Thursday 30 March 2017

कंधमाल का सच और न्याय प्रक्रिया की हताशा

पुस्तक समीक्षा
विद्या भूषण रावत
उड़ीशा के कंधमाल क्षेत्र में दलित और ईसाई आदिवासीओ के बीच हुए हिंसा में लगभग सौ से अधिक मौते हुई. ये हिंसा पहले दिसंबर २००७ में हुई और उसके बाद ज्यादा भयावह तौर पर अगस्त २००८ में हुई. अगस्त २००८ की हिंसा के पीछे स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या को जिम्मेवार ठहराया गया जिसकी हकीकत यह है के पूरी प्रशाशनिक रिपोर्ट ये बताती है के स्वामी के हत्या के लिए ईसाई मिशनरीज नहीं अपितु नक्सलवादी जिम्मेवार हो सकते हैं लेकिन हिंदुत्ववादी शक्तियों ने ईसाइयो के विरुद्ध अपने जहरीले अभियान से पूरे मसले को ईसाई और गैर ईसाईयो में तब्दील कर दिया।
सरकारी सूचनाओ ने दिसंबर २००८ में वालो की संख्या ३९ बताई जिसमे २ पुलिस कर्मी और ३ दंगाई भी थे लेकिन स्वतंत्र रूप से कार्य करने वाले मानवाधिकार संगठनों ने इसकी संख्या सौ से ऊपर बताई है। ६०० से अधिक गाँवो को ध्वस्त किया गया और ५६०० घरो को लूटा और जलाया गया जिसमे लगभग ५४००० लोग बेघरबार हो गए। २९५ चर्च और अन्य पूजास्थल तोड़ डाले गए। लगभग ३०,००० लोग रिलीफ कैम्पो में रह रहे है और अभी तक विस्थापित ही है। १३ स्कूल, कालेज, स्वयंसेवी संस्थाओ के कार्यालय, लेप्रोसी सेंटर आदि भी नष्ट कर दिए गए। लगभग २००० लोगो को ईसाई धर्म छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया। भय और विस्थापन के चलते १०,००० बच्चे स्कूल छोड़ने पर मज़बूर हो गए।
कंधमाल ओडिशा का एक बेहद पिछड़ा हुआ जिला है जहाँ पर कांध आदिवासियो का बहुतायत है जिनकी आबादी क्षेत्रीय जनसंख्या का ५१% है जो क्षेत्र की ७७ % जमीन के मालिक है। प्रकृति पूजक इन आदिवासियों को ईसाई मिशनरियो और हिन्दू संघठनो ने धर्मांतरण करने के प्रयास किये है जिसके कारण भी यहाँ पर तनाव बढ़ा।
कंधमाल के ऊपर बने नेशनल पीपल ट्रिब्यूनल में जस्टिस ए पी शाह ने कहा : कंधमाल में नरसंहार ईसाई समुदाय, जिसमे बहुसंख्य दलित ईसाई और आदिवासी है, और जिन लोगो ने इसका समर्थन किया और समुदाय के साथ काम किया, के विरुद्ध सांप्रदायिक हिंसा है।
पुस्तक में कंधमाल हिंसा की जाँच के लिए बने जस्टिस पाणिग्रही जांच आयोग और जस्टिस नायडू आयोग की विस्तार पूर्वक समीक्षा की गयी है जिसमे इन जांच आयोगों की क़ानूनी सीमाओ और भविष्य की रुपरेखा पर भी चर्चा की गयी है।
इस पुस्तक में सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा भारत के विभिन्न 'स्वायत्त' संस्थाओ जैसे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय अल्प संख्यक आयोग द्वारा की गयी जांच के विभिन्न पहलुओ को भी छुआ है जिसमे राज्य सरकार की आलोचना की गयी हैं हालाँकि एन एच आर सी की रिपोर्ट के विरोधाभास पर भी टिपण्णी की गयी हैं. स्वायत संघठनो की सीमाओ और उनकी रिपोर्ट का इस सन्दर्भ में खुलकर विश्लेषण पहली बार हुआ है और इसके लिए लेखक द्वय बधाई के पात्र हैं क्योंकि ये बात सामने आयी है के कैसे एन एच आर सी ने कह दिया के ईसाइयो के विरुद्ध हिंसा पूर्वनियोजित नहीं थी जबकि उसके पास इसके पूरे तथ्य थे। इसी प्रकार पुलिस को क्लीन-चिट देना के उनका दंगाईयो के साथ कोई लेना देना नहीं था जबकि उन्ही ही रिपोर्ट यह कहती है के फुलबनी, रायगढ़ और पदमपुर में पुलिस की उपस्थिति में ही हिंसा हुई और पुलिस ने कोई कार्यवाही नहीं की जिससे अपराधियो के हौसले बुलंद हो गए.