Saturday 2 March 2013

नए पुरोहितो से नहीं अपितु पुरोहितवाद के खात्मे से ही आएगा बदलाव




विद्या भूषण रावत 

गुजरात के विकास मॉडल पर इतना शोर मचाया जा रहा है जैसे उसे अपनाकर हम एक विकसित रास्त्र बन जायेंगे। पहले भी कई बार मैंने लिखा है के गुजरात में 'दुकान' के आलावा कुछ नहीं है और गुजराती अपनी जाति और धर्म के धंधो में ही व्यस्त है और नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार ने गुजरात को एक सवर्ण हिन्दू रास्त्र के तौर पर विक्सित करने के अलावा कुछ नहीं किया है और ऐसे हिन्दू रास्त्र के बारे में सबको पता चले तो अच्चा है ताकि समय रहते लोग संभल जाएँ और इनको समझ सके।

नरेन्द्र मोदी को देश पर थोपने के लिए विभिन्न प्रकार से उनकी मार्केटिंग की जा रही है. पहले उनके विकास में मॉडल को चढ़ाया गया और फिर उनके सांप्रदायिक सौहार्द को देश वासियों को बताया गया की किस प्रकार मोदी मुसलमानों के दुश्मन नहीं दोस्त है। गुजरात में सबरी और एकलव्य को पुनर्जीवित कर उन्होंने आदिवासियों को पुनः आदर्श हिन्दू व्यवस्था को सँभालने की जिम्मेवारी दी हालाँकि आदिवासियों के जल जंगल जमीं के प्रश्नों को न तो वह कभी समझेंगे और न ही उसको सुलझाने के प्रयास करेगे। अब खबर आयी के उनकी सरकार ने दलितो को 'सम्मान' देने के लिए 'दलित पुजारियों' की ट्रेनिंग की व्यवस्था करी है . मतलब यह के गुजरात सरकार ने २२ लाख रुपैये की व्यवस्था कर दी है बल्मिकियों को संस्कृत पढ़ने के लिए ताकि वे सोमनाथ संस्कृत विद्यापीठ और अन्य संस्कृत विश्वविद्यालयों से संस्कृत पढ़ सकें और 'पंडिताई' कर सके। मुख्यमंत्री मानते हैं के सफाई कर्मी लोग भी पुजारी है क्योंकि वोह नगर की देखभाल करते हैं और पुजारी मंदिर की।

दरअसल, गुजरात की चकाचौंध में जो सबसे कटु सत्य है वो है वहां की जातिवादी राजनीती और समाज. गुजरात में आज भी मानव मल ढ़ोने का कार्य होता है जबकी वहां की सरकार सुप्रीम कोर्ट तक में कह चुकी है की गुजरात में ऐसा नहीं होता  लेकिन २० १ १ की जनगणना के मुताबिक़ कम से कम २ ५ ०० घरों में अभी भी मानव मलमूत्र उठाते हैं लेकिन यह संख्या भी झूठी है क्योंकि सरकारी आंकड़ो पे तो वैसे भी भरोषा नहीं किया जा सक्त. उसी जनगणना के आंकड़े बताते हैं के गुजरात के 5२ लाख घरो में कोई लैट्रिन की व्यवस्था नहीं है और ४९  लाख लोग अभी भी खुले में सोच करते है। केवल २ लाख आम शौचालय हैं। अब सरकारी आंकड़ो से ही चमकते गुजरात की पोल पट्टी खुल गयी है तो अगर हम लोग सर्वे करने चल दिए तो नरेन्द्र मोदी का तिलिस्म चुनाव से पहले ही टूट जायेगा। एक गैर सरकारी अध्ययन टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेस ने किया जिसमे बताया गया के गुजरात में अभी भी 1२,५०६ व्यक्ति मानवमल धोने का काम काम करते है। 

