Thursday 7 February 2013

Untouchability in Kumbha


कुम्भ का वीभत्स सच 

विद्या भूषण रावत 


गंगा में नहाने के लिए लाखों लोग कुम्भ में आ रहे हैं और दलाई लामा भी विश्व हिन्दू परिषद् और अशोक सिंघल के बुलावे पर  अल्लाहाबाद पहुँच गए . साधू महात्माओं में रोष है के बुद्धिस्ट्स तो वर्ना व्यवस्था के विरोधी हैं तो फिर दलाई लामा को यहाँ क्यों बुलाया परन्तु दलाई लामा को भारत में रहने के लिए संघ की जरुरत है और इसीलिये वह घृणा फ़ैलाने वाले इन संघ्थानो के साथ आने में संकोच नहीं करते .

कुम्भ में सब खाली खाली सा है। चाय वाला ग्राहकों की कमी का रोना रो रहे हैं तो बाबाओ के स्टाल्स भी अपने ग्राहकों के लिए लिए इन्तेज्ज़र कर रहे हैं। वि ही प के नारे लगे हैं के बांग्लादेशियों को रोको और धर्मान्तरण पर रोक लगाओ। कोई हिन्दुओ की एकता की बात कर रहा है तो कोई बेटी बचाने  की बात कर रहा है। गंगा में प्रदुषण कम हो इस पर भी बाते हूँ रही हैं लेकिन समाज  में छुआ छूट की बात किसी के जुबान पे नहीं आती / 

अगर घटनाओं का विश्लेषण करे तो कुम्भ धर्म और पूंजी के सत्ता के साथ नज़दीक के रिस्ते और गठबंधन की और संकेत करता है। सरकार के सहयोग के बगैर इस प्रकार की दकियानूसी तकते आगे नहीं बढ़ सकती लेकिन सामने ही गरीब मजदूर कम करते हैं और खुले आसमान में सोते हैं तो सरकार और उनके नौकरशाहों को शर्म नहीं आती। कुम्भ में भक्तो के लिए पूरी सहूलियत है और उसकी महानता  के गुणगान भी किये जा रहे हैं। साधू और बाबाओ को विदेशी शिष्यों की तलाश है। गोरी चमड़ी पे भारत के इन महान हस्तियों को बहुत ज्यादा भरोषा है क्योंकि उनके अध्यात्म को सही  बताने के लिए इसकी अवश्यक्ता है। 

कुम्भ भारतीय यथास्थितिवादियों का गढ़ है। देश के जीवन में उनकी भूमिका कम होने लगी है लेकिन कुम्भ के जरिये एक बार फिर वे अपनी ताकत का एहसास करवाते है। दुखद बात यह की हमारे वैज्ञानिक भी ये साबित करने में लगे हैं के 'सामूहिक स्नान' के जरिये उर्जा मिलती है। जरुर सामूहिक कार्य से ताकत मिलती है लेकिन गंगा के गंदले पानी में डुबकी लगाकर लोगो को कितनी समस्यां होती हैं यह लोग नहीं बता रहे। धर्म के धन्देबाजो के साथ पूंजी के इस बेशर्म लेकिन प्राकृतिक गठबंधन के खेल देखकर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अगर यह एक मात्र  आयोजन होता तो कोई बात नहीं लेकिन यहाँ पे पूरी राजनीती हो रही है और तथाकथित धार्मिकता और अध्यातिम्कता तो मात्र एक बहाना है। 

कुम्भ की सबसे वीभत्स  हकीकत यहाँ पर जातिवाद और छुअछुत का  खुला खेल है। लगभग 7000 कर्मचारी कुम्भ में बड़े लोगो की    कर रहे हैं।कॉटेज और टेंटो में रोज सफाई का  इन दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों पे है जिन पर मात्र छू देने से अपवित्र होने का खतरा बना रहता है। कुम्भ में सरकारी खर्च पर बने स्विस कॉटेज में लोग आराम फरमा  रहे हैं और छोटे कॉटेज भी पानी और शौच की  से युक्त हैं। हर एक पंडाल में पानी से लेकर शौच की पर्याप्त व्यवस्था है। लेज़र से और कंप्यूटर के ज़रिये स्वर्ग और नरक की जानकारी दी जा रही है। 

मेले में सफाई मजदूरों के लिए अलग से एक बस्ती बनाई गयी है। डॉम लोगो के लिए भी अलग बस्ती है। अलग थलग इन बस्तियों में लोग  कीड़े मकोडो की तरह रह रहे हैं। दुसरो का मलमूत्र साफ़ करने वालो के अपने इलाके में न शौचालय की व्यवस्था और न ही   पानी का समुचित प्रबंध। मनोज और उसके परिवार के सभी सदस्य कौशाम्बी से यहाँ आये हैं और उनकी अपनी हालत बहुत  ख़राब है। वो बताता है के अभी तक सुविधाओं की कमी है और लोग मात्र छू देने से छुआछूत करते हैं। बाल्मीकि बस्ती में जाने पर हमें एक और क्रूर सच्चाई   देती है। दान में दिए बचे खुचे खाने को लोग सुखा रहे हैं और फिर शायद पीस कर आटा  बना कर खाएं। न मेडिकल न ही छुट्टी की कोई व्यवस्था। 

कुम्भ में हमारी मानववादी यात्रा ने कुच्छ परेशान करने वाले सवाल उठाये हैं। आध्यात्म और धर्म की बात करने वालो के  के अन्दर जाति  और छुआछूत के प्रश्नों पे बात करने के अलावा सब कुच्छ है।  यह बहुत क्रूर हकीकत है इस दकयानुसी समाज की और इसलिए इसका पर्दाफास करने की जरुरत है। कुम्भ के मेले में डुबकी लगाने से भारत के लोगो के पाप नहीं धुलेंगे और गंगा मैली होती रहेगी। इस सभ्यता को पाप से बचाने के लिए छुआछूत और जाति  के प्रश्नों पर सीधे बात करने की आवश्यकता है और उसे जड़ से मिटने की जरुरत है तभ हम एक सभ्य समाज कहलने के काबिल होंगे