Friday 8 September 2017

क्यों की गयी गौरी लंकेश की हत्या



विद्या भूषण रावत

कल प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया खचाखच भरा था . खड़े होने की भी जगह नहीं थी . ५ सितम्बर को जैसे ही गौरी लंकेश की हत्या की खबर आई तुरंत ही कुछ पत्रकार साथियो ने मोर्चा संभाला और रात भर में ही ट्विटर पर उनकी मौत का समाचार ट्रेंड करने लगा. देश पर में सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों आदि ने प्रदर्शन किये, कैंडल लाइट मार्च आदि निकाले और घटना की कड़ी निंदा की. कल की बैठक में बरखा दत्त और राजदीप सरदेसाई ने राजनितिक नेताओं से  इस आन्दोलन से दूर रहने की बात कही लेकिन वही पर कई दूसरो ने कहा के साफ़ जाहिर है के किन लोगो ने गौरी की हत्या की है इसलिए अगर साम्प्रदायिकता विरोधी लोग इन कार्यक्रमों में आकर समर्थन करते हैं तो कोई गलत बात नहीं है .

सवाल इस बात का नहीं है के पार्टियों को पत्रकारों या सामाजिक कार्यकर्ताओ का समर्थन करना चाहिए या नहीं लेकिन ये भी के क्या इन दोनों पत्रकारों ने सत्ताधारियो के साथ में बैलेंसिंग करने की कोशिश तो नहीं की जब सबको पता है के गौरी लंकेश की हत्या किन लोगो के द्वारा की गयी हो सकती है और कौन लोग हैं जो खुले आम सोशल मीडिया पर लोगो की लिस्ट बनाकर दिखा रहे हैं के अब किसकी बारी है . शर्मनाक तो ये है के ख़ुशी मनाने वाले और धमकी देने वाले अपने प्रोफाइल पर लिखते हैं उन्हें देश के प्रधानमंत्री फॉलो करते हैं . क्या किसी की मौत पर इतनी ख़ुशी मनाई जा सकती है आखिर गौरी ने ऐसा कौन सा काम किया के उनकी हत्या हो और उस पर इतनी ख़ुशी मनाई जाए . जब केन्द्रीय मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने इसकी निंदा की तो उन्हें भी ट्रोल किया गया . इसका मतलब ये है के इन लोगो को गाली देने और धमकी देने के अच्छे पैसे मिल रहे हैं और सत्ताधारियो का उन्हें पूरा संरक्षण प्राप्त है. अभी तक देश के प्रधानमंत्री ने बुद्धिजीवियों पर हुए हमले के बारे में एक शब्द नहीं बोला है , क्या ये नहीं दर्शाता के उनके सोच की दिशा किधर है. उनके चुप रहने में भी बहुत कुछ संकेत छुपे हैं और अगर संकेतो की इन भाषाओं को समझ लेंगे तो पता चल जाएगा के आखिर ऐसा क्यों हो रहा है .

ये समझना पड़ेगा के क्या गौरी लंकेश मात्र एक पत्रकार थी जिसका काम रिपोर्टिंग करने का है ? वो एक बड़े परिवार से आती है जिनके पिता पी लंकेश लोहियावादी थे और उन्होंने लंकेश पत्रिके के स्थापना की . लंकेश कन्नड़ के प्रसिद्ध लेखक थे . पिता के मौत के बाद गौरी ने लंकेश पत्रिका की कमान संभाली लेकिन अपने भाई इंद्रजीत के साथ  हुए मतभेदों के चलते उन्होंने  उनसे दूरी बनाली और फिर गौरी लंकेश पत्रिका चलानी शुरू की. पिता इतने विचारवादी के उन्होंने कभी विज्ञापनों के चलते पत्रिका नहीं चलाई और अन्धविश्वाश, जातिवाद, महिला हिंसा और दलित आदिवासियों के अधिकारों के लिए समर्पित थी . वह तर्कवादी आन्दोलनों से भी जुडी और फिर देश के नामी गिरामी अखबारों के साथ भी .

आज सभी संपादक उनकी मौत पर आहात थे . सभी सोच रहे थे के कल किसका नंबर होगा. बरखा दत ने कहा के ट्विटर पर धमकी देने वालो के खिलाफ लिखना चाहिए और खुल करके बोलने की जरुरत है लेकिन मीडिया आज जो आंसू बहा रहा है वो झूठा है और उस पर विचार करना चाहिए.
गौरी एक पत्रकार परिवार से थी . उनके संपर्क भी थे और प्रभावशाली भी थी अतः उनके लेखन को न चाहते हुए भी ये अखबार कभी कभार छापेंगे. वैसे तो सभी जानते हैं के गत तीन वर्षो में तो जो भी थोडा बहुत रेडिकल लिखने की कोशिश कर रहा है वो हाशिये पे है . गौरी को थोडा बहुत मेनस्ट्रीम मीडिया ने जगह भी दे दी हो लेकिन ऐसे बहुत है जो उसका हिस्सा नही बन पाते क्योंकि उनके लेखन को ‘ समाज’ में ‘द्वेष’ फ़ैलाने वाला या साधारण बनाकर रद्दी में फैंक दिया जाता है . मीडिया में न केवल बिरादरीवाद और जातिवाद है लेकिन अब  मीडिया के अन्दर भी एक बड़ा भोंडे किस्म का अवसरवाद भी आ चूका है और इसके चलते आज पत्रकार केवल प्रेस रिलीज़ छापने वाला सरकारी पार्टी का मीडिया होगया है . इमरजेंसी और आज के दौर में येही फर्क है के उस वक़्त हमारे पास केवल दूरदर्शन या आल इंडिया रेडिओ थे लेकिन आज के प्राइवेट चैनल तो उनसे दस कदम आगे बढ़ चुके है . ये केवल खबरे दिखाते नहीं है अपितु बनाते भी है. आज गौरी के पक्ष में वो इसलिए आने पर मजबूर हुए है क्योंकि हमारी भी रीढ़ की हड्डी है, दिखाने की कोशिश है . मैं ये नहीं कहता के सभी ऐसे हैं क्योंकि बहुत सारे लोग तो मुख्यधारा की अपनी अच्छी नौकरी छोड़ आये और उनकी विचारशीलता और सांप्रदायिक शक्तियों से लगातार लड़ने की भावना को तो सलाम करना ही होगा लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है क्योंकि अभी भी मठाधीश खबरों में घालमेल करना चाहते हैं .

जब देश भर में गौरी के क़त्ल के बाद विरोध के स्वर उठ खड़े हुए तो अब मीडिया के जरिये मनिपुलेट करने की कोशिश हो रहे है. गौरी के भाई इन्द्रजीत को रिपब्लिक टीवी ने बुलाकर बुलवाया के उन्हें नाक्साल्वादियो से खतरा था . ये बात और है के गौरी अपने भाई के विचारो से मतभेद रखती थी और हो भी क्यों न क्योंकि अभी १० जुलाई की न्यू इंडियन एक्सप्रेस  की खबर के मुताबिक इन्द्रजीत भाजपा में जाने की तैय्यारी कर रहे हैं क्योंकि उन्हें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सिआसत पर बहुत विश्वास है . ये उस समय हो रहा है जब कर्नाटक में लिंगायत जाति स्वयं को संघ परिवार के दामन से दूर करने के लिए कृतसंकल्प है . लिंगायत समुदाय की एक बहुत विशाल रैल्ली २२ अगुस्त को हुई थी जिसमे समाज के सभी राजनैतिक और धार्मिक नेताओं ने शिरकत को और उन्होंने समुदाय को अलग धर्म का होने की बात कही . लिंगायतो का कहना है के वे वैदिक हिन्दू धर्म को नहीं स्वीकार करते क्योंकि ये जाति और भेदभाव पर आधारित है और हज़ारो देवी देवताओं को मानता है . लिंगायत केवल शिव भक्त है लेकिन वो भी उनकी अपनी परम्परा है जो केवल इष्टलिंग की भक्ति तक केन्द्रित है और महान समाज सुधारक वस्वेश्वर ने १२वी सदी में की . आज लिंगायत धर्म के लोग वैदिक जातिवादी वर्णव्यवस्था के साथ न होकर संविधान सम्मत समानता के शासन की बात कर रहे हैं .

