Friday 22 February 2013

मानसिकता का संकट




विद्या भूषण रावत 

 हैदराबाद में बम ब्लास्ट की घटना के बाद से भारत के अख़बार और टीवी चैनल  सबूत पकड़ लिए के यह 'इंडियन मुजाहिदीन' के लोगो ने करवाएं है। दरअसल ब्लास्ट के दस मिनट के अन्दर ही हमारे विशेषज्ञ इस नतीजे पे पहुँच चुके थे के यह किसने करवाए है। जब केंद्रीय गृह मंत्री ने बताया के राज्यों को इसकी जानकारी एडवांस में दी जा चुकी थी तो गृह मंत्री को लेकर हमारे स्वनामधन्य पत्रकारों ने ढोल पीटना शुरू कर दिया के वोह बिलकुल भी इस पद लायाक नहीं हैं। यह बात तो कांग्रेस और उसके प्रधानमंत्री निर्धारित करेंगे के कौन किस लायक है या नहि. राजदीप सरदेसाई और बर्खादुत्त  से पूछकर तो कोई अपनी कैबिनेट गठित नहीं करता। सवाल सही है के देश में आतंकवादी घटना को लेकर हर के प्रश्न पूछेगा लेकिन क्या इसके लिए किसी के जाति  को कैसे जिम्मेवार ठहराया जा सकता है. आखिर जब शिवराज पाटिल देश के गृह मंत्री थे तो मुंबई के ताजमहल होटल में हमले के बाद उनकी क्षमताओ पर सवाल खड़े हुए लेकिन किसी ने उनकी जाति को लेकर कमेंट नहीं किये. 

मुझे समझ नहीं आता के राजदीप को शिंदे की जाति  को लेकर सवाल करने का क्या मतलब था . क्या राजदीप ने कभी लिखा के विजय बहुगुणा में वोह कौन सी खासियत थी के उन्हें उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनाया गया. लेकिन कोई भी जातिवादी पत्रकार नहीं कहेगा के ब्राह्मण होना ही उनकी खासियत थी और इसलिए उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया. केंद्रीय गृह  मंत्री के ओहदे पर चिदंबरम भी रहे लेकिन दो वर्षो में ही उनकी हालत ख़राब हो गयॆ. अच्छी अंग्रेजी के मालिक चिदंबरम मंत्रालय से बहार निकलने के लिए उतावले थे. जहाँ तक गृहमंत्रालय के पद पर 'भारी भरकम' व्यक्ति को रखने की बात है तो अडवानी के गृह मंत्री बनाने से क्या हुआ। क्या आतंकी हमले रुके? उलटे कंधार में आतंकवादियों को गिफ्ट देने के लिए जसवंत सिंह को भेज गया। बेहद निराशाजनक बात यह है के ज्ञानी जेल सिंह को भी बहस में लपेट लिया गया जो भारत के राष्ट्रपति थे। बताया गया के पंजाब में आतंवाड के लिए वह जिम्मेवार थे और राष्ट्रपति बन्ने लायक नहीं थे क्योंकि उन्होंने इंदिरागांधी के कहने पर झाड़ू लगाने की बात कहि. 

राजनीती स्वनामधन्य पत्रकारों से नहीं चलती जो मुह में जो आया बक दिया. राजनीती में बहुत कुच्छ देखा जाता है और निष्ठाएं बहुत मायने रखती है। ज्ञानीजी पंजाब के मुख्यमंत्री थे और उनका राजनैतिक अनुभव बहुत ज्यादा था। भारत के रास्त्रपति के पद पर जैलसिंह ने कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे उनको शर्मिंदा होना पड़े। अपितु इस देश के राष्ट्रपति पद की गरिमा को उन्होंने और बढ़ाया। वोह अंत तक अपनी भाषा और जमीर से जुड़े रहे. राष्ट्रपति के अधिकारों के लेकर उन्होंने जो बहस चलाई वो भारत के इतिहास में कोई राष्ट्रपति नहीं कर पाया और राजीव गाँधी को अपने समय में राष्ट्रपति का अपमान करने का मतलब उन्होंने अच्छे से समझा दिया. 