आज भी अहमदाबाद और अन्य शहरो में सफाई पेशे में लगे लोग मलमूत्र हाथो से उठा रहे हैं और इसके विडियो इन्टरनेट पे मौजूद है। सवाल यह है के मोदी की सरकार इस हकीकत को क्यों नहीं स्वीकारती और बाल्मीकि लोगो के उठान के लिए इसने क्या कार्य किये है। गुजरात के शहरों और गाँव में दलित विरोधी माहौल है और किसी भी अस्मिता के उठते ही ज्यादातर हालात में लोगो के आर्थिक बहिष्कार हो जाते है। पटेलो और अन्य सवर्ण जातियों की दादागिरी जारी है. बाल्मीकि लोगो को इंदिरा आवास भी मुहैया नहीं है और ज्यादातर आवास उन्हें गाँव के सबसे किनारे वाले इलाके में दिए गए हैं जहाँ न बिजली की सुविधा है न पानी कि. गुजरात की दूकान में सामाजिक परिवर्तन के लिए कोई जगह नहि. यहाँ के केवल पुरोहित , पोथी ( धर्म की पोथी )  और  पूंजीपति ही लोकप्रिय हैं और गुजरात के धनाध्य  लोगो को उसकी ही जरुरत है. सामाजिक परिवर्तन के लिए उठ रहा अम्बेडकरवाद यहाँ नहीं चल सकता और उसे हटाने के पहले से ही षड़यंत्र हो जाते हैं . दलित और पिछडो को अलग थलग करने के लिए मुसलमानों को दुश्मन दिखाकर हिंदुत्व के बेडे में शामिल करने के लिए अनेक साजिशें होती हैं .

मोदी के अरबो रुपैये के खेल में मात्र बाइस लाख रुपैये दलितों के पुरोहित बनने के लिए अलग से रखे गए हैं। मोदी को यह पुरोहिताई केवल दलितों के लिए क्यों खोलनी है क्या सब लोग मिलकर पंडिताई नहीं कर सकते। दुसरे यह की संस्कृत जैसे मृत भाषा को तो ब्राह्मण और सवर्ण पहले ही छोड़ चुके हैं इसलिए इसके लिए नए कन्वर्ट क्यों ढूढे जा रहे हैं। प्रश्न यह भी है के आज के वैज्ञानिक युग में अंग्रेजी, विज्ञानं, मैनेजमेंट और तकनिकी पढाई के लिए दलित, पिछडो और अन्य सभी को जरुरत है और गुजरात के पैसे वाले यह काम कर सकते हैं तो मोदी ऐसा क्यों नहीं कर सकते ताकि सभी बाल्मीकि और अन्य लोग आधुनिक शिक्षा प्राप्त करें और आगे बढे। तीसरी बात, बेचारे बाल्मीकि लोगो को कौन कौन से मंदिर सौंपे जायेगे यह जरुरी है और मोदी ने ऐसा कुछ भी वादा नहीं किया। इसका अभिप्राय केवल इतना के मोदी बाल्मीकि लोगो को हिंदुत्व का गुलाम बनाना चाहते हैं और उनको अपने मंदिरों की देखभाल करने का जिम्मा खुद ही सौंपना चाहते हैं। मतलब यह के अक्षरधाम, अम्बेजी या सोमनाथ की पुरोहिताई तो ब्राह्मणों के पास ही रहेगी ताकि उनका धंधा मंदा न पड़े और पैसे थोक के भाव मिलते रहे लेकिन गाँव के टूटे फूटे मंदिर जिनमे कोई नहीं जाता उन्हें नए भक्तो को सौंप दिया जाये. मोदी बताएं के क्या बल्मिकियों के पुजारी या पडा बनने से पटेल या ब्राह्मण लोग उनसे शादियाँ या उपनयन संस्कार करवाएंगे ? यह तो कभी भी नहीं होगा और ना ही मोदी की सोच के पीछे ऐसे बदलाव की धारणा है क्योंकि मोदी तो केवल हिंद्तुवा भक्त लोग चाहते हैं ताकि भारत के प्रधानमंत्री की कुर्शी तक पहुचने में यह वर्ग उनको साम दाम दंड भेद से मदद करे और दुसरे दुनिया को लगे के मोदी केवल आर्थिक बदलाव की बात नहीं करते अपितु सामाजिक क्रांति भी ला रहे हैं।

