Wednesday 20 February 2013

मात्र कानूनों से नहीं सामजिक मान्यताओं के बदलने से बदलेगा भारत




विद्या भूषण रावत 

आज कल के लॉबी युग में हर मर्ज की दवा कानून बनाने से ढूंढी जा रही है। यह वैसे ही है जैसे नए डॉक्टर्स कभी भी परहेज की बात नहीं करते अपितु कहते हैं खूब खाइए और फिर हर बीमारी के लिए एक नयी दवा ले लीजिये। लोग भी दवा खाकर स्वस्थ रहना चाहते हैं। काम ना करना पड़े इसलिए ऐसे तुरत फुरत के नुख्से ढूँढ़ते हैं जहाँ से तुरंत फायदा हो। सार्वजानिक जीवन में काम करने वाले लोगो की भी एक बीमारी हो गयी है और उसके लिए उनको 'सरकार', तंत्र, नेता, महात्मा इत्यादि लोगो की आवश्यकता होती है। वैसे तो सरकार और राजनीती आवश्यक बुराई हैं और हमें उसको लेकर चलना पड़ेगा ही लेकिन जब यह आवश्यक बुराइ हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा न बने तो अच्छे लेकिन हो ये रहा है के ये बुराई अब दवाई में बदल गयी है और हस्र ये हुआ है के यदि कोई सांसद, मंत्री, विधायक, तथाकथित साहित्यकार, कवि , सामाजिक कार्यकर्ता सभी परिवर्तन की बात कर रहे हैं और सोचते हैं के दुसरे बदले और कानून बनायें जाए ताकि हर बात पर नियंत्रण हो सके 

किसी भी सभ्य समाज के लिए कानूनों की जरुरत नहीं पड़ती क्योंकि लोगो को अपने अधिकार और अपने कर्तव्यों का पता रहता है। हमारे समाज में  सबको अपने अधिकार पता हैं और दुसरे के भी और फिर भी उन पर आसानी से अतिक्रमण होता है। हमारे संविधान की मान मर्यादाएं हमारे सार्वजनिक जीवन का हिस्सा नहीं बन पाई और संविधान में दी गयी वैयक्तिक स्वाधीनता का सबसे बड़ा लाभ हमारे समाज के प्रभावशाली तबके ने ले लिया है और यह तबका अपने हितो को ही समाज के हितो के तौर पर देखता है। यह एक खतरनाक सन्देश है और इसी कारण दो व्यक्तियों के व्यक्तिगत मामले हमारे यहाँ पर सामजिक द्वेषो में बदल जाते हैं। यह बहुत आसान तरीका है व्यक्तिगत हितो की बल्बेदी पर समाज को चढाने का।

पिछले वर्ष दिसम्बर से ही देश में हंगामा था एक 'निर्भय' को लेकर। यह नाम अखबारों ने दिया और मुझे पता नहीं क्यों। जब कोई मर जाए और पिट जाए  तो उसे बहादुरी के तगमे बांटो लेकिन उसके साथ क्यों ऐसे हुआ उस पर मत सोचो। सबने सोचा जिन्होंने भी उस लड़की के साथ हिंसा की वोह हमारे बीच के नहीं थे वोह तो किसी दूसरी दुनिया से आये थे इसलिए सब लगे थे कानून बनवाओ, फांसी की सजा दिलवाओ , धरना, प्रदर्शन,  मंत्र तंत्र सब कुच्छ हुआ लेकिन जो नहीं होना चाह्हिये तो वो हो रहा है और जो होना चाहिए था वो हुआ नहीं। सरकार को रिपोर्ट मिल गयी और वर्माजी की रिपोर्ट पर कुछ लोग घबरा भी गए के अगर पति पर भी हिंसा और बलात्कार का आरोप लगेगा तो 'परिवार' ही टूट जायेगा और यह पश्चिमी   देशो के प्रभाव  में हो रहा है। शीघ्र ही महिलाओं पे हो रही हिंसा की बात औरतो के अधिकार तक पहुँच गयी और यह बात धर्म के मठाधीश स्वीकार नहीं करेंगे इसलिए के मामला सामाजिक बदलाव का है। सामाजिक जीवन में मनु के पद चिन्हों पर चलने वाले लोग कैसे अपने संविधान की सत्ता को स्वीकारेंगे ये एक ज्वलंत प्रश्न है।

