Thursday 13 December 2012

तलाश एक अदद दुश्मन की





विद्या भूषण रावत  

गुजरात चुनाव में नरेन्द्र मोदी एक बहुत बड़ी जंग लड़ रहे हैं। यह जुंग उन्होंने खुद कड़ी की है। हजारो लोगो की मौत का आरोप अभी भी उनके सर पर लगा हुआ है। मोदी उसे एक तगमा भी मानते हैं लेकिन जानते हैं के भारत की राजनीती में आने के लिए उन्हें अपना माथे के इस कलंक को धोना भी पड़ेगा। मुसीबत यह की यदि वोह इस कलंक को धोते हैं तो उनके हिंदुत्व के रिश्तेदार उनसे दूर छिटक जायेंगे . जिस प्रकार की राजनीती को मोदी ने गुजरात में खड़ा किया है उसको धोने में अभी बहुत समय लगेगा और मात्र गुजरात के आर्थिक विकास के नारे से वहां की अंदरूनी हकीकत को बयां नहीं किया जा सकेगा।

मोदी और उनके समर्थको का प्रयास बार बार रहा है के उनको एक दमदार प्रशासक के रूप में प्रस्तुत करें और गुजरात विकास के मॉडल को दुनिया के समक्ष रखा जाए हालाँकि मोदी का आर्थिक मॉडल राहुल के राजनितिक सलाहकारों जैसे मोंटेक सिंह और चिदम्बरम से भिन्न नहीं है और विदेशी पूंजी के लिए उनके रस्ते बहुत पहले से ही खुले हुए हैं यह बात और है के मोदी की आर्थिक नीति उनके राजनैतिक क्रय कलापों से स्वीकार्य नहीं हो पा रही। फिर भी उनकी साम्प्रदायिक और दकियानूसी छवि को गुजरात विकास मॉडल के नाम पर ढकने से उनके देश में स्वीकार्य होने की कोई सम्भावना    नहीं  है।

मैं यह मानता हूँ के मोदी को गुजरात का शक्तिशाली वर्ग पसंद करता हो क्योंकि हमारी राजनैतिक प्रणाली ऐसी है के इसमें एक दुसरे को लड़ा के और वोटो के अंकगणित फिक्स करके और  फिर पूंजी की चासनी में उसको दल दे तो मोदी जैसे लोग सफल होंगे। गुजरात में अभी भी दलित बहुजन राजनीती हासिये पे है और वोह ज्यादा चल नहीं पाए। पैसों की ताकत से पूंजी ने अपना सबसे बड़ा रौद्र रूप गुजरा में दिखाया है जहाँ विकास के मायने मारवाड़ी सिन्धी बनिया पटेल आदि लोगो को ही 'विकसित' मानकरके पुरे गुजरात का आर्थिक विश्लेषण प्रस्तुत किया जा रहा है। यह जातियां तो पहले से ही व्यापारिक रही हैं और गुजरात हो या न हो इन्होने पैसे कमाए हैं क्योंकि सामाजिक बदलाव या देश के हालातो से उन्हें बहुत मतलब नहीं। वे धर्म, ढोंग, बाबा, महात्मा पर पुरे पैसे खर्च करने को तैयार हैं लेकिन यदि दलित पिछड़ा गुजरात में जब भी किसी कार्यक्रम में भागीदार है तो उनके आर्थिक बहिस्कार की संभावना होती है। अगर गुजरात के विकास को मॉडल देखना हो तो आदिवासियों और दलित पिछडो की हालत को देखना होगा और फिर विश्लेषण करना होगा। मुस्लमान तो मोदी के राज में हासिये पे रहा हे है और उसकी बात तो कोई भी पार्टी नहीं कर रही।

क्या यह शर्म की बात नहीं के गुजरत में धर्मनिरपेक्षता की बात कर रही कांग्रेस पार्टी के पास मुसलमनो को प्रतिनिदित्व देने  के लिए मात्र 6 सीटें ही थी। मोदी तो 'सद्भाव मिशन' चला रहे हैं और इरफ़ान पठान को घुमा रहे हैं लेकिन मुसलमानों को राजनैतिक प्रतिनिधित्व के लिए उनके पास समय नहीं है और लोग नहीं हैं। 2002 की शर्मनाक घटनाओ और उनके उत्पीडित लोगो को कोई न्याय नहीं मिला है और ऊपर से मोदी बार बार माहौल को सांप्रदायिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि वोह हिंदुत्व की राजनीती कर अच्छे वोट बटोर सकें 

मोदी केवल एक राजनैतिक व्यक्तित्व नहीं है। वह एक विचार भी है जिसके मूल में हिटलर की विचार धारा है। वोह आर्थिक विकास की आधार पर कोई वोट नहीं वाटर सकते क्योंकि जो उनका वोट बैंक है या उनके प्रशंशक हैं उन्होंने पहले ही अच्छे से पैसे कमायें हैं और उस पैसे को और लगा कर वोह देश में भी वोही मॉडल लाना चाहते हैं। आज, मोदी अमेरिकी मॉडल पे चुनाव लड़ रहे हैं। उनका ब्रांड बनाया जा रहा है और उसे हमारे सामने परोसा जा रहा है। यह खेल पूंजी के हैं इसीलिये कांग्रेस की तरफ से कुच्छ लोगो के 2014 के लिए चिदंबरम का नाम आगे किया। यह बहुत शातिर राजनीती का हिस्सा है जिसमे देश के ऊपर पूंजी तंत्र के चाहने वाले लोगो को थोपा जाए ताकि दलालों की दलाली अच्छी से चलती रहे।

मोदी का गुजरात मॉडल पिट चूका है। गुजरात की राज्य बसें राजस्थान से अच्छी नहीं हैं। वहां के विश्वविद्यालयो के कोई और स्कूल कालेजो में कोई बहुत ब्रांड नहीं है। आई आई एम् अहमदाबाद या आनंद के रूरल डेवलपमेंट इंस्टिट्यूट को छोड़ दे तो गुजरात में कुच्छ नहीं और ये दोनों संसथान मोदी की दें नहीं हैं अपितु पहले से चल रहे हैं . गुजरत के मुस्लमान अच्छे व्यापारी थे और मोदी की साम्प्रदायिक निति ने उन्हें सबसे ज्यादा चोट पहुंचाइये उनके होटलों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों को निशाना बनाया और उनका बहिष्कार किया गया। अगर गुजरात के मुसलमान अपने को अक्ल पाते हैं तो क्या यह मोदी की सफलता है?

शायद हाँ क्योंकि हिंदुत्व की राजनीती भी यही है के मुसलमानों को अलग थलग कर देश की राजनीती का हिन्दू कारन किया जाए। यानि की हिंदुत्व की बात करने की ठेकेदारी अब केवल भाजपा की ही ना हो अपितु कांग्रेस भी वोह राम नाम जपे और अन्य पार्टियाँ भी वैसा ही करें और शायाद आज वोह अपने इस मिशन में तो कामयाब हो गए लगते हैं।

लेकिन, गुजरात में राहे अभी भी इतनी आसान नहीं हैं। हिंदुत्व के पुराने प्रहरी केशुभाई जी नाराज चल रहे हैं और मोदी की हालत खस्ता कर सकते हैं इसलिए मोदी के वादों की झड़ी लगने की बाद भी उन्हें अपनी आर्थिक नीतियों पर कम भरोषा हैं। पचास लाख घर बनवाने के लिए वादा करने वाले नरेन्द्र मोदी के 'गौरवशाली' शासन की पोल इसी बात में  जाती है के उनके इस बात का मतलब यह की गुजरात में कम से कम इतनी बड़ी संख्या में बेघर लोग हैं और बेरोजगारी भी ज्यादा है। और शायद इसीलिये मोदी बार बार 'रास्ट्रीय' प्रश्नों को उठा रहे हैं। वैसे मोदी के कृपा से गुजरात के चुनाव हमेशा अंतररास्ट्रीय रहे हैं क्योंकि उन्हें किसी 'मियां' की जरुरत हमेशा रहती है, मिया मुशर्रफ से शुरू हुयी उनकी पुरानी पारी कभी जेम्स माईकेल लिंगदोह को निशाना बनाती तो कभी उन्हें मिया अहमद पटेल की जरुरत पड़ती।  जब वोह फलसफा भी नहीं चला तो मोदी को सर क्रीक को मुद्दा नज़र आ गया। मिया इरफ़ान पठान शायद ज्यादा काम न आयें इसलिए मोदी को बार बार एक दुश्मन चाहिए ताकि गुजरात को वोह वोह सांप्रदायिक आधार पर विभाजित किया जा सके और उनकी राजनीती चल सके  लेकिन मोदी अगर अपनी हिंदुत्व की राजनीती ज्यादा करेंगे तो भले ही गुजरात जीत जाएँ वोह कांग्रेस के लिए शुभसंकेत दे रहे हैं क्योंकि भारत की राजनीती को हिंदुत्व के गुजराती मॉडल के जरिये नहीं चलाया जा सकता। यहाँ देश की विविधता का सम्मान करना पड़ेगा और देश में 15 करोड़ मुसलमानों को अलग थलग करके या उनका अपमान करके आप कुच्छ भी नहीं कर सकते। देश के दुसरे हिस्सों में दलित, पिछड़ा और आदिवासी अपने अधिकारों के लिए जाग चूका है इसलिए मोदी के ब्राह्मणवादी हिंदुत्व के झांसे में वह नहीं आ सकता . गुजरात के परिणाम 20 दिसंबर को आ जायेंगे और चाहे मोदी वहां दोबारा आयें या नहीं, मोदी भारत के शासक नहीं बन सकते क्योंकि हिंदुत्व के ब्राह्मणवादी दकियानूसी एवं सांप्रदायिक  अजेंडे को देश अच्छे से समझ चूका है और  पहले ही ख़ारिज कर चूका है।

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Wednesday 5 December 2012

Lokaayat: भारत के संकल्प का दिन

Lokaayat: भारत के संकल्प का दिन: विद्या भूषण रावत  आज 6 दिसम्बर है। भारत वर्ष के करोडो लोगो के लिए एक शोक का दिन जब वे बाबा साहेब डॉ आंबेडकर की पुन्य  स्मृति को या...

भारत के संकल्प का दिन




विद्या भूषण रावत 

आज 6 दिसम्बर है। भारत वर्ष के करोडो लोगो के लिए एक शोक का दिन जब वे बाबा साहेब डॉ आंबेडकर की पुन्य  स्मृति को याद करते हैं जिन्होंने हमारा जीवन बदला और हमें ससम्मान संघर्ष की प्रेरणा दी। उनकी जलाई मशाल हमारे दिलो में जलती है और हमें बदलाव की और जाने को प्रेरित करती है। संघर्षरत हर एक व्यक्ति के लिए आंबेडकर रोज उनके पास है। उनके कथनों और संघर्षो को हम रोज गुनते हैं और पढ़ते हैं। भारत के दलित बहुजन आन्दोलन के नायक हैं बाबा साहेब आंबेडकर है और उनको केंद्र में रखे बिना यह आन्दोलन कभी आगे नहीं बढ़ सकता। आंबेडकर एक विचारधारा का नाम है जिसने हिंदुत्व और वर्णवादी ब्राह्मणवादी व्यवस्था का विकल्प भारत को दिया और जिस पर चलकर करोडो लोगो का जीवन बदला है। भारत में हुई शांतिपूर्ण क्रांति के प्रतीक है आंबेडकर और यदि  जालसाज ताकते अपनी तिकड़मो से बाज नहीं आयी तो यह शांति एक नयी क्रांति को जन्म दे सकती है और हो सके वोह क्रांति शांतिपूर्वक न हो।

1980 और 1990 के दशक भारत में उथल पुथल और बदलाव के थे। बामसेफ की ताकत बढ़ी। कांशीराम ने बहुजन समाज के नारे को  पुरे देश में प्रचलित किया और केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने बाबा साहेब के शताब्दी वर्ष में उनका सम्मान किया। उनका साहित्य देश भर में लोगो को सस्ते दरो में उपलब्ध हुआ। और जिन बाबा साहेब को भारत के हुक्मरानों ने संसद के बाहर रखा, उनके चित्र को संसद के अन्दर लाया गया। बाबा साहेब हालाँकि के भारत रत्ना से बहुत बड़े हैं लेकिन उनको भारत रत्ना देने से भी बहुत लोगो को परेशानी हो गयी। 1990 में मंडल के आने के बाद तो ब्राह्मणवादी ताकतों को लगने लगा के यदि अब कुछ  ऐसा नहीं किया गया जो लोगो को दिग्ब्रमित कर दे तो वर्णव्यस्था की चूले हिल जाएँगी और हिंदूवादी ताकतों की एकछत्र राज समाप्त हो जायेगा। और इसलिए एक बहुत बड़े 'प्रोजेक्ट' पर कार्य शुरू हुआ और इसका नाम था 'अयोध्या'.

अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए लाल कृष्णा अडवाणी रथ यात्रा पर निकले। उनके मानाने की कोशिश हुई लेकिन वे नही माने'.  देश में खून खराबा हुआ लेकिन उससे उन्हें क्या मतलब। वर्णवादी बाबाओ को आगे किया गया। राम मंदिर के लिए ईंटो को देश भर में घुमाया गया।खूब चंदा इकठ्ठा हुआ लेकिन मजाल क्या की किसी ने चंदे का हिसाब माँगा हो। बाबरी मस्जिद के नाम पर भी दुकाने सजी। जब हिन्दू वर्णवादी सामने आएगा तू मुस्लिम सामंती ताकते पीछे रहेंगी क्या। उन्होंने भी अपनी दुकान सजाई और लोगो पिसते रहे। खैर 1990 में केंद्र सरकार इसलिए गयी क्योंकि वो अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ध्वंश को बचा पायी क्योंकि तैयारी तो उस वक्त भी थी।

केंद्र में नरसिम्हाराव की सरकार आये और वो तो पूर्णतया संघ में प्यार में पागल थी। तिकडमें  उनको पूरी करनी थी। वाजपेयी और अडवाणी उनके परम मित्र थे। फिर अडवाणी ने यात्रा निकली और इस बार कसम खाई के मंदिर जरुर बनायेंगे। लेकिन मंदिर बनाना मुख्या उद्दश्य नहीं था। मुख्या उद्देश्य था दलितों और पिछडो में आ रही बदलाव की चाह  और क्रांति को खत्म करना। दलितों को बाबा साहेब ने एक दर्शन दिया और इसलिए बाबा साहेब से जुदा कर तो कोई उन्हें अपने पाले में नहीं ला सकता लेकिन पिछ्डी  जातियों में सांस्कृतिक बदलाव के आभाव में मुस्लिम विरोध के नाम पर और 'राम' के नाम पर बहुत बड़ा तबका हिंदुत्व के पाले में आ गया। इसके लिए कल्याण सिंह, उमा भारती, शिव राज सिंह, और बहुत से अन्य नेताओ को आगे बढाया गया। यानी हिंदुत्व का भी मंडलीकरण  हुआ लेकिन इसके मूल में था मुसलमानों का विरोध और सत्ता की नकेल ब्राह्मणवादी ताकतों के हाथ में। इसलिए मैं ये मानता हूँ, बाबरी मस्जिद का ध्वंश हिंदुत्व की एक चाल  थी जो मुसलमानों के विरोध के नाम पर विभिन्न जातियों को  हिंदुत्व के नियंत्रण में या उनके अधीन लेन की एक साजिश थी जिसमे वे सफल हुए।  ऐसे नेता समुदायों के नाम पर आये जिन्हें पार्टी की मंडल विरोधी स्वरूप से कोई मतलब नहीं था वे तो राम के नाम की दुकान चला कर लोगो को बरगलाना चाहते। इसलिए राम मंदिर का आन्दोलन और कुछ  नहीं दलित पिछडो को धर्म के नाम पर कुंद कर देने का आन्दोलन था जो मंडल के बाद की आग को बुझाने में कामयाब होगया और बहुत बेहतरीन तरीके से संघ के विशेषज्ञों ने इस पर सेंध मारकर जातिविरोधी आग को आज दलित विरोधी आग में बदला है।

अब नए बाबा पैदा किये जा रहे हैं और वो जातियों के नाम पर आ रहे हैं। इन साजिशो को ध्यान देना पड़ेगा। अस्मिता की राजीनति या कूटनीति के पहले विशेषज्ञ संघ परिवार है। यह हमेशा ध्यान रखना पड़ेगा। 

बाबरी मस्जिद के ध्वंश में कांग्रेस और नरसिम्हाराव की भूमिका को नाकारा नहीं जा सकता। कांग्रेस की दोगली चलो ने हिंदुत्व के इन ठगों को मज्बूत किया। अगर इतने मज्बूत थी कांग्रेस तो नरसिम्हाराव ने अपने पहले प्रसारण में बाबरी मस्जिद के दोबारा निर्माण की बात कही लेकिन हिंदुत्व के मठाधीश यह जानते हैं के अब कोई पार्टी ऐसी बात नहीं करेगी क्योंकि 'सांप्रदायिक' तनाव बदेगा। सबचुप हैं।

