Monday 12 October 2015

Temple Entry movement : Mental slavery or a human rights issue

दलितों का मंदिर प्रवेश आंदोलन : दिमागी गुलामी या मानवाधिकारों का प्रश्न 


विद्या भूषण रावत 

दो वर्ष पूर्व बर्मिंघम में घूमते हुए हमारे मित्र देविन्दर चन्दर जी ने बताया के कैसे इंग्लैंड के कई पुराने और ऐतिहासिक चर्च अब खाली पड़े हैं और सिख उन्हें खरीद रहे हैं।  इन गिरजो में अब कोई क्यों नहीं जाता ये समझना जरुरी है और क्या 'सिखो द्वारा गुरुद्वारा बना लेने से कोई अंतर उसमे आ जायेगा क्योंकि ये केवल धनाढ्य सिख धार्मिक नेताओ को ही मजबूत करेंगे और उसके अलावा उस समाज के किसी भी सेक्युलर सेक्युलर तबके को आकर्षित नहीं कर पाएंगे।   जैसे जैसे कोई समाज सभ्यता और स्वतंत्र सोच की और अग्रसर होता है उसे भगवानो, पुजारियों और पूजास्थलों की आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि वह अपनी स्वतंत्रता को कायम रखने के लिए अपनी मनपसन्दीदा साहित्य और मनोरंजन को ढूंढता है और धर्म और उसके किताबे उसे अपनी आज़ादी पर बंदिश लगाने वाली नज़र आती हैं.  सिख समाज जरूर पैसे से मजबूत है लेकिन धार्मिक नेतृत्व  के चलते उनका बहुत नुक्सान भी हुआ है और अभी भी सिख अपने धार्मिक कठमुल्लाओं के खिलाफ बहुत मज़बूती से नहीं बोल पाये हैं।  पश्चिम में समाज ने आर्थिक, सामाजिक सांस्कृतिक तरक्क़ी की है इसलिए व्यक्ति अपने जीने के लिए पुस्तको और प्रकृति की और ज्यादा दौड़ता है बजाये पूजास्थलों की और जाने के। 

ये बात लिखने का आशय इसलिए के भारत में मंदिरो में प्रवेश को लेकर कई प्रकार के आंदोलन चल रहे हैं। बहुत से 'संतो' और 'क्रांतिकारियों ' ने दलितों के मंदिर प्रवेश के लिए कई स्थानो पे आंदोलन किये लेकिन इन सभी में नेतृत्व करने वाले 'महात्मा' तो पुरुस्कृत और महान हो गए लेकिन दलितों को अपमान और हिंसा ही सहनी पड़ी क्योंकि अधिकांश आंदोलन संकेतात्मक थे और उनसे बहुत बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि जब धार्मिक विचारधारा और उसमे व्याप्त कुरीतियां, अन्धविश्वाश, जातिवाद, छुआछूत पर हमला नही होगा तो मंदिर प्रवेश ब्राह्मणवाद और हिन्दुवाद को ही मज़बूत करेगा। 

 पिछले महीने मैं जौनसार (उत्तराखंड) क्षेत्र में था जहाँ दलितों को कई स्थानीय मंदिरो में प्रवेश पर प्रतिबन्ध है। इस इलाके में दलित अल्पसंख्यक हैं और विकास की धरा से यह क्षेत्र अभी कोसो दूर है।  वैसे यहाँ पर राजनैतिक नेतृत्व ने हमेशा से लोगो की अज्ञानता का आनंद उठाया है क्योंकि अविघाजीत उत्तर प्रदेश से लेकर उत्तराखंड बनने तक आदिवासी नेतृत्व के नाम पर पर इस क्षेत्र का एक मंत्री अवश्य बनता है लेकिन उनको भी यहाँ की असमानता और भेदभाव नज़र नहीं आता।  जब हमने वहां मौजूद लोगो से बात की तो अधिकांश साथियो को आंबेडकर नाम का पता तो था लेकिन उनके विचार क्या थे उसका दूर दूर तक अंदाज नहीं था।  एक अम्बेडकरवादी कमसे कम अपनी गरीबी के बावजूद भी विद्रोह का झंडा बुलंद रखता है लेकिन  यहाँ नौजवानो में मैं मंदिर प्रवेश के लिए उतावलापन देख रहा था ना के वर्ण व्यस्था के लिए कोई घृणा.  इसलिए जन समस्याओ को लेकर एक मित्र ने जब  बड़ा सम्मेल्लन बुलाया था तो उसमे  कई स्थानीय मुद्दे सामने आये लेकिन सभी ने शराबबंदी और मंदिर प्रवेश को मुख्य मुद्दा बताया।  मेरी दृष्टि में ये प्रश्न ही नहीं हैं और दलितों को शाकाहारी ब्राह्मणवादी चालो में घसीटने की कोशिश है क्योंकि सांस्कृतिक और स्थानीय आदतो पर हम अपने वैष्णवादी सोच लागु कर असली समस्याओ से ध्यान भटका देते हैं। 

