Thursday 13 December 2012

तलाश एक अदद दुश्मन की





विद्या भूषण रावत  

गुजरात चुनाव में नरेन्द्र मोदी एक बहुत बड़ी जंग लड़ रहे हैं। यह जुंग उन्होंने खुद कड़ी की है। हजारो लोगो की मौत का आरोप अभी भी उनके सर पर लगा हुआ है। मोदी उसे एक तगमा भी मानते हैं लेकिन जानते हैं के भारत की राजनीती में आने के लिए उन्हें अपना माथे के इस कलंक को धोना भी पड़ेगा। मुसीबत यह की यदि वोह इस कलंक को धोते हैं तो उनके हिंदुत्व के रिश्तेदार उनसे दूर छिटक जायेंगे . जिस प्रकार की राजनीती को मोदी ने गुजरात में खड़ा किया है उसको धोने में अभी बहुत समय लगेगा और मात्र गुजरात के आर्थिक विकास के नारे से वहां की अंदरूनी हकीकत को बयां नहीं किया जा सकेगा।

मोदी और उनके समर्थको का प्रयास बार बार रहा है के उनको एक दमदार प्रशासक के रूप में प्रस्तुत करें और गुजरात विकास के मॉडल को दुनिया के समक्ष रखा जाए हालाँकि मोदी का आर्थिक मॉडल राहुल के राजनितिक सलाहकारों जैसे मोंटेक सिंह और चिदम्बरम से भिन्न नहीं है और विदेशी पूंजी के लिए उनके रस्ते बहुत पहले से ही खुले हुए हैं यह बात और है के मोदी की आर्थिक नीति उनके राजनैतिक क्रय कलापों से स्वीकार्य नहीं हो पा रही। फिर भी उनकी साम्प्रदायिक और दकियानूसी छवि को गुजरात विकास मॉडल के नाम पर ढकने से उनके देश में स्वीकार्य होने की कोई सम्भावना    नहीं  है।

मैं यह मानता हूँ के मोदी को गुजरात का शक्तिशाली वर्ग पसंद करता हो क्योंकि हमारी राजनैतिक प्रणाली ऐसी है के इसमें एक दुसरे को लड़ा के और वोटो के अंकगणित फिक्स करके और  फिर पूंजी की चासनी में उसको दल दे तो मोदी जैसे लोग सफल होंगे। गुजरात में अभी भी दलित बहुजन राजनीती हासिये पे है और वोह ज्यादा चल नहीं पाए। पैसों की ताकत से पूंजी ने अपना सबसे बड़ा रौद्र रूप गुजरा में दिखाया है जहाँ विकास के मायने मारवाड़ी सिन्धी बनिया पटेल आदि लोगो को ही 'विकसित' मानकरके पुरे गुजरात का आर्थिक विश्लेषण प्रस्तुत किया जा रहा है। यह जातियां तो पहले से ही व्यापारिक रही हैं और गुजरात हो या न हो इन्होने पैसे कमाए हैं क्योंकि सामाजिक बदलाव या देश के हालातो से उन्हें बहुत मतलब नहीं। वे धर्म, ढोंग, बाबा, महात्मा पर पुरे पैसे खर्च करने को तैयार हैं लेकिन यदि दलित पिछड़ा गुजरात में जब भी किसी कार्यक्रम में भागीदार है तो उनके आर्थिक बहिस्कार की संभावना होती है। अगर गुजरात के विकास को मॉडल देखना हो तो आदिवासियों और दलित पिछडो की हालत को देखना होगा और फिर विश्लेषण करना होगा। मुस्लमान तो मोदी के राज में हासिये पे रहा हे है और उसकी बात तो कोई भी पार्टी नहीं कर रही।

क्या यह शर्म की बात नहीं के गुजरत में धर्मनिरपेक्षता की बात कर रही कांग्रेस पार्टी के पास मुसलमनो को प्रतिनिदित्व देने  के लिए मात्र 6 सीटें ही थी। मोदी तो 'सद्भाव मिशन' चला रहे हैं और इरफ़ान पठान को घुमा रहे हैं लेकिन मुसलमानों को राजनैतिक प्रतिनिधित्व के लिए उनके पास समय नहीं है और लोग नहीं हैं। 2002 की शर्मनाक घटनाओ और उनके उत्पीडित लोगो को कोई न्याय नहीं मिला है और ऊपर से मोदी बार बार माहौल को सांप्रदायिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि वोह हिंदुत्व की राजनीती कर अच्छे वोट बटोर सकें 