अफ़सोस के जिन लोगो को जेल के सीखचों में होना चाहिए था वे देश के मंत्री और भविष्य भी बन रहे हैं।   क्या यह भारत के लोकतंत्र का दोगलापन नहीं के यह यदि मुसलमान दंगो में फंसे तो आतंकवादी, दलित और आदिवासी अपने मुद्दों पर हिंसक हो तो नक्सलवादी  और माओवादी लेकिन ब्राह्मणवादी हिंसक हों तो सीधे सत्ता में आते हैं और रास्ट्रवादी  कहलाते हैं। इस बात को संघ से लेकर हिंदुत्व की सारी कौम जानते है हैं इसलिए ठाकरे अपराधी नहीं होते, मोदी मुख्यमंत्री बनते हैं और अडवाणी के उप प्रधान मंत्री और गृह मंत्री बन्ने पर किसी को अफ़सोस नहीं होता, कोई आवाज नही उठती। आज अडवाणी हमारे सभ्य देश के सभ्य नागरिक हैं और कोई नहीं कहते के सी बी आई क्यों नही मुकद्दमा चलती। लालू और मुलायम या मायावती के नाम पर चिल्लाने वाले ये क्यों भूल जाते हैं के आज तक सांप्रदायिक और जातीय दंगो को करवाने वाले एक भी हिंदुत्व के हिंसक को सजा नहीं मिल पाई है। ये दिखता है हमारा देश कितने खतरनाक तौर पर सांप्रदायिक जातीय लोगो की गिरफ्त में है।

दलित बहुजन समाज की एकता ने भारत में सम्प्र्दायिक्क ताकतों को बाहर  खदेड़ा लेकिन आज  उनके बीच बढ़ती दुरी भारत में जातीय दुराग्रह और सांप्रदायिक ताकतों को दिल्ली की और बढ़ने के संकेत दे रही है। यह बिलकुल सच है के दलितों में वैचारिक मजबूती आ चुकी है और वोह ऐसी परिस्थितयों को समझ चुके हैं। आज बाबा साहेब को नमन करने का दिन है और ये भी समझना जरुरी है के अम्बेडकरवाद में भारत की एकता और प्रबुद्ध भारत बनाने  की ताकत है। इसलिए आंबेडकर और उनके दर्शन को अपनाकर अन्य लोग भी आगे बढ़ सकते हैं। और मुझे यकीं है के भारत में एक तर्कवादी मानववादी संस्कृति के चाहने वाले लोगो बाबा साहेब अम्बेडकर के विचारो में अपनी क्रांति के बीज देखेंगे ताकि इस देश में चल रही हिंदुत्व की साजिशी संस्कृति को समाप्त किया जा सके और के पूर्णतया प्रबुध समाज की नीव डाली जा सके जहाँ कम से कम सत्ता का तंत्र धर्म निरपेक्ष हो और सरकार भेदभाव रहित काम करे और  आगे बढ़ने का मौका हो। 

हिंदुत्व के ताकतों ने बाबरी मस्जिद के ध्वंश के लिए आज का दिन चुनकर भारत में आंबेडकर के  मानववादी दर्शन को खत्म करने की कोशिश की है और उसके स्थान पर मनुवादी ब्राह्मणवादी दकियानूसी परम्परो को अमली जमा  के प्रयास किये हैं जो कभी सफल नहीं होंगे। हमें विश्वाश है के सभ्य समाज के सभी लोग कभी भी अपना जीवन इन कुंठित, दम्भी और पाखंडी लोगो के हवाले नहीं करेंगे और इन सबके लिए हमारे सामाजिक जीवन में वैकल्पिक सांस्कृतिक बदलाव की आवश्यकता है और वोह बाबा साहेब आंबेडकर के जीवन दर्शन से हमको मिलता है। आइये उनके प्रबुध्ध भारत के आन्दोलन को आगे बढ़ाएं।

Friday 30 November 2012

Introspection time for Media in India.


मीडिया के आत्म चिंतन का समय 

विदया  भूषण रावत 

जी टी'वी और नवीन जिंदल के घटनाक्रम के बाद यह प्रश्न खड़ा हुआ है की क्या मीडिया में कोई नियंत्रक होना चाहिए। अख़बार हिन्दू ने एक ओम्बड्समैन रखा जो उसकी खबरों और उन पर लोगो की आपत्तियों को देखता है लेकिन दुसरे समाचार पत्रों या टी वी चनलो के पास तो उसको रखने का वक़्त भी नहीं। अखबारों के मालिक किसी भी नियंत्रण के इसलिए खिलाफ है क्योंकि यह 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' का 'हनन' है। प्रश्न यह है की संपादको और उनके मालिको के आलावा और लोगो को भी यह अधिकार है और यदि किसी खबर से किसी व्यक्ति के प्रतिष्ठा को चोट लगती है तो मीडिया के पास क्या है के उसकी इज्जत को वापस किया जा सके ज्यादातर मामलो में अख़बार रेजोइंडर को ऐसे छापते हैं के पता ही नहीं चलता . आज तक किसी भी समाचार पत्र ने अपने खेद को उस तरीके से और उतने महत्व के साथ नहीं छपा जितने महत्व से खबर छापि गयी होती है। 

जी के मसले में यह सवाल भी पूछना पड़ेगा के क्या संपादको की गिरफ़्तारी उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्र का हनन है। क्या ये प्रेस पर हमला है। आज अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की प्रतिबधता और विश्वशनीयता पर संकट है। यह संकट जी जिंदल घटनाक्रम से नहीं हुआ बल्कि इसके मूल बिंदु में मीडिया की ताकत और धनधान्य की प्रचुरता रही हा। आज के रिपोर्टर पुराने ज़माने का 'पत्रकार' नहीं है जो एक सैधांतिक निष्ठा और मिशन के जरिये पत्रकारिता करता है। आज का मिशन कनेक्शन है।

समाचार कक्ष में विज्ञापन और मार्केटिंग कर्मियों का हावी होना और संपादक को उसकी औकात बता कर रखना यह नए तरीके है जिस कारन देश के सबसे मीडिया घराने ने संपादक रखने बंद कर दिया जो अख़बार कल अक संपादको ने नाम से जाना जाता था आज वोह अपने मालिको के नाम से चलता है। कहा गया के संपादक नहीं अख़बार ब्रांड है। हम लोग तो राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, एस पी सिंह , अरुण शौरी, एन राम,  आदि को ब्रांड समझकर पढ़ते थे और उनके लेख को कई कई बार देखते गुनते थे। लेकिन अब वोह समय नहीं। न्यूज़ एक मार्किट है और उसके फलस्वरूप पैसा निकलना है। अख़बार प्रोडक्ट है और उसे विज्ञापनदाताओ को लाभ  देना है। ऐसे स्थिथि में जी जैसे घटनाक्रम को होना ही था और यह नयी बात नहीं हा।

जब खबर पैसे देखर चपटी हो और सम्पादकीय विज्ञापन और मार्किट के हिसाब से लिखे जाएँ तो फिर सुधीर चौधरी और समीर अहुल्वालिया जो कर रहे थे वोह क्या गलत है। आज कल न्यूज़ एंकर भी तो ब्रांड हैं। टी वी पे देखेंगे तो दिखाई देगा कैसे इन्वेस्टीगेशन करते हैं और अपने प्रति कितने सतर्क हैं। सबको लगता है के देश उनको सुनता है और इसमें जितना राजनेताओ को गरीयो तो अच्चा रहेगा क्योंकि मध्यमार्ग तो नेताओ को गली देने से ही इतिश्री मान लेता है। नेताओ को टीवी पर गली देकर या गरियाकर टी आर पी तो बढ़ सकती है लेकिन सत्ता परिवर्तन नहीं होना। आखिर जो लोगो सोनिया गाँधी के वंशवाद का विरोध करते हैं वोह दुसरे वंशवाद पे चुप क्यों रहते हैं। और राजनीती में तो वंशवाद के बावजूद भी लोगो के वोट लेने पड़ते हैं लेकिन मुकेश अम्बानी, अनिल अम्बानी, अभिषेक बच्चन, समीर और विनीत जैन और भारत का पूरा व्यवसायी तबका वहः कैसे पहुंचा क्या वो बिना वंशवाद के पंहुंच गया। क्या यह महारथी अब कहेंगे के उनकी कंपनिया अब आगे से उनके रिश्तेदारों और चाटुकारों से नहीं चलेंगी। वंशवाद हमारी जड़ो में है और भ्रस्थ्छार की जननी है लेकिन उसके लिए केवल नेताओ को गली गलोज कर दोषी नहीं ठहराया जा सकता। देश के सबसे 'सेक्युलर' अख़बार हिन्दू को जब वंशवाद से हटाने के प्रयास हुए तो हंगामा हुआ। अभी तक उस अख़बार के सारे संपादक परिवार से निकले .

खैर, बहस में मीडिया नी नैतिकताएं और सीमायें हैं। अख़बार क्यों अपने यहाँ आचार संहिता लागु करने से कतराते हैं। दुनिया को नैतिकता का पथ पढ़ने वाले कमसे कम खुद भ ई तो कुच्छ करके दिखाएँ . यह कहना जरुरी इस्लिए है क्योंकि संपादको के नाम पर अब केवल मार्केटिंग मेनेजर और पब्लिक रिलेशन ऑफिसर ही बैठे हैं और इसी कारण से संपादक की कुर्सी का इस्तेमाल अखबारों के सम्पादकीय के लिए नहीं कंपनी के काम के लिए होता है। इसलिए सवाल यह है के जी के एडिटर्स जिंदल के ऑफिस में क्या कर रहे थे। 

सवाल यह उठता है के क्या भ्रश्ताच्कार के विरुद्ध मीडिया की तथाकथित जंग केवल ब्लाच्क्मैलिंग का साधन थी . क्या खबरों की कडुई सच्चाई को संपदक और पत्रकार नेताओ को पहले ही बता देते हैं और यदि बात नहीं बनी तो 'भंडाफोड़' और बन गयी तो 'दुश्मन' का भंडाफोड़'. अगर कोई संपादक होता जो देशकाल के घटनाक्रम से चिंतित होता तो ऐसे हरकते नहीं करता। हम उनके विचारो से असहमत होते लेकिन उनको कभी दलाल नहीं कहते . जिन लोगो के मैंने नाम लिखे उनके सम्पादकीय मैं बड़े चाव से पढता था और लेख भी क्योंकि उनसे असहमति हो सकती थी लेकिन कोई उनके मंतव्य पर भ्रस्थ्चार या दलाली के आरोप नहीं 
लगाता। आज स्थिति गंभीर है और वो इसलिए क्योंकि बाजारी तकते मीडिया के नाम से दंधेबाज़ी कर रही है और उनके लिए लोग ज़रूरी नहीं हैं अपितु अपने मालिको के हित ज़रूरी है और मालिक अगर केवल अख़बार चलाते तो कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन आज तो मालिको के पास रियल एस्टेट से लेकर शेयर बाज़ार के धंधे भी हैं और इसलिए उनके हर कार्य अपने हितो से जुड़े हुए हैं।

आज मीडिया को एक नयी दिशा की जरुरत है। बहस की जरुरत है। और खुली बहस की। मीडिया की मोनिटरिंग भी  होनी चाहिए और एक मज़बूत कानून आये जिसमे मीडिया कर्मी, सामजिक कार्यकर्ता लेखक, कानूनविद, इत्यादि शामिल हों जो मीडिया के कंटेंट्स इत्यादि पर नज़र रखे और यह 'स्वंत्रता' के धंधेबाजो को देखे के वो ल;लोगो को कितनी स्वतंत्र खबरे पंहुचा रहे हैं। मीडिया को रेगुलेटर की जरुरत है ताकि देश में एक अच्चा माहोल हो और हम इन चीख चीख केर क्रांति करनेवालों से बचे और अख़बार और टीवी एक सभ्य और पारदर्शी बहस चलायें और आलोचना और निंदा केवल अपने व्यावसायिक होतो के मुताबिही ही न करें . मीडिया देश और समाज से बड़ा नहीं है। जो कानून हम सबके लिए हैं वोह मीडिया के लिए भी  है . अभिव्यक्ति की आजादी  बहुत जरुरी है क्योंकि ये हमारी वैचारिक प्रश्न है और व्यावसायिक हितो के नाम पर इसका इस्तेमाल नहीं क्या जा सकता। इसलिए यदि एक रेगुलेटर होगा तो वोह पहले ही बातो को नियंत्रित कर लेगा और फिर पत्रकारों या पी आर एजेंटो को जेल नहीं जाना पड़ेगा और सरकार को दख्लांजी का बहाना नहीं मिलेगा और हमारी आज़ादी बची रह पायेगी।
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Tuesday 27 November 2012





भारतीय राजनिति को विश्वनाथ प्रताप सिंह की देन 


विद्या भूषण रावत 


आज भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की पुण्य तिथि है। देश की राजनीती में उनके योगदान को हमेशा याद किया जायेगा क्योंकि उनके किये गए प्रयोग आज की राजनीती के मुख्या स्तम्भ हैं। भ्रस्ताचार के खिलाफ उनके अभियान के कारण उन्हें मंत्रिपरिषद से हटना पड़ा था और मंडल लागु करने के कारण  भारत के ब्राह्मणवादी तबका उनका सबसे बड़ा दुश्मन बना।

अपने लम्बे राजनैतिक जीवन में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आम जनता से जुड़ने का प्रयास किया और मूल्यों पर आधारित राजनीती की। दिल्ली की झुग्गी झोपड़ियों के लिए उनके संघर्ष को भुलाया नहीं जा सकता। सुचना का अधिकार और नरेगा जैसे सवालो पर भी वे देशव्यापी संघठनो  के साथ खड़े थे।

धुर्भाग्यवाश रिलायंस के विरुद्ध भ्रस्थाचार का धामभ भरने वाले तथाकथित कार्यकर्ताओ को पता नही की राजीव की मंत्रिपरिषद वित्त मंत्री की हैसियत से धीरू भाई अम्बानी की हालत ख़राब करने वाले वी पी को रिलायंस की दुश्मनी जिंदगी भर झेलनी पड़ी लेकिन दादरी में रिलायंस के जिस पॉवर प्लांट को लगवाने के लिए किसानो की भूमि को कौड़ियो के भाव मुलायम सिंह के फैसले के विरुद्ध उन्होंने संघर्ष किया और लोगो को उनकी जमीन वापस दिलवाई।

वी पी सिंह में दंभ नहीं था और आज के दौर की राजनीती में भी उन्होंने जनोन्मुख राजनीती की। आज उनकी कमी इसलिए खलती है क्योंकि तीसरे मोर्चे को जीवंत रूप देने वाले वह ही थे। उनके अन्दर एक करिश्मा था, एक नैतिक बल था जो उन्हें औरो से बहुत ज्यादा आगे खड़ा करता था। अस्मिताओ की राजनीती की दौर में उन्होंने उन लोगो से भी गालियाँ खाई जिनके लिए वह अपने समाज से दूर हटते चले गए। वी पी का जीवन और उनकी राजनीती भारत में जाति और उसके खूंटे से बंधे होने के हमारे चरित्र को भी दिखता है। उनके प्रति इतनी नकारात्मकता की भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्दोनल के 'मसीहा' लोग भी उनका नाम लेने से डरते हैं। उसका करान केवल एक के दलितों और पिच्च्दो के हक के लिए उन्होंने जो भी कुच्छ किया उसे हिन्दू वर्ण व्यवस्था के शुभचिंतको ने कभी माफ़ नहीं किया। इससे यह भी जाहिर होता है के वर्णव्यवस्था के विरुद्ध किसी भी आन्दोलन को समाप्त करने के लिए ये आतताई कुछ भी करेंगे और उन सबका नाम मिटा देने की पूरी कोशिश करेंगे जो उनकी राह  में रोड़ा थे। 

चाहे वे जो भी करें लेकिन जो बीज वी पी ने बो दिए उनसे देश के राजनीती नहीं हट सकते। अब उसको आगे उनलोगों को बढ़ाना नहीं जिनके संगर्ष के वे साथी थे  हालाँकि पिच्च्दी राजनीति को हिंदुत्व ने काट खाया है और इस कारण से ही ब्राह्मणवादी सम्प्रदायकता का मुकाबला करने में हम असमर्थ हैं या उसका हिस्सा बन गए हैं। सामाजिक न्याय की कोई लड़ाई सम्प्रदाकिता की लड़ाई को छोड़ के नहीं हो सकती। वी पी इन दोनों प्रश्नों पर बहुत साफ़ रहे और उनके मूल्यों से सीखकर हमारे वर्तमान राजनीती के 'तीसरे मोर्चे' को खड़ा कर सकते हैं। वी पी सिंह हो उनकी पुण्य तिथि पर श्रन्धांजलि।