कर्नाटक में लिंगायतो के धार्मिक मामलो में संघ परिवार ने बहुत हस्तक्षेप किया है और पिछले कुछ वर्षो में भारतीय जनता पार्टी की राजनीती के लिए उसके नेता येदिरपपा के कारण से उन्होंने कर्णाटक में शासन भी किया लेकिन अभी यदिराप्पा की हालत भी ख़राब है और समुदाय का बड़ा हिस्सा संघ से बहुत नाराज़ है . कर्नाटक में हिंदुत्व की राजनीती में लिंगायतो के अलग होजाने से बहुत कमज़ोर पड़ने की सम्भावना है क्योंकि उनकी संख्या १७% मानी जाति है हालाँकि खुले आंकड़ो में फेर बदल के बहुत संभावना रहती है . ये मामला मात्र राजनैतिक होता तो कोई बात नहीं थी लेकिन यह मामला सांस्कृतिक भी है और कन्नड़ के प्रख्यात लेखक डॉएम् एम् कलबुर्गी की हत्या के पीछे जिन संस्थाओं का हाथ है वो उनके ब्रह्मंधर्म की आलोचनाओं से परेशान थे . कलबुर्गी भी ये मानते थे के लिंगायत हिन्दू नहीं है और उसके लिए उन्होंने अपने धर्म का पूरा साहित्य लोगो से सामने रखा. प्रोफेस्सर के भगवान भी उसी श्रेणी में आते हैं और पुलिस के साए में रहते हैं क्योंकि उनके ब्रह्मवनवाद के पोल खोलती लेखनी से जिन को खतरा महसूस हो रहा है उन्होंने उन्हें धमकी दी है . गौरी लंकेश भी उसी श्रेणी में थी. उन्होंने हिंदुत्व ओर संघ के खिलाफ जम के लिखा और न केवल लिखा अपितु उन्होंने सामाजिक आन्दोलनों और पब्लिक प्लेटफॉर्म्स पर लगातार अपनी बात रखी इसलिए वह केवल एक पत्रकार नहीं थी अपितु उससे कही आगे चली गयी थी . हकीकत ये के आज पत्रकारो से कोई डरता नहीं है क्योंकि अख़बार और टी वी मात्र सुचना का आदान प्रदान और सरकारी घोषणाओं और मंत्रियो के दौरों तक सिमट के रह गया है और जो लोग मारे गए हैं वो खुलकर अन्धविश्वास, रूढ़िवादी और संघ परिवार की घृणा की राजनीती के खिलाफ लड़ते आये हैं .
भाजपा में अन्दर खाते कर्नाटक को लेकर घबराहट भी है क्योंकि गौरी के खिलाफ उबला गुस्सा केवल एक महिला पत्रकार या लेखक होने का नहीं अपितु उनके लिंगायत होने का भी है . ताकतवर जाति बहुत फर्क डालती है और इसलिए अब पिटे हुए लोग बहस चला रहे हैं के राहुल गाँधी ने पहले ही कैसे आरोप लगा दिया के उनके हत्या में संघ समर्थको का हाथ है. उनके भाई के जरिये कर्नाटक सरकार की से आई दी जाँच के जगह पर सी बी आई जांच की बात कही गयी. हम नहीं जानते क्या के केन्द्रीय जांच एजेंसिया कैसे काम कर रही हैं . अब मंत्री जी कह रहे हैं के प्रधानमंत्री किसी को ट्विटर पर फॉलो कर रहे हैं तो उसको चरित्र प्रमाण पत्र नहीं है लेकिन उस व्यक्ति के लिए तो है क्योंकि उसने अपने प्रोफाइल पर लिखा के देश का प्रधानमंत्री उनको फॉलो करता है और वैसे भी मोदी जी बहुत कम लोगो को फॉलो करते हैं ऐसे में इतनी महान हस्ती में कुछ तो खासियत होगी . सवाल ये है के प्रधानमंत्री जी सख्त जुबान में क्या ये नहीं कह सकते के ये देश सबका है और लोकतंत्र में मतभिन्नता होती है और उसको बातचीत से ही सुलझाया जाता है लेकिन वो ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि जो सोशल मीडिया पर भाड़े के सारथि है फिर तो उनका काम बंद हो जायेगा. वो तो यही सोचते हैं के सभी गंभीर सोचने वाले, बोलने वाले लोगो को हर तरफ से धमकाओ, गाली दो और अगर नहीं माने तो निपटाओ . ये बहुत गंभीर प्रश्न है . सोशल मीडिया का इस प्रकार से गलत इस्तेमाल से लोकतंत्र और हमारी सामाजिक व्यस्था तबाह हो सकती है . यह भयावह स्थिति है और इसकी गंभीरता को समझना पड़ेगा .

गौरी लंकेश की हत्या से हम सब सहमे है . हम जानते हैं बहुत से लोग ये सोच रहे हैं के अब किसका नंबर है . बहुत से मित्रो की बातो और चेहरे में तनाव दिखाई दे रहे हैं लेकिन एक दुसरे का साथ देकर, संघर्ष में साथ रहकर, सबको आन्दोलनों में जगह देकर और सार्थक बहसों के जरिये हम इसका मुकाबला कर सकते हैं . ये समय एक दुसरे पर कीचड़ उछालने का नहीं है लेकिन ये बात जरुर है के देश में सांप्रदायिक सौहार्द, शांति और भाईचारे के लिए काम करने वाले लोगो पर खतरा पहले से ही था . साम्प्रदायिक घृणावाद के खिलाफ जो बोल रहा है उसे खतरा महसूस हो रहा है. अच्छी बात तो ये के गौरी मुख्यधारा से थी लेकिन ऐसे हजारो छोटे पत्रकार हैं, और सामाजिक कार्यकर्ता है जिनकी न पहुँच है, न उनके लिए कोई जंतर मंतर है, वो न अंग्रेजी बोलते हैं न ही सोशल मीडिया पर ज्यादा लिख सकते और सबकी जिंदगी को खतरा है . वो रोज खतरे की जिंदगी जीते हैं क्योंकि उनके न वोट होते हैं ना ही अंग्रेजिदा लोग मोमबत्ती जलाने के लिए उनके लिए खड़े होंगे इसलिए ये वक़्त साथ आने का है, लोगो को साथ लेने का भी है . जरुरत इस बात की है के सेक्युलर प्लेटफार्म केवल कुछ फिक्स्ड लोगो अड्डा न बने, सेकुलरिज्म में अगर सोशल जस्टिस या सामाजिक न्याय की धारणा और इन्क्लूजन की बात नहीं करेंगे तो केवल लाभ उन्ही लोगो को होगा जिन्होंने ये आग लगाईं है . आशा करते हैं के गौरी लंकेश की शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी और फासीवादी घृणा फ़ैलाने वाली शक्तियों के विरुद्ध लोग एक होंगे और जनतंत्र को मजबूट करेंगे.