अभी कुछ दिनों पहले अल्लाहाबाद के कुम्भ में भी ऐसी ही क्रांति की बात कही गयॆ. बताया गया के बाल्मीकि महिलाओं ने कुम्भ में स्नान कर ब्राह्मणवाद को चुनौती दी है. हकीकत यह है के यह चुनौती नहीं बल्कि लोगो को दुबारा उसी कूड़े दान में धकेलने की बात कर रहे हैं जिसने उनको जानवर से भी बदतर कर दिया . ऐसे विचारधारा या व्यवस्था को तो पूर्णतया ख़ारिज और खत्म करना पड़ेगा  जहाँ आदमी पैदा होते ही जाती के खांचो में बैठा दिया जाता हो और जिसमे आदमी के मलमूत्र को साफ़ करने के लिए विशेष रिजर्वेशन की व्यवस्था की हो, जो मात्र एक जाती का ' विशेशाधिकार' बना दिया गया हो. ऐसे क्रांतियाँ लोगो में व्यवस्था के प्रति गुस्से को कम करने के प्रयास हैं और अपने कुकर्मो पर पर्दा डालने जैसे है। मोदी या कोई अन्य  जाति  और जातिगत भेदभाव पर बात नहीं करते लेकिन लोगो को उस दकियानूसी व्यवस्था में दोबारा  चाहते हैं जिसमें उनका कोई भविष्य नहीं है. क्या पुरोहिताई करके बल्मिकियों की जात बदल जायेगी ? यदि  तो मोदी उनको कहाँ रखेंगे और क्या सवर्णों के  संस्कार से लेकर, शादी विवाह तक में बाल्मीकि पंडितो की कोई  रहेगी ? वैसे तो  पुरोहितवाद को आमूलचूल ख़त्म करने की जरुरत है इसलिए चाहे ब्राह्मण पुरोहित हो या बाल्मीकि, उसका काम लोगो को बेवकूफ बनाना ही होगा और वोह लोगो के खुलते दिमाग और बदलाव की चाह को रोकने का काम ही करते हैं .

 मंदिर प्रवेश का मुद्दा मानवाधिकारों से जरुर जुदा है लेकिन संकरी मानसकिता इन गलियों से लोगो को दूर करना जरुरी है क्योंकि   भाग्य और भगवान् एक  राजनैतिक बाजीगरी है जो यथास्थितिवादी  शक्तियों का खेल है और इसके जरिये वे सत्ता और और तंत्र पर अपना कब्ज़ा बरक़रार रखते है।  बाबा साहेब आंबेडकर ने ये अपने जीते जी देख लिया था के कैसे कालाराम मंदिर प्रवेश के समय ब्राह्मणवादी सत्ताधारियों ने उनका जमकर विरोध किया था. छुआछूत, जातिवाद और मंदिर प्रवेश के प्रश्न जातिवादी समाज और उसकी सरंचना को सवाल किये बगैर नहीं हल किये जा सकते और उसके लिए जरुरी है 'जातियों की उसंपूर्ण विनाश की जो आंबेडकर का सबसे बड़ा सपना था जिसके संपूर्ण विनाश में ही वह एक प्रबुद्ध भारत का सपना देखते थे इसलिए मोदी की बाजीगरी और चमकधमक से लोगो को सावधान होना पड़ेगा क्योंकि यह दलितों के भले के लिए नहीं अपितु मोदी को 'महान' और 'क्रांतिकारी' बनाने के लिए की जा रही तिकड़मे हैं जिनसे कुछ होने वाला नहीं है. वैसे भी हमारे समाज की भलाई नए पुरोहित बनाने में नहीं अपितु पुरोहितवाद के  संपूर्ण खात्मे में ही निहित हैं क्योंकि पुरोहितवाद का सिद्धन्त जातियों की शुद्धता, उनके बड़े और छोटे होने और उनकी पैदाइश आधारित व्यवस्था का सिद्धन्त है जो आधुनिक काल में जाती और रंगभेद का विभेदकारी व्यवस्था है इसलिए उसका संपूर्ण खत्म ही एक नए समाज की रचना कर सकता है जो सबकी बराबरी पर आधारित होग. । क्या मोदी और उनका हिंदुत्व इसके लिए तैयार है ? 