Tuesday 13 November 2012

सांस्कृतिक पुनर्जागरण का आवश्यकता 

विद्या भूषण रावत 

तमिलनाडु के धर्मपुरी जिले में वहां की ताकतवर वन्नियार जाति के लोगो ने दलितों के घर पर हमला कर लगभग 300 परिवारों के घरो को पूरी तरह से तहस नहस कर दिया। एक गाँव के दलित युवक के साथ वन्नियार जाती की एक लड़की के प्रेम विवाह के बाद यह घटना घटी। विवाह के बाद लड़की लड़का एक साथ अपने घर में रह रहे थे जब वन्नियार जाती की एक पंचायत ने निर्णय लिया के लड़की को अपने पिता के वापस आ जाये लेकिन ऐसा नहीं हुआ। लड़की के पिता इस से बहुत आहात हुए और उन्होंने फांसी लगाकर आत्महत्या कर डाली। इसके बाद तो जैसे तूफान खड़ा हो गया। वन्नियार लोगो ने दलित के घरो पर हमले शुरू कर दिए और पुलिस के बावजूद हिंसा जारी रही। सभी दलित, जो आदि द्रविदा जाति  के थे, उन्हें अपने घरो से भागना पड़ा . दिव्या और उनके पति भी अपने घर से भाग चुके थे नहीं तो उनके साथ क्या स्थिथि होती इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। रास्ट्रीय दलित आयोग के सदस्य भी वह गए और उस हिंसा को प्रायोजित बताया।

इस घटना के कई पहलु हैं और उन पर विचार करना चाहिए। तमिलनाडु ने गैर ब्राह्मणवाद के नाम पर बड़ी राजनीती हुयी है और उसके फलस्वरूप बहुत बड़ी पिछडी जातियों को सत्ता पर भागीदारी भी मिली . स्वंतंत्रता के बाद तमिलनाडु पिछड़ी जातियों के नाम पर राज कर रही पार्टियों के चंगुल में रहा हैं। उन्होंने बहुत अच्छे काम भी किये होंगे लेकिन दलित अस्मिता के प्रश्न पर तमिलनाडु के पिछडो ने दलितों के साथ बहुत  ही हिंसक वर्ताव किया है।  दलित अस्मिता के प्रश्न को हिंसक तरीके से दबाया गया है।

वन्नियार एक ताकतवर पिछड़ी जाति हैं और पी एम् के नामक पार्टी उनकी सबसे बड़ी ताकत है। कई वर्षो से वन्नियार और थेवर नाम की  दलितों के उपर सबसे ज्यादा हिंसक बन कर उभरी हैं। आश्चर्य जनक बात यह है के सामाजिक न्याय के नाम पर चल रही इन पार्टियों और तमिलनाडु और देश के अन्य हिस्सों में दलितों पर हो रही हिंसा के उपर लिखने वालो की जुबान और कलम रुकी हुए हैं। इसका कारन यही है के हमारी कलम और जुबान भी राजनीती के समीकरणों  के अनुसार चलती है जो बेहद खतरनाक है। 

तमिलनाडु में पेरियार के गैर ब्राह्मणवादी आन्दोलन के कारण से बहुत प्रगतिशीलता के तत्वे भी आये लेकिन ब्राह्मण विरोधी आन्दोलन जातिविरोधी आन्दोलन में तब्दील नहीं हो पाया। तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश या बिहार के सामाजिक और राजिंतिक परिपेक्ष्य को देखने तो अस्मिता की राजनीती ब्राह्मण विरोधी शक्तियों के इकठ्ठा करने के लिए उपयोगी तो हो सकती है लेकिन अपने अन्दर के अन्तर्द्वन्दो और अंतरविरोधो को नहीं मिटा सकती। और इन्हें दूर करने के कोई प्रयास भी नहीं हुए क्योंकि जब एक बार सत्ता की चाबी जिस जाति के नेता के हाथ पहुंची वो उसे दुसरे के साथ साझा करने को तैयार  नही है।  आज इन पार्टियों की जुबान पर ताला लगा है। यह वोह तमिलनाडु है जहाँ श्रीलंका के मसले पर हर एक घंटे में भरी प्रदशन हो जाता है और ट्वीटर और फेसबुक पर  स्टेटस की झड़ी लग जाती है। 

अभी तमिलनाडु में मंदिरों में दलित और पिछड़ी जाति  के अर्चाको को नियुक्त करने को क्रन्तिकारी कदम बताया जा रहा है। हमारे लिहाज़ से यह दलितों को हिंदूवादी ढांचे में घुसाने की साजिश है और आश्चर्य यह है के जो पार्टी अपने को नास्तिक कहती हैं वे यह हिंदूवादी अजेंडा लागु करते हैं। दलित पिछड़े ब्राह्मण मंदिरों में मनुस्मृति को ही पढ़ाएंगे और ये दूर से क्रन्तिकारी कदम दीखता हो लेकिन क्या हमारे देश में  पिछड़े मठाधीश नहीं है जो मनुवादी शिक्षा दे रहे हैं। यदि आज के बाबाओ को देखे तो वोह शुद्रो से ज्यादा आ रहे हैं और इसे अगर कोई क्रन्तिकारी माने तो मान सकता है क्योंकि ब्रह्माण्डी मनुवादी व्यवस्था को बचाने के लिए अब नए पुलिस वालो के जरुरत है जो इसको बचा सके। आश्चर्य यह के दलितों पे हिंसा पे सब चुप हैं। ऐसा क्यों यह समझ नहीं आ रहा।

  असल में जातिगत अस्मिता के नाम पर अभी राजनितिक चोंचले बाजी से आगे हम नहीं पहुंचे हैं। देश को एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की जरुरत है जो ब्राह्मणवादी जातिवादी मानसिकता और संस्कृति को समाप्त कर आगे बढे लेकिन अस्मिताओ के इस दौर में व्यक्तीगत विचारो और चाहतो का कोई मतलब नहीं है और इसीलिये प्रेम विवाह को खत्म करने में हम सभी एक हो जाते हैं। दलित  के मध्य जो राजनैतिक या सामाजिक  की बात हम करते हैं वोह एक सांस्कृतिक विकल्प के बिना संभव नहीं है। जातिगत अस्मिताएं इन विकल्पों की राह में रोड़ा हैं क्योंकि यह व्यक्तिगत चाहतो को जाति की सीमओं से बहार नहीं मानते। दुसरे, भारत में अगर सभी जातियां एक हो और केवल अपना गाँव या परिवार के नाम तक सीमित हो तो कोई  बात नहीं है लेकिन जब अस्मिता के मायने अपनी झूठी शान और दुसरे से बड़े होने की कहानी है तो सोचना पड़ेगा के व्यक्ति के अपनी अस्मिता कहाँ गायब हो जाती हैं। बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था के भारत एक रास्ट्र नहीं है क्योंकि यहाँ व्यक्ति के अस्मिता का सम्मान नहीं है क्योंकि वोह अपनी चाहत अपनी अनुसार जिंदगी नही जी सकता। जाति  और अस्मिताओं की दीवारे उसको घेरेंगी। 

अस्मिताओ से परेशानी नहीं है लेकिन वोह सामाजिक न्याय और बरबरी के उपर नही जा सकती। वैसे ही जैसे तमिलनाडु में ब्रह्मंविरोधी आन्दोलन जाति  विरोधी आन्दोलन नहीं बन पाया क्योंकि जाती उन्मूलन के लिए केवल ब्राह्मण या अन्य हिन्दुओ का जाती  और उससे बहार निकलना ही काफी नहीं है अपितु दलित पिछडो को भी अपने अन्दर उसको समाप्त करना पड़ेगा और धर्मपुरी जैसी घटनाओ  की पुनाराविरती तब नहीं हो पायेगी। जब बाबा  साहेब आंबेडकर ने नवयान की स्थापन की तो इसका एक ही सन्देश था के जातिगत खांचो से बहार निकलकर एक नयी जिंदगी की शुरुआत करें क्योंकि केवल विरोध की राजनीती से हम एक नए समाज का निर्माण नहीं  कर पाएंगे इसलिए एक विकल्प की जरुरत होगी और इसलिए ब्राह्मणवादी जातिवादी मानसिकता से बहार निकलकर बुद्ध के करुना और बरबरी के मार्ग को उन्होंने अपनाया। बाबा साहेब ने उसकी स्वयं व्याख्या को और उसके नीति निर्देश दिए। 

इस हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता के जातिगत समाज में सुधर की कोई सम्भावना नहीं है जब तक हम जातिगत अस्मिताओ को मज़बूत करेंगे। धर्मपुरी  जैसी घटनाएँ हरयाणा से एक कदम आगे हैं क्योंकि यहाँ सामाजिक न्याय के नाम पर काम करने वाली ताकते शाशन में हैं और वोह भी पिछले 50 वर्ष से। वर्ना व्यवस्था मनुवाद को ही मज़बूत करती रहेंगी और ऐसे घटनाएँ होगी रहेंगी क्योंकि जातिगत अस्मिताएं और कुच्छ नहीं जातिगत अहम् है जो सीढ़ीनुमा खांचे में अपने आप को दुसरे से श्रेस्ठ समझती हैं और दुसरी अस्मित को कुचल देना चाहती हैं। अस्मिताओ का सम्मान जातिगत समाज में नही हो सकता और ल्सिये उसके लिए आंबेडकर के दिखाए मार्ग के आलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है।

फिलहाल, तमिलनाडु में धर्मपुरी जैसी घटनाओ को रोकने के लिए जरुरी है के हमारी संवैधानिक मूल्य हमारे दैनिक जीवन के मूल्य बने। संविधान केवल एक कानून न होकर हमारे जीवन की रहन सहन और आदत बन जाये और उसका इस्तमाल हमारे मतभेदों को सुलझाने और लोगो को न्याय दिलाने के लिए हो। राजनितिक दल यदि अपनी जातिगत मूल्याङ्कन से आगे बधकर सामाजिक न्याय में विश्वास करें और संविधान के मूल्यों की इज्जत करें तो देश में एक पुन्राजागरण हो सकता है। मनुवादी जातिवादी विचार को उसके बहार आकर और संविधानिक मूल्यों को जीवन मूल्यों में तब्दील करके ही हम एक नए भारत का निर्माण  कर सकते हैं और तभी जातिगत अस्मिताओ के नाम पर या इज्जत के नाम पर हो कत्लो को रोका जा सकेगा।

Monday 12 November 2012

Revisiting Vivekananda and Ram



विवेकानंद और राम का पुनर्वालोकन 

विद्या भूषण रावत 

नितिन गडकरी की मुसेबतें कम होने का नाम नहीं ले रही। उनकी कंपनियों का धंधा मंदा चल रहा है और विवेकानंद और द़ाउड़ इब्राहीम के आई क्यू को बराबर  बताकर उन्होंने एक नयी बहस शुरू कर दी। ऐसे लग रहा था मानो गडकरी आई क्यू विशेषज्ञ हैं क्योंकि आई क्यू की खोज विवेकानंद के निधन के बहुत बाद हुयी है। दूसरी बात, जब आप बात कर रहे हो तो तुलना का अध्ययन कैसे हो और किससे हो यह भी तो समझ का विषय है। यदि दाउड़ इब्राहीम कोई दार्शनिक होता तो या समाज सुधारक होता और उनके विचारो का कोई मतभेद होता तो बात थी। या फिर विवेकानंद को कोई गंग होता और फिर दाउद से तुलना होती तो बात थी। 

अब प्रश्न यह नही के क्या हम विवेकानंद को मानते हैं या नहीं। भाजपा के तो शीर्ष पर विवेकानंद हमेशा रहे हैं और 'वेदों की और लौटो' और 'वेदान्तिक दिमाग' के जन्मदाता ने बहुत सी जगहों पर ब्राह्मणों और वर्ण  व्यवस्था को गरियाया भी है लेकिन उसका समाधान अंत में वेदांत और वेदों में घुसकर अपने बदलाव का सारा बेडा गर्क कर दिया। लोगो को उनका वेदान्तिक बुद्धि'तो पसंद आ गया लेकिन 'इस्लामिक शरीर ' को छोड़ दिया। याद रहे विवेकानंद ने कहा एक मज़बूत भारत के लिए वेदान्तिक दिमाग और इस्लअमिक शारीर की जरुरत है। यानी सफलता के लिए ब्राह्मण बुद्धि और इस्लाम  की तरह की निष्ठा बहुत जरुरी है। वैसे इस्लाम के बारे में विवाकनद के विचारो को उनकी पुस्तकों के प्रकाशकों ने चुपचाप साफ़ भी कर दिया क्योंकी आज के राजनैतिक परिपेक्ष्य में वोह नरेन्द्र मोदी जैसे घृणा के सरदारों के काम नहीं आयेंगे। 

गडकरी को माफ़ी मंगनी पड़ी लेकिन अब राम जेठमलानी ने नया राग अलापा के राम एक अच्छा पति नहीं था। और लक्ष्मण तो और भी ख़राब था जो अपनी भाभी की सुरक्षा नहीं कर पाया। संघ परिवार में हडकंप है क्योंकि उन्ह्होने तो राम की दूकान चलाई और आगे भी उसके नाम पर वोट लेना चाहते हैं। राम जेथ्मलाई का हक बनता है क्योंकि राम तो उनके आगे वैसे भी लगा है और उनको दुःख हो रहा होगा के यदि आज के ज़माने की बात होती तो जेठमलानी को बहुत बड़ा केस मिलता कोर्ट में लड़ने के लिए। उन्होंने इतने बड़े केस लडे हैं के अभी राम भक्त उनका कुछ  नहीं बिगड़ सकते क्योंकि इस देश में इतने राजनेता हैं जिनको कोर्ट में उनसे बहुत काम हैं और राम तो सबका बेडा पार करते हैं।

इसलिए एक बात पे मैं जेठमलानी के साथ नहीं हूँ हालाँकि जो उन्होंने राम के बारे में कहाँ वोह तो बिलकुल सत्य है और अगर सत्य नही भी है तो हमें उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आदर करना चाहिए लेकिन यदि यह केस आज हुआ होता तो जेठमलानी क्या करते। क्या वोह सीता का केस लड़ते और राम को जेल भिजवाते। सत्य बात यह है के सीता पर केस लड़ने के लिए पैसे भी नहीं होते और राम जेठमलानी को राम पहले ही अपनी पार्टी  में लेकर अपनी पैरवी करवाते . आज की हकीकत यही है। राम जेठमलानी उसी पार्टी की पैरवी कर रहे हैं जिसके पास सीता के अपमान का बदला लेने के लिए शब्द नही है और जो इन सड़ी गली परम्पराओं  को देश पर लाद कर असली मुद्दों से हमारा ध्यान हटाना चाहते हैं। आज भी हज़ारो सीतायें हमारे समाज में हैं जिन्हें हमारे समर्थन की जरुरत है और सामाजिक न्याय चाहिए और जिनके साथ अन्याय होने के बावजूद भी समाज उन्ही से उत्तर मांगता है। हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, और देश के अन्य राज्यों पर महिलाओ पर अत्याचार जारी हैं और अत्याचारी समाज में  से  है और महिला को मुंह ढक के रहना पड़ता है। राम की महिमा का मंडान करने वाले पूरी राम सीता कथा से अनेकार्थ निकल सकते हैं और सोच सकते हैं के आज की सीता कहाँ है और क्या आज का समाज वोह सब नहीं कर रहा है जो राम ने सीता के साथ किया था लेकिन आज के कानून के हिसाब वोह अपराध है। जेठमलानी उस पार्टी में जो आज के कानून को नहीं मानती और जिसका आदर्श मनुस्मृति है इसलिए जेठमलानी सत्य तो कह रहे हैं लेकिन उन  जैसे लोगो पर कितना विश्वास करें यह सोचने की बात है।

America Mandalised

अमेरिका का मंडलीकरण 

विद्या भूषण रावत 

अमेरिका में राष्ट्रपति बराक ओबामा का चुनाव जीतना एक नए समीकरण की और संकेत कर रहा है। अमेरिका की दक्षिणपंथी तकते अफ्रीकी मूल के लोगो, अप्रवासियों, अल्पसंख्यको और महिलाओ के इस नए समीकरण को ख़त्म करने के लिए कोई अयोध्या कांड करने का प्रयास करेंगी . क्योंकि अमेरिका में कोई बाबरी मस्जिद नहीं है तो यह सब या तो ईरान पर हमला करवाने के प्रयास होंगे या शिव सेना स्टाइल में आप्रवासियों के विरुद्ध मोर्चा खोला जायेगा क्योंकि उद्योपति और पूंजीपति सब रिपब्लिकन  पार्टी के प्रमुख समर्थक रहे हैं इसलिए भारत की तरह अमेरिका में भी धार्मिक उन्मादियों और पूँजी का एक सशक्त गठबंधन बन सकता है। क्योंकि अमेरका के कई प्रान्तों में समलैंगिक विवाहों को भी लोगो ने मान्यता दे दी है जिसके विरुद्ध अमेरिकन चर्च और उनके कट्टरपंथी पादरी लगातार आवाज उठा रहे थे।