Monday 31 July 2017

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को इतिहास की चुनौती


विद्या भूषण रावत
रामनाथ कोविंद ने भारत के १४ राष्ट्रपति पद का कार्यभार संभाल लिया है. इस पद पर पहुचने पर हमारी शुभकामनायें.  उनके पदभार के तुरंत बाद हुए राजनैतिक घटनाक्रम ने कुछ बिन्दुओ से हमारा ध्यान हटाया लेकिन फिर भी उनकी और हमारा ध्यान जाना आवश्यक है. उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय को याद किया, वह गाँधी जी की समाधी पर जा कर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित कर आये जो भारतीय राज्य सत्ता के लोगो की एक परंपरा है उसके बाद वह सेंट्रल हॉल गए जहा उनका शपथ ग्रहण हुआ. उन्होंने डॉ राजेंद्र प्रसाद, डॉ राधा कृष्णन, डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम और श्री प्रणब मुख़र्जी की महान विरासत की बात की और कहा के उनके ऊपर बहुत बड़ी जिम्मेवारी है.
राष्ट्रपति के पहले दिन के घटनाक्रम कई और इशारा कर रहे हैं जिनको समझना जरुरी है .शपथ ग्रहण के तुरंत बाद अपने उद्बोधन में उन्होंने गाँधी जी और दीन दयाल उपाध्याय को भारतीय स्वाधीनता की लड़ाई का नायक बताया और फिर सरदार पटेल और अंत में आंबेडकर को थोडा बहुत याद किया .संसद में उनके भाषण के समाप्त होने पर जय श्री राम और भारत माता की जय के नारे भी लगे . वैसे तो नारे बाजी ऐसे अवसरों पर शोभा नहीं देता लेकिन ये साबित करता है के भारतीय राजनितिक पटल पर गंभीरता का स्थान जुमलो और नारेबाजी ने ले लिया है . अगर जुमलो में ही बात करे तो हम कह सकते हैं के अगर राम नाथ कोविंद भारत के राष्ट्रपति है तो इसका श्रेय डॉ बाबा साहेब आंबेडकर को जाता है जिनकी जागरूक पीढ़ी के चलते संघ और कांग्रेस जैसी ब्राह्मणवादी पार्टियों को भी जय भीम करना पड रहा है . क्या वो संसद जो सुरक्षित सीटो से चुनकर आते हैं जय भीम का नारा नहीं लगा सकते थे आखिर संघ परिवार तो दुनिया में ये ही बताना चाहता है के उसने एक दलित को राष्ट्रपति बनवाया है और उसको चुनाव में खूब भुनवाना चाहता है लेकिन उसके संसद जय भीम कहने को तैयार नहीं क्योंकि उनकी असली विरासत तो जय श्री राम की है है. ये जरुर है के दोनों साथ नहीं रह सकते क्योंकि अंततः ऐसे अंतर्द्वंद जल्दी ही विश्फोटित हो जाते हैं क्योंकि लड़ाई वैचारिक है, लड़ाई मनुवाद और अम्बेडकरवादी मानववाद के बीच है इसलिए जो एडजस्ट करने की कोशिश कर रहे है उनको शीघ्र ही घुटन महसूस होना शुरू हो जायेगी और बाकी तो अपनी पीढियों के जुगाड़ के चक्कर में वह है उन्हें समाज से क्या लेना देना .
 वैसे तो राष्ट्रपति क्या बोले यह उनका और उनकी सरकार का अधिकार क्षेत्र है लेकिन जिस संसद को वो आज संबोधित कर रहे थे उसमे प्रथम प्रधानमंत्री के नाम को न लेना कोई भूल नहीं अपितु संघ की घृणित रजनीति का हिस्सा है . राष्ट्रपति के निजी सचिव आदि की घोषणा पहले ही प्रधानमत्री कार्यालय ने की और सभी लोग आर एस एस थिंक टैंक का हिस्सा है . प्रणब मुख़र्जी रास्त्रपति बनते ही अपने प्रिय अधिकारियों को रास्ट्रपति भवन लाये लेकिन ये सुविधा रामनाथ कोविंद को नहीं है . मतलब साफ़ है के राष्ट्रपति जी के भाषण पर संघ के ‘विशेषज्ञों’ की ‘पारखी’ नज़र होगी ताकि वह देख सके के गाँधी, पटेल का नाम हो तो नेहरु का न हो. बाबा साहेब का नाम हो लेकिन केवल दिखावे के लिए.
बसपा प्रमुख सुश्री मायावती ने कहा के गाँधीजी की समाधी में जाने के साथ साथ राष्ट्रपति यदि संसद के सेंट्रल हॉल में बाबा साहेब की फोटो या उनकी प्रतिमा पर माल्यार्पण कर देते तो देश को एक बहुत बड़ा सन्देश जाता. उन्होंने ऐसा नहीं किया तो साफ़ सन्देश है के वह संघ की मित्रमंडली की सलाह के अनुसार चलेंगे . अगर ट्विटर पर हुए भक्तो के हल्ले से कुछ दिखाई देता है तो वे राष्ट्रपति भवन में एक ‘राम’ के आने से बहुत प्रसन्न है क्योंकि उन्हें अब लगता है के अयोध्या में राम मंदिर के लिए अब सारे रस्ते साफ़ होते जा रहे है .
वैसे राष्ट्रपति का पद संवैधानिक तौर पर महत्र्पूर्ण होता है जिसको आप जैसे व्याखित करना चाहे कर सकते हैं. लेकिन आज कोविंद जी के रास्ट्रपति पद पर हमें उन रोल मॉडल्स को भी देखना चाहिए और फिर अन्य का भी थोडा विश्लेषण कर लेना चाहिए देश और समाज के सेहत के लिए अच्छा रहेगा क्योंकि सबको पता चलना चाहिए के संघ के लिए कुछ लोग बहुत अच्छे और कुछ घृणित क्यों हैं.
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद बड़े विद्वान थे और प्रधानमंत्री नेहरु से उनके मतभेद जगजाहिर थे . राजेंद्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर का  सरकारी खर्चे से जीर्णोधार करवाना  चाहते थे जबकि नेहरु नहीं. बाबा साहेब आंबेडकर द्वारा मेहनत से ड्राफ्ट किये गए हिन्दू कॉड बिल पर अक्सर कई लोग नेहरु को गरियाते हैं लेकिन उस वक़्त के हालत पे लोग भूल जाते हैं के रास्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद इस बिल के बहुत खिलाफ थे . वैसे एक कहानी और भी प्रचलित थी के रास्ट्रपति जी उस वक़त ब्राह्मणों के पैर धोकर भोजन करवाते थे . कुल मिलाकर एक विद्वान रास्ट्रपति लेकिन घोर परम्परावादी .
डॉ राधाकृष्णन एक बड़े विद्वान माने जाते हैं . उन्होंने वैदिक धर्मग्रंथो वेदांत, गीता की व्याख्याएं की और बुद्ध को भी हिन्दू धर्म में डालने का ‘वेदान्तिक’ प्रयास किया . वैसे उनकी पूरी जीवन कहानी उनके इतिहासकार पुत्र सर्वपल्ली गोपाल ने लिखी है सबको पढना चाहिए .
एपीजे अब्दुल कलाम को संघ शुरू से ही पसंद करता रहा है क्योंकि वो उसकी आदर्श मुस्लिम की व्याख्या में अच्छे से फिक्स होते हैं . मतलब वो मुसलमान जो गीता पढ़े और कुरान छोड़े या मुसलमानों के प्रश्न को केवल ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद के सांचे में ढाल दे. वो व्यक्ति जो मुसलमानों के मूलभूत प्रश्नों पर उनसे सवाल करने को न कहे और केवल अंपने को दोष देकर भारतीय राष्ट्र राज्य के लिए केवल सैन्य विजय की बात करता रहे .
प्रणब मुख़र्जी को संसदीय प्रणाली का गुरु माना जाता है . इतने वर्षो तक वह कांग्रेस पार्टी, इसके विभिन्न मंत्रालयों, उसकी विशेषग्य समितियों के प्रमुख रहे के उनके विरोधी भी उनके संसदीय ज्ञान और उस पर पकड़ का सम्मान करते हैं लेकिन मुख़र्जी के जीवन में एक भी ऐसा वाकया नहीं होगा जहाँ वह सामाजिक न्याय की मजबूती से वकालत करते नजर आये हो . पिछले तीन वर्षो में उन्होंने कोई ऐसा काम नहीं किया जिस पर कोई यह कह सके के वो एक मज़बूत रास्ट्रपति थे जो अपनी बातो को शब्दों की बाजीगरी से हटकर मजबूती से रखे . जो थोडा बहुत ‘क्रांति’ उनके वक्तव्यों में दिखाई दी वो भी तब जब उन्हें अंदेशा हो चूका था के अब दोबारा इस पद पर वे नामित नहीं होने जा रहे .
बहुत से लोगो को ये शिकायत थी राष्ट्रपति जी ने पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायणन का नाम तक नहीं लिया लेकिन क्यों ले . नारायणन ने अटल विहारी वाजपेयी के समय रबर स्टैम्प बनने से मना कर दिया . उन्होंने बहुत से बिल वापस किये और आँख बंद कर हर कागज़ पर दस्तखत नहीं किये . उस वक़त के सरकार उनके वक्तव्यों से परेशान थी. नारायणन ने उस दौर में देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप और उसकी विरासत को अपने भाषणों और कार्यो से जिन्दा रखा. ये पहली बार हुआ जब किसी राष्ट्रपति ने बाबा साहेब आंबेडकर को इतने बेहतरीन तरीके से विश्लेषित कर जनता के समक्ष रखा . जातिगत भेदभाव, छुआछूत और गरीबी पर उन्होंने जिस तरीके से देश की संसद और अन्य स्थानों पर बाबा साहेब आंबेडकर की बातो को रखा, वो अविश्मरनीय है .
राष्ट्रपति भवन को जिस सख्सियत ने सबसे मजबूती प्रदान की वह थे ज्ञानी जैल सिंह जिन्होंने बता दिया के वह सरकार की हर बात को मानने को तैयार नहीं हैं और सरकार को उन्हें जानकारी देनी ही पड़ेगी. सभी जानते हैं के ज्ञानीजी को श्रीमती इंदिरागांधी ने १९८२ में कांग्रेस पार्टी की और से रास्ट्रपति पद के लिए मनोनीत किया था और पार्टी की शक्ति के चलते वो आसानी से रास्ट्रपति बने थे . उनके राष्ट्रपति बनने पर ऐसा कहा गया के उन्होंने कहा के अगर श्रीमती गाँधी बोलेंगी तो मैं उनके घर में झाड़ू भी लगाने को तैयार हूँ. जो लोग भारतीय राजनीती को जानते हैं वो ये जरुर जानते होंगे के व्यक्तिगत निष्ठां सत्ता के करीब आने का एक बहुत बड़ा कारण होता है और अगर जैल सिंह को इंदिराजी ने चुना तो वो इसलिए के वह १९७५ के फखरूदीन अली अहमद की तरह कार्य कर सके जिन्होंने २५ जून १९७५ को कैबिनेट के बिना मीटिंग के किये गए विधेयक पर दस्तखत कर देश में आपातकालीन स्थिति के घोषणा कर दी थी . श्रीमती गाँधी जैसे सशक्त व्यक्तित्व को राष्ट्रपति भवन में ऐसा व्यक्ति चाहिए था जो उनके इशारों पर काम करे और कोई अडंगा न लगाए . दुर्भाग्यवश अक्टूबर १९८४ में श्रीमती गाँधी की हत्या हो गयी. ज्ञानी जी यहाँ पर फखरूदीन अली अहमद का रोल निभाया . उन्होंने कांग्रेस पार्टी की संसदीय दल की बैठक के बिना ही अरुण नेहरु और आर के धवन के इशारे पे राजीव गाँधी को कांग्रेस पार्टी के नेता के तौर पर प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी .ये कार्य इतना द्रुतगति से हुआ के देश में इस पर चर्चा करने का समय भी नहीं था . असल में राजीव उस समय बंगाल के दौरे पर थे और जब उन्हें तुरंत दिल्ली आने की सुचना दी गयी तो उनके साथ में प्रणब मुख़र्जी थे . ऐसा कहा जाता है के हवाई जहाज से दिल्ली आते समय राजीव ने प्रणब मुख़र्जी से पुछा के प्रधानमंत्री किस बनाया जाना चाहिए तो प्रणब मुख़र्जी ने संसदीय परम्पराओं का हवाला देते हुए कैबिनेट के सबसे सीनियर मंत्री जो प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में कैबिनेट की अध्यक्षता करता हो, उसका नाम कहा . बात साफ थे प्रणब चाहते थे उनका नाम आगे किया जाए. वैसे नरसिम्हाराव की भी वही चाहत थी. प्रणब मुखर्जी की बात से राजीव शायद बहुत डिस्टर्ब हुए क्योंकि उनके दिमाग में यह रहा होगा के प्रणब मुख़र्जी उनके नाम की बात कहें . खैर, ज्ञानी जी अपना व्यक्तिगत धर्म निभाया और राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी . प्रधानमंत्री बनने के एक महीने के अन्दर ही कांग्रेस ने आम चुनावों की घोषणा कर दी और दिसंबर १९८४ हुए इन आम चुनावों में राजीव गाँधी के कांग्रेस को अभूतपूर्व बहुमत मिला जिसमे विपक्ष का सुपडा साफ़ हो गया . संसद विपक्षहीन हो गयी. इस अप्रत्याशित जीत ने राजीव को अतिविश्वासी बना दिया  और उन्होंने संसदीय परम्पराओं को अनदेखी करना शुरू कर दी. सबसे बड़ी बात यह हुई के धीरे धीरे राजीव ने ज्ञानी जी के साथ भी परम्परागत शिष्टाचार छोड़ दिया क्योंकि राजीव जिस बैकग्राउंड से आये थे उसमे अपने अलावा किसी और को महत्व न देना एक महत्वपूर्ण बात थी . जब ज्ञानी जी ने इसकी शिकायत की तो उनको अनसूना कर दिया गया . ज्ञानी जी पंजाब से पिछड़ी जाति से आते हैं और बहुत ही मिलनसार और जमीनी व्यक्तिव थे . उन्हें गुरमुखी और उर्दू में महारत थी लेकिन हिंदी भी ठीक ठाक बोलते थे लेकिन भारत के शहरी मध्यमवर्गीय समाज में अक्सर उनकी मजाक उड़ाई जाती क्योंकि वो अंग्रेजी नहीं जानते थे. राजीव उस वक़्त शहरी हिन्दुओ के अभिजात्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे, बढ़िया अंग्रेजी और चलताऊ हिंदी बोलते थे इसलिए लोगो को उन पर फक्र था . जैल सिंह सज्जन, उर्दू की शेरो-शायरी करने वाले व्यक्ति, तकनीक तौर पर कम पढ़े लिखे इसलिए सवर्ण मानसिकता के हिन्दुओ में उनके ज्ञान और भाषा को लेकर चुटकुले और घटिया मजाक होते थे . शायद यही मानसिकता के चलते राजीव उन्हें महत्त्व नहीं देते थे लेकिन प्रश्न व्यक्ति का नहीं अपितु उस पद का था जिस पर ज्ञानी जी बैठे थे और उसका अपमान नहीं बर्दास्त किया जा सकता था लेकिन ऐसा हुआ .
राजीव का अति आत्मविश्वास के चलते ही वो भ्रस्टाचार के आरोपों में घिरते चले गए . वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को पहले रक्षा मंत्रालय भेजा गया और फिर वहा से कांग्रेस पार्टी से ही निकाल दिया गया. ज्ञानी जी एक प्रखर राजनीतिज्ञ थे क्योंकि वो पंजाब के मुख्यमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री भी थे और उन्हें शाशन की छोटी छोटी बातो का ज्ञान था . ज्ञानी जी ने संविधान विशेषज्ञों को बुलाना शुरू किया और रास्ट्रपति के अधिकारों को लेकर बहस शुरू हुई. राजीव ने रास्ट्रपति भवन पर ही आरोप लगा दिया के वह साजिश कर रहे हैं . राजीव के चमचो की एक बहुत बड़ी फौज थी जो ज्ञानी जी और वी पी सिंह को टारगेट कर रही थी . मीडिया में एम् जे अकबर जैसे उनके पिट्ठू झूठो का पुलिंदा छाप रहे थे.
ऐसा कहा जाता है के ज्ञानी जी वी पी सिंह को राष्ट्रपति भवन बुलाकर उन्हें प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव किया था लेकिन वी पी न केवल एक मझे हुए राजनेता थे लेकिन नैतिकता के मापदंडो पर उनके समकक्ष आज भी कोई समकालीन नेता नहीं टिकता . उन्हें इस प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया था . देश के दो सबसे मूर्धन्य पत्रकारों के बीच बड़ी बहस हो रही थे . ये थे टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संपादक श्री गिरी लाल जैन और दुसरे इंडियन एक्सप्रेस के श्री अरुण शौरी . हालाँकि दोनों ही संघ के ‘विद्वानों’ की श्रेणी में आ चुके थे . जैन का कहना था के राष्ट्रपति को कानूनन चुनी हुइ सरकार को बर्खास्त करने का कोई अधिकार नहीं है लेकिन शौरी कह रहे थे के यदि सरकार रास्ट्रपति को उसके कार्यकलापो की जानकारी नहीं देती तो उन्हें ऐसा करने का अधिकार है .देश के बड़े बड़े संविधान विशेषज्ञ इस बहस में कूद गए लेकिन अंत में ऐसा नहीं हो पाया क्योंकि एक समझदार राजनेता ने उनका मुहरा बनने से मना कर दिया. ऐसा सभी जानते हैं के वी पी उस वक़्त भी प्रधानमंत्री बनते तो उनकी पॉपुलैरिटी राजीव से बहुत आगे बढ़ चुकी थी और लोग भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में उन्हें एक प्रमुख स्तम्भ मान रहे थे. हालाँकि ज्ञानी जी भी बहुत आगे बढ़ चुके थे लेकिन यह भी हकीकत है के सत्ता का नशा जब सर के ऊपर से चला जाता है तो लोग इन संवेधानिक मर्यादाओं को भूल जाते हैं . जैल सिंह ने राजीव गाँधी की मजबूत सरकार को अंतत ये बता दिया के रास्ट्रपति मात्र सरकार के कामकाजो पर मुहर लगाने वाला व्यक्ति नहीं ये अपितु उसके ऊपर संविधान की मर्यादाओं को बचाने की जिम्मेवारी भी है .
राम कोविंद जी को पता नहीं याद है या नहीं लेकिन ये बहुत महत्वपूर्ण है. उन्होंने न के आरं नारायणन और न के जैल सिंह को याद किया . आज का दौर भी कुछ राजीव गाँधी की तरह है . आज नरेन्द्र मोदी के रूप में एक ताकतवर नेता प्रधानमंत्री है और संघ अपना एजेंडा चलाना चाहता है . क्या राम कोविंद देश के संविधान की हिफाजत करेंगे या फखरूदीन अली अहमद बनेंगे जिन्होंने बिना कागज देखे दस्तखत कर देश के ऊपर राजनैतिक आपातकाल लगा दिया. आज का दौर १९७५ और १९८४ से ज्यादा भयावह है जब गैर संवैधानिक शक्तिया देश में हाहाकर मचा देना चाहती हैं और संविधान की मूल भावना को ही खोद देना चाहती है ऐसे में देश के राष्ट्रपति पर एक बहुत बड़ी जिम्मेवारी है जिसको वह ईमानदारी निभाकर वह इतिहास में दर्ज हो जायेंगे नहीं तो फखरूदीन अली अहमद की तरह भुला दिए जायेंगे .