मुझे शिंदे से कोई सहानुभूति नहीं है लेकिन देश में आतंकवादी घटनाओं के लिए उन्हें कैसे जिम्मेवार ठहराया जा सकता है. शिवराज पाटिल की तरह वह भी गंभीर न दिखने वाले राजनैतिक व्यक्ति है . कांग्रेस को लगता है के गृहमंत्रालय में एक राजनैतिक व्यक्ति आना चाहिए न के एक नौकरशाह जो संघ परिवार का अजेंडा लागु कर सके. लेकिन इस वक़्त यह प्रयास हो रहे हैं के हर मंत्रालय में एक 'विशेषज्ञ' बैठकर भारत के लोकतंत्र को भी पीछे से नियंत्रित किया जा सके. वैसे भी यह लोकतंत्र इस वक़्त धर्म और पूंजी की गिरफ्त में है और जो थोडा सा रास्ता कही भी खली बचा है उसमे भी ये शक्तिं सबके रस्ते बंद कर देना चाहती है .

वैसे शिंदे को तो यह द्वंश झेलना पड़ेगा क्योंकि वो अम्बेडकरवाद से निकले वे योद्धा तो नहीं है. वे तो कांग्रेसी संस्कृति में रमे हुए व्यक्ति हैं जिन्हें जब इस्तेमाल करना होता है बुला लिया जाता है . एक अम्बेडकरवादी विचार का व्यक्ति कमसे कम आत्मसम्मान से अपना काम करेंगे और वोह अपनी क्षमताओं में किसी के कम तो नहीं हो सकता यदि ज्यादा भी नहीं है तो. शिंदे कांग्रेस में व्याप्त ' चारण संस्कृति' की उपज हैं और उनसे बहुत अपेक्षाएं नहीं की जा सकती क्योंकि पहले हिंदुत्व के आतंकवाद पर जिस तरीके से उन्होंने पलती खाइ वोह शर्मनाक था लेकिन क्या करें उनका हिंदूवादी हाई कमान यही चाहता था. कांग्रेस संस्कृति में मंत्रियों को हाई कमान के अनुसार काम करना होता है और उसमे अगर सफलता मिलती है तो वोह हाई कमान की सफलता होती है और अगर विफलता होती है तो व्यक्ति की विफलता है. क्योंकि गृह मंत्रालय एक काँटों का हार है और इस वक्त असफलताओं का दौर  है इसलिए शिंदे को वोह सब झेल पड़ेगा और वोह इसको आसानी से निगल भी लेंगे क्योंकि कांग्रेस संस्कृति से आते है। 

शिंदे की जाति  को लेकर राजदीप सरदेसाई या जो कोई भी प्रश्न उठा रहा है वोह जातीय पूर्वाग्रह से युक्त है और उसकी निंदा   की जानी चहिये. एक गृह मंत्री के तौर पर उनका मुल्यंकन करने में कोई बुराई नहीं है लेकिन यह कहना के वह दलित हैं इसलिए असफल हैं या यह पद उन्हें इसलिए मिला क्यंकि कोटा देना था देश का अपमान है. देश में बहुत ही योग्य दलित हैं जो प्रधानमंत्री बन्ने के काबिल भी हैं लेकिन क्या देश में नेतृत्व का सवाल कभी कबिलिअत के आधार पर हुआ है ? अगर नहीं तो सिर्फ दलितों से कबिलिअत क्यों पूछी जा रही है. ? यह देश अथाह जुगाडबाजी और बाजीगरो का देश है और इसलिए यहाँ की राजनीती में वैसे ही व्यक्ति चाहिए जैसे उसके नेतृत्व को चाहिए और इसमें सभी लोग पूर्णतया 'धर्मनिरपेक्ष' हैं . जुगाडी केवल नेता ही नहीं हैं हमारे पत्रकार बंधू भी नेता बनने की मुहीम में लगे है। चैनलो को पास करवा रहे हैं और पार्टी के प्रचार में लगे है, फर्क इतना है के सबने 'बोर्ड' पत्रकारिता का लगाया हुआ है अन्यथा अगर अन्दर झांक के देखेंगे तो जनेउ दिखाई देगा और पूरी बहस किधर ले जानी है साफ पता चल जायेगा. फिलहाल सभी पत्रकार बंधू अपने अजेंडे में लगे हैं और कांग्रेस पार्टी को भी देखना है शिंदे साहेब कहाँ ज्यादा अच्छे से फिक्स होते हैं। वैसे पार्टी का इतिहास बताता है वोह इन पत्रकारों की बातो को ज्यादा तवज्जोह देने को तैयार नहीं और शायद वोह अच्छा ही है. 

