं हुई क्योंकि न तो गवाह मिलते और न ही पुलिस और एजेंसिया जो जांच करती हैं उन्हें इन बातो में बहुत दिलचस्पी होती है. बहुत सी बाते केवल कानूनों के बदलने या बदलने से ही नहीं होंगी अपितु हमारे नज़रिये को भी बदलना पड़ेगा. एक जांच अधिकारी यदि जातिवाद या सांप्रदायिक मानसिकता से ग्रस्त है तो क्या हम उम्मीद कर सकते हैं के वह जांच को सही दिशा में ले जाएगा. मास वायलेंस में आज तक गवाह नहीं मिले तो क्या इसका मतलब यह के हिंसा हुई ही नहीं. हिंसा को जस्टिफाई करने के लिए अफवाहों को सच्चाई का जाम पहनाया जाता है और कारण गिनाये जाते हैं और इस प्रकार कानून पीछे और हमारी आपसी मान्यताये और अफवाहे ही हकीकत बन जाते हैं। मीडिया इन अफवाहों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
कंधमाल की हिंसा के गवाह लोगो को तरह तरह की धमकिया मिली जिसके लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सरकार को निर्देश भी दिए। कई लोगो को मौत की धमकी भी मिली और बहुतो को फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट के बहार अपहृत कर लिया गया। कुछ गवाहों को उनके वकीलो के चैम्बर और घरो से अपहृत कर लिया गया। कोर्ट के अंदर भी माहौल भी अपराधियो और आरोपियों के समर्थको की भीड़ रहती जो गवाहों को लगातार भयग्रस्त रखता। इन सभी का विस्तारपूर्वक जिक्र इस पुस्तक में है। गवाहों को चुप रहने के लिए दवाब के घटनाओ के बारे में भी इसमें जानकारी दी गयी है। मैं तो केवल ये कह सकता हूँ के देश की राजधानी के पटियाला हाउस कोर्ट में कन्हैया कुमार वाले घटनाक्रम को देखने के बाद तो साफ़ जाहिर है के हमारी न्याय प्रणाली और उसके लिए काम करने वाले लोगो पर किस प्रकार का संकट है और जो दिल्ली में हो सकता है तो कंधमाल और अन्य कस्बो के न्यायालयो में किस प्रकार का माहौल होगा उसकी कल्पना की जा सकती है।
एक नयी बात हो रही है जो इस पुस्तक के अंतिम अध्याय में है के कैसे उत्पीड़ित लोगो को ही आरोपित बनाकर उन्हें झूटे मुकदमो में फ़साने की कोशिश हो रही है। न्याय प्रक्रिया गरीब के साथ में दिखाई नहीं देती और अदालतों में वकीलो के चक्कर काटना उनके लिए उत्पीडन की एक नयी श्रंखला है जिससे बच पाना बहुत मुश्किल है क्योंकि ताकतवर लोगो के पास न्याय को देर कर देने के अनेक साधन हो चुके हैं और गरीब कुछ समय के हरासमेंट से जंग हार जाता है। हर बार कोर्ट के चक्कर लगाने के लिए उसे बहुत मेहनत और पैसे की जरुरत होती है।
इस शोधपूर्ण कार्य के लिए वृंदा ग्रोवर और सौम्या उमा को बहुत शुभकामनाये क्योंकी पूरी पुस्तक में न केवल ह्यूमन राइट्स लॉ के लिहाज़ से उनकी पकड़ नज़र आती है अपितु उनके विस्तृत कार्य और मानवाधिकारों के लिए उनकी निष्ठा भी दिखाई देती है। इसलिए ये पुस्तक मात्र एक अकैडमिक दस्तावेज ही नहीं है अपितु लेखको के मानवाधिकार के जमीनी संघर्षो के साथ जुड़े रहकर कार्य करने की विस्तृत समझ भी दर्शाती है। ये पुस्तक बेहद आवश्यक है और उम्मीद करता हूँ के आज के दौर के सभी साथियो को न केवल जानकारी के तौर पर अपितु नए विचारो के तौर पर भी भविष्य की रणनीतियों को निर्धारित करने के लिए काम आएगी। हम आशा करते हैं के सभी राष्ट्रीय आयोगो के प्रमुख, सदस्य और कानूनविद भी इस पुस्तक को पढ़ेंगे और तदनुसार कार्यवाही करेंगे। सांप्रदायिक हिंसा की चुनौती से निपटने के लिए कानूनों और संबधित संस्थाओ की सीमाओ का जो विश्लेषण इस पुस्तक में है वो सभी के काम आएगा. मैं इस सन्दर्भ में केवल एक बात और जोडूंगा के सांप्रदायिक या सामूहिक हिंसा विरोधी कानून बनाने का समय आ चुका है और इस पर कम से कम बहस तो शुरू हो जानी चाहिए।