Saturday 20 May 2017

भगाना के जातीय उत्पीडित दलितों के न्याय प्राप्ति के लिए संघर्ष के पांच साल



विद्या भूषण रावत


२१ मई २०१२ को हरियाणा के हिसार जिले के भगाना गाँव के लगभग १५० दलित परिवार ताकतवर जाटो की दबंगई और आर्थिक सामाजिक बहिष्कार के चलते गाँव छोड़ने को मजबूर होना पड़ा था . गाँव के बच्चे, बूढ़े , युवा जिसमे महिलाए भी शामिल थी, सभी तपती धूप में एक अनिश्चय की नयी जिंदगी की और पलायन कर रहे थे . उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा के उनकी सरकार उन्हें न्याय नहीं दे पाएगी और वो पांच साल तक खुले आसमान के नीचे हिसार के मिनी सेक्रेटेरिएट में या दिल्ली के जंतर मंतर पर अपनी जिंदगी गुजारने को मजबूर रहेंगे . किसी भी व्यक्ति के जिंदगी में पांच वर्ष कम नहीं होते . छोटे बच्चो या युवाओं के लिए जब एक एक पल जीवन का महत्वपूर्ण होता है ये बच्चे दिल्ली के जंतर मंतर या हिसार के मिनी सेक्रेटेरिएट में अपने माँ बाप के साथ संघर्ष में उतरे .
पांच साल के हर एक घटना इस संघर्ष के दो झुझारू साथी सतीश कजला और जगदीश काजला को आज भी याद है . वो जानते हैं के कैसे गाँव पंचायत ने दलितों से पैसा लेकर उनको घरो के लिए प्लाट देने का वादा किया और फिर उससे मुकर गए . हालाँकि भगाना के अधिकांश दलित भूमिहीन हैं और उन्हें रोज रोज के कामो के लिए बड़े किसानो के खेतो पर काम करना पड़ता है लेकिन जब भी उन्होंने अपने मान सम्मान के लिए आवाज उठाई उन्हें सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार झेलना पड़ा है . उनकी महिलाओं को घर से बाहरनिकलना भी मुश्किल होता है और गाँव के चमार चौक को जिसे सभी दलितों ने मिलकर आंबेडकर चौक का नाम दिया था और जो मुख्यतः दलित बस्ती के बाहर गाँव समाज की खली जमीन थी, उसको चारो और से इंट की दिवार बनाकर, सभी दलितों को गाँव से बाहर भेजने की साजिश थी ताकि न उन्हें जमीन का आवंटन करना पड़ेगा और न ही उन्हें दलितों के संपर्क में आना पड़ेगा . गाँव से बाहर आने के बाद भी हिंसा जारी रही और २३ मार्च २०१४ को जब देश शहीद भगत सिंह  की शहादत को सलाम कर रहा था और भगाना के साथी मिनी सेक्रेटेरिएट हिसार और जंतर मंतर दिल्ली पर अपने अधिकारों और न्याय के लिए सड़क पर संघर्ष कर रहे थे तो बाल्मीकि समाज की ४ लडकियों का गाँव के दबंग जाट युवको ने अपहरण कर लिया और फिर सामूहिक यौनाचार के बाद धमकी देकर पंजाब के भटिंडा रेलवे स्टेशन पर बदहवास छोड़ दिया . उनके परिवारों को धमकी दी गयी के पुलिस को किसी प्रकार की जानकारी न दे . क्योंकि भगाना कांड संघर्ष समिति जंतर मंतर पर धरने पे बैठी थी इसलिए इस घटना के विरोध में दिल्ली में भारी प्रदर्शन भी हुए और रास्ट्रीय अनुशुचित जाति आयोग ने संज्ञान लेकर कार्यवाही करने का प्रयास किया लेकिन बहुत कुछ न्याय मिलता नहीं दिखाई दिया .

भगाना का मामला भारत की राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था की पोल खोलता है . ये दिखाताहै के भारत में लोकतंत्र केवल दबंगई का है और इस वक़त लम्पट उसका ज्यादा लाभ उठा रहे हैं . वैसे  लोकतंत्र की सबसे बेहतरीन परिभाषा अंतरास्ट्रीय मापदंडो के हिसाब से वह प्रशाशनिक व्यवस्था है जिसमे रहने वाला कमजोर से कमजोर शख्स भी कानून के द्वारा संरक्षित हो और अपने को सुरक्षित समझता हो लेकिन पिछले पांच साल में भगाना के संघर्ष को मैंने बहुत नजदीकी से देखा है . गाँव में लोगो के घर पर ताले लगे हैं और जो दो चार लोग हैं भी वो भय और बायकाट की जिंदगी जीते हैं. गाँव में अब दलितों को खेती पर काम नहीं मिलता और गाँव के ऑटोवाले भी दलितों को वहां से हिस्सार जाने के लिए नहीं बैठाते. शामलात की जो जमीन दलितों को बंटनी थी उसके खिलाफ ५८ गाँवो की खापो ने फैसला दे दिया था के दलितों को न दी जाय. सारी जमीन पर गाँव के दबंग कब्ज़ा करके आपस में बाटना चाहते थे .भगाना की २५० एकड़ जमीन की प्लाटिंग होकर  दलितों में बांटी जानी चाहिए थी लेकिन आज के दौर में आसमान छूती जमीन की कीमतों के कारण सामंतो के नज़र उस पर थी और उसके लिए जरुरी था के दलितों को गाँव से बाहर कर दिया जाए  इसिलए इतनी तिकड़मे चली जा रही थी. हरियाणा की हूडा सरकार ने इसके लिए कुछ नहीं किया अपितु बिरदरिबाद को ही मज़बूत किया . भगाना के दलितों ने सभी नेताओं के चक्कर लगाये जिसमे सत्तारूढ़ दलों के दलित सांसद भी थे लेकिन उनको कोई मदद नहीं मिली .