Thursday 28 February 2013

साम्प्रदायिकता का लोकतंत्र






विद्या भूषण रावत 

आज से ग्यारह वर्ष पूर्व एक अनाम जगह की क्रुर और अमानवीय घटना ने गोधरा को विश्व पटल पर एक नाम दे दिया. घटना की क्रूरता में साबरमती एक्सप्रेस के एस-६ कोच में दंगाइयों ने आग लगादी जिसके फलस्वरूप ५६ निर्दोष लोग जिन्दा जलकर मर गये. इतिहास में कलंकित इस घटना ने मानवता के हत्यारों का काम और आसान कर दिया जब हिंदुत्व के ठेकेदारों ने यह निर्णय ले लिया के अब हमें इस घटना का बदला लेना है और फिर अगले कुच्छ दिनों तक गुजरात में जो हुआ वो स्वतंत्र भारत के इतिहास के सबसे बदसूरत समय में गिना जायेगा. यह एक ऐसा घटनाक्रम था जब राज्य सरकार ने अपनी जिम्मेवारी भुलाकर एक धर्म विशेष की हितैषी और दुसरे की दुश्मन के तौर पर बनाकर पूरी की। पुरे घटनाक्रम में राज्य के सांप्रदायिक प्रशाशन ने मुसलमानों के कत्लेआम में पूर्ण भूमिका निभाई और उसको 'हिन्दुओ ' का गुस्सा करार दिया. इसके नतीजे राजनैतिक तौर पर कामयाबी के थे क्योंकि गुजरात के हिन्दुओ के ह्रदय सम्राट बनकर नरेन्द्र मोदी ने हिन्दुवा की प्रयोग्शाला में अपने अभिनव प्रयोग शुरू कर दिये. राज्य की सत्तारूढ़ सरकार द्वारा प्रायोजित इन दंगो में केंद्र सरकार ने आँख बंदकर मौन धारण कर लिया। गुजरात की हिंदुत्व की प्रयोगशाला ने दलितों और आदिवासियों को अलग थलग किया और उन्हें मुसलमानों के विरुध्ध लामबंद करने की कोशिश की।

लेकिन राजनीती में ऐसे प्रयोग केवल संघ परिवार ने किये हों ऐसा नहीं है. १९ ८५ में राजीव गाँधी ने चुनावों में भरी बहुमत प्राप्त किया क्योंकि इंदिराजी की हत्या के बाद देश में तथाकथित सहानुभूति ने उन्हें तीन चौथाई बहुमत दिल दिया जो उनके नाना जवाहरलाल को भी नसीब नहीं हुआ था. हाँ, अगर विशेषज्ञों की भाषा का इस्तेमाल करून तो यह इंदिराजी के प्रति 'श्रधांजलि थी' और यदि राजनैतिक विश्लेषण करूँ तो साफ तौर पर एक सांप्रदायिक वोट क्योंकि अक्टूबर के अंत में इंदिरागांधी की हत्या के बाद पुरे देश में सिख विरोधी हवा को बढ़ने में सत्तारूढ़ दल की पूरी भूमिका थी और यह भी जरुरी है के कांग्रेस उस वक़्त हिंन्दुत्व की शक्तियों की प्रथम पसंद बन चुकी थी क्योंकि इंदिरा की हत्या को 'हिन्दुओ' पर खतरा मान लिया गया. सरकार ने इंदिरागांधी की हत्या के बाद के नारों 'खून का बदला खून से लेंगे ' को दूरदर्शन और आकाशवाणी पर खूब सुनवाया ताकि हमारा खून जल्दी 'पानी' न बन जाये. 