आज के परिणामो से साबित हो गया है के अमेरिका के हासिये के लोग अब सत्ता में भागीदारी चाहते हैं। वे चाहते हैं स्वस्थ्य सेवाओ का रस्त्रियाकरण जिसके विरुद्ध प्राइवेट कंपनियों की कोशिश जारी है। बुश के मुस्लिम विरोधी स्वरों को अमेरकी गोरो ने बहुत समर्थन दिया और इस्लाम को निशाना बनाकर वह का चर्च दक्षिणपंथी अजेंडा लागू कर रहा था। भगवन और भाग्य को तभी लाया जाता है जब हासिये के लोग अपने अधिकारों के लिए सड़क पर आते हैं। अमेरिका के काले लोगो ने आप्रवासियों और महिलाओ के साथ गठबंधन करके अपनी त्क्कत दिखा तो दी लेकिन व्यवस्था में बदलाव आएगा ऐसा नहीं कहा जा सकता। ये सिस्टम ताकतवर लोगो के लिए बना है। हम सब जानते हैं के अमेरिका के चुनावो में बेतहाशा खर्च होता है और पूंजी का बहुत बड़ा रोल है। 

अमेरिकी लोकतंत्र को जनतंत्र बनाने में समय लगेगा और वह तभी सफल हो सकता है जब बराक ओबामा के समर्थक समूह अपनी पहचान और अस्मिता के आलावा अमेरिका में अपने भविष्य को ध्यान में रख कर अपनी रणनिति बनाये। लोतंत्र में उनकी भूमिका ओबामा को चुनाव जीताकर ख़त्म नहीं हो जाती। दुर्भ्ग्यवाश अमेरिकी चुनाव प्रणाली ऐसी नहीं है के जिसमे गोरी ताकत को रोका जा सके। यह वैसे ही है  जैसे भारत में राजनैतिक सत्ता परिवर्तन के बावजूद भी सत्ता की नकेल अभी भी ताकतवर जातियों के हाथ में ही है। और जब उसको ख़त्म करने का प्रश्न उठाया जाता है तो अन्य प्रश्न खड़े कर दिए जाते हैं। ओबमा को चाहिए के सामाजिक न्याय की शक्तियों को मज़बूत करे और अम्बेडकर और फुले के संघर्ष को समझे। यह भी अच्चा होगा के अमेरिका दुसरे देशो में दखलंदाजी देना बंद करदे तो वहां के पूंजीवादी तबके की दुकान बंद हो जाएगी। यह वोही तबका है जो अमेरिकी घृणा फैलने वाले चर्च के साथ मिलकर दुनिया पर अपनी दादागिरी  रखना चाहता है।

अमेरिका के चारसौ वर्षो के इतिहाश में पहली बार 20% महिलाएं सीनेट में जीत कर आयी हैं और उम्मीद है वे बदलाव वाली ताकतों के साथ रहेंगी' अमेरिका की प्रतिनिधि सभ में रिपब्लिकन पार्टी का कब्ज़ा बना हुआ है। वैसे चुनाव हरे हुए मिट रोमनी ने रास्त्रपति को तुरंत बधाई दी और सहयोग का वादा किया। भारत में मुख्या विक्पक्षी दल और उसके वेट लिस्टेड प्रधानमंत्री श्री लाल कृष्णा अडवाणी आज तक नहीं पचा पाए हैं के वे सरकार में नहीं हैं। 

अमेरिका से बहुत उम्मीद तो नहीं कर सकते क्योंकि पूंजी और धर्म की भूमिका वह बहुत ज्यादा है और सबसे बड़ा खतरा यह है के काले, हिस्पैनिक और आप्रवासियों के अन्दर आ रहे बदलाव को पूंजी और धर्म की ताकते ख़त्म करने का माद्दा रखती हैं। यह वैसे ही है जैसे भारत में हिंदुत्व और पूंजी का भयावह गठबंधन बदलाव की सारी ताकतों को रोके हुए है हालाँकि वो सत्ता में नहीं दिखाई देता फिर भी उसके बिना सत्ता चलते नहीं और वोह हमरे मीडिया और पूंजी तंत्र पर हावी है।

चुनाव जीतने पर राष्ट्रपति ओबामा को बधाई और उम्मीद करते हैं की अमेरिका प्रोपगेंडा आधारित  नहीं करेगा और दुसरे देशो पर अपनी मिलिट्री ताकत की आजमाइश नहीं करेगा। हम यह भी उम्मीद करते हैं के ओबामा अपनी घरेलु समस्याओ पर ज्यादा ध्यान देंगे और आतंकवाद के नाम पर चल रही दुन्कानो को बंद करेंगे। अमेरिका अगर अपने को अलग थलग नहीं चाहता तो उसे दादागिरी छोड़ लोकतान्त्रिक परम्पराव को बढ़ाना पड़ेगा। हम सब लोकतंत्र चाहते हैं लेकिन उसकी मजबूती  अमेरिकी द्रोंतंत्र के जरिये नहीं हो सकती। फिलहाल अमेरिकी अफ्रीकी लोगो और वहां की धार्मिक, भाषाई, और सेक्सुअल अल्पसंख्यको को केवल एक सलाह के भारत के दलित बहुजनो के राजनितिक संघर्ष से कुच्छ सीख सकते हैं। अमेरिका के मंडलीकरण की शुरुआत हो चुकी है और असली नतीजे 2020 के बाद दिखाई देंगे।

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Women and customs


असभ्यता के स्थलों से खुद को मुक्त करने की आवश्यकता 

विद्या भूषण रावत 

बम्बई की हाजी अली दरगाह में औरतो के प्रवेश पर पर्तिबंध से बहुत से लोग आहात हैं लेकिन प्रश्न यह है के क्या यह हमारे 
समय की पहली घटना है ? बहुत से लोगो ने कहा के धर्म ऐसी इजाजत नहीं देता और इसलिए वोह दरगाह में महिलाओ के ऊपर प्रतिबन्ध के खिलाफ बोलेंगे। बहुत से मानवाधिकार कार्यकर्ताओ ने भी प्रश्न उठाये हैं के पुजस्थालो में जाना किसी भी भक्त का मूल अधिकार है। क्या बात इतनी आसांन है। क्या हम धर्मस्थलो पे अपने आधुनिक कानून लागु कर सकते हैं। 

यह जानना आवश्यक है के मंदिर प्रवेश की लड़ाई धर्म की सत्ता को मज़बूत करने के लड़ाई है और जो लोग उसमे विश्वाश करते हैं मैं उनसे केवल इतना कहना चाहता हूँ के क्या मज़हब वाकई में स्त्री और पुरुष को बराबर समझते हैं। असल में धर्मो की सत्ता तो इसबात में होते है की कुच्छ लोगो पर भगवन की विशेष कृपा है और कुच्छ पर कम। जिस पर कम कृपा है उसे अनलकी कहा जाता है और फिर पुरोहित उसकी अज्ञानता या भय का लाभ लेते हुए टोन टोटके बताता है। 

सूफी स्थलों को प्रेम का सन्देश देने वाले स्थल बताने वालो की कमी नहीं है। उन्हें धर्मनिरपेक्ष बताने वालो की भी कमी नहीं लेकिन वे धर्मनिरपेक्ष केवल अज्ञानता और जाडु टोने के सन्दर्भ में हैं जहाँ लोग अपने 'काम' करवाने आते हैं, मन्नते मांगते हैं और जब वे 'पूरी' हो जाती हैं तो फिर चढ़ावा चढाने आता हैं। अगर सूफी स्थलों को देखे तो ज्यादातर स्थानों पर औरतो के प्रवेश पर पाबन्दी है और वोह खुल के होती हैं। महिलाएं उसे 'गर्भ गृह' तक प्रवेश नहीं कर सकती। एक सूफी स्थल पर मुझे वहः के खादिम ने बड़े फक्र से बताया के औरतो को इसलिए अन्दर नहीं बुला सकते क्योंकि वे 'गन्दी' होती हैं। वैसे 'गंदे' का मतलब सब जानते हैं और यह तो बहुत से मंदिरों और अन्य धर्म स्थलों में भी है के महिलाओ के माहवारी के समय उन्हें इन स्थल पर जाने की इजात नाहे है और इस बात को पुक्ता करने के लिए उनके प्रवेश को उम्र से जोड़ दिया गया के या तो 8 वर्ष से कम की लड़की हो या 60 वर्ष से उपर की उम्रदाज। सबरीमाला के मंदिर में महिलाओ का प्रवेश बंद है।

मंदिरों में या अन्य धर्मस्थलो में महिलाओ और दलितों के प्रवेश के विरुद्ध कानून कम नहीं कर सकते। बात यह भी है हमारे कानून आज की परिस्थतियो के अनुसार बनते हैं जबकि धार्मिक परम्पराएँ जब से बनी हैं उनमे कोई बदलाव नहीं आता क्योंकि उन्हें 'इश्वर' या 'अल्लाह' ने 'स्वयं' बनाया है इसलिए उसमे सुधर नहीं किया जा सकता। अब तक सभी धर्मो और व्यवस्थाओ में औरतो को पुरुषो के समकक्ष कभी नहीं मन गया है। वे उस संस्कृति के वाहक और पोषक हैं जो उनकी शोषक है और इसलिए मंदिर और इन स्थलों में प्रवेश के आन्दोलन उसी व्यवस्था को मज़बूत करती हैं जिसने औरतो को कभी बराबरी का दर्जा नहीं दिया। 

बाबा साहेब आंबेडकर ने बताया के दलितों को मंदिर प्रवेश की जरुरत नही है क्योंकि वहां उनकी इज्जत नहीं है और इसलिए कालाराम मंदिर आन्दोलन के बाद उन्होंने मंदिर प्रवेश के आन्दोलन को बंद कर दिया और नयी व्यवस्था के निर्माण में लगे। अगर महिलाओ को अपने पे विश्वाश है तो उन्हें ऐसी व्यवस्था में नहीं जाना चाहिए जहाँ उनकी इज्जत नहीं है और इसलिए ऐसे भगवन को बता दो के अगर तू हमें बराबर मानने को तैयार नहीं तो हम भी तेरे द्वार पे आने को तैयार नहीं। आज की सबसे बड़ी चुनौती यह है के आधुनिक संविधान हमारे समाज को नहीं बदल पा रहे हैं क्योंकि धार्मिक ताकते अभी भी हावी हैं और हमारी अज्ञानता और भय के चलते इन पाखंडी परम्परआओ की शिकार बनी  है क्योंकि उसकी सामाजिक पहचान भी यही से है और समाज में अलग थलग होने का वोह खतरा उठा नहीं सकती और अंत में उन्ही सदी गली परम्पराव को ढोटी चली जाती हैं जो उसके खिलाफ हैं।

लेकिन आज के समाज की जरूरती है के औरतो को ऐसे सभी स्थानों को पूर्ण बायकाट करना चाहिए जहाँ उसे बरबरी की दृष्टी से नहीं देखा जाता और जहाँ वह अभी भी पुराणी दकियानूसी परम्पराओं के आधार पर अपमानित की जाती हैं। समय आ गया है के ऐसी परमपराओ, ऐसे धर्मस्थलो और लोगो को पूर्णतया नकार दो जो इंसानी बराबरी में विश्वाश नहीं करते और आज़ादी, बराबरी और सम्मान के मानवीय मूल्यों को नहीं समझते। 


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Women and Karwachowth



महिलाएं और संस्कृति 

विद्या भूषण रावत 




करवा चौथ का व्रत आज बड़े जोश खरोश से मनाया जा रहा है बाजारों में रौनक है और टीवी के भीतर भी बहुत बहस है। सुष्माजी का यह 37 व करवाचौथ है और उनके पति का प्यार 37 गुना बढ़ चूका है। यह  नहीं सुषमा जी ने टीवी पर खुद कहा है। महिलाएं कह रही है के ये उनका प्यार है और कोई उनको दबाव नहीं दल रहा। वैसे यश चोपड़ा के सिनेमा ने करवा चौथ का इतना महिमा मंडान किया और उसकी रंगीनियों को ऐसे दिखाया मनो हर एक महिला जो करवाचौथ रख रही है, स्विट्ज़रलैंड जाने वाली हो। खैर, रंजना कुमारी जी ने कहा है के करवा एक लें दें भी है और अगर दबाव नहीं है तो उन्हें इसमें कोई ऐतेराज नहीं है। बात ये के आज के युग में भी ऐसे सड़ी गली परमपरो के तहत अगर हम जी रहे हैं तो उस देश का क्या कहने 

वैसे ब्राह्मणवादी परम्पराव में महिलाओ को बहुत से व्रत करने के लिए दिए गए हैं जैसे करवाचौथ में पति की लम्बी उम्र के लिए और फिर कुच्छ दिनों बाद भाई दूज आएगा और सभी बहिने अपने भाइयों की आरती उतरेंगी। रक्षा  तो जा चूका है जब बहिनों ने अपने बहियों को राखी बंधी और अपने   जीवन को धन्य बनाया। फिर माएं अपने बेटो की खातिर व्रत रखती हैं। हमारे समाज में भी अलग अलग डिपार्टमेंट हैं भगवानो के। जैसे संतोषी माँ भाई या बेटा  देती हैं, शिवजी, अच्छा  पति देते हैं,..काम देव के महिमा न्यारी वोह प्यार और रोमांस की ताकत देते है। 

वैसे औरतो की मज़बूरी तो वर्णाश्रमधर्मियों पहले की बना दी थी जब उन्होंने कहा के उसे आज़ाद रहने का अधिकार नहीं है और बचपन में वो अपने पिता के अधीन रहेंगी और फिर अपने पति के और अगर पति नहीं रहे तो बेटे के अधीन रहना चाहिए और शायद इन्ही रिश्तो के टूटने के भय से इतने दवाब में रहकर ये व्रत रखे जाते हैं के अगर नहीं रखे तो बहुत संकट होगा . घर पर एक पुरुष जरुरी है और बेटे के चाहत पति का प्यार, और पिता का आशीर्वाद तो बम्बई की फिल्मे भी बहुत बाँट रहते है लेकिन वोह सब ब्रह्मनिया संस्कृति का हिस्सा है जिसे बहुत हे स्टाइल में बाज़ार द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे यह बहुत बड़े प्रेम और बराबरी का त्यौहार है। ठीक होता यदि करुआ में महिला और पुरुष के बराबरी होती। यह सभी त्यौहार पुरुषो के प्रधानता का प्रतीक है और इनको प्रेम का त्यौहार बताने का धंधा करनेवाले लोग पूंजी और धर्म का बहुत बेहतरीन घालमेल करते हैं इसलिए कमाई की कमाई और परम्परऔ को पुनर्स्थापित करने का संकल्प। इससे अच्छे बात क्या हो सकती है के महिलाएं ही खुद कहें के यह तो बहुत महँ त्यौहार है और यह वे अपने मर्जी से करते हैं।

खैर जो व्रत रख रही है उनसे तो हम नहीं कह सकते के उनके व्रत से उनके पति की कितनी उम्र बढ़ेगी और फिर पति की उम्र की  बढे, पत्नियों के क्यों नाही। लेकिन भारतीय समाज की क्रूरता और विधवाओ के हालत को जिसने देखा है वोह बता सकता है के अधिकांश स्त्रियाँ उस सोच से ही घबराती हैं और पाती से पहले मरने की कामना करती हैं। यह एक असिई हकीकत है के जब पत्नी पहले ही चली जाए तो ब्रह्मनिया संस्कृति में सुहाग्वंती होकर मरने को बहुत बड़ा बताया गया है। अतः हम समझ सकते हैं काहे महिलाएं इतने व्रत रखती है।

अब समस्या व्रतियों की नहीं है। उन्होंने तो सिद्ध कर दिया के वे अपने पतियों को बहुत चाहती है चाहे बाकि दिन वे पतियों को पीते या पति उनको पीते इसके कोई मतलब नहीं लेकिन जिन महिलाओं ने व्रत नहीं रखा वोह तो समाज के ताने सुन रही होंगी . उन्हें इन व्रतियों ने अलग थलग खलनायिका   बना दिया है। 