मोदी केवल एक राजनैतिक व्यक्तित्व नहीं है। वह एक विचार भी है जिसके मूल में हिटलर की विचार धारा है। वोह आर्थिक विकास की आधार पर कोई वोट नहीं वाटर सकते क्योंकि जो उनका वोट बैंक है या उनके प्रशंशक हैं उन्होंने पहले ही अच्छे से पैसे कमायें हैं और उस पैसे को और लगा कर वोह देश में भी वोही मॉडल लाना चाहते हैं। आज, मोदी अमेरिकी मॉडल पे चुनाव लड़ रहे हैं। उनका ब्रांड बनाया जा रहा है और उसे हमारे सामने परोसा जा रहा है। यह खेल पूंजी के हैं इसीलिये कांग्रेस की तरफ से कुच्छ लोगो के 2014 के लिए चिदंबरम का नाम आगे किया। यह बहुत शातिर राजनीती का हिस्सा है जिसमे देश के ऊपर पूंजी तंत्र के चाहने वाले लोगो को थोपा जाए ताकि दलालों की दलाली अच्छी से चलती रहे।

मोदी का गुजरात मॉडल पिट चूका है। गुजरात की राज्य बसें राजस्थान से अच्छी नहीं हैं। वहां के विश्वविद्यालयो के कोई और स्कूल कालेजो में कोई बहुत ब्रांड नहीं है। आई आई एम् अहमदाबाद या आनंद के रूरल डेवलपमेंट इंस्टिट्यूट को छोड़ दे तो गुजरात में कुच्छ नहीं और ये दोनों संसथान मोदी की दें नहीं हैं अपितु पहले से चल रहे हैं . गुजरत के मुस्लमान अच्छे व्यापारी थे और मोदी की साम्प्रदायिक निति ने उन्हें सबसे ज्यादा चोट पहुंचाइये उनके होटलों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों को निशाना बनाया और उनका बहिष्कार किया गया। अगर गुजरात के मुसलमान अपने को अक्ल पाते हैं तो क्या यह मोदी की सफलता है?

शायद हाँ क्योंकि हिंदुत्व की राजनीती भी यही है के मुसलमानों को अलग थलग कर देश की राजनीती का हिन्दू कारन किया जाए। यानि की हिंदुत्व की बात करने की ठेकेदारी अब केवल भाजपा की ही ना हो अपितु कांग्रेस भी वोह राम नाम जपे और अन्य पार्टियाँ भी वैसा ही करें और शायाद आज वोह अपने इस मिशन में तो कामयाब हो गए लगते हैं।

लेकिन, गुजरात में राहे अभी भी इतनी आसान नहीं हैं। हिंदुत्व के पुराने प्रहरी केशुभाई जी नाराज चल रहे हैं और मोदी की हालत खस्ता कर सकते हैं इसलिए मोदी के वादों की झड़ी लगने की बाद भी उन्हें अपनी आर्थिक नीतियों पर कम भरोषा हैं। पचास लाख घर बनवाने के लिए वादा करने वाले नरेन्द्र मोदी के 'गौरवशाली' शासन की पोल इसी बात में  जाती है के उनके इस बात का मतलब यह की गुजरात में कम से कम इतनी बड़ी संख्या में बेघर लोग हैं और बेरोजगारी भी ज्यादा है। और शायद इसीलिये मोदी बार बार 'रास्ट्रीय' प्रश्नों को उठा रहे हैं। वैसे मोदी के कृपा से गुजरात के चुनाव हमेशा अंतररास्ट्रीय रहे हैं क्योंकि उन्हें किसी 'मियां' की जरुरत हमेशा रहती है, मिया मुशर्रफ से शुरू हुयी उनकी पुरानी पारी कभी जेम्स माईकेल लिंगदोह को निशाना बनाती तो कभी उन्हें मिया अहमद पटेल की जरुरत पड़ती।  जब वोह फलसफा भी नहीं चला तो मोदी को सर क्रीक को मुद्दा नज़र आ गया। मिया इरफ़ान पठान शायद ज्यादा काम न आयें इसलिए मोदी को बार बार एक दुश्मन चाहिए ताकि गुजरात को वोह वोह सांप्रदायिक आधार पर विभाजित किया जा सके और उनकी राजनीती चल सके  लेकिन मोदी अगर अपनी हिंदुत्व की राजनीती ज्यादा करेंगे तो भले ही गुजरात जीत जाएँ वोह कांग्रेस के लिए शुभसंकेत दे रहे हैं क्योंकि भारत की राजनीती को हिंदुत्व के गुजराती मॉडल के जरिये नहीं चलाया जा सकता। यहाँ देश की विविधता का सम्मान करना पड़ेगा और देश में 15 करोड़ मुसलमानों को अलग थलग करके या उनका अपमान करके आप कुच्छ भी नहीं कर सकते। देश के दुसरे हिस्सों में दलित, पिछड़ा और आदिवासी अपने अधिकारों के लिए जाग चूका है इसलिए मोदी के ब्राह्मणवादी हिंदुत्व के झांसे में वह नहीं आ सकता . गुजरात के परिणाम 20 दिसंबर को आ जायेंगे और चाहे मोदी वहां दोबारा आयें या नहीं, मोदी भारत के शासक नहीं बन सकते क्योंकि हिंदुत्व के ब्राह्मणवादी दकियानूसी एवं सांप्रदायिक  अजेंडे को देश अच्छे से समझ चूका है और  पहले ही ख़ारिज कर चूका है।

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