Wednesday 20 February 2013

मात्र कानूनों से नहीं सामजिक मान्यताओं के बदलने से बदलेगा भारत




विद्या भूषण रावत 

आज कल के लॉबी युग में हर मर्ज की दवा कानून बनाने से ढूंढी जा रही है। यह वैसे ही है जैसे नए डॉक्टर्स कभी भी परहेज की बात नहीं करते अपितु कहते हैं खूब खाइए और फिर हर बीमारी के लिए एक नयी दवा ले लीजिये। लोग भी दवा खाकर स्वस्थ रहना चाहते हैं। काम ना करना पड़े इसलिए ऐसे तुरत फुरत के नुख्से ढूँढ़ते हैं जहाँ से तुरंत फायदा हो। सार्वजानिक जीवन में काम करने वाले लोगो की भी एक बीमारी हो गयी है और उसके लिए उनको 'सरकार', तंत्र, नेता, महात्मा इत्यादि लोगो की आवश्यकता होती है। वैसे तो सरकार और राजनीती आवश्यक बुराई हैं और हमें उसको लेकर चलना पड़ेगा ही लेकिन जब यह आवश्यक बुराइ हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा न बने तो अच्छे लेकिन हो ये रहा है के ये बुराई अब दवाई में बदल गयी है और हस्र ये हुआ है के यदि कोई सांसद, मंत्री, विधायक, तथाकथित साहित्यकार, कवि , सामाजिक कार्यकर्ता सभी परिवर्तन की बात कर रहे हैं और सोचते हैं के दुसरे बदले और कानून बनायें जाए ताकि हर बात पर नियंत्रण हो सके 

किसी भी सभ्य समाज के लिए कानूनों की जरुरत नहीं पड़ती क्योंकि लोगो को अपने अधिकार और अपने कर्तव्यों का पता रहता है। हमारे समाज में  सबको अपने अधिकार पता हैं और दुसरे के भी और फिर भी उन पर आसानी से अतिक्रमण होता है। हमारे संविधान की मान मर्यादाएं हमारे सार्वजनिक जीवन का हिस्सा नहीं बन पाई और संविधान में दी गयी वैयक्तिक स्वाधीनता का सबसे बड़ा लाभ हमारे समाज के प्रभावशाली तबके ने ले लिया है और यह तबका अपने हितो को ही समाज के हितो के तौर पर देखता है। यह एक खतरनाक सन्देश है और इसी कारण दो व्यक्तियों के व्यक्तिगत मामले हमारे यहाँ पर सामजिक द्वेषो में बदल जाते हैं। यह बहुत आसान तरीका है व्यक्तिगत हितो की बल्बेदी पर समाज को चढाने का।