वैसे अधिक्नाश पति कहते हैं जिनमे क्रन्तिकारी भी शामिल हैं के उनकी पत्नियों के आगे उनकी नहीं चलती और वे अपनी पत्नियों के सी प्यार के आगे असहाय हैं यह जाहिर करता है के क्रांति के यह दूत दुसरो के घर पर भगत सिंह देखना चाहते हैं और अपने घर के मनुवाद को जिन्दा देखते रहना चाहते हैं। वैसे भारतीय समाज का पाखंड यही है के हम सब कहते हैं लेकिन व्यक्तिगत जीवन में फ़ैल हैं और भारत में साड़ी क्रांतियों के असफलता का कारण भी वर्णाश्रम की कुतिय्ल्ताओ में फंसी हमारी जिंदगी है और जब तक उसे उखाड़ नहीं फेंकेंगे तब तक बदलाव नहीं आएगा। 

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Friday 12 October 2012

An answered question of 'uncommon' people



अनाम जनता के प्रश्न 

विद्या भूषण रावत 


राबर्ट वद्र के डी एल एफ के रिश्तो को उजागर करने पर कई महारथी अरविन्द केजरीवाल का शुक्रिया अदा कर रहे हैं और कह रहे हैं के अब राजीनति में कोई भी पवित्र गाय  नहीं रही क्योंकि जब गाँधी परिवार पर हमले शुरू हो गए हैं तो किसी को भी क्यों छोड़ा जाये। लेकिन हकीकत यह है के वद्र एक बहुत छूती आइटम हैं इस पूरे दर्शन में। क्या वाकई में हमने पवित्र गायों पर हमला किया है या हम चालबाज़ हैं और बुइल्दारो के इस खेल को नैताकता का लबादा ओढा के भ्रस्थाचार के विरुद्ध जंग का नाम दे रहे हैं। 

राजीनति में भ्रस्थ्चार कब से बढा इसके लिए नरसिम्हा राव के बाद के परिस्थितियों को समझना पड़ेगा जब देश में निवेश के लिए सरकारों ने जमीनों और प्राकृतिक संशाधनो पे हमला करना शुरू किया। नेताओ, अधिकारीयों और लालाओ की लूटखोर और घूश्खोर जमातो का गठबंधन हो गया और मिलजुल के खाने का एक नया दौर चला। जहाँ उद्योगपतियों को राजनीती भने लगी वही नेताओ ने उद्योग लगाने शुरू किया। दोनों तब तक अच्छे थे जब तक एक दुसरे के क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं कर रहे थे। लेकिन जब नेताओ ने उद्योगपतियों पर ही डाका डालना शुरू किया तो उन्होंने भी कमर कास ली और 'विकल्प' देना शुरू कर दिया। असल में अन्ना-केजरीवाल उसी विकल्प का हिस्सा हैं। हलानिक इन सबके पीछे संघ के योध्द्य दिन रत लगे रहे। लेकिन महत्वाकांक्षाओ का टकराव होना लाजमी है। जैसे अन्ना और अरविन्द का टकराव पैसे का तो रहा होगा लेकिन मह्त्वकअंक्षा का भी था। अरविन्द और उनकी टीम अन्ना को मुखौटा बना कर खुद निर्णय लेना चाहती थे और अन्ना पहले मुखौटा बने रहे लेकिन बाद में उन्हें लगने लगा के सब उनके कारण ही चल रहे हैं तो उन्हें यह दिखने की जरुरत पडी की अन्दोनल उनकी उपज था और वोह राजनीती से घृणा करते हैं। अन्ना को पता है राजनीती में महारास्त्र के अन्दर ही उनकी दुर्गति हो जाएगी। लेकिन केजरीवाल के इरादे दुसरे थे। वह जानते हैं के दिल्ली के मध्यवर्ग में गाँधी परिवार के प्रति बहुत घृणा है और यह अब जातिगत स्वरुप में भी दिखाई देती हैं। मूलतः यह माध्यावार्ग, आरक्षण विरोधी, सांप्रदायिक और जातिवादी है लेकिन मीडिया के लगातार समर्थन से इसको स्वीकार्यता मिल गयी है। दिल्ली में चुनाव में अरविन्द वोट कटुआ तो बन सकते हैं और वोह किसका काटेंगे ये जानने के जरुरत नहीं है। खैर, मीडिया मैनज करने के बाद केजरीवाल को लग रहा है के वह कुच्छ भी कहें तो  मीडिया  उसका संग्यान लेगा सरकार के लिए मुसीबते पैदा करता रहेगा और वोह इस प्रकार से समाचारों में बने रहेंगे।

मीडिया के माफिया लिंकों का सबको पता होना चाहिए। उनके व्यावसायिक हितो के बारे में भी जानकारी होनी चाहिए तभी हम ऐसे शातिर खेलो को समझ सकते हैं। 1990 में दूरदर्शन पर जब वर्ल्ड दिस  वीक का कार्यक्रम आया तो भास्कर घोष सुचना प्रसारण मंत्रालय के सचिव थे। आरोप लगे थे की एनडीटीवी पर उनकी विशेष कृपा थी क्योंकि राजदीप उसके एक प्रमुख स्तम्भ बने थे। जब स्टार न्यूज़ और एनडीटीवी का मिलन हुआ तो भास्कर घोष के प्रभाव चला। आज सी  एन एन आई बी एन पर अम्बानी का 500 करोड़ से ऊपर का निवेश है। इंडिया टुडे में भी रि ला येंस की बड़ी भागीदारी है। आज बिल्डर और प्रोपर्टी डीलर देश में अख़बार और चैनल चला रहे हैं और अभी तो खबर चल रही है के कैसे बड़े संपादक और पत्रकार सबसे बड़े ब्लाच्क्मैलेर बन रहे हैं। सरकार को यह सब पता है। और राजनीती में सबको ऐसी बाते पता होती हैं।

अगर जांच हो तो पता करे के धीरुभाई अम्बानी भारत में उद्योगों के शंहाँशाह कैसे बने। उन्होंने तो खुद कई बार कहा के बगैर घुश देकर यह संभव् नहीं था। रामदेव के पास इतनी बड़ी सम्पति कैसे आये। और रामदेव तो बेचार शुद्र है इसलिए बहुत आसान टार्गेट हैं जैसे रोबेर्ट वद्र। हिआरे में पुछा म्मत है तो किसी शंकराचार्य पर केस करके दिखाएँ। हिम्मत है तो आर्ट ऑफ़ लिविंग की जांच कराएँ और बताये के यह सब महान आत्माएं कैसे अरबो रुपैया के मालिक बन गए। अरविन्द केजरीवाल करोल्बह के बनियों के बताएं के वे हेर खरीद पर बिल दे तो देश का काला धन ख़त्म हो जाएगा . भारत का महान' व्यापारी बिल मांगने वाले को गाली देता और उसको बताता है बिल मांगोगे तो ज्यादा देना पड़ेगा। कितने लाले अपनी इन्कोमे टैक्स सही भरते और सही दिखाते हैं। 

कभी केजरीवाल और उनके इंडिया अगेंस्ट कोर्रुप्तिओन को मुकेश अम्बानी का 5000 करोड़ रुपैये के आलिशान शहंशाही बंगले के आगे प्रदर्शन करने की जरुरत है या नहीं। यह 5000 करोर क्या मुकेश के पिताजी के हैं,. क्या मुकेश ने इन्वेस्टर्स से इसके  बारे में पुछा। क्या कभी अमिताभ बच्चन के व्यावसायिक रिश्तो को देखा। उनपर कुच्छ लिखा आज अमिताभ महात्मा है जो प्रवचन देते हैं और मीडिया के भाड उनको नतमस्तक सुनते हैं। क्या सचिन तेंदुलकर को कभी पुछा तेरे इतने पैसे का क्या हुआ। लेकिन वोह सब 'मेहनत ' की कमाई है।

भारत के मंदिरों और माथो में सबसे बड़ा भ्रस्ताच्चार है और हम सरअकार से मांग करते हैं इनका नियंत्रण करे और इनकी कमाई पे टैक्स लगाये क्या अरविन्द और उनके नतमस्तक  अनुयायी कभी इन मुद्दों को उठाएंगे अभी एकता परिषद् का इतना बड़ा मार्च था लेकिन हमारे देशी जातिवादी मीडिया की नज़र उस पर नहीं पडी क्योंकि वोह गरीबो का प्रश्न था। वोह लोग 'आम नहीं थे'. भैया अरविन्द मैं भी आम आदमी नहीं हूँ। तुम्हारे जैसे पैसा हमारे पास नहीं है। हम तो सुबह के इन्तेजाम के लिए शाम को सोचते हैं। जिन लोगो के साथ हम लड़ रहे हैं वोह तो आम की गुठली भी नहीं है क्योंकि वोह भी खाने को नहीं मिलती। यह आम आदमी का धंदा बंद करो यार। यह उद्योगों के बादशाह जो आज नैतित्कत के घूँट अपने पालतू लोगो से हमको पिला रहे है उनको बंद करो भाई। बहुत हो गया अब कम पर लौटने की जरुरत है। आम लोगो के लिए तो पूरा देश खड़ा है।। सअर्कार भी उनके साथ है लेकिन जो आम भी नहीं हैं उकी बात कौन कर रहा . वे इश देश की जाती वर्ना रंग, साम्प्रदायिकता सभी का तो शिकार हैं। उनकी जमीनों पर मंदिर, मैथ, गुरूद्वारे, मस्जिद सब बनते हैं और उनकी ही कब्र पर हमारे उद्योग फल फूल रहे हैं। भारत के सभी आम लोगो की जिन्दगी इन्ही लोगो की बदौलत चलती है। आम, लोगो की शान में हमारे अनाम लोग दिन रात लगे होते हैं उनको तुम्हारे   और प्रोपर्टी से कोई सरोकार नहीं वे केवल ये चाहते हैं उनके प्रश्नों को दरकिनार कर देश में हल्ला मचने के राजनीती जो ऐसे लोग कर रहे हैं, जिनके लिये यह अनाम केवल एक तमाशा हैं। आज जरुरत ऐसे अनामं लोगो के प्रश्नों को आगे लाने की है और उसके लिए जो जिम्मेवार हैं उन पर हमला करने की है। माफ़ कीजियेगा मैं केवल राजनीतिज्ञों को गाली देने वालो में और उनको भ्रस्ताचार कहने वालो में नहीं हूँ।मैं जानता हूँ के सफ़ेद कपड़ो के यह बादशाह जो हमारे ऊपर सफलता के रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं उनके हाथ हमारे संशाधनो और उन अनाम लोगो के खून में रंगे हैं और हमारे लड़ाई को ऐसे बैमानो से किनारे कर तथाकथित नेताओ की और सरका देना एक चालाकी और धूर्तता का  कदम है।अपने राजनेताओ से हम निपटते हैं लेकिन इन बादशाहों से भी बी निपटना जरुरी  हैं जिन्हें हम चुनाव के जरिये नहीं हटा पाते।

राजनीती की दुधारू गाया केवल नेताओ के काम नहीं आती वोह इन पाखंडियों के ज्यादा काम आती है जिन्हें हम अंगरेजी हिंदी अखबारों के पेज थ्री में देखते हैं।आज जिन्हें हम रोल मॉडल बनाकर और जिनके जीवन चरित्रों और सफलताओ का व्याख्यान करके बच्चो को सुबह शाम दिखा रहे हैं दरअसल वोही हमारी पवित्र गे हैं और मीडिया की बदमाशियों के चलते और उनकी धुर्त्तात के चलते मुद्दों को बदलने में माहिर लोगो ने लोगो को लूटने वालो को सबसे इमानदार बना दिया। जरुर जनता अपने राजनितिक प्रतिनिधियों से परेशां है क्योंकि इन भ्रस्थ जातिवादी उद्योगों के स्वामियों ने उन्हें ख़रीदा है। आज ऐसे घरानों की ताकत बहुत मज़बूत है और इसलिए जरुरी है के उन पर लगाम लगे और उनकी करनियों और उनके सौदों पर सरकार की नज़र हो। और जो अपने को सामाजिक संघठन और सिविल सोसाइटी कहते हैं उनको भी इन धन्देबजो के धंदे को समझने की जरुरत है। आज भारत को अनाम लोगो के प्रश्नों को देखने की जरुरत है जो इस विकास ने नए मॉडल का शिकार हुए हैं और जिनकी जल जंगल और जमीन पर इन आम लोगो के परम पूज्य लोगो का कब्ज़ा हो चूका है। देश की अनाम जनता इतने वर्षो से संघर्ष कर रही है और यह आम लोग उनके साथ कोई सहानुभूति भी नहीं रखते ऐसे आम लोगो के खास मुद्दे से अनाम लोगो को कोई मतलब नहीं है। और हम सब देख रहे हैं शातिर लोगो के कारनामे जो अनाम लोगो को ख़त्म करने के लिए खास लोगो के साथ मिलकर नए मुद्दों का जाल बुन रहे हैं ताकि देश उन मूलबूत प्रश्नों से अपना ध्यान हटा दे जिसके कारण अनाम लोगो का जीना दूभर हो गया है और जिसके कारण वो इतने वर्षो से अपने जंगलो में, खेतो खलिहानों और पानी के अन्दर संघर्ष कर रहे हैं। अनाम लोगो की एक संघर्षगाथा को जारी रखना है ताकि आम जनता के नाम पर खास लोगो के अजेंडे का मुकाबला किया जा सके 

Monday 10 September 2012

Violence in Kudankulam


कुदंकुलन पर तमिलनाडु सरकार का शर्मनाक रवैया

विद्या भूषण रावत


आज कुदंकुलन परमाणु संयत्र का विरोध कर रहे लोगो पर तमिलनाडु सरकार ने अपनी गुंडई दिखा दी. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का दावा करने वाली सरकार ने दिखाया के लोगो के भय और आक्रोश के उसे कोई परवाह नहीं है. कुदंकुलन सयंत्र के विरोध में भरी संक्या में ग्रामीण मच्चुअरो के प्रतिरोध के चलते पहले सरकार ने झूठे वायदे किये. क्या आप जान सकते है के ७००० लोगो पर रस्त्रद्रोह का मुक़दमा लगाया गया है और लगभग ४०,००० पर अन्य मुक़दमे लगाये गए हैं. शर्मनाक बात यह है के एक सयंत्र के लगने पर भी सरकार ने कोई भी प्रयास नहीं किया के लोगो की बात सुनी जाए.

हमें पता है के भारत को बिजली की जरुरत है. सबको पता है. लेकिन हमें यह भी देखना है के देश के निर्माण के नाम पर जो लोगो का बलिदान किया जाता है उस पर सवाल करने की जरुरत है. चाहे कुडनकुलम हो या ओम्कारेश्वर, देश के विकास के नाम पर लोगो की बलि दी गयी है. आज़ादी के बाद से भारत में ६-८ करोड़ लोग विस्थापित हुए है. इसका ४०-५०% यानि लगभग ३-४ करोड़ लोग आदिवासी समाज के लोग है जिन्हें दुबारा नहीं बसाया जा सका. शेष लोग दलित और पिच्च्दी जातियों से हैं. 

ओंकारेश्वर में सरकार ने किसी को भी एक इंच जमीन नहीं दी. सरकार ने कोर्ट में साफ़ कहा के उसके पास जमीन नहीं है. यह मध्य प्रदेश सरकार उद्योगों के लिए २० हज़ार हेक्टारे जमीन १५ सितम्बर तक देने को तैयार है. कोयले घोटाले में उद्योगपतियों की बदमाशियों के राज तो अभी पूरे तरीके से खुले नहीं है. सवाल यह है के जब सरकार ने संविधान में किये गए अपने वायदों को पूरा नहीं किया तो उसको लोगो को बेदखल करने का क्या कोई अधिकार है.

५० वर्ष के बाद भी देश में लोग भूख से मरते है. जब उसे कोई बताये के भारत ने श्रीहरिकोटा से कोई यान छोड़ा है तो भूखे मजदूर को उससे क्या लेना. क्या उस भूख में रहते हुए उसे देश के प्रगति पर कोई गर्व हो सकता है. यह कैसी प्रगति जहाँ लोग भूख से मर रहे हैं. 

कुदंकुलन के लोगो की अपनी चिंताएं है. २००४ में मैंने वहां का दौरा किया था और मेरे मित्र उदयकुमार ने मुझे पूरे क्षेत्र दिखाए जो भारत के विकास ने नाम पर समाप्त होने जा रहा था. अपने जीवन में कुच्छ इलाको में जाकर मुझे हमेशा अपनापन और खूबसूरती दिखाई दी और उसमे तमिलनाडु राज्य और कन्याकुमारी का क्षत्र है. समुद्र का इतना खूबसूरत नज़ारा बहुत कम दिक्खाई देता है लेकिन आज उस क्षेत्र की ख़ूबसूरती को विकास ने डंक मार दिया है. वोह खूबसूरती नहीं दिखाई देती जो थी. उस वक़्त जब मैं और उदय समुद्र में बालू माफिया के पास गुजरे और मैं कुच्छ तस्वीरे खींच रहा था तो हमें धमकी दी गयी के चुप चाप चले जाओ. मैं मछुआ समाज के नेताओ से मिला जो इस प्लांट का विरोध कर रहे थे. उनके विरोध बिजले से नहीं अपितु अपनी जिन्दगी से है. मैं मान सकता हूँ लोग परमाणु सयंत्रो का विरोध कर रहे हैं वो उसके विश्श्ग्य हैं मैं नहीं लेकिन चेर्नोब्य्ल, भोपाल, फुकिशामा और अन्य स्थानों पर हुई दुर्घटनाओ को अच्छे से जानता हूँ और मुझे विश्वास है के कुदंकुलन के लोग, बच्चे सब इसी बात से चिंतित है. यह चिंता श्रीलंका की भी है क्योंकि किसी भी दुर्घटना की स्थिथि में उनके यहाँ भी गंभीर संकट पैदा हो सकता है.