Kandhamal : Introspection of Initiative for Justice 2007-2015
Authors : Vrinda Grovar and Saumya Uma

कंधमाल : न्याय के लिए २००७- २०१५ तक किये गए प्रयासों का आत्मावलोकन
लेखक : वृंदा ग्रोवर और सौम्या उमा
Jointly published by : United Christian Forum and Media House
Price : Rs 595 or USD 20

Monday 27 March 2017

उत्तर प्रदेश : नए राज की नयी नैतिकताएं




विद्या भूषण रावत 

योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद से दिल्ली के मीडिया का पूरा धयान उत्तर प्रदेश की और आ गया है।  मोदी मोदी कहने वाला मीडिया अब जोगी जोगी कर रहा है।  दोनों में बहुत समानताये दिखाई दे रही हैं जैसे मोदी जी ने बचपन में मगरमच्छ पकड़ा था वैसे ही योगी जी ने भी शेरो को दूध पिलाया है वैसे लखनऊ के चिड़ियाघर से खबर ये है के जंगल के राजा को अब चिकन खिलाया जा रहा है।  उसकी हालात भी दयनीय हो गयी है क्योंकि संतो का क्या कहे वो तो शेरो से भी शाकाहारी बनने की उम्मीद कर रहे हैं।  

योगी जी ने शपथ ग्रहण के बाद से अभी तक बिना कैबिनेट की मीटिंग बुलाये लगभग ५० बड़े फैसले लिए हैं जिसमे 'अवैध' बूचड़खाने बंद करवाना, कैलाश  मानसरोवर के लिए सब्सिडी की सीमा पचास हज़ार से बढाकर एक लाख रुपये करना, सचिवालय में पान मसाला, खैनी बंद, सरकारी कार्यालयों में बायोमैट्रिक लगवाना , उत्तर प्रदेश की सड़को को गड्ढा मुक्त बनवाना, नवरात्र और अन्य हिन्दू धर्म के आयोजनो में सम्पूर्ण प्रदेश में २४ घंटे  विद्युत् सप्लाई, एंटी रोमियो 
 दस्ते की स्थापना, भ्रस्टाचार के विरुद्ध सख्ती, प्रशाशन में चुस्ती और लड़कियों के विवाह के लिए आर्थिक अनुदान. वैसे उनके एक मंत्री मोहसिन रजा ने बड़े मुसलमानो से हज सब्सिडी का इस्तेमाल न करने की बात कही है। 

उत्तर प्रदेश एक विशाल प्रदेश है जो अपने आप में यदि एक देश होता तो शायद दुनिया के पांच देशो में गिना जाता।  लगभग २० करोड़ के प्रदेश की खासियत  यहाँ की जातीय , धार्मिक और भौगोलिक विविधता है। प्रदेश में अधिकांश आबादी ग्रामीण इलाको में रहती है और असंगठित क्षेत्र में काम करती है।  अगर पिछले ७० वर्षो में लोगो ने बिना सरकार के सहारे रहे अपनी जिंदगी का गुजर बसर किया है तो ये इस असंगठित क्षेत्र की बदौलत हुआ है जिस पर आज पुंजिपतियो का हमला है जो क्वालिटी के नाम पर पुरे क्षेत्र पर अपना कब्ज़ा जमाना चाहता है।  रेहड़ी वाले, ठेले वाले , खोमचे वाले, सब्जी, फल , दूध, मीट, साइकिल रिपेयर, मोटर, स्कूटर  रिपेयर और मेंटीनेन्स इत्यादि काम करने वाले अधिकांश लोग हासिये के समाज के लोग हैं।  गाँव में भूमिहीन और जातीय पूर्वाग्रहों का शिकार ये लोग शहर की और रोजगार की तलाश में आते हैं. ऐसा नहीं है के इन सड़क किनारे बैठने वालो में कोई क्वालिटी नहीं होती।  मार्किट प्राइस से बहुत सस्ता और अच्छी क्वालिटी यहाँ  मिलती है।  दुनिया भर से आने वाले टूरिस्ट भारत के स्ट्रीट फ़ूड को बहुत सराहते हैं।

