Monday 12 November 2012

Women and customs


असभ्यता के स्थलों से खुद को मुक्त करने की आवश्यकता 

विद्या भूषण रावत 

बम्बई की हाजी अली दरगाह में औरतो के प्रवेश पर पर्तिबंध से बहुत से लोग आहात हैं लेकिन प्रश्न यह है के क्या यह हमारे 
समय की पहली घटना है ? बहुत से लोगो ने कहा के धर्म ऐसी इजाजत नहीं देता और इसलिए वोह दरगाह में महिलाओ के ऊपर प्रतिबन्ध के खिलाफ बोलेंगे। बहुत से मानवाधिकार कार्यकर्ताओ ने भी प्रश्न उठाये हैं के पुजस्थालो में जाना किसी भी भक्त का मूल अधिकार है। क्या बात इतनी आसांन है। क्या हम धर्मस्थलो पे अपने आधुनिक कानून लागु कर सकते हैं। 

यह जानना आवश्यक है के मंदिर प्रवेश की लड़ाई धर्म की सत्ता को मज़बूत करने के लड़ाई है और जो लोग उसमे विश्वाश करते हैं मैं उनसे केवल इतना कहना चाहता हूँ के क्या मज़हब वाकई में स्त्री और पुरुष को बराबर समझते हैं। असल में धर्मो की सत्ता तो इसबात में होते है की कुच्छ लोगो पर भगवन की विशेष कृपा है और कुच्छ पर कम। जिस पर कम कृपा है उसे अनलकी कहा जाता है और फिर पुरोहित उसकी अज्ञानता या भय का लाभ लेते हुए टोन टोटके बताता है। 

सूफी स्थलों को प्रेम का सन्देश देने वाले स्थल बताने वालो की कमी नहीं है। उन्हें धर्मनिरपेक्ष बताने वालो की भी कमी नहीं लेकिन वे धर्मनिरपेक्ष केवल अज्ञानता और जाडु टोने के सन्दर्भ में हैं जहाँ लोग अपने 'काम' करवाने आते हैं, मन्नते मांगते हैं और जब वे 'पूरी' हो जाती हैं तो फिर चढ़ावा चढाने आता हैं। अगर सूफी स्थलों को देखे तो ज्यादातर स्थानों पर औरतो के प्रवेश पर पाबन्दी है और वोह खुल के होती हैं। महिलाएं उसे 'गर्भ गृह' तक प्रवेश नहीं कर सकती। एक सूफी स्थल पर मुझे वहः के खादिम ने बड़े फक्र से बताया के औरतो को इसलिए अन्दर नहीं बुला सकते क्योंकि वे 'गन्दी' होती हैं। वैसे 'गंदे' का मतलब सब जानते हैं और यह तो बहुत से मंदिरों और अन्य धर्म स्थलों में भी है के महिलाओ के माहवारी के समय उन्हें इन स्थल पर जाने की इजात नाहे है और इस बात को पुक्ता करने के लिए उनके प्रवेश को उम्र से जोड़ दिया गया के या तो 8 वर्ष से कम की लड़की हो या 60 वर्ष से उपर की उम्रदाज। सबरीमाला के मंदिर में महिलाओ का प्रवेश बंद है।

मंदिरों में या अन्य धर्मस्थलो में महिलाओ और दलितों के प्रवेश के विरुद्ध कानून कम नहीं कर सकते। बात यह भी है हमारे कानून आज की परिस्थतियो के अनुसार बनते हैं जबकि धार्मिक परम्पराएँ जब से बनी हैं उनमे कोई बदलाव नहीं आता क्योंकि उन्हें 'इश्वर' या 'अल्लाह' ने 'स्वयं' बनाया है इसलिए उसमे सुधर नहीं किया जा सकता। अब तक सभी धर्मो और व्यवस्थाओ में औरतो को पुरुषो के समकक्ष कभी नहीं मन गया है। वे उस संस्कृति के वाहक और पोषक हैं जो उनकी शोषक है और इसलिए मंदिर और इन स्थलों में प्रवेश के आन्दोलन उसी व्यवस्था को मज़बूत करती हैं जिसने औरतो को कभी बराबरी का दर्जा नहीं दिया। 

बाबा साहेब आंबेडकर ने बताया के दलितों को मंदिर प्रवेश की जरुरत नही है क्योंकि वहां उनकी इज्जत नहीं है और इसलिए कालाराम मंदिर आन्दोलन के बाद उन्होंने मंदिर प्रवेश के आन्दोलन को बंद कर दिया और नयी व्यवस्था के निर्माण में लगे। अगर महिलाओ को अपने पे विश्वाश है तो उन्हें ऐसी व्यवस्था में नहीं जाना चाहिए जहाँ उनकी इज्जत नहीं है और इसलिए ऐसे भगवन को बता दो के अगर तू हमें बराबर मानने को तैयार नहीं तो हम भी तेरे द्वार पे आने को तैयार नहीं। आज की सबसे बड़ी चुनौती यह है के आधुनिक संविधान हमारे समाज को नहीं बदल पा रहे हैं क्योंकि धार्मिक ताकते अभी भी हावी हैं और हमारी अज्ञानता और भय के चलते इन पाखंडी परम्परआओ की शिकार बनी  है क्योंकि उसकी सामाजिक पहचान भी यही से है और समाज में अलग थलग होने का वोह खतरा उठा नहीं सकती और अंत में उन्ही सदी गली परम्पराव को ढोटी चली जाती हैं जो उसके खिलाफ हैं।

लेकिन आज के समाज की जरूरती है के औरतो को ऐसे सभी स्थानों को पूर्ण बायकाट करना चाहिए जहाँ उसे बरबरी की दृष्टी से नहीं देखा जाता और जहाँ वह अभी भी पुराणी दकियानूसी परम्पराओं के आधार पर अपमानित की जाती हैं। समय आ गया है के ऐसी परमपराओ, ऐसे धर्मस्थलो और लोगो को पूर्णतया नकार दो जो इंसानी बराबरी में विश्वाश नहीं करते और आज़ादी, बराबरी और सम्मान के मानवीय मूल्यों को नहीं समझते। 


-- 

No comments:

Post a Comment