Friday 22 February 2013

मानसिकता का संकट




विद्या भूषण रावत 

 हैदराबाद में बम ब्लास्ट की घटना के बाद से भारत के अख़बार और टीवी चैनल  सबूत पकड़ लिए के यह 'इंडियन मुजाहिदीन' के लोगो ने करवाएं है। दरअसल ब्लास्ट के दस मिनट के अन्दर ही हमारे विशेषज्ञ इस नतीजे पे पहुँच चुके थे के यह किसने करवाए है। जब केंद्रीय गृह मंत्री ने बताया के राज्यों को इसकी जानकारी एडवांस में दी जा चुकी थी तो गृह मंत्री को लेकर हमारे स्वनामधन्य पत्रकारों ने ढोल पीटना शुरू कर दिया के वोह बिलकुल भी इस पद लायाक नहीं हैं। यह बात तो कांग्रेस और उसके प्रधानमंत्री निर्धारित करेंगे के कौन किस लायक है या नहि. राजदीप सरदेसाई और बर्खादुत्त  से पूछकर तो कोई अपनी कैबिनेट गठित नहीं करता। सवाल सही है के देश में आतंकवादी घटना को लेकर हर के प्रश्न पूछेगा लेकिन क्या इसके लिए किसी के जाति  को कैसे जिम्मेवार ठहराया जा सकता है. आखिर जब शिवराज पाटिल देश के गृह मंत्री थे तो मुंबई के ताजमहल होटल में हमले के बाद उनकी क्षमताओ पर सवाल खड़े हुए लेकिन किसी ने उनकी जाति को लेकर कमेंट नहीं किये. 

मुझे समझ नहीं आता के राजदीप को शिंदे की जाति  को लेकर सवाल करने का क्या मतलब था . क्या राजदीप ने कभी लिखा के विजय बहुगुणा में वोह कौन सी खासियत थी के उन्हें उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनाया गया. लेकिन कोई भी जातिवादी पत्रकार नहीं कहेगा के ब्राह्मण होना ही उनकी खासियत थी और इसलिए उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया. केंद्रीय गृह  मंत्री के ओहदे पर चिदंबरम भी रहे लेकिन दो वर्षो में ही उनकी हालत ख़राब हो गयॆ. अच्छी अंग्रेजी के मालिक चिदंबरम मंत्रालय से बहार निकलने के लिए उतावले थे. जहाँ तक गृहमंत्रालय के पद पर 'भारी भरकम' व्यक्ति को रखने की बात है तो अडवानी के गृह मंत्री बनाने से क्या हुआ। क्या आतंकी हमले रुके? उलटे कंधार में आतंकवादियों को गिफ्ट देने के लिए जसवंत सिंह को भेज गया। बेहद निराशाजनक बात यह है के ज्ञानी जेल सिंह को भी बहस में लपेट लिया गया जो भारत के राष्ट्रपति थे। बताया गया के पंजाब में आतंवाड के लिए वह जिम्मेवार थे और राष्ट्रपति बन्ने लायक नहीं थे क्योंकि उन्होंने इंदिरागांधी के कहने पर झाड़ू लगाने की बात कहि. 

राजनीती स्वनामधन्य पत्रकारों से नहीं चलती जो मुह में जो आया बक दिया. राजनीती में बहुत कुच्छ देखा जाता है और निष्ठाएं बहुत मायने रखती है। ज्ञानीजी पंजाब के मुख्यमंत्री थे और उनका राजनैतिक अनुभव बहुत ज्यादा था। भारत के रास्त्रपति के पद पर जैलसिंह ने कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे उनको शर्मिंदा होना पड़े। अपितु इस देश के राष्ट्रपति पद की गरिमा को उन्होंने और बढ़ाया। वोह अंत तक अपनी भाषा और जमीर से जुड़े रहे. राष्ट्रपति के अधिकारों के लेकर उन्होंने जो बहस चलाई वो भारत के इतिहास में कोई राष्ट्रपति नहीं कर पाया और राजीव गाँधी को अपने समय में राष्ट्रपति का अपमान करने का मतलब उन्होंने अच्छे से समझा दिया. 