बहस बिजली या विकास की नहीं है. भारत का नागरिक होने के नाते अगर सरकार किसी की गरीबी नहीं दूर कर सकती है तो न करे लेकिन लोगो की बनी बनाई जिंदगी को खत्म करने का अधिकार उसे नहीं है. अंतरास्ट्रीय कानूनों के अनुसार सरकार को कोई भी  परियोजना शुरू करने से पहले लोगो को उसकी पूरी जानकारी देनी पड़ते है और फिर यदि लोग चाहे तभी कोई योजना लागू की जा सकती है. क्या भारत सरकार या राज्य सरकारों ने कभी भी ऐसा किया के लोगो को किसी योजना की जानकारी दी हो अन्यथा कोई क्या अपने के बर्बाद करने के लिए किसी परियोजना का समर्थन करता है क्या. भारत की स्थिथि जापान और जर्मनी जैसी नहीं है जो गंभीरता से विकल्पों की तलाश कर रहे हैं. 

बिना किसी विकल्प दिए लोगो को उनकी जमीन से बेदखल करना क्या रास्त्र द्रोह नहीं है. ७००० लोगो पर रस्त्रद्रोह  का आरोप लगाना क्या मज़ाक नहीं है. बाबरी मस्जिद के विध्वंश और दिल्ली में १९८४ के सिख विरोधी दंगो के बाद या गुजरात में २००२ के खून खराबे पर तो एक भी व्यक्ति पर देशद्रोह का आरोप नहीं लगाया गया. और तो और, अभी तक सामान्य कानून के तेहत भी कोई सजा  नहीं हो पायी है लेकिन अपनी जमीन के लिए अहिंसात्मक आन्दोलन करना देशद्रोह कैसे हो सकता है ? क्या सरकार को हमारी आज़ादी और हमारे जीवन को लेने का अधिकार है ? आज समय आ गया है जब हमें ऐसे कानूनों का विरोध करना चाहिए जो देश के लोकतंत्र को कमज़ोर करते हैं और लोकतंत्र के नाम पर राज कर रही ताकतों को फासीवादी अधिनायकवाद की तरफ ले जाते हैं.

कुदंकुलन के संघरशील साथियो को हमारा सलाम और हम उम्मीद करते हैं के सरकार उनकी बातो को सुनेगी और उन्हें अपराधी नहीं बनाएगी. ऐसे अधिकारीयों के खिलाफ कार्यवाही की जाए जिन्होंने निहत्थे लोगो पर गोलियां चलायी और लाठिया बरसाई. 



Friday 7 September 2012



विकास का मनुवाद
विद्या भूषण रावत 

इस देश में बड़ी बहस है और कभी कभी हमारे दलित साथी भी वो भाषा बोलते हैं जो नरेन्द्र मोदी की है, चिदंबरम की है और मनमोहन की है. हम सुब्को विकास चाहिए लेकिन उसके मायने क्या हैं. विकास किसका और कैसा. अक्सर हमारे साथी आदिवासियों का मजाक उड़ाते हैं के उन्होंने क्या किया, वोह तो जंगले में रहते हैं और उन्हें अपने अधिकारों का पता नहीं है. इससे अधिक दुखद और बेबुनियाद बात कोई नहीं है क्योंकि अपने क्षेत्र की रक्षा के लिए आदिवासी संघर्ष जारी है. हाँ वोह भोले हैं और मनुवादी तिकड़मे नहीं जानते इसलिए हम उन्हें हलके में लेते हैं  

आज आदिवासी अगर अपने जल जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं तो हम उन्हें भाषण पिलाये जा रहे हैं के तुम विकास करो. सवाल ये है के जब आपके सर पर बन्दूक हो और जब आपको अपने ही घर में उजड़ा जा रहा हो तो क्या करें ? मैं तो हमारे साथियों से कहता हूँ के वो बताएं के बस्तर के आदिवासियों को क्या करना चाहिए और उन्हें बिज़नस कैसे सिखाया जाए. बिज़नस और अन्य चीजे व्यक्तिगत प्रयास होते हैं. हर एक व्यक्ति चाहे किसी भी जाती का क्यों न हो बिज़नस नहीं कर सकता. हम सबको इतनी आसानी से 'ज्ञान' बाँट देते हैं जैसे उन्होंने इन बातो पर विचार नहीं किया.

आज अगर आदिवासी और अन्य सभी को संघर्ष करना पद रहा है तो हमें हमारे देश की नीतियों को सवाल करना होगा. विस्थापन का सबसे बड़ा शिकार आदिवासी हुए हैं और एक व्यक्ति जब अपनी ही जमीन पर अजनबी बनकर रहे और उसकी पूरी संस्कृति और जीवन ध्वस्त हो जाए तो उसके बाद देश का विकास हो या विनाश उसे क्या फुर्सत. यह प्रश्न इतना पाखंडपूर्ण है के देश का विकास चाहिए लेकिन सवाल यह है के विकास किसकी कीमत पर. विकास के लिए किसका बलिदान. अगर इस विकास के दर्द को समझना हो तो टिहरी चले आइये या कुदंकुलन चले, या नर्मदा को देखें. गंगा और उसकी विभीषिका को समझे. ब्रह्मपुत्र की तबाही को देखें. यह प्रश्न केवल जातिगत नहीं अपितु हमारे विकास के माडलों की हवा गोल कर देंगे. कौन सा विकास और कैसा विकास. क्या अपना पर्यावरण और अपने पानी को बर्बाद होने दे. सब जानते हैं आना वाला संघर्ष पानी का है. और देखिएगा कितना भयावह होगा. आज उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल में चलिए तो एक भी स्थान पर साफ़ पानी नहीं है. ज्यादातर बड़े लोगो के घर पर प्यूरीफायर लगा है लेकिन गाँव के गरीब के लिए तो हैण्ड पम्प का पानी भी नसीब नहीं होता. साड़ी नदियाँ ख़तम हैं, खनन जोरो पर है, मल्लाहों की आजीविका पे संकट है और उनके भूखे मरने की नौबत है. अब मेरे पास जब भी ये सवाल आते हैं मुझे उनके संघर्ष में जाना पड़ेगा. मैं उन्हें भाषण नहीं दूंगा के तुम ये करो या वोह करो. सब लोग समझदार हैं और अपनी सीमायें और हकीकत को समझते हैं. पहले आज तो ठीक हो जाए तभी तो भaविष्य ठीक होगा. फिर हर एक तो दूकान नहीं चला सकता और जो दो चार लोग कुच्छ दुकाने खोलते हैं वोह खली बैठे रहते हैं. क्या करियेगा. जब मैंने कसगर समाज से पुछा के तुम और काम क्यों नहीं करते तो सीधे जवाब था कितने लोगो को नौकरी दिलवा दोगे. यह समझना जरुरी है के परिवर्तन सब चाहते है और वोह होगा भी लेकिन यह एक सततशील प्रक्रिया है और धीरे धीरे होता है.

 हमें बताया जाता है के कानून का पालन करो, न्याय प्रक्रिया में जाओ और संविधान के लड़ाए लड़ो. हमें पता है न्यायिक संघर्ष कैसे होता है और कितना लम्बा है. अगर इतना आसान होता तो लोग बन्दूक नहीं उठाते . मैं तो एक संगर्ष में हर न्यायलय में जीता हूँ, लेकिन अपने सामने न्याय होते नहीं देख पाया. न्यायलय को ही विनती करता हूँ के आप अपना निर्णय लागू करो. क्या चीजे इतनी आसान हैं जो हमें दिखती हैं/  एक जज महिला को तलक नहीं देता और कहता है पति से पिटती रहो क्योंकि वोह तुम्हे कम के देता है. कोई और है तो वोह उस कुर्सी को गंगा जल से धो देता है जिसके ऊपर कोई दलित बैठा करता था. यह घटनाएं आज भी बदस्तूर जारी हैं.. चेहरे बदल गए हैं लेकिन चरित्र वही है, घनघोर मनुवादी. 

हमें विकास करना हैं, दिमागी गुलामी से निकलना है लेकिन जब लोग संघर्ष में होते हैं तो केवल साथ दिया जाता है भाषण नहीं. नर्मदा के लोगो ने संघर्स को चुना है. उनकी संस्कृति को समाप्त करने का प्रयास है, उनके जीवन को पूर्णतया समाप्त करने का प्रयास है. २० वर्ष से जमीन पर काम करते मुझे पता है के इस देश ने अपने गरीब जनता को कितना चूसा है. इसका तंत्र कितना खतरनाक और पाखंडी है जो लोगो को भाषण देता है न्याय नहीं. आज भारत का संकट मात्र मनुवाद का नहीं है. मनुवादी अब हर जगह है इसलिए वो आपके पास, आपके रूप और रंग के साथ और आपकी जातिवाला भी हो सकता है इसलिए अब नज़रो को और मज़बूत करने की जरुरत है. दलित आदिवासी और पिच्चादी जातियों के प्रश्न केवल आरक्षण तक ही नहीं है अपितु उनके प्राकृतिक संशाधनो, जल जंगल और जमीन का भी है. यदि हम इन सवालो पर अपने संघरशील साथियों और समाजो के साथ नहीं खड़े दीखते तो कोई एकता नहीं बन पायेगी.

पुनः, एक रास्ट्र और समाज वहां के निवासियों से बनता है. कोई भी समाज या कोई भी रास्ट्र कभी खुश नहीं रह सकता जब उसके लोग दुखी हों. देश की तरक्की में सबकी भागेदारी होनी चाहिए और लोगो को पता होना चाहिए के मेरे 'विकास' के वास्ते दिल्ली में रहने वाले 'बाबु' के पास क्या है . क्या किसी गाँव से पुछा गया के तुम्हे कैसे विकास चाहिए. क्या देश की तरकी के लिए दलित आदिवासियों के घरो को उजाड़कर महल बनाना आवश्यक है. यदि देश के बहुजन समाज की चिता पर रखकर देश का विकास करना है तो शायद प्रकृति की रौशनी में ही काम चलाना अचछा. विकास की मूलभूत अव्धारनाओ को समझना होगा और अगर हमारे घर, खेती और खलिहानों को चौपट कर जो सपने हमें देखाए जा रहे हैं उसको समझने की जरुरत है. 

एक सभ्य समाज अपने लोगो से बड़ा नहीं होता. एक सभ्य रास्ट्र अपने लोगो की कब्र पर विकास नहीं करता. भारत को एक सभ्य रास्ट्र और एक सभ्य समाज बन्ने के लिए जरुरी है विकास का एक ऐसी अवधारणा जहाँ सबका दिमागी विकास हो जो मनुवादियों के हाथ न मज़बूत करे और बराबरी का समाज बनाये. विकास के नाम पर यदि गरीब की कमर पूरी तरीके से तोडनी है तो फिर उसको मुख्यधारा में कैसे लाया जायेगा और फिर वोह कौन सा उद्योगपति बन पायेगा क्योंकि एक अच्छे बिज़नस और विज्ञानं के लिए भी तो हमें अच्छा माहौल और जीवन के स्थिरता चाहिए और जब हमारे घर और खलिहान उजाड़ रहे हों तो हम इसकी उम्मीद कैसे कर सकते हैं. फिर सदियों तो अपनी जिंदगी को पटरी में लाने में लग जाते हैं. जिन लोगो की जिंदगी पटरी पर है वे थोडा संवेदनशील बने और संघर्ष का सम्मान करें.

Wednesday 29 August 2012


फैसलों पे गर्व की घडी
विद्या भूषण रावत

उच्चतम न्यायलय ने अजमल कसब की याचिका को खारिज कर उसकी सजा को बरकरार रखा है क्योंकि कसब पर भारत के विढ़द्ध युध्ध छेड़ने का आरोप है और मुंबई के २६ नवम्बर के भयावह काण्ड का वह सरगना था. लेकिन आज ही गुजरात की विशेष अदालत का जो फैसला आया है वोह हिंदुत्व के माठाधीशो को भी मौत के दरवाजे तक पहुंचा सकता है. गुजरात के विशेष अदालत ने बाबु बजरंगी और माया कोदनानी को नरोदा पाटिया हत्याकांड का दोषी पाया है जिसमे १०० से अधिक मुसलमानों का कत्लेआम किया गया. यह घटना मानवता के नाम पर एक कलंक था. आश्चर्य की बात यह की माया मोदी के सबसे नज़दीक लोगो में शामिल थी और उन्हें बच्चो और महिला विकास का मंत्रालय सौंपा गया. ऐसी महिला जिस पर महिलाओ और बच्चो के खून का इलज़ाम हो हिंदुत्व के 'नैतिक' धरातल पर ही फिट बैठती हैं. आज भाजपा जैसी पार्टियाँ जो नैतीकता का लबादा ओढ़े रहती है और संसद तक नहीं चलने देती उसके इतने नेता देश में दंगा फ़ैलाने के और क़त्ल के आरूपों में घिरे हैं लेकिन वहां उनकी नैतिकता धरी की धरी रह जाती है. हिंदुत्व के मठाधीश और उनके चमचे लगातार झूठ बोलकर और मीडिया के जरिये अपने कार्य कर रहे हैं. वैसे भी उनकी राजनीती का मुख्या बिंदु परदे के पीच्चे के काम हैं.

अभी देशद्रोह और देश के विरुध्ध युद्ध छेड़ने की बात हो रही थी. कसब ने देश के विरुद्ध जंग छड़ी और अंत में सुप्रेमे कोर्ट ने उसे माफ़ नहीं किया. नरेन्द्र मोदी और उनके भक्तो ने गुजरात में नो नरसंहार किया वोह माफ़ नहीं किया जा सकता और एक कौम के खिलाफ जहर उगलने से लेकर उसका पूरा खत्म करने के प्रयास किये. देश की एक बड़ी आबादी के खिलाफ दुष्प्रचार क्या देश के विरुद्ध जंग नहीं है? आज हिंदुत्व के सौदागरों से पूछना पड़ेगा के गुजरात और अन्य जगहों पे आग लगाकर क्या वे देशद्रोह का कार्य नहीं कर रहे हैं. 

उम्मीद है के माया कोदानी जैसी महिलाएं हमारे समाज का रोल मॉडल नहीं बनेंगी और उनको भारत की न्याय प्रणाली उसी जगह पर भेजेगी जहाँ कसब बैठा है ताकि दोनों प्रायाषित कर सकें के आज के दौर में भारत की मजबूती का रास्ता पाकिस्तान की मजबूती से भी है और देश में विविध लोगो के साथ रहने में भी है. उम्मीद करते हैं के यह मामले न्याय प्रक्रिया के झमेलों में नहीं फंसेंगे और जल्दी से अपने अंजाम तक पहुँच जायेंगे.  भारत की एकता यहाँ रहने वालो के सामाजिक न्याय और आपसी सौहार्द से बनेगी और वोही २१वी सड़ी के भारत को मज़बूत करेगी. हमारे आपस के रिस्तो को मज़बूत करने का एक ही उपाय है न्याय और कानून का सख्ती से पालन. सांप्रदायिक और जातिवादी शक्तियों को न केवल राजनैतिक तरीके से उखड फेंका हर भारतीय का कर्तव्य है अपितु कानूनी तौर पैर भी उनके अजेंडे का खात्मा करना होगा ताकि एक मज़बूत सभ्य और धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील भारत सभी को साथ लेकर आगे बढ़ सके नहीं तो हमारे समाज की मनुवादी तकते अपने राजनितिक स्वार्थ के लिए सांप्रदायिक जहर फ़ैलाने में कामयाब हो जाएँगी और इसका सबसे बड़ा नुक्सान हमारे अपने समाज को ही होगा. माया कोदनानी जैसी महिलाएं हमारे समाज के लिए कलंक हैं और शर्म हैं और उनके साथ कोई हमदर्दी नहीं होनी चाहिए उन्हें कानून के उन्ही मापदंडो से गुजरना चाहिए जो कसाब या किसी और के लिए हैं. 