रास्ट्रीय अनुशुचित जाति आयोगों में कई चक्कर लगे लेकिन न्याय नहीं मिला. मुझे याद है के भगाना गाँव से लगभग ६० लोग पिछले वर्ष आये आयोग के दफ्तर में . मुझे आयोग के अन्दर जाने के लिए रिसेप्शन पर खूब पापड़ बेलने पड़े और शर्म आती है इन सरकारी कर्मचारियों पर जो लोगो की मज़बूरी का फायदा उठाते हैं. ऊपर जाकर देखा तो बच्चे, बूढ़े, महिलाए , युवा सभी माननीय सदस्य का इंतज़ार कर रहे थे . सुबह १० बजे से ही लोग पहुँच गए से हिसार से चलकर . सुना के डीजी पी पुलिस और एक अन्य अधिकारी को आना था , उनको समन जारी हुए थे लेकिन ४  बजे तक लोग भूखे प्यासे इंतज़ार करते रहे लेकिन अधिकारी नहीं आये . आज भी मुझे याद है जब बलात्कार की शिकार चार लडकिया और गाँव की महिलाओं और बच्चो के साथ हम आयोग के दफ्तर में गए थे तो माननीय सदस्य महोदय ने पहले से ही एक लोकल चैनल वाले को खबर की थी और उन बच्चियों के सामने उन्होंने लम्बा चौड़ा भाषण दिया था लेकिन उसके बाद क्या हुआ कोई ढंग से नहीं जानता .

भगाना के साथियो को तो अपने संघर्ष के लिए ही अनेक आरोप झेलने पड़े . आज से पांच साल पहले दिल्ली में सॉलिडेरिटी समिति बनी थी और जब जब भगाना का मसला गूँजा सभी लोग आये . बड़ी संस्थाए, संगठन, सामाजिक कार्यकर्ता और बहुत सारे लोग लेकिन क्या कारण है के बहुत से चेहरे जो उस वक़्त थे वो अब नहीं हैं ? समिति के एक प्रमुख सदस्य जगदीश काजला बताते हैं के हमारे पास लोग अभी भी आते हैं लेकिन जो लोग इस आन्दोलन को संस्थाओं का प्रोजेक्ट समझ रहे थे वो यहाँ आ भी नहीं सकते थे क्योंकि वो चाहते थे के आन्दोलन का नेतृत्व उनके हाथ में हो . ये एक त्रासदी है के जब कोई घटना घटती है  तो हम सभी वहा पे जाते हैं और अपनी संवदेना, और एकजुटता भी दिखाते हैं लेकिन लम्बे समय तक हम साथ देने को तैयार नहीं है यदि लोग हमारे इशारो पे ना चले . भगाना आन्दोलन एक उदहारण है के जब हम राजनीती में नारा देते हैं के जिसका मुद्दा उसकी लड़ाई और जिसकी लड़ाई उसकी अगुआई तो आखिर भगाना के साथियो को उनके नेतृत्व में समर्थन देने में हमें क्या हर्ज़ ?

कई लोग ये मानते हैं के आन्दोलन अपनी दिशा से भटक गया . बहुत ये सोचते हैं के आखिर ये लोग चाहते क्या है ? लेकिन ये भी हकीकत है भगाना गाँव के अन्दर आज भी दलित आसानी से नहीं जा सकते हैं . हरियाणा सरकार ने जो वादा किया उस पर अमल नहीं हुआ . गाँव में दलितों को जमीन के पट्टोका वितरण होना था लेकिन नहीं हुआ . उनकी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है . कोई भी राजनितिक दल हरियाणा के अन्दर जाटो को नाराज़ करने का जोखिम नहीं उठा सकता .आये दिन दलितों पर हमले होते हैं और उनकी महिलाओं की कोई सुरक्षा नहीं है . गाँव चले भी गए तो सामाजिक आर्थिक बहिष्कार जारी है तो काम कहाँ मिलेगा.

ये बात जरुर है के लम्बी लड़ाई में लोगो में मतभेद हो जाते हैं क्योंकि हर एक उसके हिसाब से साथ नहीं आता . जैसे जगदीश काजला बताते हैं के गाँव के बहुत से लोग कई बार आरोप लगा देते हैं अब बात यह के सभी इतना आसान होता तो कोई भी अपनी पढाई और नौकरी छोड़ कर जंतर मंतर पर क्यों बैठता . किसी भी युवा के जीवन के पांच साल बहुत होते है और वो तब और मुश्किल होता है जब ऐसी लड़ाई में लोग साथ छोड़ते हैं और मनगढ़ंत आरोप लगा देते हैं . दरअसल लम्बी लड़ाई में लोग साथ नहीं देते और आजकल फास्टफूड मूवमेंट होने लगे हैं जो मूवमेंट कम और इवेंट मैनेजमेंट ज्यादा होते हैं . सोशल मीडिया के शोर में हर एक को विजिबिलिटी की बीमारी हो चुकी है इसलिए मुद्दों के लिए लम्बे समय तक और बिना पब्लिसिटी के भी मात्र सहयोगी की भूमिका में बैठना किसी को गवारा नहीं है . आज ज्यादातर आन्दोलन लम्बे समय तक न चलने के पीछे का कारण लोगो की आपसी ईगो हो गयी है और हर कार्य को उसके अंतिम परिणाम से जोड़कर देख लिया जा रहा है . भगाना ने दिखाया के राजनीतिक नेताओं ने एक सीमा के बाहर मुद्दे को छोड़ दिया. क्या कारण है के हरियाणा की विधान सभा या देश के संसद हरियाणा के इस गाँव की त्रासदी पर चर्चा नहीं कर सकती . जब विस्थापन की बात आती है तो कश्मीरी पंडितो का उदहारण दे देकर हमें बताया जाता है और सरकार भी उनकी चिंता करती है और विपक्ष भी , कोई भी ऐसे नहीं दिखना चाहता है के उनको पंडित विरोधी घोषित कर दिया जाए लेकिन भगाना के विस्थापित दलितों के लिए कोई आंसू नहीं निकलते हमारे नेताओं के पास . अगर सवर्ण प्रभुत्वाद के चलते लोग गाँव छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं तो क्या सरकार का ये कर्तव्य नहीं है के वे इन दलितों को नए स्थान पर बसाए और उनके रोजगार का इन्तेजाम करे.

दो वर्ष पूर्व जंतर मंतर पर धरने के दौरान ही भगाना के लोगो ने सामूहिक रूप से धर्मपरिवर्तन कर इस्लाम ग्रहण कर लिया . कई लोग इसे निराशावादी कदम मानते है और कई का मानना था के बाबा साहेब आंबेडकर ने तो ऐसा नहीं किया  लेकिन भगाना के लोगो ने अपनी समझ के चलते ये किया. उनके कई अनुभव थे जिसने उनको मजबूर किया लेकिन वह संघर्ष के लिए तैयार बैठे हैं . सतीश काजल और जगदीश काजल भगाना की लड़ाई को हरयाणा के दलितों की अस्मिता का संघर्ष कहते हैं और उसके लिए अब नए सिरे से आन्दोलन को गाँव गाँव लेजाने के जरुरत महसूस करते हैं .

अभी कुछ दिनों पूर्व भागना कांड के पांच वर्ष के अवसर पर जंतर मंतर में एक सभा की गयी थे . दुखद बात ये थी के लोगो की उपस्थति आशानुरूप नहीं थी लेकिन फिर भी बहुत लोग आये लेकिन जब मुद्दों पर लड़ने की बात आयी तो अधिकांश लोग उन्ही बातो को बोल गए जो वो बोलने के आदि है और जो प्रश्न हमारे सामने खड़े हैं उन पर अधिकांश चुप रहे . अक्सर ये बात दिखाई देती है के जहा लोगो को सहानुभूति एंड सहयोग की आवश्यकता होती हैं वहा बहुत से लोग अपना ज्ञान बघारते हैं और बहुत से अपनी पूरी क्रांति वही पर कर देते हैं फलतः सड़क पर उतारकर या समुदायों के साथ जाकर बैठकर, उनकी समस्याओ से रूबरू होकर संघर्ष का तो प्रश्न ही नहीं है .

भगाना आत्याचार के पांच साल पर एक बात तो साफ़ है के भारत में लोकतंत्र तब तक केवल संसद, विधानसभाओं, जंतर मंतर या अखबारों और टीवी के स्टूडियोज  तक ही सीमित रहेगा जब तक भारत के गाँव में मनुस्मृति का राज है और जातियों की खापो की दबंगई चलती रहेगी . गाँव के जातीय और पॉवर रिलेशन बदले बगैर हम स्वस्थ लोकतंत्र की परिकल्पना नही हर सकते . दुर्भाग्य यह है के गाँव में लोकतान्त्रिक व्यस्था लाने का एक मात्र तरीका था रेडिकल भूमि सुधार लेकिन भारत के अन्दर ईमानदारी से वो कभी लागु नहीं किये गए . यदि गाँव में दलित और भूमिहीनों के पास जमीन होती तो उनको न तो किसी की बन्धुवागिरी करनी पड़ती और न ही उन पर अत्याचार होते . एक हकीकत यह भी है के हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार बिलकुल भी नहीं लागु हुए. मनुवादी व्यस्था में तो काम का दाम नहीं मिलता था और दलितों और अन्य तबको अपने अधिकारों के लिए बोलने की भी मनाही थी क्योंकि भाग्य और किस्मत का खेल बनाकर उनकी चेतना हो पूर्णतः अवरुद्ध करने के प्रयास किये गए . क्रांति को धार्मिक भ्रान्ति के जरिए रोक दिया गया और लोगो को अन्याय के खिलाफ बोलने के बजाय अपनी किस्मत को ही दोष देने की शातिरता इस व्यवस्था का हिस्सा था ताकि लोग सवाल नहीं करें और उसके समाधान के लिए पुरोहितो की शरण में जाए . यानि अपनी बीमारी का इलाज़ भी उनलोगों से करवाये जो उसका कारण हैं . आज जरुरत है कारणों के न केवल समझने की बल्कि उसके समाधान की भी . भगाना के इस लम्बे संघर्ष से एक विशेष सबक तो ये सीखा जाए के भूमि सुधार दलों के एजेंडा में आये और अनुसूचित जाति आयोग या मानवाधिकार आयोग को मजबूती प्रदान की जाए, अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम कानून व्यक्तिगत मामलो में तो थोडा बहुत लग भी जाता है लेकिन सामूहिक जातीय हिंसा के प्रश्नों पर नदारद है . आज तक दलित पर हिंसा के सामूहिक मामलो में हमें तो कोई फैसला नज़र नहीं आया है . संसद और विधान सभा में ये प्रश्न उठाना चाहिए और सरकार से जवाबदेहि चाहिए मात्र एक दुसरे को दोषारोपण करके पार्टिया अपनी जिम्मेवारियो से नहीं बच सकती हैं . दलितों आदिवासियों और अति पिछड़ी जातियों को राशन कार्ड, पेंशन, नरेगा और अन्य कल्याणकारी योजनाओं की लोलीपॉप देकर आप उनके सम्मानपूर्वक जिन्दगी जीने के अधिकारों के प्रश्नों को गायब नहीं कर सकते . क्या हमारी राजनितीक पार्टीया या उनके समर्थक इन प्रश्नों पर अपना मुंह खोलेंगे और अपनी पार्टियों के राजनैतिक कार्यक्रम के बारे में बताएँगे , क्या वे इस प्रश्न पर अपनी विधानसभाओं और संसद में सवाल उठा सकते हैं ? कश्मीरी पंडितो की चिंता करने वाली पार्टियाँ दलित आदिवासियों के विस्थापन और दमन पर चुप क्यों रहती हैं ? उम्मीद है भगाना के विस्ग्थापित दलित पिछडो का संघर्ष हमारे राजनैतिक विमर्श का हिस्सा बनेगा . भगाना के संघर्षरत लोगो के हमारा सलाम .