पिछले वर्ष दिसम्बर से ही देश में हंगामा था एक 'निर्भय' को लेकर। यह नाम अखबारों ने दिया और मुझे पता नहीं क्यों। जब कोई मर जाए और पिट जाए  तो उसे बहादुरी के तगमे बांटो लेकिन उसके साथ क्यों ऐसे हुआ उस पर मत सोचो। सबने सोचा जिन्होंने भी उस लड़की के साथ हिंसा की वोह हमारे बीच के नहीं थे वोह तो किसी दूसरी दुनिया से आये थे इसलिए सब लगे थे कानून बनवाओ, फांसी की सजा दिलवाओ , धरना, प्रदर्शन,  मंत्र तंत्र सब कुच्छ हुआ लेकिन जो नहीं होना चाह्हिये तो वो हो रहा है और जो होना चाहिए था वो हुआ नहीं। सरकार को रिपोर्ट मिल गयी और वर्माजी की रिपोर्ट पर कुछ लोग घबरा भी गए के अगर पति पर भी हिंसा और बलात्कार का आरोप लगेगा तो 'परिवार' ही टूट जायेगा और यह पश्चिमी   देशो के प्रभाव  में हो रहा है। शीघ्र ही महिलाओं पे हो रही हिंसा की बात औरतो के अधिकार तक पहुँच गयी और यह बात धर्म के मठाधीश स्वीकार नहीं करेंगे इसलिए के मामला सामाजिक बदलाव का है। सामाजिक जीवन में मनु के पद चिन्हों पर चलने वाले लोग कैसे अपने संविधान की सत्ता को स्वीकारेंगे ये एक ज्वलंत प्रश्न है।

महिलाओं पे हिंसा के विरोध में फांसी की मांग करने वाले  लोग भूल जाते हैं के जिस दिन जोगिनी और देवदासी प्रथा के  खलनायको को फांसी मिलना शुरू हो जायेगी विरोध करने वाले 'एक जाति ' के विरुध्ध सबकी साजिश का जाप करते हुए भूख हड़ताल पर बैठ जायेंगे। इसलिए कानून की मांग होगी लेकिन सामाजिक जीवन में बदलाव की मांग नहीं होगी। हम सब यही चाहते है क्योंकि यह सबसे सस्ता है आखिर हम कोई हड़ताल या आन्दोलन क्यों करते हैं / केवल इसलिए के हमारा नया कानून आये और हम उसे बदले। लेकिन हकीकत यह है छुअछूट के विरुद्ध कानून है, जातीय उत्पीडन के विरुद्धं कानून है लेकिन वे लागू क्यों नहीं होते क्योंकि लागू करने वाले मनु के पदचिन्हों पे चलने वाले लोग हैं। फिर हर जाती को एक बीमारी है दुसरे से बड़ा दिखने की। जो जातिव्यस्था के शिकार हैं उनके खेमे में भी जातीय पूर्वाग्रह हैं और वहां भी छूट अछूत है। मतलब यह के बीमारी से लड़ते लड़ते नयी बीमारियाँ भी घर कर गयी हैं और बाबा साहेब आंबेडकर ने इसका बेहतरीन मूल्याङ्कन कर भी दिया था लेकिन अगर हम उनको दिल से समझे तो जाने . उन्हें पता था के जंग बहुत मुश्किल है क्योंकि सारे अमीर एक तरफ तो हैं लेकिन सारे गरीब एक तरफ नहीं हैं क्योंकि उनकी असमानताएं सीढ़ीनुमा हैं और हर एक अपने को एक दुसरे से ऊंचा मानता है और इस प्रकार जो जितनी ऊंचाई पर है उसका सम्मान ज्यादा है और जो जाती की पायदान पर जितना नीचे उसकी सबसे अधिक बेइजत्ति। इसीलिए समाज के यह विरोधाभास आपस में ज्यादा मज़बूत हो गए और उनको समाप्त करने की बजे शायद लोग उनको और मज़बूत कर रहे हैं इसलिए जो जंग ब्राह्मणवादी मनुवादी समाज के विरुद्ध होनी थी वोह आपस में हो रही है। इसलिए बाबा साहेब आंबेडकर का जातिविहीन समाज का सपना अधुरा है और वोह उसको खत्म किये बिना संभव नहीं है। सरकार के कानून जाति नहीं तोड़ सकते और नहीं प्रेम विवाह करवा सकते। वे ऐसी शक्तियों को समर्थन करें, उनको शक्ति प्रदान करे और उनको प्रश्रय दे। लेकिन होगा कैसे जब सत्ता में बैठे लोग जातिवादी हों और उसी मानसकिता से ग्रस्त हों जिसके खिलाफ हमारी जंग है ? इसलिए हमारे राज्य के हर एक अंग का सेक्युलर होना अत्यंत जरुरी है। जरुरत है हर प्रकार के धार्मिक पाखंड, कर्मकांड, और उनको दी जा रही विशेष रियायतों को बंद कर दिया जाए। धार्मिक संघठनो को टैक्स में छूट बंद करें और उनपर लैंड सिलीग कानून लागु किये जाएँ। सत्ता में बैठे लोगो को और उनके कार्यकर्ताओं को सेक्युलर बनाना पड़ेगा। धर्म के नाम पर लोगो को हवाई जहाज में बिठाकर सऊदी भेजना बंद करना पड़ेगा और पाखंड और पूजा के लिए अरबो के पैसे को बहाने पर भी प्रतिबंधित करना पड़ेगा। फिर किसी को हेलमेट पहनने से इसलिए नहीं छूट मिलेगी की धार्मिक भावनाएं आहात होती है। 