Sunday 19 August 2012

 सबसे महान भारतीय कौन

विद्या भूषण रावत

आज एक चैनल ने अपने खेल का पटाक्षेप कर ही दिया. गाँधी के बाद सबसे बड़ा भारतीय कौन के जवाब में बाब साहेब आंबेडकर को सम्मानित करना उनकी मजबूरी थी. और अगर किसी ने कार्यक्रम देखा हो तो पता कर सकते हैं कैसे सारे लोग शोक संतप्त दिख रहे थे. मुस्कुराने की कोशिश कर रहे थे के भारत की जनता ने बाबा साहेब आंबेडकर को देश का महानतम व्यक्ति करार दिया है, गाँधी के बाद लेकिन इससे बड़ा फरेब हो नहीं सकता. हिंदुस्तान के मनुवादी कभी आंबेडकर को स्वीकार नहीं करेंगे लेकिन जैसे के बाज़ार का नियम है यहाँ जिसके वोट ज्यादा हैं उसको रोक नहीं सकते. इसलिए बाब साहेब को ज्यादा वोट मिलने का मतलब साफ़ है है के ब्रह्मंवादियों को उनके ही खेल में हराने के लिए वोही तौर तरीके अपनाने पड़ेंगे. वैसे मेरा यह मानना है के राजदीप सरदेसाई या अमिताभ बच्चन के मानाने या न मानने से डॉ आंबेडकर का महत्व कम नहीं होता है. हम जैसे लोगो के लिए उनकी महत्ता हमेशा रहेगी क्योंकि उन्होंने लोगो के जीवन में इतना बड़ा परिवर्तन किया है.

बहुत दुःख हुआ सहारा कार्यक्रम देख कर. किस तरह से हर एक व्यक्क्ति के बारे में बताने के लिए सबके पास बहुत कुच्छ था.. सचिन, लता, टाटा, अमिताभ, अटलजी, इंदिरागांधी, अब्दुल कलम  और नेहरु. सभी की विस्तार से चर्चा हुयी और इनकी महानता के चर्चे हुए लेकिन डॉ आंबेडकर के बारे में बताने और उनके जीवन मूल्यों के बारे में बताने के लिए राजदीप सरदेसाई को एक विश्श्ग्य नहीं मिला. आयोजको के चेहरे दुखी नज़र आ रहे थे. शायद पहली बार मार्केट की ताकतों को लगा होता के चुनाव के आलावा अब अन्य स्थानों पर भी अम्बेद्कर्वादीयों के प्रहार नज़र आयेंगे और उनको बचना मुश्किल होगा. 

आंबेडकर का महत्व भारत के आम जनमानस के जीवन में इतना अधिक है के वोह इंसानी आज़ादी के प्रश्नों से जुदा है. वोह हमारे जीवन को एक नए आयाम देते हैं. वोह किसी खाप पंचायत के नेता के तौर पर नहीं. मैं गाँधी को अपना रहनुमा नहीं मान सकता जब तक वोह दकियानूसी परम्परो, जातिवादी सोच और भारत के गाँव को बदलने का सपना नहीं बुनते. मुझे आंबेडकर में आशा की किरण दिखाई दी क्योंकि उन्होंने लोकतंत्र, व्यक्ति और बदलाव की बात की. दुनिया के अंदर एक सांस्कृतिक और राजनितिक बदलाव की बात के जो वोह अपने समय तो नहीं देख पाए लेकिन आज खुश हो रहे होंगे जब उनके मानने वाले अलग अलग क्षेत्रो में अपनी बलंदियों को छु रहे हैं. आज भारत के लोकतंत्र अगर मज़बूत है तो आंबेडकर के मानाने वालो का शुक्रिया अदा करना होगा जिन्होंने एक सेकुलर संविधान को अपना मूल धर्मं मन और संविधान चलने वालो के लाख बदनियतो के बावजूद उस पर भरोषा रखा. बाबा साहेब ने कहा था के ख़राब लोग एक बेहतरीन संविधान को भी ख़राब कर सकते हैं. 

एक सभ्य समाज के लोग यह बहस नहीं करते के महान कौन है. वोह ईमानदारी से इस बात को स्वीकार करते हैं के उनके जीवन एक व्यक्ति ने बदलाव लाया है. आंबेडकर की भारत को दें एक महान संविधान ही नहीं है अपितु भारत के करोडो कोगो को जीवन में एक नयी आशा और बदलाव का सन्देश था. उनलोगों को जिनके गाँधी या नेहरु ने भूख हड़ताल नहीं की और न ही अपने जीवन में कोई लड़ाई लड़ी.

इसलिए, अमिताभ या शबाना आज़मी को बाबा साहेब के नाम का महत्व समझना है तो हिन्दुओ को समझाना पड़ेगा और देखना पड़ेगा के क्यों देश के बहुसंख्यक समाज के लोग १४ अप्रैल, ६ दिसम्बर और दशहरे के दिन दिल्ली, मुंबई और नागपुर में भरी संख्या में इकठ्ठा होते है. यह भीड़ कोई पैसे से नहीं लाई जाती. यह भीड़ अपने सबसे बड़े व्यक्ति के लिए सम्मान के वास्ते आती है.. बाज़ारवाद  से सावधान रहना क्योंकि यह बड़े बड़े पूंजीपति और धन्ध्य लोगो को भी उन लोगो के साथ महान बताने पे तुला है जिन्होंने अपना सर्वोच्च बलिदान किया. फिलहाल, हम येही कह सकते हैं के देश के बहुसख्यक समुदाय के लिए आंबेडकर  का महत्व गाँधी से बहुत बड़ा है इसलिए हम बाज़ार के  इस तिकड़म को ख़ारिज करते है के  'गाँधी' के बाद बाबा साहेब सबसे बड़े भारतीय हैं.. बाबा साहेब सभी भारतियों के लिए सर्वोच्च हैं जिन्होंने संविधान, इंसानियत, बराबरी और भ्रतित्व को अपना उद्देश्य माना. गाँधी के जातिवादी ग्रामीण विचारो से केवल खप पंचायते और हिंदुत्ववादी ही मज़बूत हुए है   न की भारत का संविधान. इसलिए, एक मज़बूत, आधुनिक और प्रगतिशील भारत के लिए अम्बेडकरवाद ही २१वी सदी का विचार हो सकता है.


हिंदुत्व के ठग आसाम के घटनाक्रम में राजनैतिक रोटियां सकने की तयारी शुरू कर दिए हैं. कल से बंगलोरे में हमारे कई मित्रो को फ़ोन पर मेसेज दिए गए के बंगलोरे छोड़ दो नहीं तो कुच्छ दिनों में मुसलमान आप पर हमला करेंगे. संघ के लोग उत्तर पूर्व के लोगो को बंगलोरे स्टेशन पर मदद कर रहे हैं. संघ का ऐसा दुह्मुहापन हमने बहुत देखा है.

आज देश संकट में है और असाम की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओ के चलते उसको समाधान करने की बजे हमरे राजनैतिक नेता लोगो की लाशो पर राजनीती कर रहे हैं. ऐसी घटनाओ को तुरंत रोकना होगा. असाम में जिसके भी साथ अन्याय हुआ उसको संपत करना हमारी रास्ट्रीय जिम्मेवारी है लेकिन पूरी समस्या का संप्रदायीकरण करके जो लोग रोटियाँ सेकने की तैयारी कर रहे हैं सरकार को उनसे निपटाना होगा. 

ये सच है के बंगाल्देशियों के नाम पर मुस्लिम समुदाय जुल्म का शिकार हुआ है लेकिन यह भी हकीकत है बोडो क्षेत्र में अतिक्रमण हुआ है और आदिवासियों के प्रश्नों को आसानी से दरकिनार नहीं किया जा सकता. उन प्रश्नों पर देश के संसद को भाषण नहीं गंभीर चिंतन की जरुरत है. रास्ट्रीय एकता परिषद् की बैठक बुलाई जानी चाहिए ताकि असाम के प्रश्न को देश के दुसरे हिस्सों में फैलने से रोका जा सके.

यह समझने की जरुरत है के ऐसा क्यों हो रहा है. गत एक हफ्ते में बंगलोरे और हैदराबाद से लगभग ७ हज़ार लोग वापस उत्तरपूर्व में अपने राज्यों में जा चुके हैं. मेस्सेजेस के जरिये लोगो को बताया जा रहा है के मुसलमानों ने हमला किया है और रमजान ख़त्म होने के बाद हमले होने वाले हैं. ऐसी स्थितियों को समझना होगा. छोटी सभाओ में कई बार इमोशन का सहारा लेकर ऐसी बाते बोली जाती हैं जो हिंदुत्व के ध्वज़धारियों के बहुत काम आती हैं और उसका इस्तेमाल मीडिया के जरिये होता है.

बहुत समय से देश में दंगे नहीं हुए हैं. उनका एक अर्थशास्त्र और एक समाजशास्त्र है. राजनीती तो है ही. जब जब देश के दलित पिच्च्दे जगेनेंगे हिंदुत्व के यह मठाधीश दंगो का इस्तेमाल करेंगे. असाम का घटनाक्रम उनके २०१४ के चुनाव के लिए बहुत उपयुक्त है और इसलिए उस पर अभी से अमल शुरू हो गया है. ऐसी स्थिथि में नरेन्द्र मोदी को भी देश का एकमात्र नेता प्रस्तुत किया जाएगा जो मज़बूत है और 'घुश्पैथियों' से मुकाबला कर पायेगा. लच्छेदार भाषा और उसपर चरण पत्रकारों की टोली, बाकि क्या चाहिए देश को आग में धकेलने के लिए. वैसे भी यह सरकार कुच्छ नहीं करते यह केवल तमाशा देखती है. पहले से कार्यवाहीं करना इसका काम नहीं है.

असाम और उत्तर पूर्व के हमारे भाई बहिन हमारे देश के नागरिक है और उनकी हिफाजत करना हमारी सरकार और हमारा कर्त्तव्य है. उत्तर पूर्व के लोग पहले से ही हमारे समाज की जातीय मनुवादी मानसिकता का शिकार बने हैं. उन पर हमले हुए है और उनको एक विदेशी के तरह देखा जाता है. अपने देश के अंदर अपने देश के नागरिको के साथ ऐसा सलूक बर्दस्थ नहीं किया जा सकता. 

आज भारत के सेकुलर संविधान पर हमला है. सांप्रदायिक तकते इसको अपने हिसाब से इस्तेमाल करना चाहती है और देश की एकता और अखंडता को खत्म कर देना चाहते हैं. सभी धर्मनिरपेक्ष ताकतों का एक ही काम होना चाहिए के हिंदुत्व और संघ के छिपे हुए अजेंडे को पहचानने और उसका पर्दाफास करे. भारत इस वक़्त संघ के आतंकवाद का शिकार है और इसके संविधान को ख़ारिज करने की अलग अलग सियासी चलो को नेस्तनाबूद करना होगा. असाम की समस्या का तत्काल समाधान करने के प्रयास शुरू करने चाहिए और बंगलादेश की सरकार को भी इसमें शामिल करना चाहिए ताकि आरोपों और प्रत्यारोपो को मौका न मिले और ऐसे अफवाहे फ़ैलाने वाले अराजक तत्वों के विरुद्ध सख्त कार्यवाही होनी चाहिए ताकि उस पर रोक लग सके. कर्नाटक में हो रही ऐसी घटनाओं पर प्रशाशन की असफलता से शक होता है के उनकी शाह ऐसे लोगो को रही होगी जो अफवाहे फैला रहे हैं. हैदराबाद से भी ऐसी सूचनाये मिल रहे हैं. सरकार इस सवाल को हवा में नहीं उड़ा सकते और राज्य सरकारों को चाहिए के वो उत्तर पूर्व के लोगो को पूर्ण सुरक्षा दे और अफवाहे फ़ैलाने वालो पर तुरंत कार्यवाही करे.



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क्या समाजवादी पार्टी ने फूलनदेवी का राजनैतिक इस्तेमाल कर भुला दिया

विद्या भूषण रावत

फूलन देवी की हत्या हुए लगभग ११-१२ वर्ष होगये हैं. उनके हत्या के कारणों की जांच चल रही है और वोह कहाँ तक पहुँची उसकी न किसी को जानकारी है और न ही चिंता. दुखद बात तो यह के न ही फूलन को राजनीती में लेन वाले लोगो ने उनके परिवार वालो के बारे में जानने की कोई कोशिश की . यह साबित करता है हमारी राजनीती का क्या स्वरूप है और यहाँ चढ़ते सूरज को सलाम है और जब आपके सितारे गर्दीश में हो या डूब गए तो फिर आशा न करें के कोई राजनेता उसकी जानकारी भी लेगा. यह भी सत्य की जिन लोगो को राजनीती की सही जानकारी नहीं या जिनका मन उस प्रकार की तिकड़मो में नहीं है वोह राजनीती नहीं कर सकते हैं और फूलन की सहजता और राजनीतिक असमझ के कारण की आज उनकी पार्टी के ही लोगो ने उनको पूर्णतया भुला दिया है.

फूलन के पैत्रिक गाँव शेखपुरागुद्धा गाँव में आज भी उनका परिवार अपमान और नारकीय जिंदगी जी रहा है. जालौन जिले के कालपी शहर से लगभग १०-१२ किलोमीटर दूर बीहड़ो  के बीच बसा शेखपुरा गाँव यमुना के किनारे पे बसा है. फूलन की छोटी बहिन रामकली अपनी माँ और बेटे के साथ यहाँ रहा रही हैं. यह घर फूलन के पिता ने बनवाया था और थोडा इंदिरा आवास योजना की मदद लेकर एक छोटा सा बाथरूम और एक कमरा बना है. यहाँ आकर यह नहीं लगता के एक  सेलेब्रिटी सांसद के परिवार के सदस्य आज खाने को मोहताज हैं. 

फूलन की माँ और बहिन के पास कुच्छ नहीं है. हद तो यह है के उनके पास अपने इलाज करवाने के लिए पैसे नहीं है. यदि एक दिन मजदूरी नहीं करेंगे तो घर में चूल्हा नहीं जलता. माँ इलाज़ न हो पाने की वज़ह से अपने बेटे शिव नरियन के पास  ग्वालियर चली गयी वोह पुलिस में काम करता है. फूलन के ताऊ और उनके चचरे भाई मैयादीन ने पत्रिक सम्पति को हड़प लिया फलस्वरूप उनके पिता के पास कोई सम्पति नहीं आये. फूलन को पहली बार जेल उनके चचरे भाई मैयादीन ने ही भिजवाया जब उसने अपने पिता का हको की मांग की.

जब मैं रामकली से मिला तो मेरी आँखों में सन्नाटा था. क्या मैं उस परिवार के सदस्य को देख रहा हूँ जिसकी दो बार सदस्य दो बार सांसद बनी. फूलन ने आत्मसमर्पण के बाद ८ वर्ष जेल में बिताये और फिर रिहाई के बाद समाजवादी पार्टी ने उनका इस्तेमाल करना शुरू किया. फूलन के नाम पर मल्लाह बिरादरी को इकठ्ठा किया गया और उनको मिर्ज़ापुर क्षेत्र से चुनाव लड़ाया गया. उनकी बहिन और गाँव के अन्य सदस्यों का साफ़ मानना था के फूलन गाँव के लिए बहुत कुच्छ करना चाहती थी लेकिन उम्मेद सिंह ने उनकी उम्मीदों को ख़त्म कर दिया. वोह ये मानते हैं के जहाँ समाजवादी पार्टी ने उनको राजनैतिक तौर पर इस्तेमाल किया वहीँ उम्मेद ने उनके पैसे पर नज़र रखी और आज फूलन के न रहने पर उनकी पूरी सम्पति पर कब्ज़ा कर बैठा है जबकि उनकी माँ और छोटी बहिन आज दर दर को मोहताज हैं.

रामकली का दर्द बयां नहीं किया जा सकता. उसने सपने देखे अच्छी जिंदगी के. फूलन एक जिंदादिल इंसान थी लेकिन थी बहुत भोली. उसका सपना अपने गाँव में दुर्गा माँ एक विशाल मंदिर बनवाने का. वोह चाहती थी बहुत कुच्छ करना लेकिन राजनैतिक अपरिपक्वता के चलते ऐसा संभव नहीं था. फूलन एक राजनेता नहीं थे. वो एक विद्रोही थी जिन्होंने अपने साथ हुए अन्याय को सहन नहीं किया. उन्होंने शर्म से सर छुपा कर जीना स्वीकार नहीं किया और सर उठा कर बदला लिया. समाज ने उनको कई नाम दिया. क्रूर, दस्यु सुंदरी और न जाने क्या क्या लेकिन फूलन वाकई में अपने इर्द गिर्द रह रही घटनाओं का शिकार होती चली गयी.