मुझे शिंदे से कोई सहानुभूति नहीं है लेकिन देश में आतंकवादी घटनाओं के लिए उन्हें कैसे जिम्मेवार ठहराया जा सकता है. शिवराज पाटिल की तरह वह भी गंभीर न दिखने वाले राजनैतिक व्यक्ति है . कांग्रेस को लगता है के गृहमंत्रालय में एक राजनैतिक व्यक्ति आना चाहिए न के एक नौकरशाह जो संघ परिवार का अजेंडा लागु कर सके. लेकिन इस वक़्त यह प्रयास हो रहे हैं के हर मंत्रालय में एक 'विशेषज्ञ' बैठकर भारत के लोकतंत्र को भी पीछे से नियंत्रित किया जा सके. वैसे भी यह लोकतंत्र इस वक़्त धर्म और पूंजी की गिरफ्त में है और जो थोडा सा रास्ता कही भी खली बचा है उसमे भी ये शक्तिं सबके रस्ते बंद कर देना चाहती है .

वैसे शिंदे को तो यह द्वंश झेलना पड़ेगा क्योंकि वो अम्बेडकरवाद से निकले वे योद्धा तो नहीं है. वे तो कांग्रेसी संस्कृति में रमे हुए व्यक्ति हैं जिन्हें जब इस्तेमाल करना होता है बुला लिया जाता है . एक अम्बेडकरवादी विचार का व्यक्ति कमसे कम आत्मसम्मान से अपना काम करेंगे और वोह अपनी क्षमताओं में किसी के कम तो नहीं हो सकता यदि ज्यादा भी नहीं है तो. शिंदे कांग्रेस में व्याप्त ' चारण संस्कृति' की उपज हैं और उनसे बहुत अपेक्षाएं नहीं की जा सकती क्योंकि पहले हिंदुत्व के आतंकवाद पर जिस तरीके से उन्होंने पलती खाइ वोह शर्मनाक था लेकिन क्या करें उनका हिंदूवादी हाई कमान यही चाहता था. कांग्रेस संस्कृति में मंत्रियों को हाई कमान के अनुसार काम करना होता है और उसमे अगर सफलता मिलती है तो वोह हाई कमान की सफलता होती है और अगर विफलता होती है तो व्यक्ति की विफलता है. क्योंकि गृह मंत्रालय एक काँटों का हार है और इस वक्त असफलताओं का दौर  है इसलिए शिंदे को वोह सब झेल पड़ेगा और वोह इसको आसानी से निगल भी लेंगे क्योंकि कांग्रेस संस्कृति से आते है। 

शिंदे की जाति  को लेकर राजदीप सरदेसाई या जो कोई भी प्रश्न उठा रहा है वोह जातीय पूर्वाग्रह से युक्त है और उसकी निंदा   की जानी चहिये. एक गृह मंत्री के तौर पर उनका मुल्यंकन करने में कोई बुराई नहीं है लेकिन यह कहना के वह दलित हैं इसलिए असफल हैं या यह पद उन्हें इसलिए मिला क्यंकि कोटा देना था देश का अपमान है. देश में बहुत ही योग्य दलित हैं जो प्रधानमंत्री बन्ने के काबिल भी हैं लेकिन क्या देश में नेतृत्व का सवाल कभी कबिलिअत के आधार पर हुआ है ? अगर नहीं तो सिर्फ दलितों से कबिलिअत क्यों पूछी जा रही है. ? यह देश अथाह जुगाडबाजी और बाजीगरो का देश है और इसलिए यहाँ की राजनीती में वैसे ही व्यक्ति चाहिए जैसे उसके नेतृत्व को चाहिए और इसमें सभी लोग पूर्णतया 'धर्मनिरपेक्ष' हैं . जुगाडी केवल नेता ही नहीं हैं हमारे पत्रकार बंधू भी नेता बनने की मुहीम में लगे है। चैनलो को पास करवा रहे हैं और पार्टी के प्रचार में लगे है, फर्क इतना है के सबने 'बोर्ड' पत्रकारिता का लगाया हुआ है अन्यथा अगर अन्दर झांक के देखेंगे तो जनेउ दिखाई देगा और पूरी बहस किधर ले जानी है साफ पता चल जायेगा. फिलहाल सभी पत्रकार बंधू अपने अजेंडे में लगे हैं और कांग्रेस पार्टी को भी देखना है शिंदे साहेब कहाँ ज्यादा अच्छे से फिक्स होते हैं। वैसे पार्टी का इतिहास बताता है वोह इन पत्रकारों की बातो को ज्यादा तवज्जोह देने को तैयार नहीं और शायद वोह अच्छा ही है. 

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