लखनऊ शहर के टुंडे के कवाब दुनिया में मशहूर है और जितने लोगो ने खाये बस तारीफ़ ही करते रह गए लेकिन आज वो सूना पड़ा है क्योंकि बीफ नहीं है।  पहले गाय को लेकर संवेदना थी और उसको लोगो ने स्वीकार भी कर लिया लेकिन अब बाकी मीट खाने पर भी सवाल खड़े किये  जा रहे हैं जो बेहद चिंताजनक और खतरनाक है।  क्योंकि गौ माता अभियान से किसान का जितना नुक्सान हुआ है उतना  किसी का नहीं।  वो गाय और भैंस दोनों पालता है लेकिन शहरो को छोड़ दे तो आज व्यवस्था ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है के जानवर पालन घाटे का सौदा है।  गाय भैंस के दूध से उतना पैसा नहीं मिलता जितना उसकी देखभाल  खानपान के लिए चाहिए क्योंकि गौचर और गाँव समाज की अन्य जमीने चरने के लिए रहती थी तो किसान का खर्च चलता था।  उसके ऊपर साल भर में जो गाये या भैंसे बूढी हो जाते उन्हें बेच कर अपना खर्च निकलता।   कोई भी किसान कोई जानवर क्यों पालेगा यदि उसका लाभ नहीं है।  योगी जी के पास बहुत गाये हैं और मठ भी इसलिए उनका कार्य आसान है।  आज भी गौशालाएं धर्म के नाम पर ही चल रही हैं जिनको पूंजीपति खूब चन्दा देते हैं।  इसलिए यदि किसान  गाय नहीं पालेगा तो इस देश में दूध की कमी को कैसे पूरा किया जाएगा ? तो पूंजीपति  धार्मिक प्रयोजनों के जरिये किसानों के संशाधनो और उनकी आय के साधनो को ख़त्म  कर देंगे।  क्या योगी जी के पास कोई रास्ता है के यदि मेरी गाय या भैंस जो दूध नहीं देती या बुजुर्ग हो चली है तो  उसका क्या करें ? मैंजानता हूँ भक्त जान कहेंगे गौशाला को दान कर दो लेकिन किसान को क्या उसकी मेहनत और उसके पालने का मुआवजा नहीं मिलना चाहिए। 
दूसरी बात, यदि गाय और भैंस मरते हैं तो क्या किया जाए।  क्या उनको दफनाया जाए या उनका क्रिया कर्म किया जाए।  यदि क्रिया कर्म करना है तो क्या आने वाले समय में हमारे पास इतनी लकड़िया या बिजली है के हम ये कर सके और यदि दफनाना है तो क्या हमारे पास उसके लिए इतनी जगह है क्योंकि अभी तो ये देश शमशान और कब्रिस्तान के चक्कर में फंसा है लेकिन यदि गाय और भैंस भी हिन्दू और मुसलमान हो गए तो मैं  खुले आम यह कह सकता हूँ के देश की संस्कृति खतरे में है और देश की बायोडायवर्सिटी को भी खतरा पैदा होने वाला है। 

हमें ये समझना पड़ेगा के खान पान लोगो की व्यक्तिगत चॉइस है और ये धर्म से ज्यादा भौगोलिक कारणों से होता है।  दुनिया के सबसे बड़े देश नेपाल में दशहरा और दिवाली में चले जाईये तो आपको काठमांडू के प्रमुख बाज़ारो से नाक में खुशबु आनी  शुरू हो जाएगी। नेपाल, श्री लंका , थाईलैंड, म्यांमार आदि देशो में बीफ आसानी से उपलब्ध है।  मैंने पाकिस्तान, बांग्लादेश और मुस्लिम या पच्छिम देशो का नाम नहीं लिया जिनके बारे में ये आसानी से प्रचलित है लेकिन हिन्दू और बुद्धिस्ट देशो में भी कोई रोक टोक नहीं।  क्या बंगाल में जाकर भाजपा और हिंदुत्व के लोग मच्छी खाने को बंद कर देंगे ? क्या केरल में बीफ रोक सकते हैं।  गोवा और नार्थईस्ट में भाजपा ने खुद कहा के ऐसा करना मुश्किल है। 

