Tuesday 13 November 2012

सांस्कृतिक पुनर्जागरण का आवश्यकता 

विद्या भूषण रावत 

तमिलनाडु के धर्मपुरी जिले में वहां की ताकतवर वन्नियार जाति के लोगो ने दलितों के घर पर हमला कर लगभग 300 परिवारों के घरो को पूरी तरह से तहस नहस कर दिया। एक गाँव के दलित युवक के साथ वन्नियार जाती की एक लड़की के प्रेम विवाह के बाद यह घटना घटी। विवाह के बाद लड़की लड़का एक साथ अपने घर में रह रहे थे जब वन्नियार जाती की एक पंचायत ने निर्णय लिया के लड़की को अपने पिता के वापस आ जाये लेकिन ऐसा नहीं हुआ। लड़की के पिता इस से बहुत आहात हुए और उन्होंने फांसी लगाकर आत्महत्या कर डाली। इसके बाद तो जैसे तूफान खड़ा हो गया। वन्नियार लोगो ने दलित के घरो पर हमले शुरू कर दिए और पुलिस के बावजूद हिंसा जारी रही। सभी दलित, जो आदि द्रविदा जाति  के थे, उन्हें अपने घरो से भागना पड़ा . दिव्या और उनके पति भी अपने घर से भाग चुके थे नहीं तो उनके साथ क्या स्थिथि होती इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। रास्ट्रीय दलित आयोग के सदस्य भी वह गए और उस हिंसा को प्रायोजित बताया।

इस घटना के कई पहलु हैं और उन पर विचार करना चाहिए। तमिलनाडु ने गैर ब्राह्मणवाद के नाम पर बड़ी राजनीती हुयी है और उसके फलस्वरूप बहुत बड़ी पिछडी जातियों को सत्ता पर भागीदारी भी मिली . स्वंतंत्रता के बाद तमिलनाडु पिछड़ी जातियों के नाम पर राज कर रही पार्टियों के चंगुल में रहा हैं। उन्होंने बहुत अच्छे काम भी किये होंगे लेकिन दलित अस्मिता के प्रश्न पर तमिलनाडु के पिछडो ने दलितों के साथ बहुत  ही हिंसक वर्ताव किया है।  दलित अस्मिता के प्रश्न को हिंसक तरीके से दबाया गया है।

वन्नियार एक ताकतवर पिछड़ी जाति हैं और पी एम् के नामक पार्टी उनकी सबसे बड़ी ताकत है। कई वर्षो से वन्नियार और थेवर नाम की  दलितों के उपर सबसे ज्यादा हिंसक बन कर उभरी हैं। आश्चर्य जनक बात यह है के सामाजिक न्याय के नाम पर चल रही इन पार्टियों और तमिलनाडु और देश के अन्य हिस्सों में दलितों पर हो रही हिंसा के उपर लिखने वालो की जुबान और कलम रुकी हुए हैं। इसका कारन यही है के हमारी कलम और जुबान भी राजनीती के समीकरणों  के अनुसार चलती है जो बेहद खतरनाक है। 

तमिलनाडु में पेरियार के गैर ब्राह्मणवादी आन्दोलन के कारण से बहुत प्रगतिशीलता के तत्वे भी आये लेकिन ब्राह्मण विरोधी आन्दोलन जातिविरोधी आन्दोलन में तब्दील नहीं हो पाया। तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश या बिहार के सामाजिक और राजिंतिक परिपेक्ष्य को देखने तो अस्मिता की राजनीती ब्राह्मण विरोधी शक्तियों के इकठ्ठा करने के लिए उपयोगी तो हो सकती है लेकिन अपने अन्दर के अन्तर्द्वन्दो और अंतरविरोधो को नहीं मिटा सकती। और इन्हें दूर करने के कोई प्रयास भी नहीं हुए क्योंकि जब एक बार सत्ता की चाबी जिस जाति के नेता के हाथ पहुंची वो उसे दुसरे के साथ साझा करने को तैयार  नही है।  आज इन पार्टियों की जुबान पर ताला लगा है। यह वोह तमिलनाडु है जहाँ श्रीलंका के मसले पर हर एक घंटे में भरी प्रदशन हो जाता है और ट्वीटर और फेसबुक पर  स्टेटस की झड़ी लग जाती है। 

अभी तमिलनाडु में मंदिरों में दलित और पिछड़ी जाति  के अर्चाको को नियुक्त करने को क्रन्तिकारी कदम बताया जा रहा है। हमारे लिहाज़ से यह दलितों को हिंदूवादी ढांचे में घुसाने की साजिश है और आश्चर्य यह है के जो पार्टी अपने को नास्तिक कहती हैं वे यह हिंदूवादी अजेंडा लागु करते हैं। दलित पिछड़े ब्राह्मण मंदिरों में मनुस्मृति को ही पढ़ाएंगे और ये दूर से क्रन्तिकारी कदम दीखता हो लेकिन क्या हमारे देश में  पिछड़े मठाधीश नहीं है जो मनुवादी शिक्षा दे रहे हैं। यदि आज के बाबाओ को देखे तो वोह शुद्रो से ज्यादा आ रहे हैं और इसे अगर कोई क्रन्तिकारी माने तो मान सकता है क्योंकि ब्रह्माण्डी मनुवादी व्यवस्था को बचाने के लिए अब नए पुलिस वालो के जरुरत है जो इसको बचा सके। आश्चर्य यह के दलितों पे हिंसा पे सब चुप हैं। ऐसा क्यों यह समझ नहीं आ रहा।

