Friday 10 August 2012

Goron ka dhandha gore kamayee

ये काली नहीं गोरी कमाई है गोरे लोगो की बाबा रामदेव

विद्या भूषण रावत

बाबा राम देव बार बार अवैध धन के लिए काले धन का इस्तेमाल कर ब्राह्मणवादी रंगभेदी शब्दावली को ही आगे बढ़ा रहे हैं. ब्राह्मणों ने हर गलत चीज की व्याख्या को ऐसे विश्लेषणों से जोड़ा जिनको वोह मानसिक सामाजिक और सांस्कृतिक तरीके से खत्म करना चाहते थे. आज के युग में जब दुनिया इतनी बड़ी है के हम दुनिया में हर जगह संघर्षो के साथ जुड़ते हैं और उनको अपना समर्थन देते हैं, हमें अपनी जुबान को देखना पड़ेगा के ये दबंगई की भाषा ज्यादा न चले और इन भाषा के अतातैयों को अब शीशा दिखने की जरुरत है. आज अभी रामदेव के शुध्ध भाषा में प्रवचन सुन रहा था के कैसे वोह कहते हैं ' जर जोरू और जमीन' झगड़े की जड़ हैं. महिलाओ को जो गली तुलसी ने दी उसको रामदेव भी दे रहे हैं और महिलाओ के बीच में रहकर. एक महिला भी उस पर सवाल नहीं करती क्योंकि यह महिलाएं कोई महिलावाद का झंडा लिए तो वह पे नहीं आ रही. 
रामदेव के ब्रह्मण बनिया समर्थक उनको मिसगाइड कर रहे हैं. रामदेव इतने बेहूदा और झूठ सपने दिखा रहे हैं गाँव के भोली भली जनता को. क्या वो नहीं जानते के पाकिस्तान और अफगानिस्तान क्यों तुम्हारे साथ आयेंगे. जिन विश्श्ग्यो को लेकर वो मंच पर गर्वोंवाक्ति कहते हैं उनके ब्राह्मणवादी खेलो को सब जानते हैं.

पहली बात ये के अवैध धन को काला धन की क्यों कहा जाए.. क्योंकि काला तो सुंदर होता है, मेहनतकाश है. सफ़ेद कबूतर कोई काम नहीं करता लेकिन कला कौवा तो बहुत मेहनत करता है. भारत के अधिकांश मजदूर, श्रमिक, कामकाजी लोग सुबह से शाम तक काम कर अपने शरीर को धुप में काला कर देते हैं. काला रंग तो विद्रोह और सम्मान का प्रतीक है इसलिए इसको अवैध धन या अवैध काम से क्यों जोड़े. 

आश्चर्य की बात यह है के रामदेव के आगे पीछे लगे हिन्दुओ की ऊंची जात ऊंची क्लास के लोग कितना वैध धन रखते हैं यह तो इन्काम टैक्स को पता होगा लेकिन दुनिया भर में ज्यादा अवैध धन और अवैध काम के मालिक हमारी गोरी चमड़ी और उनके हिनुद्स्तानी  भाई और बहिनों की है. वैसे भी हम कब कालो के साथ थे.. हमारे पूज्य पिता महात्मा गाँधी तो कभी कालो के साथ रहे ही नहीं और न ही उन्होंने अफ्रीका में कालो के लिए कोई संघर्ष किया हाँ आज उनके गुजरात के लोग अफ्रीका में कालो का खूफ शोषण कर रहे हैं और अपनी 'गोरी' कमाई विदेशी बैंको  में रख रहे हैं. इसलिए हे राम देव, अवैध धन को आप गोरी कमाई क्यों नहीं कहते ? कब तक आप  भारत के मेहनत काश कालो का और दुनिया में अपनी आज़ादी और आत्मसम्मान के लिए संघर्षरत लोगो का अपमान करता रहोगे . अपने ब्रह्मिन चेलो से बाहर  निकलकर थोडा बहुजन समाज की तरफ देखो  बाबा, ज्ञान मिलेगा.