Monday 15 May 2017

बहुजन नेतृत्व अम्बेडकरवादी युवाओ की राजनैतिक आकांक्षाओं को समझें



विद्या भूषण रावत

सहारनपुर के घटना के बाद दलितों का गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा क्योंकि प्रशासन बजाय प्रभावित लोगो को मदद करने के भीम सेना को एक अपराधिक समूह घोषित करने पर आमादा है . भीम सेना के संस्थापक चंद्रशेखर आज़ाद को पुलिस तलाश कर रही है और ये सूचनाएं है के उनके ऊपर रास्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाने के तैय्यारी चल रही है . घायल दलित परिवार अस्पताल में हैं और प्रदेश से लेकर केंद्र तक का एक भी मंत्री, सांसद  या विधायक लोगो की खोज खबर लेने नहीं गया. जिन लोगो का सब कुछ लुट गया उनके सुरक्षित घर वापसी और उनके जीवन को वापस पटरी पर लाने के लिए कोई योजना अथवा समाचार अभी तक तो नहीं सुनाई दिया है . इस सरकार और उसकी रणनीति को लेकर अगर अभी भी लोगो को गलतफहमिया हैं तो वो निकाल ले . मंचो से जय भीम के नारे और प्रधान सेवक के इमोशनल भाषण चाहे बाबा साहेब को लेकर हो या बुद्ध को लेकर हो उससे ज्यादा प्रभावित होने वाले लोगो को चाहिए के दलितों और पिछडो के प्रति सरकार के पिछले कुछ सालो के कार्यकाल बता सकते हैं के आखिर सरकार ने क्या क्या किया है . रोह्ति वेमुला से लेकर जे एन यू में छात्रवर्ती का प्रश्न हो या दलितों के लिए स्पेशल कॉम्पोनेन्ट प्लान की बात हो सभी न्यूनतम हो चुके हैं . अगर वेलफेयर योजनाओं को देखे तो सरकार की उनमे कोई दिलचस्पी नहीं है. बीफ बैन हो या अन्य कोई मामला, सभी किसानो और दलित पिछडो के विरुद्ध जाते हैं .

हालाँकि प्रधान्सेवक बाबा साहेब आंबेडकर और बुद्ध का बहुत नाम ले रहे हैं पर उत्तर प्रदेश के प्रधान सेवक को अम्बेडकरवाद में बहुत दिलचस्पी हो ऐसा नज़र नहीं आता और ये उनकी कार्यशैली से पता चल जाता है . अभी मेरठ के एक दिवसीय दौरे पर एक दलित बस्ती में जाते समय वो बाबा साहेब आंबेडकर के प्रतिमा को माल्यार्पण नहीं किये जबकि लोग उनका इंतज़ार कर रहे थे.  ऐसी बाते भूल से नहीं होती अपितु उनके पीछे अपने वोट बैंक को एक सन्देश भी देना होता है के हम सबकी तरह नहीं है .

योगी आदित्यनाथ के आने के बाद से उत्तर प्रदेश के राजपूत अति उत्साहित है . हो सकता है के बहुत सारे उन्हें महाराणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहान के बाद का सबसे मजबूत राजा मान रहे हो क्योंकि आज तक खुले तौर पर योगी आदित्यनाथ इस व्यस्था के पोषक दिखाई दे रहे हैं जो वर्णवादी है . उनके प्रसाशन पर राजपूतो के पकड़ दिखाई देती है और ये अनायास ही नहीं के वे लखनऊ में समाजवादी नेता चंद्रशेखर के जन्म दिवस अप्रेल १९ को एक कार्यक्रम में अतिथि बन कर गए और उनकी स्मृति में एक पुस्तक का विमोचन किया . मंच पर मुख्या अतिथियों में राजा भैया भी दिखाई दिए और ये कोई आश्चर्य की बात नहीं क्योंकि चंर्दाशेखर जी हालांकी खांटी समाजवादी थे लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवो में उनकी ताकत उनकी जाति ही थी लोगो को उनके समाजवाद से कम और ठाकुर होने से ज्यादा मतलब था और क्षेत्र के तमाम स्वनामधन्य नेताओं से उनके संपर्क थे और उन्होंने उसे कभी छुपाया भी नहीं . मंडल कमीशन के लागु होने पर उसके विरोध में सबसे ज्यादा चंद्रशेखर ही थे और अंत तक उनका विरोध था . उनके क्षेत्र के दलित पिछडो को चंद्रशेखर जी की राजनीती में कोई भरोषा नहीं था लेकिन वह नेताओं के नेता थे और माननीय मुलायम सिंह जी ने भी उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर जी की स्मृति में एक दिन की छुट्टी की घोषणा की थी . अब सभी चंद्रशेखर जी के समाजवाद से कम और ठाकुरवाद से ज्यादा प्रभावित थे .

उत्तर प्रदेश के राजनीती में बर्चस्व की राजनीती हावी है और नेताओं को दूसरीजाति पर भरोषा नहीं होता और वे अपनी अपनी जातियों के अधिकारियों को महत्वपूर्ण पदों पे पहुंचाते हैं . ये हकीकत सबको पता है और इसिलए हिंदुत्व भी ब्राह्मणवादी राजनीती है लेकिन अब योगी जी को भी बिरादरी की आवशयकता महसूस हो रही है . कल उत्तर प्रदेश के एक साथी कह रहे थे के योगी जी अच्चा काम कर रहे हैं लेकिन भाजपा के महत्वकांक्षी नेता उन्हें कुछ करने नहीं देंगे . हकीकत यह है के  छोटी छोटे निर्णयों के लेकर मीडिया ने लालू, अखिलेश और मायावती को तो घोर जातिवादी करार दे दिया जबकि दोनों की किचन कैबिनेट में भी ब्राह्मणों की अच्छी खासी भूमिका थी . इस वक़्त योगी और मोदी को मीडियाकर्मी उनके नेतृत्व के तौर पर नहीं अपितु  प्रशंशक के तौर पर देख रहा है अतः उनकी न तो आलोचना हो सकती है और न ही कोई सवाल उनसे किया जा सकता है . उनके भक्तो की जमात उनसे सवाल करने वाले लोगो से बदला लेने को तैयार है . मेरा सवाल यह है के इतने दिनों से उत्तर प्रदेश में गौ रक्षा के नाम पर मुसलमानों और दलितों का उत्पीडन हो रहा है लेकिन न तो प्रधान सेवक और न ही मुख्यमंत्री ने एक भी शब्द उनके बारे में कहा, तो क्या यह अच्छी बात है ? उन्होंने अपने लोगो से खुले तौर पर यह नहीं कहा के कानून हाथ में न लो . हम ये मानते हैं के संघ के जिन कार्यकर्ताओं की ट्रेनिंग शुरू से ही जाति और धर्म के संकीर्ण दायरे में हुई हो तो वो अचानक से नहीं बदलेंगे. उन्हें अभी भी नहीं लग रहा के सरकार में आने के बाद सत्तारूढ़ पार्टी को ज्यादा जिम्मेवार और समझदारी से बोलना होता है . लोग आपसे सवाल करेंगे और आपकी सरकार की उपलब्धिया मांगगे लेकिन उसके उत्तर में उन्हें गौसेवक, राष्ट्रवाद और अब सहारनपुर के दंगे ही दिखाई देंगे .

सहारनपुर के दंगो के पीछे साफ़ तौर पर जिले की राजनीती में सवर्ण बर्चस्व कायम करना है . सहारनपुर में दलितों के आर्थिक सामाजिक राजनैतिक हालत उत्तर प्रदेश के दूसरे इलाको से बेहतर हैं और इसलिए ये बसपा का गढ़ भी रहा है . उत्तर प्रदेश में भाजपा के लम्बी रणनीति के तहत हिन्दू मुसलमान की राजनीती में पिछडो और दलितों के नेतृत्व को पूर्णतया समाप्त करने की है. जातियों के बर्चस्व को कायम करने के लिए ही महाराणाप्रताप के जन्मदिन को मनाने की बात हुयी. लेकिन दिल में रहने वाली घृणा को देखिये के ठाकुर लोग बाबा साहेब आंबेडकर की मूर्ति की स्थापना चमार बस्ती में भी नहीं करने देना चाहते हैं . ये साफ़ नज़र आता है के वर्णवादी सवर्णों को अम्बेडकरवादी अस्मिता से बहुत परेशानी है क्योंकि वो व्यस्था को चुनौती दे रहे हैं .

