Wednesday 7 August 2013

अनारक्षित सीटो को सवर्णों की बना देना गैर संवैधानिक


विद्या भूषण रावत 

क्या कँवल भारती की गिरफ़्तारी की निंदा केवल इसलिए नहीं करनी है के इससे 'बहुजन' शाशन बदनाम हो रहा है और 'ब्राह्मणवादी' अफसरशाही ताकतवर हो रही है. लेकिन ऐसा करने में एक गलती के बाद दूसरी गलती करने वाले लोग कौन हैं ? उत्तर प्रदेश की  सरकार ने प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा आरक्षण के मुद्दे को जिस बेशर्मी से दबाया है वो निंदनीय है . जिस  तरीके से ओबीसी छात्रो की आन्दोलन को दबाने और तोड़ने की कोशिश की है वो सबके सामने है. क्या प्रदेश की सेवाओं में आरक्षण को शुरूआती दौर से लागू नहीं किया जाना चाहिए। अगर प्रदेश के प्रशाशनिक सेवाओं में आरक्षण प्रारंभिक परीक्षा से लागू नहीं हुआ तो  इंटरव्यू तक कैसे २७ प्रतिशत का कोटा तैयार होगा। इसलिए उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग ने जो निर्णय लिया था वो सही था लेकिन प्रदेश के सरकार ने वो निर्णय  लिया। प्रदेश के पिछड़े वर्ग के छात्रो के साथ इससे बड़ी कोई धोखाधड़ी नहीं हो सकती।

आज लोगो को समझाने की आवश्यकता है की आरक्षण की ऐतिहासिकता क्या है. बिना इतिहास जाने हम संघर्ष नहीं कर सकते।   इस बात की के 'जनरल' या 'सामान्य' कही जानी वाली सीटो का मतलब क्या है . भारत में रिजर्वेशन व्यवस्था लागू है रिप्रजेंटेशन नहीं जो बाबा  साहेब आंबेडकर की मुख्या मांग थी.  अतः सामान्य सीटो का मतलब सवर्णों की सीटें नहीं हैं अपितु इनका सीधा मतलब है अनारक्षित सीटें और इस पर सभी का हक है. इसलिए जो भी पिछड़ा, दलित या आदिवासी छात्र सीधे मेरिट पर उन सीटों पर निकलता है तो उसको वहां से हटाकर उनके कोटे में डालना अस्म्वैधानिक है और उसको चुनौती दी जानी चाहिए हालाँकि  अभी भी मुझे न्यायालयों के सामाजिक परिवर्तन के मसलो पर ज्यादा भरोषा नहीं है लेकिन संसद इसमें काननों बनाकर राज्यों को गाइड कर सकती है. 

साधारण भाषा में देखें तो जनरल डिब्बे में ज्यादा भीड़ होती है और आरक्षित में कम और जनरल में जो दम ख़म वाले होते हैं वे ही बैठ पाते हैं और इसलिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी ताकि आर्थिक और शैक्षणिक रूप से कमजोर लोगो के लिए विशेष व्यवस्था हो लेकिन अब इस समाज से भी लोग अनारक्षित कोच में बैठ सकते हैं क्योंकि वे लगातार मेहनत कर रहे हैं और आगे निकल रहे हैं लेकिन यही बात जातिवादियों को हज़म नहीं हो रही है. बात समझाने की है और अधिक नौकरियां पैदा करने की भी है. बात यह भी है की केवल नौकरियों में ही हमारा भविष्य है या हम बिज़नस और अन्य कार्य भी कर पाएंगे या नहीं . क्योंकि आने वाले दिनों में यह सरकारी नौकरियां मृग मरीचिका हो जायेंगी क्योंकि इसका भी इंतज़ाम हो चूका है इसलिए लोगो को आपस में भिड़ा लिया जाएगा लेकिन जब तक सरकार है वहां के लिए नौकरियां भी चाहिए होंगी और आरक्षण की व्यवस्था भी क्योंकि उसके ऐतिहासिक परिपेक्ष्य हैं. अफ्सोश्नाक यह है के सामाजिक न्याय के लम्बरदार कहलाने वाले लोग इस मुद्दे पर हाथ लगाने को तैयार नहीं है और इसका नतीजा है उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ने अपना निर्णय वापिस ले लिया है. 