लोगो की भावनाओ का सम्मान होना चाहिए लेकिन वो तब जब को जबरदस्ती कर रहा हो।  लोकतंत्र में बुनियादी मापदंडो को ध्यान में रखकर ही बाते की जाती है।  मीट व्यापार में अधिकांश तह दलित और पसमांदा मुसलमान कार्य कर रहे हैं। इतनी बड़ी इंडस्ट्री पे चोट कर क्या हम इन लोगो के रोजगार पर चोट तो नहीं कर रहे।  जस्टिस राजिंदर संचर ने एक बार कहा के बीफ के सबसे ज्यादा एक्सपोर्टर्स तो सवर्ण हिन्दू हैं।  हम तो केंद्र सरकार और उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार से ये अनुरोध करते हैं के वे बीफ एक्सपोर्ट पर एक श्वेत पत्र जारी करे और देश को बताये के पिछले तीन वर्षो में भारत दुनिया का सबसे बड़ा बीफ निर्यातक देश कैसे बना और कौन कंपनिया इसमें सबसे आगे हैं और उनके मालिक कौन हैं ? मुझे ये कहने  नहीं के मैं ऐसे मुसलमानो को जनता हूँ जो शाकाहारी हैं हिन्दू जो बीफखाते हैं।  पुनः खान पान व्यक्तिगत आस्थाओ का प्रश्न है और राज्य इससे दूर रहे तो अच्छा।  हाँ, राज्य का कर्त्तव्य  के लोगो को सही वस्तु मिले. 

योगी सरकार का दूसरा बड़ा कदम है 'एंटी रोमियो स्क्वाड' की स्थापना. उत्तर प्रदेश पुलिस तो पूरा काम धाम छोड़ इस ' महान ' यज्ञ में शामिल हो गयी।  खबरे आने लगी के कोई भी दो युवा जो साथ दिखाई दिए उनको पीटा जाने लगा. महिलाओ और नाव युवतियों का तो हाल बुरा हो गया।  पुलिस बलो में कार्य करने वाली अधिकांश महिलाये असल में पुरुषमानसिक्ता का शिकार होती है और उनसे महिलाओ के प्रति सहानुभूति की उम्मीद करना कुछ ज्यादा होगा।  लेकिन क्या ये दो व्यक्तियों के साथ रहने, दोस्त बनाने और साथ घूमने के अधिकारों पे अतिक्रमण तो नहीं है ? सबसे पाहिले बात यह के एक गंभीर प्रश्न को हलके तरीके से लेने के नतीजे ये ही होंगे।  हम जानते हैं के उत्तर प्रदेश में लड़कियों से छेड़ छाड़ की घटनाएं बहुत होती है और उसके लिए सरकार को सख्त कदम उठाने ही चाहिए लेकिन इस की आड़ में यदि दोस्तों के आपस में मिलने , उनके घूमने फिरने पर यदि प्रतिबन्ध लगता है तो ये बहुत भयावह होगा और हमारे  संविधान की मर्यादाओ के खिलाफ होगा।  टीवी और अखबारों की रिपोर्ट बताती हैं के कैसे पुलिस ने युवक युवतियों के  बदतमीजी की है।  ऐसा लग रहा है के पलिस और प्रशाशन को जनता का मालिक बनाया जा रहा है और  नव् युवा घबराये हैं। पुलिस अधिकारी 'नैतिकता' का ज्ञान बाँट रहे हैं।  उम्मीद है कि  यह  गीता प्रेस गोरखपुर की नैतिकता न हो जो महिलाओ को घर की चारदीवारियों में रहने के लिए प्रेरित करती है और जिसके लिए 'पति' देवता होता है जिसकी मर्जी के बिना कुछ संभव नहीं है। 

हम जानते हैं खाप के चाहने वाले, जातीय पंचायतो के यकीं करने वाले, लव जिहाद का जुमला ढूंढने वाले सभी इस वक़्त ऐसे कानूनों की आड़ में लोगो को अपनी  जातियो,धर्मो और क्षेत्रो के अंदर की घुटन भरी दम घोटू जिंदगी में ही कैद करदेना चाहते हैं। जातियो की पवित्रता का सिद्धांत यही से निकालता है के हम दूसरे से श्रेष्ठ हैं और श्रेष्ठता हमारी ही जातियो और धर्मो में है।  राहुल संरकृत्यायन जी ने कहा था का भारत की एकता और ताकत धर्मो की मज़बूती से नहीं अपितु धर्मो की चिताओ पे होगी। नौजवान लड़के लड़कियों को आपस में मिलने से रोकना, प्यार का इजहार करने से रोकना , अपनी अपनी खाप पंचायतो को मज़बूत करने के लिए किया जा रहा है।  सदियो से ये देश जातीय पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों का शिकार रहा है और यही इस समाज के अंदर गैर बराबरी का कारण है जिसको ख़त्म करने के लिए बाबा साहेब आंबेडकर को कहना पड़ा के जातियो का पूर्णतया उन्मूलन बहुत जरुरी है लेकिन अफ़सोस हिंदुत्व के प्रवक्ता इन बातो पर चुप्पी साधते हैं।  मुसलमानो के विरोध करदेने मात्रा से हिन्दू धर्म की ताकत नहीं बन सकती वो वैसे है जैसे मुसलमानो  की ताकत हिन्दुओ के विरोध से नहीं अपितु अपने अपने समाजो में आत्मावलोकन से होगी। 