सहारनपुर घटनाक्रम से भीम आर्मी का बहुत जिक्र हो रहा है . बहुत से ऑनलाइन पोर्टल्स में आर्मी के संस्थापक चन्द्रशेकर आजाद और उसके अध्यक्ष के साक्षात्कार सुनाये गए हैं . चंद्रशेखर राजनैतिक तौर पर जागरूक व्यक्ति नज़र आते हैं और उन्होंने कोई ऐसी बात नहीं की है जो समाज विरोधी या संविधान विरोधी हो . हकीकत बात यह है भीम आर्मी ने लोगो को न केवल जागरुक किया है अपितु उन्हें स्वरोजगार और व्यवसाय की तरफ भी आकर्षित किया है . भीम आर्मी अभी तक दलितवर्ग में आत्मसम्मान जगाने हेतु और उनमे एकता लाने का कार्य कर रही है  लेकिन भीम आर्मी को समझना पड़ेगा के उनका इस्तेमाल बसपा की ताकत को समाप्त करने के लिये  भी किया जा सकता है इसलिए आवश्यकता इस बात की है के आन्दोलन अभी सामाजिक ही रहे और राजनीतिक प्रयोग करने का प्रयास न करे क्योंकि उत्तर प्रदेश में २०१९ तक बहुजन समाज को अपनी स्थापित पार्टियों में ही परिवर्तन लाकर मज़बूत करना होगा नहीं तो मनुवादी शक्तियों के ही हाथ मज़बूत होंगे .
अभी तक बसपा की ओर से सहारनपुर हिंसा पर बहुत कुछ वक्तव्य नहीं आया है . भीम आर्मी से पार्टी ने पूर्णतया किनारा कर लिया है लेकिन वो ठीक नहीं है. बसपा मान्यवर कांशीराम द्वारा खड़ा किया गया आत्मसम्मान का आन्दोलन है और ये सब आसानी से नहीं होता. इसलिए जो लोग भीमसेना या कोई और लोगो को बसपा के विकल्प के तौर पर खड़ा करने की कोशिश करेंगे तो वो केवल वोट काटू की भूमिका में रहेंगे और कुछ नहीं कर पाएंगे . राजनीती के धरातल की हकीकत कुछ और होती है . बसपा प्रमुख सुश्री मायावती को चाहिए के वो भीम सेना या देश भर में हुए छात्रा आन्दोलन के नेताओं को एक मंच प्रदान करें . पिछले तीन वर्षो में हैदराबाद से लेकर जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय और अखलाक से लेकर पहलु खान तक की मौत ने, रोहित वेमुला से लेकर नजीब तक के लिए न्याय मांगते छात्र सडको पे हैं . विश्विद्यालयो की पढाई अब मुश्किल होती जा रही है और शिक्षा में हिंदुत्व का अजेंडा अब लागु हो चूका है जहा एक तरफ शिक्षा निजीकरण की और बढ़ रही है वही पाठ्यक्रम में मनुवादी विचारधारा घुसाई जा रही है . क्या बसपा या सपा जैसी पार्टिया युवाओं और छात्रो के ज्वलंत सवालो से मुंह चुरा सकती है . क्या ये अवसर नहीं के ये दोनों दल अपने अन्दर पूर्णतया पारदर्शिता लाये, युवा नेतृत्व विकसित करें और देश के युवा नेतृत्व चाहे भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर आजाद हो जिग्नेश मेवानी या कोई और, सबको कार्यक्रमों के जरिये एक मंच पर लाये ताकि जो युवा बदलाव के लिए संघर्ष कर रहे है उन्हें एक राजनैतिक मंच मिल सके .

बसपा राजनितिक मजबूरियों के तहत चाहे ब्राह्मणों के साथ ‘अन्याय’ की बात कहे लेकिन वो दलितों, अकलियतो पर हो रहे अत्याचारों पर अगर खुल कर सामने नहीं आती है और यदि ऐसे आन्दोलनों का समर्थन नहीं करती जो दलितों की अस्मिताओ की रक्षा और उनकी सामाजिक आन मान के लिए बनायी गयी हैं तो उसका अस्तित्व नहीं रहेगा. बसपा को अभी भी समाज का समर्थन प्राप्त है लेकिन एक बात बसपा नेतृत्व को समझनी पड़ेगी के लोगो की सहनशीलता जवाब दे रही है . बसपा की मजबूती दलित अस्मिता के लिए जरुरी है लेकिन इसके साथ ही बसपा के अन्दर नए युवा नेतृत्व को विकसित करना पड़ेगा . आज से २० साल बाद बसपा का नेतृत्व क्या होगा और कौन करेगा इसके लिए एक नहीं कई युवा खड़े करने पड़ेंगे .

सहारनपुर का घटनाक्रम योगी आदित्यनाथ की राजनीती और उनके आड़ में ठाकुरशाही चलाने वालो के लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है . संघ दलित और पिछडो के बीच के अंतर्द्वंद का लाभ लेता आया है . मुसलमानों को जबरन बीच में डालकर उसने सवर्ण नेत्रत्व को सबके उपर लाद दिया है . लेकिन जहाँ दलित पिछडो के अंतर्द्वंद हैं वही ब्राह्मण ठाकुरों के भी गंभीर अंतर्द्वंद हैं और उनकी एकता का एक ही बिंदु है वो दलित पिछड़ा विरोध की राजनीती लेकिन जब सत्ता के मलाई की बात आती है तो दोनों के अंतर्द्वंद आपस में टकरायेंगे और सुश्री मायावती ने ब्राह्मणों के साथ हो रहे ‘अन्याय’ को लेकर उस मुद्दे को खड़ा करने की कोशिश की है लेकिन वो अभी नहीं कामयाब होगी क्योंकि ब्राह्मण और ठाकुर या अन्य सवर्ण जातिया अभी हिंदुत्व को छोड़कर कही और जाने से रही क्योंकि मोदी और योगी युग स्वर्ण प्रभुत्वाद की एक नयी शुरुआत है और इसको वो आसानी से हाथ से जाने नहीं देंगे .

फिलहाल सहारनपुर में दलितों को न्याय देने की बात अभी तक एक भी मंत्री ने नहीं की है . सारा प्रशाश्निक फोकस ऐसा लगता है, भीम सेना पर है  और घायल लोगो और उनके उजड़े घर बार कैसे बसेंगे इसके लिए कोई प्रयास नहीं किये जा रहे . दुखद बाद यह है कोई भी राजनैतिक दल अभी संघ की चालो को समझ नहीं पा रहे या उसकी काट नहीं ढूंढ पा रहे और ये उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है . जरुरत है दलितों के साथ अन्याय को ख़त्म करने की और सरकार को दलित परिवारों पर हमला करने वाले लोगो को गिरफ्तार करने की और लोगो को समय पर मुवावजा दिलवाने की . सहारनपुर के दलितों को सुरक्षा और सम्मान चाहिए और जिन भी लोगो ने दलित बस्ती को जलाया या उनकी महिलाओं और पुरुषो पर अत्याचार किया उनके खिलाफ तुरंत कार्यवाही करे क्योंकि उसके अभाव में युवा इस क्षेत्र में शांति व्यवस्था कायम करना बहुत मुश्किल होगा .

वैसे भी संघ का अजेंडा दलित बहुत समाज और अन्य विपक्ष  को नेतृत्वविहीन कर देने का है . बसपा में विघटन का प्रयास किया गया है और अब नसीमुद्दीन सिद्दीकी मीडिया को रोज ‘ब्रेक न्यूज़’ देंगे जैसे कपिल मिश्र दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल के लिए और कांग्रेस के कई नेता अब सोनिया और राहुल के खिलाफ बोल रहे हैं वैसे ही मुलायम सिंह को लगातार खबरों में रखा जायेगा ताकि अखिलेश यादव भी लाइन पे रहे . लालू यादव को पहले ही फंसाने की पूरी तैय्यारी है . मतलब यह के विपक्ष में खुले तौर पर फूट डालने का अजेंडा है और इसे समझने की जरुरत है .

इस बात को भी समझना पड़ेगा के मुख्य धारा की राजनीती ने अभी तक जनता के ज्वलंत प्रश्नों पर गहरी चुप्पी साधे हुई है . चाहे वो बस्तर में आदिवासियों के जंगल में अधिकार का मामला हो या कश्मीर में राजनैतिक पहल , झारखण्ड के आदिवासियों का संघर्ष हो या विश्विद्यालयो में छात्रो के संघर्ष सभी जगह स्वयंस्फूर्त आन्दोलन खड़े हैं और राजनैतिक दल कुछ कह नहीं पा रहे हैं . या तो पार्टियों में इन सवालो पे ज्यादा चर्चा नहीं है अथवा नेतृत्व इन प्रश्नों को सही नहीं मानते हैं . हकीकत यह के अम्बेडकरवादी युवा अब अन्याय सहने को तैयार नहीं है चाहे वो रोहित वेमुला हो या भीम सेना का प्रश्न, लोग नेताओं का इंतज़ार नहीं करेंगे और आन्दोलन होंगे . बहुजन राजनीती को चाहिए के वे इन युवाओं के सपनो और आकांक्षाओं को मज़बूत करे और उन्हें रजिनैतिक रूप दे अन्यथा आन्दोलन किसी प्रश्न से शुरू होते हैं और राजनैतिक भटकाव का शिकार हो जाते हैं जो अंततः उस आन्दोलन को नुक्सान करते हैं जिसकी मजबूती के लिए वे शुरुआत करते हैं . हमारे सामने बहुत उदाहरण हैं जब नेकनीयती से किये आन्दोलन भटकाव का शिकार हो जाते हैं क्योंकि वो राजनैतिक तिकड़मे नहीं जानते . आवश्यक है के बहुजन राजनीती इन आन्दोलनों से बात करे और भविष्य की और देखे ताकि बिखराव की स्थिति पैदा न हो . उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामो से लोगो में बहुत निराशा भी है लेकिन भीम सेना ने उनमे पुनः उर्जा का संचार किया है . जब बहुजन राजनीती इन प्रश्नों पर खामोश रहेगी तो लोग अपना रास्ता खुद तय कर लेंगे लेकिन वो स्थिति बहुत अच्छी नहीं होगी क्योंकि उस परिस्थिति का लाभ वो लोग लेंगे जिन्होंने योज्नाबद्ध तरीके से सहारनपुर के घटनाक्रम को अंजाम दिया . देश में युवाओं की बहुत बड़ी आबादी जिसके मन में मौजूदा नेतृत्व और उसके तौर तरीको के प्रति घहरी निराशा है क्योंकि वो उनकी भावनाओं और महत्वाकांक्षाओ को समझने में या तो नाकाम रहा है या जानबूझकर उनकी अनदेखी कर रहा है  जो लम्बे समय में राजनैतिक तौर पर नुक्सान्वर्धक हो सकता है. राजनैतिक तौर पर पार्टियों को समझना पड़ेगा के यदि प्रशाशन उत्पीडित समूहों को न्याय देने में अक्षम रहा और यदि हिंदुत्व की सेनाए लोगो को जहा तहां पीटती रही और प्रशाशन कोई कार्यवाही नहीं करेगा तो जवाब में लोग भी अन्याय का मुकाबला करने के लिए जातीय राजनीती और उसकी अक्षमता के फलस्वरूप जातीय सेनाओं पर भरोषा करना शुरू करते हैं जो अंततः लोकतंत्र के लिए खतरनाक है लेकिन अगर बिहार में रणवीर सेना दलितों का उत्पीडन नहीं करती तो जवाबी सेनाये नहीं बनती  इसलिए जरुरी है के प्रशाशन कानून का शाशन स्थापित करे और लोगो को न्याय मिले 

Thursday 11 May 2017

Lokaayat: राजनीती की बिसात पर चढ़ी सहारनपुर की शांति

Lokaayat: राजनीती की बिसात पर चढ़ी सहारनपुर की शांति: विद्या भूषण रावत  पच्छिमी उत्तर प्रदेश के एक समृद्ध जनपद सहारनपुर को लगता है राजनैतिक रोटियां सेकने वालो ने घेर लिया है। मुजफ्फरनगर...