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना किन परिस्थितयो में हुई और इसकी क्या सीमायें हैं। बहुत ज्यादा हुए भी मैं यह बात रखना चाहता हूँ के भारत में अधिकांश आयोगों में उनलोगों की नियुक्तियां होती हैं जिनका उन विषयो पे काम का न तो कोई अनुभव रहा है और न ही इस सन्दर्भ में उनका कोई इतिहास। ज्यादातर नियुक्तियां राजनैतिक होती हैं जो लालबत्तियों की खातिर होती हैं हालाँकि गुजरात के दंगो के सिलसिले में मानवाधिकार आयोग ने कुछ अच्छा कार्य किया।इसमें कोई दो राय नहीं के इन आयोगों में एक भी शब्द आने से लोगो में विश्वास जगता है लेकिन आयोग की भूमिका उन मसलो में ज्यादा शक्तिशाली नहीं है जो मामले राजनैतिक दीखते हैं और जहा शक की सुई सत्ताधारी पक्ष पर जाती हो। आयोग उत्तर पूर्व और कश्मीर के मसले पर भी बहुत कुछ नहीं कर पाया है और न ही भारत में जातीय और धर्म आधारित भेदभाव के ऊपर ज्यादा प्रभाशाली बात रखने में सक्षम हुआ है।
पुस्तक के तीसरे अध्याय में पूरी न्यायिक प्रक्रिया का बहुत विस्तार पूर्वक विश्लेषण है जो साम्प्रदायिकता के प्रश्नों और राजनीती से प्रेरित सामूहिक हिंसा के सवालो पर काम करने वाले लोगो और विशेषञो के लिए अत्यन्त आवश्यक है। ऐसा इसलिए भी जरुरी है क्योंकि हिंसा के बाद किसी भी स्थान को एक तीर्थस्थल में तब्दील करदेना हमारे हवाई कार्यकर्ताओ और मीडिया का 'नैतिक'' कार्य बन चूका है लेकिन घटना को लंबे समय तक फॉलोअप करने ले लिए बहुत धैर्य, संघर्ष और सैद्धान्तिक निष्ठा की जरुरत होती है। हमने जो अधिकांश ऐसे मामले देखे है वहां पर क़ानूनी परमर्शदाताओ से लेकर 'सामाजिक कार्यकर्त्ता' अखबारों में छपास टीवी पे दिखने की बीमारी से ग्रस्त नज़र आते हैं लेकिन इस पुस्तक को देखने बाद लगता है के यदि ईमानदारी के साथ तथ्यों को इकठ्ठा किया जाए और जनता के साथ लगातार संवाद की स्थिति हो तो लोगो को न्याय मिल सकता है। जब हम न्याय की बात करते हैं तो मात्र किसी को जेल पहुँचाना या सजा दिलवाना न्याय नहीं है अपितु प्रभावित लोगो को मुआवजा, उनका सम्मानपूर्वक पुनर्वास न्याय प्रक्रिया का बहुत बड़ा हिस्सा होना चाहिए जो भारत के अधिकांश मामलो में नहीं हुआ है क्योंकि मीडिया और पब्लिसिटी में ''फांसी का फंदा'' ज्यादा टी आर पी वाला होता है लिहाज़ा असली बाते छूट जाती हैं।
मुझे पता है के कंधमाल के लोगो को न्याय दिलवाने के लिए मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत साथी जॉन दयाल और फादर अजय कुमार सिंह ने बहुत भाग दौड़ की है और लगातार दस्तावेजो को इकठ्ठा करने और गवाहों के साथ मज़बूती से खड़े होने के लिए बहुत संघर्ष किया है और उसी का नतीजा है के ये केस अभी लगातार चल रहा है और लोगो में विश्वाश के भावना जगी है।
हम सभी जानते हैं के दंगे होते नहीं है प्रायोजित करवाये जाते हैं और उन जगहों के ताकतवर लोग उसके पीछे होते हैं जिन्हें भरोषा होता है के उन्हें राजनैतिक प्रश्रय मिलेगा और व्याज सहित राजनैतिक लाभांश भी मिलेगा. १९८४ से लेकर, २००२ से २०१२ गुजरात, फिर आम चुनाव और अब उत्तर प्रदेश साम्प्रदायिकता की फसल लगातार मज़बूत हो रही है और उसका कारण सेक्युलर ताकतों के न केवल कमज़ोरी है अपितु कानून के लेवल पर अंतरास्ट्रीय मापदंडो को पूर्णतः लागू करवाने में हमारी असफलता. बहुत समय से हम कम्युनल वायलेंस बिल की बात कर रहे थे के समूहिंक नरसंहार या हिंसा में मारे जाने पर आज तक देश में एक भी व्यक्ति को सजा नहीं हुई क्योंकि न तो गवाह मिलते और न ही पुलिस और एजेंसिया जो जांच करती हैं उन्हें इन बातो में बहुत दिलचस्पी होती है. बहुत सी बाते केवल कानूनों के बदलने या बदलने से ही नहीं होंगी अपितु हमारे नज़रिये को भी बदलना पड़ेगा. एक जांच अधिकारी यदि जातिवाद या सांप्रदायिक मानसिकता से ग्रस्त है तो क्या हम उम्मीद कर सकते हैं के वह जांच को सही दिशा में ले जाएगा. मास वायलेंस में आज तक गवाह नहीं मिले तो क्या इसका मतलब यह के हिंसा हुई ही नहीं. हिंसा को जस्टिफाई करने के लिए अफवाहों को सच्चाई का जाम पहनाया जाता है और कारण गिनाये जाते हैं और इस प्रकार कानून पीछे और हमारी आपसी मान्यताये और अफवाहे ही हकीकत बन जाते हैं। मीडिया इन अफवाहों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