सदियों से ऐसे सामंती सोच ने लोगो के रंग, रूप और जाती पर आधारित शब्दावलियों को बनाकर हमारा सम्मान खत्म किया है. आज भी जब मैं कई स्थानों पर जाता हूँ तो लोगो को कहता हूँ अपने बच्चो के नाम स्वयं रखो, किसी ब्रह्मिन को न बुलाओ.. क्यों.. क्योंकि जयादातर मुशाहारो के नाम जो ब्राह्मणों दिए वो इस प्रकार से हैं : फेंकू, शानिस्चारी, कलंकि, टमाटर, कलपती, सितामी, अकाल, भुख्लाल, कालिया, भैंसु, गोबरी, विदेशी, रुदल, लंगड़,  इत्यादि. यह तो एक इलाके की कहानी है. ऐसी स्थिति  बहुत से जगहों पर है. क्योंकि हम अपने समाज को उनके नाम से ही घृणा करना सिखाते हैं. हम जानते हैं के हमारे अतीत बहुत खूबसूरत नहीं है लेकिन हमको वर्तमान में तो सुख से जीने का हक़ है. हम अपने अतीत से सीख सकते हैं लेकिन उसमे रह नहीं सकते. इसलिए जब भी हमारे वर्तमान को खत्म करने की कोशिश हुई वो अतीत की स्मृतियों और सामंती घृणा को हमारे नामो में जोड़ा गया. 

आखिर काला दुनियाभर में क्यों ख़राब, गलत और अवैध का प्रतीक बना गया और हम सब उस शब्दावली में बहते चले गए. जब २६ जनवरी मनाये या कोई ' महान' काम हो तो 'सफ़ेद कबूतर' आकाश में छोड़े जाते हैं.. क्यों. कहते हैं के शांति के प्रतीक है. लेकिन सफ़ेद शांति का प्रतीक कैसे होगया. दुनिया भर को लूटा गोरे रंग भेद ने और उसके ऊपर से वर्ण व्यवस्था को लागु करने वाले और उसपर चलने वाले हमारे मथ्मंदिरो के महान क्रन्तिकारी पाने, सभी तो गोरे रंग के प्रतीक हैं ..दुनिया में सबसे ज्यादा अवैध धन इनके मंदिरों, चर्चो, गुरुद्वारों इत्यादि में होगा. लेकिन जब उस धन को अवैध करने की बात कहेंगे तो 'काला धन कह देते हैं. उसको गोरी कमाई कहना चाहिए. कालो पर हमला हो, उनकी संस्कृति को खत्म करने के प्रयास हों, तुम बम गिराओ और फिर अपने पण्डे पादरियों को सफ़ेद झंडा हाथ में लेकर शांति के लिए भेजदो.. वाह वाह, क्या कला है / वाकई  कमाल  है. 

भारत में तो रंगरूप के आधार पर हँसाना और उनका मज़ाक उड़ना एक आम बात है. शादी के विज्ञापनों में लड़की और लड़के की गोराई देखि जाती है. सुन्दरता को गोरे रंग से जोड़कर देखने वाले इस रंग भेदी  स्वरूप को हमारी विज्ञापन कम्पनिया खूब भुना रही है और सबको गोरा दिखने की होड़ है. सुन्दरता का सीधा मतलब पीला दिखना हो गया. और इसमें अब कंपनियों को करोडो की कमाई हो रही है.. हाँ मैं इसको काली कमी तो कटाई नहीं कहूँगा.. ये तो गोरी कमाई है और ऐसी गोरी कमाई पर अब प्रतिबन्ध लगने  चाहिए  क्योंकि ये रंगभेद को बढाती है. क्या हमारे सांसद  इस बात पर कभी विचार करेंगे के भारत के काले रंग के लोगो के साथ कितना दुर्व्यवहार किया है और उसको लेकर वर्णवादी ताकते पुनः शक्रिया हो रही हैं 