तो फिर हम क्या करें ? शायद फ्रांस की व्यवस्था को देखना पड़ेगा। सरकार में रहने वाले और देश का प्रतिनिधित्व करने वाले हर बात को सेक्युलर बनाना पड़ेगा। सेक्युलर पंडित मुल्ला पादरी ग्रंथि भाई भाई वाला नहीं अपितु राज्य किसी धर्म को नहीं मानेगा। फ्रांस की सामाजिक क्रांति ने यह बताया के फ्रांस को धर्म विहीन होना है और तभी एक मज़बूत फ्रांस बनेगा। हम केवल यह चाहे हैं के भारत  सरकार का व्यक्ति देश के संविधान का सम्मान करे और अपने व्यक्तिगत जीवन में भी धर्मनिरपेक्ष रहे। मतलब यह उसकी विचारधारा धर्मनिरपेक्ष रहनी पड़ेगी क्योंकि वो संविधान की सौगंघ खा कर नौकरी करेगा। यदि हम ऐसे नौकरशाह नहीं बना सकते तो फिर बदलाव असंभव है। दुसरे यह के धार्मिक पाखंडियों को हम अपना जिम्मा सौंप के इस देश को बर्बाद कर रहे हैं इसलिए हमारे कानून मात्र बदलने से सामाजिक बदलाव नहीं आने वाला और एक बहुत बड़ी सामाजिक क्रांति के बिना बदलाव असंभव है . सामजिक जीवन के बदलाव के बिना हमारे रास्ट्रीय जीवन में कभी बदलाव नहीं आएगा और हम केवल कानून बनाकर अपने कर्तव्यों की इत्श्री समझ बैठेंगे। इसलिए समय है के अब सामाजिक बदलाव की लडाई की ताकतों को मज़बूत होकर एक नयी रह चुन्नी पड़ेगी जो जाति और धर्म की सत्ता को चुनौती दिए बिना संभव नहीं है तभी एक प्रबुद्ध भारत का बाबा साहेब आंबेडकर का सपना साकार होगा और हम अपने को सभ्य समाज कहलवाने के काबिल होंगे 