एक ग़लतफ़हमी जो हर वक्त फैलाई जा रही है वह यह है के ५० प्रतिशत अन्नारिक्षित सीटें सवर्णों की हैं और दलित पिछड़ी जाती के बच्चे नहीं आ सकते। पहले आरोप लगाया जाता था के दलित और पिछडो में मेरिट नहीं और ब्राह्मणवादी मानसिकता के लोग यह भ्रम फैलाते थे के १५ प्रतिशत वाले ९० प्रतिशत वाले के ऊपर हावी है और यह के मेरिट का सत्यानाश हो रहा है लेकिन पिछले कुछ वर्षो से दलित पिछड़े छात्र सभी परीक्षाओं में बहुत अच्छा कर रहे हैं और मेरिट में टॉप पर भी हैं तो जातिवादियों ने नया सगोफ्फा छेड़ दिया है के आरक्षण ५० तक है लेकिन वे यह भूल रहे हैं के जो दलित पिछड़े सामान्य सीटो से आ रहे हैं वे आरक्षित नहीं है। लेकिन हमारे न्यायालयों और नेताओं ने ५०% सामान्य करके ऐसा भ्रम फैलाया जिसका पर्दाफास करना जरुरी है. जातिवादी दिमाग के लोग बाते  फ़ैलाने,कहानियां बनाने और अफवाहें फ़ैलाने में माहिर हैं और इसलिए हमें अपनी बात को तथ्यों के साथ रखनी होगी।

अगर आरक्षण को प्रतिनिधत्व मान लिया जाए तो सवर्णों की परेशानियां बढ़ सकती हैं क्योंकि फिर तो 'जिसकी जितनी संख्या भारी  उसकी उतनी भागीदारी ' का सिद्धांत चलना चाहिए और उनका कोटा १५ प्रतिशत से भी नीचे चला जायेगा और दलित बहुजन आबादी को ८५ प्रतिशत से ऊपर शेयर देना पड़ेगा। धयान देने वाली बात यह है के सवर्णों में भी यह जांच का विषय आएगा के कौन सी जाती मलाई खा रही है. अक्सर दलित पिछडो की कुछ एक जातियों पर आरोप लगते हैं के एक या दो जातियां की आरक्षण की  मलाई खा रही हैं लेकिन यह आरोप अनारक्षित सीटो पर जनरल की नाम पर सवर्णों की जो जातियां खा रही हैं उक इतिहास सबको पता है और हमारे साथियों को उस पर भी काम करना चाहिए ताकि वहां भी जिनको अधिकार नहीं मिला उनकी बात आ सके. 

इसलिए अगर बात आरक्षण की करनी है तो अनारक्षित सीटो को सवर्णों की सीटो में बदलने की साजिश की कड़ी निंदा करनी होगी और इसके विरूद्ध  और यदि इससे भी उनके परेशानी है तो सत्ता में जनसँख्या के हिसाब से शेयर दे दिया जाए समस्याओ का समाधान हो जायेगा।

अभी तो उत्तर प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री और उनके परिवार के सदस्य सरकारी बाबुओ से भिड रहे हैं और आरक्षण आदि के मुद्दे से उन्हें कोई मतलब नहीं है क्योंकि वे जानते हैं के जब चुनाव आएगा तो जातीय निष्ठाएं काम आ जाएँगी और उनका कोई कुछ नहीं बिगड़ पायेगा। कितनी बड़ी त्रासदी है इस लोकतंत्र की के यह जाति के चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल पा रहा और सामाजिक परिवर्तन की पूरी लड़ाई को इसी खांचे ने रोक दिया है अगर उससे बहार निकलना है तो अपने नेताओं और सरकारों से सवाल करने पड़ेंगे . दुर्गा नागपाल को मीडिया महान बना रहा है और वोह ऐसा करेगा लेकिन कँवल भारती की क्या गलती के उन्हें जेल जाना पड़ा क्या केवल इसलिए उत्तर प्रदेश की सरकार की  आलोचना न की जाए के वोह 'बहुजन' की सरकार है. क्या बौद्धिकता को हम कैद कर दे और फिर तुलनात्मक अध्यन करेंगे . गलत को गलत कहना पड़ेगा। अफ़सोस  हमारे बहुत से साथी या तो चुप हैं या किन्तु परन्तु लगाकर बोल रहें हैं। चलिए जिनकी राजनैतिक या जातीय मजबूरियां हैं हम उन्हें कुछ नहीं कहेंगे क्योंकि  सबको अपना कल की चिंता होनी चाहिए खैर हमारे यहाँ तो ऐसा नहीं है क्योंकि हमने तो लड़ने का वादा किया और साथ खड़े होने का भी इसलिए जो अपने अधिकारों के लड़ रहे हैं उनको हमारा सलाम। 

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