Monday 12 November 2012

Women and Karwachowth



महिलाएं और संस्कृति 

विद्या भूषण रावत 




करवा चौथ का व्रत आज बड़े जोश खरोश से मनाया जा रहा है बाजारों में रौनक है और टीवी के भीतर भी बहुत बहस है। सुष्माजी का यह 37 व करवाचौथ है और उनके पति का प्यार 37 गुना बढ़ चूका है। यह  नहीं सुषमा जी ने टीवी पर खुद कहा है। महिलाएं कह रही है के ये उनका प्यार है और कोई उनको दबाव नहीं दल रहा। वैसे यश चोपड़ा के सिनेमा ने करवा चौथ का इतना महिमा मंडान किया और उसकी रंगीनियों को ऐसे दिखाया मनो हर एक महिला जो करवाचौथ रख रही है, स्विट्ज़रलैंड जाने वाली हो। खैर, रंजना कुमारी जी ने कहा है के करवा एक लें दें भी है और अगर दबाव नहीं है तो उन्हें इसमें कोई ऐतेराज नहीं है। बात ये के आज के युग में भी ऐसे सड़ी गली परमपरो के तहत अगर हम जी रहे हैं तो उस देश का क्या कहने 

वैसे ब्राह्मणवादी परम्पराव में महिलाओ को बहुत से व्रत करने के लिए दिए गए हैं जैसे करवाचौथ में पति की लम्बी उम्र के लिए और फिर कुच्छ दिनों बाद भाई दूज आएगा और सभी बहिने अपने भाइयों की आरती उतरेंगी। रक्षा  तो जा चूका है जब बहिनों ने अपने बहियों को राखी बंधी और अपने   जीवन को धन्य बनाया। फिर माएं अपने बेटो की खातिर व्रत रखती हैं। हमारे समाज में भी अलग अलग डिपार्टमेंट हैं भगवानो के। जैसे संतोषी माँ भाई या बेटा  देती हैं, शिवजी, अच्छा  पति देते हैं,..काम देव के महिमा न्यारी वोह प्यार और रोमांस की ताकत देते है। 

वैसे औरतो की मज़बूरी तो वर्णाश्रमधर्मियों पहले की बना दी थी जब उन्होंने कहा के उसे आज़ाद रहने का अधिकार नहीं है और बचपन में वो अपने पिता के अधीन रहेंगी और फिर अपने पति के और अगर पति नहीं रहे तो बेटे के अधीन रहना चाहिए और शायद इन्ही रिश्तो के टूटने के भय से इतने दवाब में रहकर ये व्रत रखे जाते हैं के अगर नहीं रखे तो बहुत संकट होगा . घर पर एक पुरुष जरुरी है और बेटे के चाहत पति का प्यार, और पिता का आशीर्वाद तो बम्बई की फिल्मे भी बहुत बाँट रहते है लेकिन वोह सब ब्रह्मनिया संस्कृति का हिस्सा है जिसे बहुत हे स्टाइल में बाज़ार द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे यह बहुत बड़े प्रेम और बराबरी का त्यौहार है। ठीक होता यदि करुआ में महिला और पुरुष के बराबरी होती। यह सभी त्यौहार पुरुषो के प्रधानता का प्रतीक है और इनको प्रेम का त्यौहार बताने का धंधा करनेवाले लोग पूंजी और धर्म का बहुत बेहतरीन घालमेल करते हैं इसलिए कमाई की कमाई और परम्परऔ को पुनर्स्थापित करने का संकल्प। इससे अच्छे बात क्या हो सकती है के महिलाएं ही खुद कहें के यह तो बहुत महँ त्यौहार है और यह वे अपने मर्जी से करते हैं।

खैर जो व्रत रख रही है उनसे तो हम नहीं कह सकते के उनके व्रत से उनके पति की कितनी उम्र बढ़ेगी और फिर पति की उम्र की  बढे, पत्नियों के क्यों नाही। लेकिन भारतीय समाज की क्रूरता और विधवाओ के हालत को जिसने देखा है वोह बता सकता है के अधिकांश स्त्रियाँ उस सोच से ही घबराती हैं और पाती से पहले मरने की कामना करती हैं। यह एक असिई हकीकत है के जब पत्नी पहले ही चली जाए तो ब्रह्मनिया संस्कृति में सुहाग्वंती होकर मरने को बहुत बड़ा बताया गया है। अतः हम समझ सकते हैं काहे महिलाएं इतने व्रत रखती है।

अब समस्या व्रतियों की नहीं है। उन्होंने तो सिद्ध कर दिया के वे अपने पतियों को बहुत चाहती है चाहे बाकि दिन वे पतियों को पीते या पति उनको पीते इसके कोई मतलब नहीं लेकिन जिन महिलाओं ने व्रत नहीं रखा वोह तो समाज के ताने सुन रही होंगी . उन्हें इन व्रतियों ने अलग थलग खलनायिका   बना दिया है। 

वैसे अधिक्नाश पति कहते हैं जिनमे क्रन्तिकारी भी शामिल हैं के उनकी पत्नियों के आगे उनकी नहीं चलती और वे अपनी पत्नियों के सी प्यार के आगे असहाय हैं यह जाहिर करता है के क्रांति के यह दूत दुसरो के घर पर भगत सिंह देखना चाहते हैं और अपने घर के मनुवाद को जिन्दा देखते रहना चाहते हैं। वैसे भारतीय समाज का पाखंड यही है के हम सब कहते हैं लेकिन व्यक्तिगत जीवन में फ़ैल हैं और भारत में साड़ी क्रांतियों के असफलता का कारण भी वर्णाश्रम की कुतिय्ल्ताओ में फंसी हमारी जिंदगी है और जब तक उसे उखाड़ नहीं फेंकेंगे तब तक बदलाव नहीं आएगा। 

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