Tuesday 19 February 2013

काटजू से क्यों डरती है भाजपा



विद्या भूषण रावत 

अरुण जेटली एक सूझ बुझ बाले नेता हैं और इतनी जल्दी आप नहीं खोते लेकिन मार्कंडेय काटजू के एक लेख ने उन्हें इतना उत्तेजित कर दिया के वह और उनके हमसफ़र भाजपा के अन्य नेता इस वक़्त बदहवास से हैं। मोदी को नायक बनाने की मुहीम जारी है और उसके लिए भारत का धन धान्य से संपन्न पूंजीवादी मीडिया और उनके धर्मगुरु सभी एक साथ कई मोर्चे खोल कर काम कर रहे हैं। भारत को मोदीमय बनाने के लिए अलग अलग जतन  किये जा रहे हैं। अर्नब लगे हैं, चौरसिया लगे हैं और शर्मा और गुप्ताजी भी पीछे नहीं हैं लेकिन मुसीबत यह है की 2002 का भूत पीछे नहीं छोड़ता। मोदी ने गुजरात के अन्दर मुसलमानों को अलग थलग  के लिए पूरी सरकारी मशीनरी लगाई और अपना 'राजधर्म' भूल गए इसलिए यह कैसे संभव है के वह अभी देश को स्वीकृत हो जाएँ। क्या गुजरात में रहने वाले मुसलमान गुजराती नहीं हैं। 

मोदी के गुजरात विकास के मॉडल को बहुत बताया जा रहा है। आखिर है क्या गुजरात में। गुजरात ने भारत के बौद्धिक विकास में क्या योगदान दिया है? कौन सी बात है गुजरात की जिसे भारत को स्वीकार कर चलना चाहिए? क्या अहमदाबाद की सड़के और कॉलोनियां बंगलोरे या दिल्ली से अच्छी हैं। क्या गुजरात विश्विद्यालय की शिक्षा मुंबई विश्विद्यालय से अच्छे है। क्या है गुजरात में शिक्षा का स्टार 
जहाँ तक गुजरात के लोगो की व्यावसायिक योग्यता की बात तो वे तो पहले से ही ऐसा कर रहे हैं इसमें मोदी का क्या योगदान है। क्या मोदी के गुजरात में छुआछूत बंद हो गयी है। क्या मोदी के गुजरात में जातिवाद नहीं है? क्या मोदी का हिन्दू रास्त्र ब्राह्मणवादी समन्तिवादी राज्य नहीं जहाँ दलित मुस्लिम और पिच्च्दो के लिए कुच्छ न नहीं है। मोदी के हिन्दू रास्ट्र में पूंजीवादी जातिवादी लोगो के लिए गरीबो के जमीन है और और गरीबो के लिए कुच्छ नहीं।

जब मोदी को महान बनाने में हमारे पत्रकार बिक जाएँ तो दो चार लोग जो अपने जमीर के सहारे लिख सकते हैं या कह सकते हैं उनमे मारकंडेय  काटजू भी हैं। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के तौर पर उन्होंने बहुत से प्रगतिशील निर्णय दिए और उनके निर्णय बहुत ही दूरगामी और भारत के आम लोगो के हित में थे।  प्रेस कौंसिल में उनके आने के बाद से भारत के पूंजीवादी प्रेस के अन्दर थोडा सी घबराहट तो आये क्योंकि एक दन्त विहीन प्रेस कौंसिल से आखिर डरता कौन था। क्या हम नहीं जानते के इन पूंजीवादी अखबारों के संपदक और मालिक प्रेस कौंसिल से कभी नहीं डरते बल्कि उसके प्रति एक तुच्छ भाव रखते है लेकिन काटजू के आने के बाद प्रेस कौंसिल की औकात बढ़ी है और अब मीडिया के दलाल उनसे डरने लगे हैं।

काटजू प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष है लेकिन भारत के एक नागरिक भी हैं और एक नागरिक की हैसियत से उनको बात रखने का हक़ है। आखिर वोह भारत की एकता और साम्प्रदायिकता के सवाल पर अपनी बात रख रहे हैं क्या उनको अपनी बात कहने का अधिकार नहीं? हम यह जानते है के काटजू बहुत से महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं लेकिन कभी मीडिया के जरिये अपनी बात नहीं रखी लेकिन अब जब वोह एक पद पर नहीं हैं अपनी बात रख सकते हैं। हम उन्हें इसलिए नहीं पढ़ रहे के वो प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष हैं बल्कि इसलिए के काटजू कह रहे हैं और काटजू का बोलना जरुरी है चाहे वो हमें ख़राब ही क्यों न लगे क्योंकि खरी खरी कहने वालो की कमी है और जो खरी खरी  है वो लल्लो चाप्पो नहीं करते और चौरसिया जैसों को उनकी औअकत बता देते हैं। 