  असल में जातिगत अस्मिता के नाम पर अभी राजनितिक चोंचले बाजी से आगे हम नहीं पहुंचे हैं। देश को एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की जरुरत है जो ब्राह्मणवादी जातिवादी मानसिकता और संस्कृति को समाप्त कर आगे बढे लेकिन अस्मिताओ के इस दौर में व्यक्तीगत विचारो और चाहतो का कोई मतलब नहीं है और इसीलिये प्रेम विवाह को खत्म करने में हम सभी एक हो जाते हैं। दलित  के मध्य जो राजनैतिक या सामाजिक  की बात हम करते हैं वोह एक सांस्कृतिक विकल्प के बिना संभव नहीं है। जातिगत अस्मिताएं इन विकल्पों की राह में रोड़ा हैं क्योंकि यह व्यक्तिगत चाहतो को जाति की सीमओं से बहार नहीं मानते। दुसरे, भारत में अगर सभी जातियां एक हो और केवल अपना गाँव या परिवार के नाम तक सीमित हो तो कोई  बात नहीं है लेकिन जब अस्मिता के मायने अपनी झूठी शान और दुसरे से बड़े होने की कहानी है तो सोचना पड़ेगा के व्यक्ति के अपनी अस्मिता कहाँ गायब हो जाती हैं। बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था के भारत एक रास्ट्र नहीं है क्योंकि यहाँ व्यक्ति के अस्मिता का सम्मान नहीं है क्योंकि वोह अपनी चाहत अपनी अनुसार जिंदगी नही जी सकता। जाति  और अस्मिताओं की दीवारे उसको घेरेंगी। 

अस्मिताओ से परेशानी नहीं है लेकिन वोह सामाजिक न्याय और बरबरी के उपर नही जा सकती। वैसे ही जैसे तमिलनाडु में ब्रह्मंविरोधी आन्दोलन जाति  विरोधी आन्दोलन नहीं बन पाया क्योंकि जाती उन्मूलन के लिए केवल ब्राह्मण या अन्य हिन्दुओ का जाती  और उससे बहार निकलना ही काफी नहीं है अपितु दलित पिछडो को भी अपने अन्दर उसको समाप्त करना पड़ेगा और धर्मपुरी जैसी घटनाओ  की पुनाराविरती तब नहीं हो पायेगी। जब बाबा  साहेब आंबेडकर ने नवयान की स्थापन की तो इसका एक ही सन्देश था के जातिगत खांचो से बहार निकलकर एक नयी जिंदगी की शुरुआत करें क्योंकि केवल विरोध की राजनीती से हम एक नए समाज का निर्माण नहीं  कर पाएंगे इसलिए एक विकल्प की जरुरत होगी और इसलिए ब्राह्मणवादी जातिवादी मानसिकता से बहार निकलकर बुद्ध के करुना और बरबरी के मार्ग को उन्होंने अपनाया। बाबा साहेब ने उसकी स्वयं व्याख्या को और उसके नीति निर्देश दिए। 

इस हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता के जातिगत समाज में सुधर की कोई सम्भावना नहीं है जब तक हम जातिगत अस्मिताओ को मज़बूत करेंगे। धर्मपुरी  जैसी घटनाएँ हरयाणा से एक कदम आगे हैं क्योंकि यहाँ सामाजिक न्याय के नाम पर काम करने वाली ताकते शाशन में हैं और वोह भी पिछले 50 वर्ष से। वर्ना व्यवस्था मनुवाद को ही मज़बूत करती रहेंगी और ऐसे घटनाएँ होगी रहेंगी क्योंकि जातिगत अस्मिताएं और कुच्छ नहीं जातिगत अहम् है जो सीढ़ीनुमा खांचे में अपने आप को दुसरे से श्रेस्ठ समझती हैं और दुसरी अस्मित को कुचल देना चाहती हैं। अस्मिताओ का सम्मान जातिगत समाज में नही हो सकता और ल्सिये उसके लिए आंबेडकर के दिखाए मार्ग के आलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है।

फिलहाल, तमिलनाडु में धर्मपुरी जैसी घटनाओ को रोकने के लिए जरुरी है के हमारी संवैधानिक मूल्य हमारे दैनिक जीवन के मूल्य बने। संविधान केवल एक कानून न होकर हमारे जीवन की रहन सहन और आदत बन जाये और उसका इस्तमाल हमारे मतभेदों को सुलझाने और लोगो को न्याय दिलाने के लिए हो। राजनितिक दल यदि अपनी जातिगत मूल्याङ्कन से आगे बधकर सामाजिक न्याय में विश्वास करें और संविधान के मूल्यों की इज्जत करें तो देश में एक पुन्राजागरण हो सकता है। मनुवादी जातिवादी विचार को उसके बहार आकर और संविधानिक मूल्यों को जीवन मूल्यों में तब्दील करके ही हम एक नए भारत का निर्माण  कर सकते हैं और तभी जातिगत अस्मिताओ के नाम पर या इज्जत के नाम पर हो कत्लो को रोका जा सकेगा।

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