कंधमाल की हिंसा के गवाह लोगो को तरह तरह की धमकिया मिली जिसके लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सरकार को निर्देश भी दिए। कई लोगो को मौत की धमकी भी मिली और बहुतो को फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट के बहार अपहृत कर लिया गया। कुछ गवाहों को उनके वकीलो के चैम्बर और घरो से अपहृत कर लिया गया। कोर्ट के अंदर भी माहौल भी अपराधियो और आरोपियों के समर्थको की भीड़ रहती जो गवाहों को लगातार भयग्रस्त रखता। इन सभी का विस्तारपूर्वक जिक्र इस पुस्तक में है। गवाहों को चुप रहने के लिए दवाब के घटनाओ के बारे में भी इसमें जानकारी दी गयी है। मैं तो केवल ये कह सकता हूँ के देश की राजधानी के पटियाला हाउस कोर्ट में कन्हैया कुमार वाले घटनाक्रम को देखने के बाद तो साफ़ जाहिर है के हमारी न्याय प्रणाली और उसके लिए काम करने वाले लोगो पर किस प्रकार का संकट है और जो दिल्ली में हो सकता है तो कंधमाल और अन्य कस्बो के न्यायालयो में किस प्रकार का माहौल होगा उसकी कल्पना की जा सकती है।
एक नयी बात हो रही है जो इस पुस्तक के अंतिम अध्याय में है के कैसे उत्पीड़ित लोगो को ही आरोपित बनाकर उन्हें झूटे मुकदमो में फ़साने की कोशिश हो रही है। न्याय प्रक्रिया गरीब के साथ में दिखाई नहीं देती और अदालतों में वकीलो के चक्कर काटना उनके लिए उत्पीडन की एक नयी श्रंखला है जिससे बच पाना बहुत मुश्किल है क्योंकि ताकतवर लोगो के पास न्याय को देर कर देने के अनेक साधन हो चुके हैं और गरीब कुछ समय के हरासमेंट से जंग हार जाता है। हर बार कोर्ट के चक्कर लगाने के लिए उसे बहुत मेहनत और पैसे की जरुरत होती है।
इस शोधपूर्ण कार्य के लिए वृंदा ग्रोवर और सौम्या उमा को बहुत शुभकामनाये क्योंकी पूरी पुस्तक में न केवल ह्यूमन राइट्स लॉ के लिहाज़ से उनकी पकड़ नज़र आती है अपितु उनके विस्तृत कार्य और मानवाधिकारों के लिए उनकी निष्ठा भी दिखाई देती है। इसलिए ये पुस्तक मात्र एक अकैडमिक दस्तावेज ही नहीं है अपितु लेखको के मानवाधिकार के जमीनी संघर्षो के साथ जुड़े रहकर कार्य करने की विस्तृत समझ भी दर्शाती है। ये पुस्तक बेहद आवश्यक है और उम्मीद करता हूँ के आज के दौर के सभी साथियो को न केवल जानकारी के तौर पर अपितु नए विचारो के तौर पर भी भविष्य की रणनीतियों को निर्धारित करने के लिए काम आएगी। हम आशा करते हैं के सभी राष्ट्रीय आयोगो के प्रमुख, सदस्य और कानूनविद भी इस पुस्तक को पढ़ेंगे और तदनुसार कार्यवाही करेंगे। सांप्रदायिक हिंसा की चुनौती से निपटने के लिए कानूनों और संबधित संस्थाओ की सीमाओ का जो विश्लेषण इस पुस्तक में है वो सभी के काम आएगा. मैं इस सन्दर्भ में केवल एक बात और जोडूंगा के सांप्रदायिक या सामूहिक हिंसा विरोधी कानून बनाने का समय आ चुका है और इस पर कम से कम बहस तो शुरू हो जानी चाहिए।

Kandhamal : Introspection of Initiative for Justice 2007-2015
Authors : Vrinda Grovar and Saumya Uma

कंधमाल : न्याय के लिए २००७- २०१५ तक किये गए प्रयासों का आत्मावलोकन
लेखक : वृंदा ग्रोवर और सौम्या उमा
Jointly published by : United Christian Forum and Media House
Price : Rs 595 or USD 20

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