काटजू कटु बोलते है। वह सुप्रीम कोर्ट में थे और बौध्हिकता में यकीन करते है। उनका यह कहना के भारत में पत्रकार नहीं पढ़ते बिलकुल सही है। यह एक सामान्य कथन है लेकिन इसमें सच्चाई है।और पत्राकारो को सोचना पड़ेगा के जब एक पढ़े लिखे बौध्हिक व्यक्ति से सवाल करें तो वो कैसे होना चाहिए और कम से कम जब पता है के काटजू जैसा व्यक्ति कैसे जवाब  देता है।हमारे पत्रकार दलालों की श्रेणी में आ गए हैं। वो मोदी से लेकर नेताओं की दलाली कर रहे हैं। उनके पास गाँव में जाकर देश की स्थिथि को देखने का समय नहीं है।

भाजपा ने पिच्च्ले कुच्छ वर्षो में संवैधानिक पदों में आसीन लोगो के सरकार विरोधी रुख का फायदा उठाया है . सी ए जी विनोद राय लगातार सरकार विरोधी बयान दे रहे है और भाजपा उसका इस्तेमाल करते है और उनकी लीक की हुयी रिपोर्ट को पर संसद में शोर मचाती है। काटजू तो विनोद राय के मुकाबले बहुत सिनिअर हैं और कम से कम ऐसे पद पर नहीं है जिससे उनके पद की गरिमा का हनन  होता हो। 
प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष का पद केवल नाम मात्र का नहीं होना चाहिए और उनको लगातार कहते रहना चाहिए आखिर नितीश कुमार के तथाकथित 'सुशाश' और पेड न्यूज़ पर प्रेस कौंसिल को कुछ तो करना चाहिए न। नितीश जैसे महान व्यक्तित्व को महान न मानना, ममता की महानता पर सवाल करना, मोदी की सम्प्रदाय्किता को सवालो के कठघरे में लाने की हिम्मत काटजू ही कर सकते है और इसके लिए उनको सलाम। यह वह ही कर सकते हैं के फेसबुक में अपडेट के बाद जब महारास्ट्र पोलिस किसी को गिरफ्तार करती है तो उसके खिलाफ कहा जाए।
हमारी बहुत से पहचान है। हम अपने संघठनो से जुड़े होते है और उसके साथ ही हमारी अपनी व्यक्तिगत अस्मिताएं हैं और हम अपने विचारो को रखने की आज़ादी रखते है। अरुण जातले भाजपा में रहते अमर सिंह का केस लड़ सकते है या BCCI में आ सकते है तो काटजू भी प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष पद पर रहकर अपने व्यक्तिगत विचार रख सकते है। जब विनोद राय कुछ कहते हैं तो देश हित में है तो काटजू मोदी के बारे में लिखें तो  कैसे देश विरोधी ?

काटजू हमारी आवयश्कता है क्योंकि इस देश में सच बोलने वालो की कमी है कम से कम उन लोगो में  सत्ता के आस पास हैं और उसमे राजनीती और पत्रकारिता भी शामिल है। जब पत्रकारिता दलाल हो जाए तो काटजू की वाणी सुन्नी पड़ेगी और जो लोग पैसे खाकर, दलाली कर, मोदी को देश पर लादना चाहते  है उनके लिए चेतावनी है, लोग  लड़ेंगे और छोड़ेंगे नहीं। अभी अमेरिका और यूरोप केवल हवा का रुख देख रहा है और हवा  बदली नहीं है।और दलालों के कहने से यह बदल नहीं जाएगी।