भारत की एक खतरनाक हकीकत है पूर्वाग्रहों में समाज का जीना और नए पूर्वाग्रहों का निर्माण फलस्वरूप प्रशाशन और मीडिया पूर्णतया जातिवादी और सांप्रदायिक बन चूका है और पूंजी और धर्म के गठबंधन को और मज़बूत कर रहा है. याद करें १ ९ ८ ४ में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद सिख विरोधी लहर को बढ़ने में हिन्दू साम्प्रदायिकता ने अपना रोल ऐडा किया और राजीव गाँधी हिंदुत्व के सबसे बड़े मैस्कॉट बने. उनके गौर माथे पर लाल टिका भारत के सवर्ण जन को याद दिलाने की कोशिस था के वह उनके अपने ही है। फिर अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण राजीव का सपना था क्योंकि उन्होंने अपनी चुनाव सभाओं में वो वादा किया। चौरासी के कांग्रेस के खेल ने हिंदुत्व के प्रहरियों को मौका दे दिया के बहुमत का निर्माण अल्पसंख्यको के विरुद्ध घृणासे किया जा सकता है और जरुरी है के मीडिया का सांप्रदायिक कारन किया जाए और उसकी जातीय अस्मिताओ को जिन्दा किया जाये. इसी का नतीजा है के १ ९ ९ ० में मंडल की घोषणा के बाद मीडिया ने  विश्वनाथ प्रताप को भारत के सबसे घृणित व्यक्तियों में शुमार किया ताकि उनके द्वारा लगे चिंगारी को बुझाया जा सके और अच्छे से बदनाम किया जा सके.. लेकिन वो हो न सका क्योंकि मंडल की ताकते मज़बूत हुयी हैं ये बात और है के हिंदुत्व के डंक ने उन ताकतों को भी डस लिया है और उनके नेतृत्व को ब्राह्मणवादी सत्ता की सेवा में लगा दिया है. यही कारन है के कांग्रेस के अनुभव का लाभ लेते हुए हिंदुत्व की ताकते इस वक्त देश में हावी हो रही हैं और तथाकथित सेक्युलर बिरादरी केवल रियेक्ट कर रही है . हिन्दू सेकुलरवाद का सबसे बड़ा शिकार इस देश का दलित और मुसलमान हुआ है क्योंकि सेक्युलर स्पेस में इन तबको के लिया दरी उठाने के अलावा कुछ और नहीं था इसी लिए मुस्लिम विरोधी हवा में पिछड़ी जातिया गुजरात में मोदी का पल्लू थम लेती हैं तो मध्य प्रदेश, छात्तिश्गढ़ और उत्तर प्रदेश में भी हवा का रुख बदलता दीखता है. भारत के मध्य वर्ग में व्याप्त मुस्लिम विरोध को हिंदुत्व के शक्तियों ने बहुत अच्छे से इस्तेमाल किया है और इसका एक मात्र कारण हमारी सत्तारूढ़ शक्तियां जो मुसलमानों को सत्ता से दूर रखना चाहती हैं और जिनको यह लगता है के अधिक मुसलमानों के आने से 'एक और पाकिस्तान' का निर्माण हो जायेग.

लोकतंत्र में यह लूट खसोट हमारे चुनाव प्रणाली से हो रही है क्योंकि मुसलमानों के विरुद्ध हवा देकर सभी दलित पिछड़े 'हिन्दू' स्वरूप में शामिल हो जाते है और जो जातीय उत्पीडन की लड़ाई है वोह पीछे छूट जाती है. उत्तर प्रदेश और बिहार में फिर भी दलित पिछडो के पास एक विकल्प है लेकिन बाकि स्थानों में उस विकल्प के आभाव में स्थिति बहुत गंभीर है. चुनाव के इस जुगाडवाजी से मुस्लिम समुदाय को बहुत नुकसान उठाना पड़ा है क्योंकि संसद और राज्यों के विधान सभाओं में उसका प्रतिनिधित्व बहुत ही सीमित हो गया है और मुस्लिम बहुल इलाको से भी गैर मुस्लिम ही सीटें निकल रहे हैं। सत्ता की इस राजनीती ने मुसलमानों को और अलग थलग किया है इसलिए चुनाव प्रणाली में सुधर का वक्त आ गया जिसमे भारत के मुसलमान अपने सच्चे प्रतिनिधत्व के बल पर संसद में आयें और अपनी आबादी के अनुसार अपना हिस्सा मांग सके. 

आज हालत बहुत ख़राब हैं क्योंकि हिंदुत्व के महारथी मीडिया और सैम दम दंड भेद से ऐसी स्थिथ्याँ पैदा कर रहे हैं के देश में साम्प्रदायिकता फैले ताकि दलित, पिछड़े, आदिवासी जो अपना हक् मांग रहे हैं वो मुस्लिम विरोध के नाम पर भूल जाये। साम्प्रदायिकता का एक बहुत बड़ा नियम है की एक अदद दुश्मन तलाशो और यदि दुश्मन नहीं है तो उसको पैदा करो ताकि विभिन्न अस्मिताओ के संघर्ष को उस विरोध की आग में जला दो। गुजरात के बाद देश में ऐसा माहौल तैयार किया जा रहा है के मुस्लिम अपने सवाल न उठा सके और उनको लगातार हासिये पे रखा जाये.हैदरबाद के बोम कांड के बाद फिर से मुस्लिम युवा हमारी गुप्तचर एजेंसियों के निशाने पर हैं। गृह राज्य मंत्री आर पी एन सिंह ने लोक सभा में साफ़ बताया के एन आई ए ने मुंबई हमलो के बाद अभी तक ३३४ लोगो को गिरफ्तार किया और उसमे २० ० से अधिक मुस्लिम हैं . असल में भारत की जेलों में सबसे ज्यादा कैदी इस वक़्त मुसलमान ही है उसके बाद आदिवासियों और फिर दलितों का नंबर आता है. स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे अधिक साम्प्रदायिक दंगो में हिन्दू सांप्रदायिक तत्वों के सीधे हाथ की बात कई जांच रिपोर्टो में है लकिन आज तक एक भी व्यक्ति फंसी के फंदे तक नहीं पहुंचा। आखिर क्यो। बाबरी मस्जिद गिरने की बाद के दंगो में बहुत मुसलमान मारे गए, अडवाणी की रथ यात्रा ने बहुत दंगे करवाए, बम्बई के १ ९ ९ २ के दंगो ने शिव सेना को सत्ता सौंपी, और उत्तर प्रदेश में जय श्री राम के नारे के बाद कल्याण सिंह सत्ता में आये और फिर राम नाम के सहारे भाजपा एकं केंद्र सत्ता में आयी। हकीकत यह है के मुसलमानों को खलनायक बनाकर सत्ता में पंहुचने के ऐसे तरीके देश के लिए बहुत खतरनाक साबित होंगे और ऐसे राजनीती में कोई पीछे नहीं है. 