हम सभी अपनी भाषा में सुपरलेटिव और एडजेक्टिव ( विश्लेषण) लगाने के आदि हो गए हैं और हमें अपनी भाषा पर ताली पिटवाने के लिए दुसरो का मज़ाक सा उड़ने की आदत सी हो गयी है और इसमें न केवल रंग और जाति का सहारा लिया जाता है अपितु विकलांगता का तो सबसे बड़ा मज़ाक है. अब बार बार निकम्मी और न सुनने वाली सरकार को आप लंगड़ी और गूंगी या बाहरी सरकार क्यों कह रहे हो भाई. किसी की विकलांगता का मज़ाक उड़ना तो कोई हम से सीखे. ऐसे ऐसे शब्द और व्यवहार लायेंगे के ईमानदारी से इज्जत से जीने वाले व्यकी के लिए हमारा समाज जिंदगी नामुनकिन कर देता है और वो तो ऐसे वर्णभेदी  रंगभेदी समाज से भागना पसंद करेगा. क्या रविन्द्र जैन  ने जब इतने सुंदर गाने लिए और संगीत दिया तो कोई कहता है के उनके अन्दर की विकलांगता क्या है. जॉन मिल्टन ४५ वर्ष में अपनी आंखे खो बठे लेकिन उनकी कविताओ में दम इसी उम्र की बाद आया. अमेरिकी रास्त्रपति रूजवेल्ट ने विश्वयुद्ध के समय अपने देश का नेतृत्व किया और अंतरास्ट्रीय मानवाधिकारो के बनाने में उनकी पत्नी की अहम् भूमिका थी लेकिन कोई उनको विकलांग कह के तो कुच्छ नहीं प्राप्त कर सकता. अभी लन्दन ओलिम्पिक्स में दक्षिणी अफ्रीका के तेज धावक ओस्कार पिस्तोरस ने साबित कर दिया के जहाँ छह है वह रह है. और विकलांगता को यदि निक्कमेपन या कमीनेपन से जोड़ेंगे तो इससे बड़ा कमीनापन नहीं हो सकता और ये काम हमरे वर्णवादी संस्कृति ने किये और इसके उदहारण हमारी फिल्मो में बहुत मिलेंगे जहाँ पर एक खलनायक या तो काले रंग का होगा या विकलांग होगा.  हरेक काले या विकलांग चरित्र को इतना नकारात्मक दिखाया जाता है और उन पूर्वाग्रह से युक्ता बातो को पुनः दोहराया जाता है जो अभिशाप हैं लेकिन जिहे हम भुला देना चाहते हैं.दोनों चरित्रों को अपने पे इतना गिरा दिया जाता है या उसका इतना मज़ाक बनाया जाता है के अगर हमारी न्याय प्रणाली सही है तो ऐसे सभी उल्लेखो पर मुक़दमा चलना चाहिए और उन्हें विश्लेषण करके बच्चो को समाज में बताया जाना चाहिए के अभी भी हम सामंती सोच और भाषा शैली के शिकार हैं . 

ब्र्हम्न्वादी या वर्चस्वादी व्यवस्था में गरीबो, मजदूरों, दलितों आदिवासियों, विकलांगो का मज़ाक उड़कर एक स्टीरिओटाइप बनाया जाता है और जिनको शक हो तो आजकल टीवी चैनलों के फूहड़ हंसी मज़ाक के शो देख सकते हैं के किन जोक्स पर ज्यादा तालियाँ पड़ती है.

अब समय आ गया है जब हम अपनी भाषा शैली बदले और दुसरो की जाति, रंग, लिंग और विकलांगता से अपना मनोरंजन न करे और अवैध धने वाले गोरे लोगो की अवैध कमाई को काली कमाई न कहे.. बेहतर है इनकी गोरी कमाई की जांच हो और रामदेव को यह काम खुद से करना चाहिए के उनकी गोरी कमाई  में भारत के किन किन गोरे लोगो की हिस्सेदारी है. चलो आज से ही अपनी जुबान सभालते हैं और यह शुभ काम करते हैं..