महिलाओं पे हिंसा के विरोध में फांसी की मांग करने वाले  लोग भूल जाते हैं के जिस दिन जोगिनी और देवदासी प्रथा के  खलनायको को फांसी मिलना शुरू हो जायेगी विरोध करने वाले 'एक जाति ' के विरुध्ध सबकी साजिश का जाप करते हुए भूख हड़ताल पर बैठ जायेंगे। इसलिए कानून की मांग होगी लेकिन सामाजिक जीवन में बदलाव की मांग नहीं होगी। हम सब यही चाहते है क्योंकि यह सबसे सस्ता है आखिर हम कोई हड़ताल या आन्दोलन क्यों करते हैं / केवल इसलिए के हमारा नया कानून आये और हम उसे बदले। लेकिन हकीकत यह है छुअछूट के विरुद्ध कानून है, जातीय उत्पीडन के विरुद्धं कानून है लेकिन वे लागू क्यों नहीं होते क्योंकि लागू करने वाले मनु के पदचिन्हों पे चलने वाले लोग हैं। फिर हर जाती को एक बीमारी है दुसरे से बड़ा दिखने की। जो जातिव्यस्था के शिकार हैं उनके खेमे में भी जातीय पूर्वाग्रह हैं और वहां भी छूट अछूत है। मतलब यह के बीमारी से लड़ते लड़ते नयी बीमारियाँ भी घर कर गयी हैं और बाबा साहेब आंबेडकर ने इसका बेहतरीन मूल्याङ्कन कर भी दिया था लेकिन अगर हम उनको दिल से समझे तो जाने . उन्हें पता था के जंग बहुत मुश्किल है क्योंकि सारे अमीर एक तरफ तो हैं लेकिन सारे गरीब एक तरफ नहीं हैं क्योंकि उनकी असमानताएं सीढ़ीनुमा हैं और हर एक अपने को एक दुसरे से ऊंचा मानता है और इस प्रकार जो जितनी ऊंचाई पर है उसका सम्मान ज्यादा है और जो जाती की पायदान पर जितना नीचे उसकी सबसे अधिक बेइजत्ति। इसीलिए समाज के यह विरोधाभास आपस में ज्यादा मज़बूत हो गए और उनको समाप्त करने की बजे शायद लोग उनको और मज़बूत कर रहे हैं इसलिए जो जंग ब्राह्मणवादी मनुवादी समाज के विरुद्ध होनी थी वोह आपस में हो रही है। इसलिए बाबा साहेब आंबेडकर का जातिविहीन समाज का सपना अधुरा है और वोह उसको खत्म किये बिना संभव नहीं है। सरकार के कानून जाति नहीं तोड़ सकते और नहीं प्रेम विवाह करवा सकते। वे ऐसी शक्तियों को समर्थन करें, उनको शक्ति प्रदान करे और उनको प्रश्रय दे। लेकिन होगा कैसे जब सत्ता में बैठे लोग जातिवादी हों और उसी मानसकिता से ग्रस्त हों जिसके खिलाफ हमारी जंग है ? इसलिए हमारे राज्य के हर एक अंग का सेक्युलर होना अत्यंत जरुरी है। जरुरत है हर प्रकार के धार्मिक पाखंड, कर्मकांड, और उनको दी जा रही विशेष रियायतों को बंद कर दिया जाए। धार्मिक संघठनो को टैक्स में छूट बंद करें और उनपर लैंड सिलीग कानून लागु किये जाएँ। सत्ता में बैठे लोगो को और उनके कार्यकर्ताओं को सेक्युलर बनाना पड़ेगा। धर्म के नाम पर लोगो को हवाई जहाज में बिठाकर सऊदी भेजना बंद करना पड़ेगा और पाखंड और पूजा के लिए अरबो के पैसे को बहाने पर भी प्रतिबंधित करना पड़ेगा। फिर किसी को हेलमेट पहनने से इसलिए नहीं छूट मिलेगी की धार्मिक भावनाएं आहात होती है। 

तो फिर हम क्या करें ? शायद फ्रांस की व्यवस्था को देखना पड़ेगा। सरकार में रहने वाले और देश का प्रतिनिधित्व करने वाले हर बात को सेक्युलर बनाना पड़ेगा। सेक्युलर पंडित मुल्ला पादरी ग्रंथि भाई भाई वाला नहीं अपितु राज्य किसी धर्म को नहीं मानेगा। फ्रांस की सामाजिक क्रांति ने यह बताया के फ्रांस को धर्म विहीन होना है और तभी एक मज़बूत फ्रांस बनेगा। हम केवल यह चाहे हैं के भारत  सरकार का व्यक्ति देश के संविधान का सम्मान करे और अपने व्यक्तिगत जीवन में भी धर्मनिरपेक्ष रहे। मतलब यह उसकी विचारधारा धर्मनिरपेक्ष रहनी पड़ेगी क्योंकि वो संविधान की सौगंघ खा कर नौकरी करेगा। यदि हम ऐसे नौकरशाह नहीं बना सकते तो फिर बदलाव असंभव है। दुसरे यह के धार्मिक पाखंडियों को हम अपना जिम्मा सौंप के इस देश को बर्बाद कर रहे हैं इसलिए हमारे कानून मात्र बदलने से सामाजिक बदलाव नहीं आने वाला और एक बहुत बड़ी सामाजिक क्रांति के बिना बदलाव असंभव है . सामजिक जीवन के बदलाव के बिना हमारे रास्ट्रीय जीवन में कभी बदलाव नहीं आएगा और हम केवल कानून बनाकर अपने कर्तव्यों की इत्श्री समझ बैठेंगे। इसलिए समय है के अब सामाजिक बदलाव की लडाई की ताकतों को मज़बूत होकर एक नयी रह चुन्नी पड़ेगी जो जाति और धर्म की सत्ता को चुनौती दिए बिना संभव नहीं है तभी एक प्रबुद्ध भारत का बाबा साहेब आंबेडकर का सपना साकार होगा और हम अपने को सभ्य समाज कहलवाने के काबिल होंगे 

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