अफज़ल गुरु को फंसी में लटकाने को तत्पर हिंदुत्वे के मठाधीश पंजाब की अकाली सरकार द्वारा बेंअंत सिंह के हत्यारों को फांसी देने पर रोक लगाने समबंधी प्रस्ताव या जयललिता और करुणानिध द्वारा राजीव गाँधी के हत्यारों और वीरप्पन के सहयोगियों की फांसी पर रोक पर चुप रहते है। क्या कारण है के इनकी फांसी पर रोक कोई चुनावी मुद्दा नहीं बनती ? क्या कारण है के हिंदुत्व के मठाधीश और मीडिया के उनके चेले गैर मुसलमानों के फांसी पर उतने उतावले नज़र नहीं आते जितना अफजल गुरु को लेकर थे. महा पंडित नरेन्द्र मोदी के चुनाव के लिए हर वक्त किसी मियां मुशर्रफ़ या अफ्ज्ज्ल गुरु की जरुरत क्यों पड़े। 

कुछ दिनों पूरा एक फौजी अफसर ने मुझे बताया के छात्तिश्गढ़ में कम कर रहे आदिवासी हमारे 'अपने हैं' और उनको हम दुश्मन नहीं कह सक्ते.. मैंने केवल इतना पूछा के बहुत अच्छा है लेकिन हम कश्मीरियों और उत्तर पूर्व में हो रहे संघर्षो के प्रति ऐसा रवैया क्यों नहीं अपनाते। केवल इसलिए के वोह 'हमारे' हिसाब के धर्म को नहीं मानते ? हमारे गुप्तचर और पुलिस तंत्र के दिमाग से 'दुश्मन' की परिभाषाओं की हटाना पड़ेगा और देश के चुनाव प्रणाली में व्यापक बदलाव की जरुरत है ताकि एक धर्म या सम्प्रदाय क्र विरुद्ध जहर घोल कर सत्ता तक पहुँचने के सारे दरवाजो को बंद कर दिया जाये. भारत को यह करना होगा नहीं तो इस देश के अन्दर धार्मिक उन्माद बढेगा और फासीवादी ताकतों को सत्ता तक पहुचने से कोई रोक नहीं सकता और यदि एक बार फिर वे दिल्ली की सत्ता तक आ गए तो इतना जरुर है के एक लम्बी पारी खेलेंगे और तब देश में जो हालत होंगे उनके बारे में हम कल्पना भी नहीं कर पायेंगे।

Monday 25 February 2013

ख़ामोशी की साजिश




विद्या भूषण रावत 

बिहार को अक्सर क्रांतिकारियों की धरती कहा जाता है और पिछले दो दशको के राजनैतिक बदलाव को बिहार में सामाजिक क्रांति के बदलाव के रूप में बताया जाने लगा था. जिन्हें जातिगत अस्मिताओ से चिड़ है वे जय प्रकाश का नाम गुण कर अपने को 'बड़ा' साबित करने की कोशिश करते है। हकीकत यह है के बिहार के राजनैतिक सामाजिक बदलाव से जेपी का कुच्छ लेना देना नहि क्योंकि उनके बड़ी जातियों के भक्त अभी भी सामाजिक न्याय से बहुत डरते हैं और दूर भागते है और जेपी का नाम लेकर हिंदुत्व की शक्तियों का साथ देना उनकी विचारधारा की कमजोरी को दर्शाती है. 