 जौनसार का सम्पूर्ण  इलाका अनुसूचित जनजाति क्षेत्र  घोषित है।  देहरादून से करीब ७० किलोमीटर आगे चकराता, कलसी, विकशनगर आदि के इलाके जौनसार कहलाता है। पूरा इलाके में दलितों पे अत्याचार होता है और मंदिरो पर उनके प्रवेश पर पाबंदी है।  सबसे खतरनाक बात यह है के अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम यहाँ लागू नहीं होता क्योंकि पूरा इलाका आदिवासी क्षेत्र माना जाता है लेकिन ये आज से नहीं  अपितु उस समय से है जब उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा था और राज्य सरकारों ने कभी कोशिश नहीं की के इसे ठीक से समझा जाए और इसमें बदलाव लाया जाए.  क्योंकि इलाका आदिवासियों का था इसलिए मांग उठी थी के इसे आदिवासी इलाका  लेकिन अधिकारियो और राजनेताओ की चाल बाजी का नतीजा था के उन्होंने इस कमी की और ध्यान नहीं दिया और लिहाज़ा दलितों और आदिवासियों को इसका नुक्सान भुगतना पड़ रहा है क्योंकि आरक्षण का लाभ इस क्षेत्र के सवर्ण उठा रहे हैं लेकिन  छेत्र के आदिवासी नेता मंत्री कभी इस प्रश्न को नहीं उठाते।   इसीलिए मैं हमेशा से कहता रहा हूँ के समस्याओ के अति सामान्यीकरण से बहुत नुक्सान होता है।  जौनसार क्षेत्र का राजनैतिक नेतृत्व अपने को आदिवासी कहता है लेकिन यहाँ के दलितों पर हो रहे अत्याचार और इलाके में मौजूद अन्धविश्वास को अपनी संस्कृति बनाकर इस्तेमाल कर रहा है। पूरे क्षेत्र को आदिवासी जनजाति घोषित करने के अर्थ ये है के यहाँ रहने वाले हिन्दू सवर्ण सभी संवैधानिक तौर पर आदिवासी घोषित हो गए और वो सारे लाभ ले रहे हैं जो अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष तौर पर संविधान में बनाये गए है। दुखद और खतरनाक बात यह है के सवर्णो के अत्याचार पर दलित अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम का सहारा नहीं ले सकते लिहाज़ा दलितों पर अत्याचारों की कोई रिपोर्टिंग भी नहीं होती। वैसे एक सुचना के मुताबिक एक संसदीय समिति ने पूरे इलाके को आदिवासी घोषित कर सभी लोगो को आरक्षण का लाभ देने का विरोध किया है लेकिन न उस रिपोर्ट का कुछ पता ना ही सरकार  की उसमे कोई दिलचस्पी दिखाई देती है। 

