Sunday 15 December 2013

कैसे बने एक निर्भय समाज



विद्या भूषण रावत 

एक वर्ष पूर्व दिल्ली में  चलती बस में हुई दरिंदगी ने महिलाओ के  मसले पर लोगो को सोचने का मौका दिया लेकिन पूरी बहस कहीं न कहीं सरकार की आलोचना तक सीमित रह गयी और असली मुद्दे से हमारा धयान  हट गया. दरअसल आज दिल्ली में जो अराजकता पैदा हुई है वो पिछले तीन वर्षो में  हुए विचारविहीन आंदोलन हैं जिन्हे हम 'बदलाववादी' बताने कि कोशिश कर रहे हैं।  आज आप अपने आपको भाजपा और संघ से अलग दिखने की कोशिश कर रहा है लेकिन हम जानते हैं के संघ इस प्रकार के 'नैतिक' मुद्दो पर आधारित विभिन्न संघठन खड़े करता है और उनका समर्थन भी करता है. आप विचारधारा में कैसे संघ से भिन्न है ये अभी दिखाई नहीं दिया और केवल राजनीतिज्ञों और राजनीती को टारगेट कर आप करना क्या चाहता है ? 

 आप की राजनीती में फासीवादी रास्ट्रवाद झलकता है. ये नौटंकी कहने में अच्छी लगती है लेकिन भीड़ केवल बाबरी मस्जिद गिरा सकती है कोई भला काम नहीं कर सकती और  जब वो उन्माद में हो तो अपने नेता के नियंत्रण से बहार होती है। क्या संसद और विधानसभाओ की महत्वपूर्ण बहस गांवसभा में बदल जाए? 

हम सभी जानते हैं के संसद और विधानसभाओ में अभी सही तरीके से बहस नहीं होती और लगातार अडजर्नमेंट होते रहते हैं लेकिन उसको सुधरने की आवश्यकता है न के उसको खत्म करने की ? हर एक मर्ज की दवा केजरीवाल और किरणबेदी द्वारा सुझाया  लोकपाल करेगा तो साफ़ है के ब्राह्मणवाद के यह खतरनाक पुजारी और खिलाडी उन सभी बातो में बहस नहीं करना चाहते जिस कारण से आज देश में संकट है. भ्रस्ताचार एक बड़ी बिमारी है लेकिन आज के युग में केवल सरकार और राजनीती पर अंकुश लगाकार हम उसको ख़त्म कर देंगे ? अरविन्दजी और उनकी पार्टी ने कितनी आर टी आई भारत के 'संभ्रांत' उद्योगपतियों  पे लगाईं हैं ? चलिए मुकेश अम्बानी के ५००० करोड़ रुप्पिया के आलिशान बिल्डिंग पर कितना आंदोलन आप करेंगे। हाँ ये उनके बाप की कमाई है जो उन्होंने साम दाम दंड  भेद से कमाई। चारे के लिए आप लालू को जैल भेज सकते हैं लेकिन किसी अम्बानी या बिरला पर जब ग़ाज़ गिरेगी तो तंत्र हिल जाएगा। लालू या मुलयाम को सजा जनता दे सकती है लेकिन इन बड़े कुटिल लोगो को कौन सजा देगा जो देश का माल अपना समझ कर खा रहे हैं ? कोयला आवंटन से लेकर ३ जी तक में राजनेता तो जैल जा रहे हैं लेकिन एक भी उधोगपति पर आंच नहीं आयी और जब बिरला पर ग़ाज़ गिरी तो व्यवस्था की चूले हिल गयी.

आप एक तानाशाह व्यवस्था चाहते हैं ताकि लोकतान्त्रिक प्रणाली हिलके रहे और घबराहट में काम करे. इस देश को अब स्थिर सरकारो के जरुरत है न के रोज रोज मर मरके जीने वाले तंत्र की. व्यस्था की अव्यवस्था से पुरे देश को नुक्सान हो रहा है. पिछले तीन वर्षो से तंत्र ने काम करना बंद कर दिया है. विकास का काम ठप पड़ा है क्योंकि अधिकारी फैसले नहीं लेते। आप पत्थर फेकना तो जानता है लेकिन उस व्यवस्था के बाहर के रहकर। इस देश को समझना बहुत जरुरी हैं और इसके लिए केवल उनका नेतृत्व मत करो जिनकी जड़ो से भ्रस्टचार निकलता हो। 