उनका व्यक्तिगत जीवन एक कहानी था जिससे हमारे समाज की लडकिया सीख सकती हैं के जिनके साथ दुर्व्यवहार होता है उनको शर्म से जिंदगी नहीं अपितु इज्जत से जीना सीखना पड़ेगा आखिर कोई भी महिला अपने पे तो हिंसा नहीं करती. जो उन पर हिंसा करता है उसके विरुद्ध कार्यवाही हो. फूलन उन मध्य वर्ग की महिलाहो की तरह नहीं रही जो  उन पर हिंसा होने के बाद घुट घुट कर जिंदगी  जीती, न ही उन्होंने मरने की सोची. उन्होंने जिंदगी जीने की सोची और ये उनकी सबसे बड़ी ताकत थी. एक आज़ाद भारत में ऐसे जज्बे वाली महिलाये कम है  और इसीलिये फूलन को अंतरास्ट्रीय मीडिया ने हाथो हाथ लिया क्योंकि उनके जीवन की कहानी में एक जज्बाती और सर उठाकर जीने वाली महिला की कहानी है.
लेकिन फूलन को क्या पता के उनके अपने ही लोग उनको 'दुधारू गया' की तरह इस्तेमाल करेंगे. रिहाई के बात फूलन मार्केट के प्रोडक्ट हो चुकी थी अतः पैसे भी काफी आये लेकिन राजनैतिक सोच के आभाव में फूलन यथास्थ्तिवादी ताकतों के हाथ में ही चली गए और फिर वही हुआ जिसका खतरा था. फूलन केवल निषाद समुदाय की महिला बनाकर रह गयी और उनकी मौत के बाद तो उनको उनके की लोगो ने पूरी तरह से भूला दिया.

फूलन दलित बहुजन महिला आन्दोलन के वास्ते बहुत कुच्छ कर सकती थी. उत्तर प्रदेश के अन्दर दलित अति पिच्च्दे समाज को इकठ्ठा करने और उसको नयी दिशा देने में वो निर्णायक भूमिका कर सकती थी लेकिन ऐसा तब संभव होता जब फूलन को दलित बहुजन आन्दोलन की जानकारी होती और उसके महापुरुषों के बारे में बताया जाता. उनके समाज में आज भी ब्राह्मणवादी परम्पराओं का बोलबाला है. अन्धविश्वाश आज भी बदस्तूर जारी है. दुखद बात यह है के फूलन उत्तर प्रदेश में बसपा विरोधी प्रोपगंडा का शिकार हुई. मैं यहाँ पर पार्टी की बात नहीं करना चाहता लेकिन केवल उसके सन्दर्भ ढूँढा रहा हूँ के फूलन एक सामाजिक आन्दोलन को मजबूत बना सकती थी लेक्किन सत्ता के गलियारों तक और सत्ता के चकाचौंध ने उत्तर प्रदेश में एक बहुत बड़ी क्रांति को रोक दिया.

आज फूलन अपने गाँव के लिए कुच्छ नहीं कर पाई. उसकी माँ और बहिन दो जून की रोटी के लिए मोहताज हैं और उनके नाम से वोट बटोरने वाली पार्टी और उनके राजनेताओ को यह पता भी नहीं के उनका परिवार किस हालत में रह रहा होगा. क्या यह फूलन के भोलेपन और ईमानदारी का सबूत नहीं के उन्होंने अपने लिए कुच्छ किया नहीं. लेकिन दुसरी तरफ यह भी सच है के उनके पास पैसे थे लेकिन उनके असमय मौत से उनकी सम्पति उनके परिवार तक नहीं पहुँच पाई. लोग बार बार यह सवाल पूछते हैं के फूलन की हत्या क्यों हुई? क्योंकि जो उनका हत्यारा माना जा रहा है वोह उनके घर पे आता जाता रहा है और ऐसे पहुँच कैसे हुई.

फूलन की बहिन रामकली ने मुलायम सिंह यादव को पिता कहा. फूलन भी मुलायम सिंह जी को पिता कहते थी. वोह आज भी उनके अहसानमंद है लेकिन दुखी भी के आज दो बार की संसद फूलन की माँ के पास सर छुपाने की जगह नहीं. एक छोटा सा टूटा फूटा सा घर है और खाने के लिए अब उनकी माँ काम नहीं कर सकती और न उनको कोई विधवा पेंसिओं है न ही गरीबे रेखा  का कार्ड. क्या ये शर्मनाक नहीं की आज हम समाजवादी पार्टी और उनकी सरकार से फूलन के परिवार के लिए तीन सौ रुपैया पेंसन और गरीबी रेखा कार्ड की बात कहें. रामकली भी बीमार है और उसका बेटा मानसिक रोक से ग्रस्त है. कुच्छ वर्ष पूर ट्रेन की छत पर यात्रा करते वक़्त उसका सर किसी वस्तु से टकरा गया और तब से उसकी स्थिथि ठीक नहीं लेकिन त्रासदी है के उसके ठीक से इलाज़ के लिए पैसे भी नहीं है. मुलायम सिंह जी यादव और उनकी समाजवादी पार्टी से अनुरोध है के वे फूलन के परिवार को ससम्मान जीवन जीने के लिए कुच्छ करे और अपनी उस सांसद को थोडा याद कर ले जिसके भरोशे उन्होंने एक ज़माने में मल्लाह-निषाद समुदाय में पैठ बनाने का प्रयास किया. 

Friday 10 August 2012

Goron ka dhandha gore kamayee

ये काली नहीं गोरी कमाई है गोरे लोगो की बाबा रामदेव

विद्या भूषण रावत

बाबा राम देव बार बार अवैध धन के लिए काले धन का इस्तेमाल कर ब्राह्मणवादी रंगभेदी शब्दावली को ही आगे बढ़ा रहे हैं. ब्राह्मणों ने हर गलत चीज की व्याख्या को ऐसे विश्लेषणों से जोड़ा जिनको वोह मानसिक सामाजिक और सांस्कृतिक तरीके से खत्म करना चाहते थे. आज के युग में जब दुनिया इतनी बड़ी है के हम दुनिया में हर जगह संघर्षो के साथ जुड़ते हैं और उनको अपना समर्थन देते हैं, हमें अपनी जुबान को देखना पड़ेगा के ये दबंगई की भाषा ज्यादा न चले और इन भाषा के अतातैयों को अब शीशा दिखने की जरुरत है. आज अभी रामदेव के शुध्ध भाषा में प्रवचन सुन रहा था के कैसे वोह कहते हैं ' जर जोरू और जमीन' झगड़े की जड़ हैं. महिलाओ को जो गली तुलसी ने दी उसको रामदेव भी दे रहे हैं और महिलाओ के बीच में रहकर. एक महिला भी उस पर सवाल नहीं करती क्योंकि यह महिलाएं कोई महिलावाद का झंडा लिए तो वह पे नहीं आ रही. 
रामदेव के ब्रह्मण बनिया समर्थक उनको मिसगाइड कर रहे हैं. रामदेव इतने बेहूदा और झूठ सपने दिखा रहे हैं गाँव के भोली भली जनता को. क्या वो नहीं जानते के पाकिस्तान और अफगानिस्तान क्यों तुम्हारे साथ आयेंगे. जिन विश्श्ग्यो को लेकर वो मंच पर गर्वोंवाक्ति कहते हैं उनके ब्राह्मणवादी खेलो को सब जानते हैं.

पहली बात ये के अवैध धन को काला धन की क्यों कहा जाए.. क्योंकि काला तो सुंदर होता है, मेहनतकाश है. सफ़ेद कबूतर कोई काम नहीं करता लेकिन कला कौवा तो बहुत मेहनत करता है. भारत के अधिकांश मजदूर, श्रमिक, कामकाजी लोग सुबह से शाम तक काम कर अपने शरीर को धुप में काला कर देते हैं. काला रंग तो विद्रोह और सम्मान का प्रतीक है इसलिए इसको अवैध धन या अवैध काम से क्यों जोड़े. 

आश्चर्य की बात यह है के रामदेव के आगे पीछे लगे हिन्दुओ की ऊंची जात ऊंची क्लास के लोग कितना वैध धन रखते हैं यह तो इन्काम टैक्स को पता होगा लेकिन दुनिया भर में ज्यादा अवैध धन और अवैध काम के मालिक हमारी गोरी चमड़ी और उनके हिनुद्स्तानी  भाई और बहिनों की है. वैसे भी हम कब कालो के साथ थे.. हमारे पूज्य पिता महात्मा गाँधी तो कभी कालो के साथ रहे ही नहीं और न ही उन्होंने अफ्रीका में कालो के लिए कोई संघर्ष किया हाँ आज उनके गुजरात के लोग अफ्रीका में कालो का खूफ शोषण कर रहे हैं और अपनी 'गोरी' कमाई विदेशी बैंको  में रख रहे हैं. इसलिए हे राम देव, अवैध धन को आप गोरी कमाई क्यों नहीं कहते ? कब तक आप  भारत के मेहनत काश कालो का और दुनिया में अपनी आज़ादी और आत्मसम्मान के लिए संघर्षरत लोगो का अपमान करता रहोगे . अपने ब्रह्मिन चेलो से बाहर  निकलकर थोडा बहुजन समाज की तरफ देखो  बाबा, ज्ञान मिलेगा.

सदियों से ऐसे सामंती सोच ने लोगो के रंग, रूप और जाती पर आधारित शब्दावलियों को बनाकर हमारा सम्मान खत्म किया है. आज भी जब मैं कई स्थानों पर जाता हूँ तो लोगो को कहता हूँ अपने बच्चो के नाम स्वयं रखो, किसी ब्रह्मिन को न बुलाओ.. क्यों.. क्योंकि जयादातर मुशाहारो के नाम जो ब्राह्मणों दिए वो इस प्रकार से हैं : फेंकू, शानिस्चारी, कलंकि, टमाटर, कलपती, सितामी, अकाल, भुख्लाल, कालिया, भैंसु, गोबरी, विदेशी, रुदल, लंगड़,  इत्यादि. यह तो एक इलाके की कहानी है. ऐसी स्थिति  बहुत से जगहों पर है. क्योंकि हम अपने समाज को उनके नाम से ही घृणा करना सिखाते हैं. हम जानते हैं के हमारे अतीत बहुत खूबसूरत नहीं है लेकिन हमको वर्तमान में तो सुख से जीने का हक़ है. हम अपने अतीत से सीख सकते हैं लेकिन उसमे रह नहीं सकते. इसलिए जब भी हमारे वर्तमान को खत्म करने की कोशिश हुई वो अतीत की स्मृतियों और सामंती घृणा को हमारे नामो में जोड़ा गया. 

आखिर काला दुनियाभर में क्यों ख़राब, गलत और अवैध का प्रतीक बना गया और हम सब उस शब्दावली में बहते चले गए. जब २६ जनवरी मनाये या कोई ' महान' काम हो तो 'सफ़ेद कबूतर' आकाश में छोड़े जाते हैं.. क्यों. कहते हैं के शांति के प्रतीक है. लेकिन सफ़ेद शांति का प्रतीक कैसे होगया. दुनिया भर को लूटा गोरे रंग भेद ने और उसके ऊपर से वर्ण व्यवस्था को लागु करने वाले और उसपर चलने वाले हमारे मथ्मंदिरो के महान क्रन्तिकारी पाने, सभी तो गोरे रंग के प्रतीक हैं ..दुनिया में सबसे ज्यादा अवैध धन इनके मंदिरों, चर्चो, गुरुद्वारों इत्यादि में होगा. लेकिन जब उस धन को अवैध करने की बात कहेंगे तो 'काला धन कह देते हैं. उसको गोरी कमाई कहना चाहिए. कालो पर हमला हो, उनकी संस्कृति को खत्म करने के प्रयास हों, तुम बम गिराओ और फिर अपने पण्डे पादरियों को सफ़ेद झंडा हाथ में लेकर शांति के लिए भेजदो.. वाह वाह, क्या कला है / वाकई  कमाल  है. 

भारत में तो रंगरूप के आधार पर हँसाना और उनका मज़ाक उड़ना एक आम बात है. शादी के विज्ञापनों में लड़की और लड़के की गोराई देखि जाती है. सुन्दरता को गोरे रंग से जोड़कर देखने वाले इस रंग भेदी  स्वरूप को हमारी विज्ञापन कम्पनिया खूब भुना रही है और सबको गोरा दिखने की होड़ है. सुन्दरता का सीधा मतलब पीला दिखना हो गया. और इसमें अब कंपनियों को करोडो की कमाई हो रही है.. हाँ मैं इसको काली कमी तो कटाई नहीं कहूँगा.. ये तो गोरी कमाई है और ऐसी गोरी कमाई पर अब प्रतिबन्ध लगने  चाहिए  क्योंकि ये रंगभेद को बढाती है. क्या हमारे सांसद  इस बात पर कभी विचार करेंगे के भारत के काले रंग के लोगो के साथ कितना दुर्व्यवहार किया है और उसको लेकर वर्णवादी ताकते पुनः शक्रिया हो रही हैं 

हम सभी अपनी भाषा में सुपरलेटिव और एडजेक्टिव ( विश्लेषण) लगाने के आदि हो गए हैं और हमें अपनी भाषा पर ताली पिटवाने के लिए दुसरो का मज़ाक सा उड़ने की आदत सी हो गयी है और इसमें न केवल रंग और जाति का सहारा लिया जाता है अपितु विकलांगता का तो सबसे बड़ा मज़ाक है. अब बार बार निकम्मी और न सुनने वाली सरकार को आप लंगड़ी और गूंगी या बाहरी सरकार क्यों कह रहे हो भाई. किसी की विकलांगता का मज़ाक उड़ना तो कोई हम से सीखे. ऐसे ऐसे शब्द और व्यवहार लायेंगे के ईमानदारी से इज्जत से जीने वाले व्यकी के लिए हमारा समाज जिंदगी नामुनकिन कर देता है और वो तो ऐसे वर्णभेदी  रंगभेदी समाज से भागना पसंद करेगा. क्या रविन्द्र जैन  ने जब इतने सुंदर गाने लिए और संगीत दिया तो कोई कहता है के उनके अन्दर की विकलांगता क्या है. जॉन मिल्टन ४५ वर्ष में अपनी आंखे खो बठे लेकिन उनकी कविताओ में दम इसी उम्र की बाद आया. अमेरिकी रास्त्रपति रूजवेल्ट ने विश्वयुद्ध के समय अपने देश का नेतृत्व किया और अंतरास्ट्रीय मानवाधिकारो के बनाने में उनकी पत्नी की अहम् भूमिका थी लेकिन कोई उनको विकलांग कह के तो कुच्छ नहीं प्राप्त कर सकता. अभी लन्दन ओलिम्पिक्स में दक्षिणी अफ्रीका के तेज धावक ओस्कार पिस्तोरस ने साबित कर दिया के जहाँ छह है वह रह है. और विकलांगता को यदि निक्कमेपन या कमीनेपन से जोड़ेंगे तो इससे बड़ा कमीनापन नहीं हो सकता और ये काम हमरे वर्णवादी संस्कृति ने किये और इसके उदहारण हमारी फिल्मो में बहुत मिलेंगे जहाँ पर एक खलनायक या तो काले रंग का होगा या विकलांग होगा.  हरेक काले या विकलांग चरित्र को इतना नकारात्मक दिखाया जाता है और उन पूर्वाग्रह से युक्ता बातो को पुनः दोहराया जाता है जो अभिशाप हैं लेकिन जिहे हम भुला देना चाहते हैं.दोनों चरित्रों को अपने पे इतना गिरा दिया जाता है या उसका इतना मज़ाक बनाया जाता है के अगर हमारी न्याय प्रणाली सही है तो ऐसे सभी उल्लेखो पर मुक़दमा चलना चाहिए और उन्हें विश्लेषण करके बच्चो को समाज में बताया जाना चाहिए के अभी भी हम सामंती सोच और भाषा शैली के शिकार हैं . 

ब्र्हम्न्वादी या वर्चस्वादी व्यवस्था में गरीबो, मजदूरों, दलितों आदिवासियों, विकलांगो का मज़ाक उड़कर एक स्टीरिओटाइप बनाया जाता है और जिनको शक हो तो आजकल टीवी चैनलों के फूहड़ हंसी मज़ाक के शो देख सकते हैं के किन जोक्स पर ज्यादा तालियाँ पड़ती है.

अब समय आ गया है जब हम अपनी भाषा शैली बदले और दुसरो की जाति, रंग, लिंग और विकलांगता से अपना मनोरंजन न करे और अवैध धने वाले गोरे लोगो की अवैध कमाई को काली कमाई न कहे.. बेहतर है इनकी गोरी कमाई की जांच हो और रामदेव को यह काम खुद से करना चाहिए के उनकी गोरी कमाई  में भारत के किन किन गोरे लोगो की हिस्सेदारी है. चलो आज से ही अपनी जुबान सभालते हैं और यह शुभ काम करते हैं..