जब मैं युवाओ से बात कर रहा था तो मैंने उनसे पूछा के मंदिर प्रवेश क्यों बड़ा  मुद्दा है ? भाई, अगर सवर्णो को अपने मंदिरो में गर्व है और वो दलितों को अपने मंदिरो में नहीं आने देना चाहते तो वो एहि साबित कर रहे हैं के दलित  हिन्दू नहीं है क्योंकि आप यदि हिन्दू हैं तो आपको मंदिर प्रवेश का अधिकार है।  मैं इस सवाल को दो तरीको से देखता हूँ।  एक तो व्यक्ति के अधिकार का मामला क्योंकि आधिकारिक तौर पर दलित हिन्दू हैं और भारत के संविधान ने छुआछूत को गैरकानूनी घोषित किया है इसलिए दलितों के मंदिर प्रवेश के अधिकार को साफतौर पर क़ानूनी सहमति है और उसे कोई ताकत रोक नहीं सकती क्योंकि धर्मस्थल सार्वजानिक सम्पति हैं और लोगो को पूजा के उनके अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।  ये एक मानवाधिकारों की लड़ाई है  और भारतीय संविधान  की पूरी ताकत उनके साथ है.  लेकिन एक अम्बेडकरवादी नज़रिये से जब हम इन चीजो को देखते हैं तो बाबा साहेब के मिशन का धयान आता है जब उन्होंने लोगो से गुलामी की जंजीरो को तोड़ने के लिए कहा था, बाइस प्रतिज्ञाएँ करवाई थी और लाखो लोगो के साथ बुद्ध धर्म ग्रहण किया था इसलिए बहुत बड़ी जिम्मेवारी लोगो के ऊपर भी है के वे अपनी मानसिक गुलामी को तोड़ने में कामयाब होते हैं या नहीं।   हम अगर सारी उम्मीदे राज्य सत्ता के ऊपर लगाकर चैन की नींद सोना चाहते हैं तो ये समझना होगा के मनुवादी सोच के मठाधीशो को मानववादी सोच के संविधान की 'रक्षा' का दायित्व है इसलिए दलितों के मंदिर प्रवेश के अधिकार को सरकार असहायता से देख रही है क्योंकि सारे जौनसार के हिन्दू अब दलितों के मंदिर प्रवेश को रोकना चाहते हैं। 

सवाल इस बात का है के क्या वाकई हिन्दू दलितों के मंदिर प्रवेश को रोकना चाहते हैं ?  मैं ये मानता हूँ के हिन्दू दलितों को भिखारी के तौर पर देखना  चाहते हैं नाकि इज्जत और बराबरी का हक़ लेकर अपनी शर्तो वाले व्यक्ति को लेकर इसलिए अगर झुककर, छुपकर आप मंदिर में घुश गए तो कुछ समस्या नहीं है लेकिन यदि अपनी पहचान के साथ इज्जत के साथ जाओगे तो वर्णव्यस्था को खतरा है।  खतरा असल में मंदिर प्रवेश से नहीं अपितु दलितों में बढ़ रही जातीय अस्मिता से है क्योंकि ये जानते  हैं के दलितों और पिछडो के गए बिना हिन्दुओ के मंदिर खाली पड़ जायेंगे और उनमे जाने वाले नहीं मिलंेगे। आज दलित हिन्दू केवल उनकी आबादी बढ़ने के लिए हैं अन्यथा हिन्दू व्यवस्था में उनका  कोई सम्मान नहीं है इसीलिए बाबा साहेब आंबेडकर ने उन्हें बुद्ध की शरण में जाने की  सलाह दी क्योंकि उस जगह जबरन घुश्ने का कोई मतलब नहीं जहाँ दिल के दरवाजे बंद हैं और दुनियाभर का छलकपट मौजूद हो।  आज भी हिन्दू समाज और उनके राजनैतिक संघठनो ने समाज बदलने का कोई प्रयास नहीं किया और न ही छुआछूत  विरुद्ध कोई आंदोलन किया।  दलितों के घर में एक दिन आकर मेला लगाने और तथाकथित रोटी  खा लेने भर से समाज में व्याप्त कुरीतियां नहीं जाने वाली क्योंकि जातियों को  वोट बटोरने तक ही सिमित कर दिया गया है। अभी भी हमारे नेता खाप पंचायतो के विरुद्ध बात करने को तैयार नहीं है।  आखिर हिन्दुओ को अगर दलितों के साथ रहने में दिक्कत है  तो दलित उनके साथ रहने को क्यों लालायित रहे ? 