बिहार में दलितों के हालत ख़राब हैं और सामाजिक न्याय के नाम पर शाशन करने वाली पार्टियों के लिए वे मात्र वोट बैंक से अधिक कुच्छ भी नहीं रहे. ऐसे में जब हर जाती का वोट महत्वपूर्ण है बूथ मैनेजमेंट करने वाली जातियों ओर लोगो की पहचान सभी पार्टियों को है और उनके खिलाफ कार्यवाही करना तो दूर रहा उनको अब सत्ता में महत्वपूर्ण भूमिकाएं मिल रही है और यही कारण है के भूमिहारो की राजनैतिक ताकत अभी भी बनी हुयी है और रणबीर सेना [पर सरकार के हाथ भी नहीं लगते और दलितों पर उनका दबाब लगातार है. 

उत्तर प्रदेश के तुलना में बिहार अभी भी बहुत पिछड़ा है क्योंकि कम से कम उत्तर प्रदेश में दलित अस्मिता का संघर्ष बिहार की तुलना में ज्यादा मज़बूत और वैचारिक धरातल पर खड़ा है. बसपा के आने से उत्तर प्रदेश में दलितों के राजनैतिक ताकत बढ़ी लेकिन बिहार में रामविलास पासवान वो काम नहीं कर पाए जो मायावती की पार्टी ने उत्तर प्रदेश में किया है।

ऐसा माना जाता है के पटना में कोई भी घटना घटे तो राजनैतिक दल और आम आदमी बहुत चिल्लाता है लेकिन अभी जो दलितों पे हिंसा है उस पर पटना और बिहार के सामाजिक न्याय के लोग खामोश क्यों हैं? पटना में एक हॉस्टल में दलित छात्रो की पिटाई होती है और हमारे नेतृत्व उस पर चुप रहते हैं और अखबारों में भी कोई खबर नहीं बनती .

चंचल पासवान एक होनहार लड़की थी और अपने घर के लिए  कुच्छ कम भी रही थी। पिछले वर्ष २१ अक्टूबर की रात्रि को जब चंचल अपनी बहिन के साथ घर की छत पे सो रही थी तो उस पर ४ लोगो ने हमला किया . यह लोग छत पर चढ़ गए और चंचल को पकड़ कर उसके ऊपर एसिड डालने लगे.  चंचल का शरीर खासकर उसका  चेहरा  बुरी तरह से झुलस गया और वो  दर्द में  कराह रही थी . उसके मम्मी पापा उसकी आवाज सुन कर छत पर आये और फिर देख तो अनिल और उसके साथी उसकी बहिन पर भी हमला करने वाले थे. चंचल के जीवन को ख़त्म करने के उद्देश्य से और उसको सबक सिखाने के लिए इन लोगो ने जो नीच और वहिसियाना हरकत की वो और ज्यादा शातिर और कायर है क्योंकि बिहार के न तो अख़बार और नहीं राजनैतिक दलों ने कोई सवाल उठाया। इस हमले में चंचल की बहिन भी घायल हो गयॆ. उन्नीस साला चंचल को उसके पिता शैलेन्द्र पासवान मेडिकल कॉलेज में ले गए जहाँ उसकी हालात गंभीर बनी हुयी है. इतने महीनो के बाद अब चंचल की स्थिथि सुधर रही है लेकिन गरीब माँ बाप के पास बेटी के इलाज़ के लिए पैसे नहीं है और अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम की धरा के तहत जो मुआवजा उन्हें मिला वोह २ लाख 4 2  हज़ार रुपैया था और आज की स्थितियों में चंचल के इलाज के लिए कम से कम ६-१० लाख रुपियों की जरुरत होती है. 