आज के युग में 'शुद्धिकरण' जैसे शब्दो का प्रयोग अनुचित और अलोकतांत्रिक होगा लेकिन मुख्यमंत्री आवास में प्रवेश से पहले उसका 'शुद्धिकरण' सुनकर सहज ही कमलापति त्रिपाठी की याद आयी जिन्होंने ने गांधीजी की मूर्ति को गंगाजल धुलवाया जिसका अनावरण बाबु जगजीवन राम ने किया लेकिन कमलापति कहाँ हैं और बाबूजी कहाँ ये सब जानते हैं।  वैसे भी छुआछूत भारतीय संविधान के अनुसार कानूनी है।  वैसे घर में एक व्यक्ति के जाने और दूसरे के आने पर सफाई व्यवस्था  से कोई शिकायत नहीं और हर व्यक्ति अपने अनुसार अपने घर तैयार करता है लेकिन इसके लिए शुद्धिकरण शब्द का प्रयोग नहीं होता।  

अभी पाकिस्तान से खबर आ रही है के एक ब्लॉगर अयाज  निज़ामी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है।  उनपर आरोप है के उन्होंने इस्लाम की तौहीन की है।  पाकिस्तान में ईश-निंदा कानून है जिसके मुताबिक इस्लाम और उससे सम्बंधित किसी बात पर सवाल नहीं हो सकता।  निज़ामी एक सेक्युलर एक्टिविस्ट हैं और पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरपंथी उन्हें सजाये मौत की मांग कर रहे हैं। हम जब पाकिस्तान में ऐसी घटनाओ  को देखते हैं तो हमें भारत में रहने पर गर्व होता है।  क्या धर्मो की सार्थक आलोचना नहीं हो सकती।  क्या हम अपने समाज में धर्मो के कारण हो रहे दुष्प्रभाव और कुरीतियो के खिलाफ नहीं बोल सकते।  लेकिन आज हम जिस भारत में रहे रहे हैं उसकी राजनीती का पाकिस्तानीकरण हो गया है जहाँ ताकतवर, पैसेवाले और धर्म के नाम पर राजनीती करने वाले लोगो की संख्या बढ़ गयी है जो किसी भी प्रकार की आलोचना सुनने को तैयार नहीं है। हमें अपने बच्चो में वैज्ञानिक चिंतन, पर्यावरण के प्रति जागरूकता और एक दूसरे के प्रति संवेदनशीलता पैदा करनी चाहिए और हमारे स्कूल और कालेजो में ऐसी व्यस्था होनी चाहिए ताकि बच्चे जागरूक नागरिक बन सके। 

सरकारों का काम है है जनता की सुरक्षा और उनको बेहतर जीवन देने हेतु प्रयास।  उनकी प्रमुख नैतिकता होती है कानून की रक्षा और संविधान का शासन. धार्मिक नैतिकताएं सबकी अलग अलग होती है लेकिन वे क़ानूनी तौर पर लागु नहीं की जा सकती। व्यक्तिगत पसंद नापसंद , खान पान, रहन सहन, ये सभी वैयक्तिक नैतिकताओ में आते हैं और सरकार यहाँ तभी हस्तक्षेप करे जब उससे दूसरे की स्वतंत्रता का हनन हो या कानून का उलंघन हो। प्रदेश में रहने वाली यदि १५-२०% आबादी ये महसूस करे के उसको जानबूझकर प्रताड़ित किया जा रहा है या उसके आर्थिक संशाधनो को विशेष अभियान के तहत ख़त्म करने की साजिश की जा रही है तो फिर शाशन को सोचना पड़ेगा. ये देश के विकास, स्थिरता, स्थायित्व और एकता के लिए खतरा हो सकता  है।  इस देश के कानून के अनुसार रहने वाले हर नागिरक के सुरक्षा सरकार का फ़र्ज़ है और इसके लिए जरुरी है के बड़बोले धम्कीबाज़ नेताओ और छुटभैयों पर कड़ी नकेल कसी जाए ताकि प्रदेश में सौहार्द बना रह सके।