आज जौनसार का दलित आरक्षण का लाभ भी नहीं ले पा रहा लेकिन मुझे दुःख हुआ जब मैंने कुछ नौजवानो से कहा के उन्हें मंदिर में जाने के बजाये संविधान को  पढ़ना चाहिए ताकि वे अपनी लड़ाई लड़ सके।  मनुवादियों की शरण में जाकर दलितों का उद्धार नहीं हो सकता।  भगवान और पुरोहितवाद बराबरी  और मानवता के दुश्मन हैं और वे अब बदलने वाले नहीं हैं और डंडे के बल पर आप मंदिर चले भी गए तो क्या करोगे जब पूरा साहित्य और धर्म ग्रन्थ आपको गरियाते नहीं थकते।  इसलिए अगर आप हिन्दू हैं तो आपके मंदिर जाने  के हक़ का मैं समर्थन करता हूँ और यदि नहीं तो आप अब चिंता छोड़िये।  मंदिरो, मस्जिदो, गुरुद्वारों या चर्चो में दलितों की आज़ादी नहीं छिपी है।  अगर दलितों की आजादी कही है तो वो है बाबा साहेब के तर्कवादी मानववदी दर्शन में और उनके बनाये संविधान में जो  मनुवादी समाज की आँख का कांटा बना हुआ है इसलिए उसको बचाने की हमारी जिम्मेवारी कहीं बड़ी है।  याकि मानिये आप मंदिर प्रवेश करके अपने इमोशन को तो बचा पाएंगे लेकिन आप मनुवाद को ही मज़बूत कर रहे है जो दिल से कभी बराबरी नहीं चाहता।  यदि उत्तराखंड के जौनसार या किसी  भी हिस्से के हिन्दू दलितों को मंदिर प्रवेश के लिए आंदोलन करें तो हम कहेंगे के बातो पर विचार करो लेकिन दलितों को अपने मंदिर प्रवेश के लिए खुद ही लड़ाई लड़नी पड़े और फिर मनुवादी ताकते उनको मार काटने के लिए तैयार खड़ी  हों तो ऐसे लड़ाई का कोई लाभ नहीं क्योंकि ये तो ब्राह्मणवाद के हाथो में खेलना है।  याद रहे आपका जीवन महत्वपूर्ण है और उसको सही दिशा में लेजाइये।  मंदिरो या पूजास्थलों में जाना बंद करें और चढ़ावे को अपने बच्चो की शिक्षा में लगाये तो भला होगा।  यकीं मानिये दलित जिस दिन पोंगा पंडितो और मंदिरो के पास जाना बंद  करदेंगे इन मंदिरो पे ताले पड़  जायेंगे और वे ज्यादा आज़ाद ख्याल रहेंगे और उनपर कोई अत्याचार भी नहीं होगा। 


 उत्तराखंड की सरकार और दो सवर्णवादी पार्टियो से मैं यही कहूँगा  के वे दोगली राजनीती बंद करें।  वो साफ़ करें के एक नागरिक  क्या अपने धर्मस्थल में नहीं जा सकता ? यह सरकार का दायित्व  है कि  लोगो को भयमुक्त प्रशाशन दे ताकि सभी अपनी इच्छा अनुसार पूजा अर्चना कर सके।  सरकार लोगो को पुजस्थल में प्रवेश करने से न तो रोक सकती है और ना ही उन्हें धार्मिक गुंडों के हवाले छोड़ सकती है।  यदि ६० वर्ष बाद भी एक व्यक्ति अपने पूजा अर्चना के अधिकार से वंचित है तो धिक्कार है इस व्यवस्था का और हमारे राजनेताओ पर। राज्य सरकार का यह उत्तरदायित्व है के पुरे प्रदेश में छुआछूत और जातिवाद के विरुद्ध एक बड़े एक बड़े कार्य्रकम की घोषणा करे ताकि ऐसी घटिया मानवविरोधी मानसिकता समाज में न पनपे और सभी लोग सम्मान के साथ जीवन यापन कर सके। हरियाणा में भगाना के लोगो ने मानसिक उत्पीड़न से तंग आकर  हिन्दू  धर्म का परित्याग किया।  कई बार उनलोगो को धमकी भी मिली लेकिन लोग डिगे नहीं और उन्होंने अपना रास्ता अख्तियार किया क्योंकि वहां की सरकार दलितों को सम्मान और सुरक्षा देने में पूरी तरह  विफल रही।  हम केवल इतना कहना कहना चाहते हैं के स्वतंत्र भारत का संविधान दलितों को मंदिर प्रवेश की आज़दी देता है और उनकी सुरक्षा और आपसी भाईचारा बनाने की जिम्मेवारी सरकार की है न के दलितों की अतः उनको अपनी जायज मांग रखने का हक़ है।