अभी कुछ दिन पहले बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार का कहना था के जस्टिस मार्कंडेय काटजू उनके राज्य को बदनाम कर रहे हैं और मीडिया के बारे में झूठे बयां दे रहे है  लेकिन जब मैंने इस घटना के बारे में जानकारी लेने की कोशिश के तो मुझे गूगल सर्च में कोई खबर नहीं मिलि. थोडा सी जानकार एक दो ब्लोग्स में थी जो चेंज डॉट ओर्ग के अभियान के कारण से मिली थे. कितनी बड़ी बात है के एक अंतरास्ट्रीय एडवोकेसी अभियान के तहत हमें जानकारी मिलटी है लेकिन स्थानीय अख़बार चुप बैठे है। क्या बिहार के राजनैतिक सत्ताधारी पेड न्यूज़ के सरगना बन गए हैं के इस प्रकार की घटनाओं पर भी पूर्णतया सेंसरशिप लगी हुयी है. 

आखिर क्यों चंचल पासवान पर हुआ हमला खबर नहीं बनता जबकि उसके एक महीने बाद की घटना से एक अनाम मसीहा जन्म लेती है जिसे हम सभी नए कानूनों और बदलाव की बात करते है। इसको समझने के लिए हमारे देश की घटिया जातीय राजनीती और मीडिया के अन्दर बैठे दकियानूसी चापलूस और जातिवादी पत्रकार हैं और उनके काले कारनामो प् पर्दाफास करना जरुरी है ताकि जनता को उसका पता रहे. 

मुझे इस घटना की जानकारी केवल चेंज डॉट ओर्ग से मिली क्योंकि एक पेटीशन पर हस्ताक्षर करने को कहा गया लेकिन जब मैं घटना की तह में गया तो मुझे अफ़सोस हुआ के किस प्रकार से मीडिया अपने जातिगत और वर्ग चरित्र की रक्षा कर रहा है और इस कारण से घटनाओं को छुपा रहा है जो शर्मनाक है.  पहले ये देखे के चंचल के अनुसार हमलावर कौन थे.  इनके नाम हैं अनिल राय, घनश्याम राय, बदल राय और गुलशन राय। इसमें कोई शक नहीं है के इनके जातिगत हितो और उसकी ताकत को देखकर ही न तो पटना में राजनैतिक पहल हुयी और न ही मीडिया ने इस सवाल को उठाया . पुलिस ने तो अनिल राय को अभी माईनर साबित करने की कोशिश की है ताकि इस विभत्स घटनाक्रम में उसे कोई सजा न मिले और चंचल को भी कम मुआवजा मिले इसके लिए पटना पुलिस ने उसे नाबालिग दिखाया जबकि वो १ ९ वर्ष से ऊपर की थॆ. राजनीती की बिसात में सही और गलत का निर्णय जाति  की संख्या और ताकत निर्धारित करेगी इसलिए ब्रह्मदेव सिंह की हत्या के बाद सत्तारूढ़ दल के बहुत से बिधयको ने उसे 'गाँधी' की पदवी दी और किसान नेता बताया। बिहार के सामाजिक न्याय में लगता है भूमिहारो की भूमिका अब ज्यादा बढ़ गयी लगती है और इसलिए सभी राजनैतिक दलों और अखबारों में उनके शुभचिंतको ने खबर को दबाने और उसके जातिगत मतलब न निकले जाएँ इसका पूर्ण प्रयास किया है और शायद नितीश जी की सत्ता के रहते चंचल को न्याय मिलेगा यह भी अब शक के दायरे मैं है. इसमें कोई शक नहीं के अनिल राय चंचल को लगातार परेशान करता रहता था और आज भी उनका परिवार भय में जी रहा है और पुलिस और प्रशाशन की और से ऐसा कोई प्रयास नहीं हुआ के यह भय खत्म हो सके. 

आश्चर्य की बात यह है के बिहार में सबकी जुबान क्यों बंद है ? अगर नितीश ने अखबारों को नियंत्रण में ले लिया है तो क्या हुआ जो नितीश कुमार को गरियाते हैं उनको क्या हुआ. जो जातीय अस्मिता को लेकर हमेशा हंगामा करने के लिए उतावले रहते हैं वोह कहाँ है?  बिहार के क्रांतिकारियों की यह चुप्पी बहुत खतरनाक है. यह चुप्पी नितीश के पेड मीडिया की चुप्पी से ज्यादा खतरनाक है. उम्मीद है पटना के साथी इस मामले को आगे बढ़ाएंगे और इस मामले में आरोपित लोगो जेल की सलाखों के पीछे भिजवाएंगे ताकि चंचल और उस जैसी अन्य लड़कियों पर ऐसे जातिवादी महिला विरोधी गुंडे दोबारा हाथ न उठा सके।