इस देश की मौलिक समस्या है ब्राह्मणवादी कुटिलता और यह हर एक उस व्यक्ति में भी घुश गयी है जो उसके विरूद्ध लड़ने का दावा  भी करता है. प्रशाशन में , राजनीती में, पुलिस में सभी जगह ईमानदारी से काम करने वाले व्यक्ति को हम हिकारत के नज़र से देखते हैं।  दफ्तरों में हम अपने बिरादरियों के अधिकारी के पास जाते हैं. कोर्ट में वकील लोग लम्बे टीका और ढाढी रखकर जाते हैं ताकि उनकी 'पहचान' पता चल सके उनको भारतीय होने में गर्व नहीं अपितु अपनी जातीय और धार्मिक पहचान से ज्यादा मतलब है।हम आज भी उसी विरोधाभास में जी रहे हैं जिसके बारे में बाबा साहेब आंबेडकर ने हमें आगाह किया था. हमने अपने सामाजिक मूल्य नहीं बदले और उन्ही को हम अपनी राजनीती में लाना चाहते हैं।  देश के राजनीती रिपब्लिकन नहीं हो पायी। यह खापो की राजनीती बन गयी इसलिए जब हम वोट लेने जाते हैं तो हर एक बिरादरी 'महान' बन जाती है. जब जाट वोट चाहिए तो खाप की आलोचना क्यों करोगे। क्या आप मुजफ्फरनगर ने जो हुआ उस पर कुछ कहेगे। मैं आपको इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि दुसरो से भिन्न और बेहतरीन होने का वे दम्भ भर रहे हैं। पुरे सिस्टम को ख़राब कहना आसान है लेकिन हम किसको मज़बूत कर रहे हैं यह भी जरुरी है ? क्या आपकी टीम सेकुलरिज्म और संविधान की सर्वोच्चता को मानेगी या रामलीला ग्राउंड में बनिया ब्रह्मणो की रैली को जनता का  फैसला कह देगी। आपका गाँव सभा का विचार खाप पंचायत है और ये केवल भीड़ का न्याय करेगा न की न्याय का न्याय और इसके लिए कानूनो की जरुरत नहीं क्योंकि जो केजरीवाल कहेंगे वो ही सही होगा क्योंकि कानून और संविधान की तो वे धज्जिया उखेड़ देंगे। हमने आपके महान देशभक्त कवि महेशाय को देखा है उनकी कवितायें भी सुनी हैं और कह सकते हैं के ऐसे लोग अगर आप कहेंगे तो देश पर निस्चय ही खतरा है। 

इस प्रकार के आंदोलन जहाँ हर मर्ज की दवा सरकार और राजनीती है खतरनाक खेल हैं।  जिसको हम निर्भय बना रहे हैं और जिसके नाम पर कानून और स्कॉलरशिप्स हो गयी हैं उसका नाम तक नहीं पता. मतलब साफ़ है के हम उन्ही परम्परावादी दकियनुसी विचार को मज़बूत कर रहे हैंजो कहता है के लड़की के अस्मिता खत्म हो गयी यदि उसके साथ शारीरिक हिंसा या सेक्सुअल वायलेंस हुई हो ? क्या हम अपने बच्चो को मज़बूत कर रहे हैं या कमजोर ? महिलाओ पे हिंसा हमारे समाज की सदियों पुराणी परंपरा है वो चली आ रही हैं. हम अपने बच्चो को कैसा बड़ा करते हैं और हमारे शादी ब्याह, मौत, ब्रत  त्यौहार आदि सभी तो महिला विरोधी हैं लेकिन उनको कोई चुनौती नहीं देना चाहता। इसलिए मैंने कहा भारत में वर्णवादी व्यस्था से कोई लड़ना नहीं चाहता क्योंकि उससे सभ्य औरसहनशील दिखने वाले समाज की पोल खुलती है. इसलिए वर्णवयस्था के पोशक सभी बातो के लिए संविधान को दोषी ठहराते हैं. 

एक निर्भय समाज ऐसा नहीं हो सकता जो परम्पराओ के टूटने के डर से काम नही  करता।  भारत की एक मात्र निर्भय फूलन देवी थी जिन्होंने अपने अपमान का बदला लिया और अपने प्रति हुए भारी अपमान की आग में जल कर मरना नहहि सिखा अपितु सर उठाकर जिंदगी जी और अपने हिसाब े उसका प्रतिरोध किया। उस पर चर्चा हो सकती है लेकिन सबसे बड़ी बात ये के फूलन ने असहाय होकर, अपनी जिंदगी को ख़त्म कर और गुमनाम जिंदगी नहीं चुनी और यही उनकी सबसे बड़ी ताकत थी और आज भारत की हर एक बेटी, बहु, बहिन को ये सोचना है के सेक्सुअल वायलेंस से हमारी अस्मिता और पहचान ख़त्म नहीं होती और हम अपना मुंह छिपकर नहीं सर उठाकर, लोगो के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर इस हिंसा का विरोध करेंगे।अगर भारत को निर्भय समाज बनाना है तो हम सभी को आधुनिक संविधान को अपने जीवन में उतरना होगा और महिला हिंसा से जुडी परम्परावादी सोच को बदलना होगा और फूलन की तरह सर उठाकर चलना सीखना होगा।  हमारी बीमारियां हमारे समाज की दें हैं नाके हमारे संविधान की और इसलिए जरुरत है हमारा दृष्टिकोण बदले और सामाजिक तौर पर हमें आत्मा चिंतन की  है ना कि हर बात के लिए एक नए क़ानून की।