राजनीती की बिसात पर चढ़ी सहारनपुर की शांति



विद्या भूषण रावत 

पच्छिमी उत्तर प्रदेश के एक समृद्ध जनपद सहारनपुर को लगता है राजनैतिक रोटियां सेकने वालो ने घेर लिया है। मुजफ्फरनगर, हरद्वार, देहरादून, यमुनानगर, शामली से घिरा हुआ जनपद सहारनपुर उत्तर प्रदेश को उत्तराखंड और हरयाणा से जोड़ने का काम भी करता है।  हालाँकि पच्छिमी उत्तर प्रदेश के सभी जनपद सांप्रदायिक दंगो के चलते संवदेनशील माने जाते है लेकिन सहारनपुर अपनी लाख खामियों के बावजूद अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण और व्यापारिक दृश्टिकोण से बेहतर जिला रहा  है। सौहार्द की ऐसी मिसाल की बाबरी मस्जिद ध्वंस  के बाद भी यहाँ दंगे नहीं हुए। लेकिन पिछले तीन वर्षो में सांप्रदायिक और जातीय राजनीती ने सहारनपुर को निशाना बनाया है जिसके नतीजे भयावह है और प्रदेश की सरकार को चाहिए के वो इसको समाप्तः करने के लिए ईमानदार प्रयास करे लेकिन क्या वो ऐसा कर पायेगी जब दंगो के बाद उनकी पार्टी को ब्याज सहित थोक के भाव वोट मिल रहे हैं।  मुजफ्फरनगर घटना के बाद भाजपा नेताओ के लगातार बयानबाजी और आक्रामकता के चलते उनका राजनैतिक ग्राफ ताकतवर हो गया।  ध्रुवीकरण की राजनीती का चरम मोहम्मद अख़लाक़ की हत्या के बाद बढ़ गया जब उत्तर प्रदेश सरकार ने अख़लाक़ के फ्रीज़ की ही जाँच शुरू कर दी और केंद्र के मंत्रियो ने अख़लाक़ की हत्या में आरोपित एक व्यक्ति की मौत के बाद उसके शव को तिरंगे में लपेटकर राजनीती शुरू की।  नतीजा यह हुआ के उत्तर प्रदेश में इस समय पूरा ध्रुवीकरण है हालाँकि दलित पिछड़े और मुसलमान इन बातो को साफ़ तौर पर समझ भी चुके हैं और ये सरकार २०१९ के चुनावो की इतनी आसानी से ना ले क्योंकि मुसलमान विरोध पर खड़ी की गयी पूरी ईमारत में दलितों और पिछडो को नीव की ईंट बनाया गया जिसका पटाक्षेप शीघ्र ही होना है। 

सहारनपुर की राजनीती में बसपा एक महत्वपूर्ण कड़ी है।  साम्रदायिक ध्रुवीकरण से पहले बसपा, सपा और कांग्रेस यहाँ की राजनीती को नियंत्रित करती थी हालाँकि शहर क्षेत्र में भाजपा के सवर्ण समर्थको की संख्या कम नहीं थी।  जातीय समीकरणों के हिसाब से भी सवर्णो के लिए यह सीट बहुत मज़बूत नहीं थी।  मुसलमानो की संख्या ४५% से अधिक होने के कारण जब तक पूर्णतः ध्रुवीकरण नहीं होता भाजपा का क्षेत्र में कोई दवाब नहीं बनता।  इसलिए २६%  आबादी के इमोशंस को टारगेट करना जरुरी था और इसलिए ही बाबा साहेब डॉ आंबेडकर को इतना याद किया जा रहा था।  दलितों ने १४ अप्रेल को हर साल की तरह पूरे जोश खरोश के साथ आंबेडकर जयंती मनाई।  बसपा के राजनैतिक आगमन का सबसे बड़ा असर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुआ जहाँ दलितों में खासकर चमार जाति में आत्मस्वाभिमान का जबरदस्त आंदोलन विकसित हुआ. आंबेडकर जयंती एक प्रकार से दलित अस्मिता और स्वाभिमान का सबसे बड़ा त्यौहार बन गया। १९८९ से पूर्व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलित वोट ईमानदारी से डल भी नहीं पाता था क्योंकि दबंग जातिया पहले ही वोट डाल चुकी होती थी लेकिन बसपा के उदय से दलितों का जो उभार उठा उसने इस क्षेत्र की दबंग जातियों के नेतृत्व को संकट में डाल दिया और दलित पिछडो और पसमांदा मुसलमानो का गठबंधन इस क्षेत्र की राजनीती में अभेद्य किले की तरह होता इसलिए उसको ख़त्म करने के लिए जरुरी था के दबंग जातियों का साम्प्रदायिकरण किया जाए।  इस क्षेत्र में जातिवाद भले ही घनघोर रहा हो लेकिन गाँव देहात में हिन्दू मुसलमानो के रिश्तो में उतनी कड़वाहट नहीं थी जो अब पैदा हो चुकी है।  हम लोग साम्प्रदायिकता को शहरी लोगो का राजनितिक और बर्चस्व का कार्यक्रम कहते थे।  लेकिन अब स्थितियाँ बदली हैं और दलित पिछडो और पसमांदा मुसलमानो की राजनीती उत्तर प्रदेश की एक हकीकत है जिसने कम से कम राजनीती में सवर्ण वर्चस्व को पूर्णतः ख़त्म तो नहीं किया लेकिन उसकी चौदराहट को चुनौती तो दे दी। इसलिए, सपा  बसपा की राजनीती को ख़त्म करने के लिए जरुरी था के दलित पिछडो और मुसलमानो के बीच में फुट डाली जाए और अलग अलग लेवल पर प्रयोग किये जाए।  हालाँकि पच्छिमी उत्तर प्रदेश जाट गुर्जर बहुल क्षेत्र है और हरयाणा में जिस प्रकार से भाजपा ने गैर जाट को मुख्यमंत्री बनाया था और जाट आरक्षण के मसले पर जैसे राजनीती की उससे पच्छिमी उत्तर प्रदेश में जाटो में असंतोष था लेकिन उस सारे असंतोष को मुस्लिम विरोध की राजनीती में बहुत चतुराई से ख़त्म कर दिया गया।  पूरे प्रदेश में भाजपा की 'राष्ट्र्वादी' ध्रुवीकरण की राजनीती से ठाकुरो, ब्राह्मणो के नेताओ के तो बल्ले बल्ले हो गयी।  मंडल के बाद हासिये पे आयी इन जातियों को तो इस राष्ट्रवाद के चलते इनका राजनैतिक पुनरुत्थान हो गया।  भाजपा ने भी पिछडो और दलितों के अनेको अंतर्द्वंदों से  खेलकर सवर्णो के दबंग जातियों के वर्चस्व को और मज़बूत कर दिया. पच्छिमी उत्तर प्रदेश में पूरे ध्रुवीकरण का सबसे बड़ा लाभ राजपूत नेतृत्व को हुआ।  

उत्तर प्रदेश के चुनावों में भारी जीत के बाद भाजपा के हौसले बुलंद है लेकिन उसकी समस्या यह है के अब स्थानीय निकायों के चुनाव सामने हैं।  नरेंद्र मोदी ने आम चुनावो से पूर्व अपने अभियान की शुरुआत कांग्रेस मुक्त भारत के नारे से की लेकिन हम सब जानते हैं के ब्रह्मवादी संघी नेतृत्व ऐसा होने नहीं देगा क्योंकि असल लड़ाई तो देश के बहुजन समाज और अल्पसंख्यक सवर्ण समाज का है इसलिए अमित शाह ने कहा था के अब समय आ गया है विपक्ष विहीन भारत का।  ये एक खतरनाक स्टेटमंट है लेकिन भाजपा विपक्ष को नेतृत्व विहिन कर देना चाहती है।  भारत के लोकतंत्र के लिए मज़बूत विपक्ष की आवश्यकता है और उसको ख़त्म करने की बात करना संविधान विरोधी है।  अमित शाह पुरे भारत में पंचायत से लेकर संसद तक भाजपा का नेतृत्व चाहते हैं शायद वो इसलिए के एक बार देश में उनका पूरा नियंत्रण हो जायेगा तो संविधान बदलने की उनकी मंशा फिर पूरी हो सकती है। स्थानीय निकायों में जीतने के लिए दलितों का साथ भी चाहिए और उनके अंदर अधिकारों के लिए हो रहे जाग्रति को धमकाना भी है इसलिए ही अनेको प्रकार के षड्यंत्र हो रहे हैं। आंबेडकर के नाम लेने भर से ही परेशान होने वाले लोग जब उनके नाम से यात्रा निकलना चाहते हैं तो उसकी परिणीति कैसे होगी जगजाहिर है।  जब आंबेडकर जयंती सभी जगह १४ अप्रेल को मना ली गयी तो २० अप्रेल को जबरन जलूस निकालने के क्या मायने।  दलित और मुसलमनो के बीच जबरन झगड़ा लगाने की कोशिश कर असंतोष खड़ा करने के हर प्रयास की निंदा होनी चाहिए।  कोई भी जलूस समाज में व्याप्त शांति और सद्भाव से बड़ा नहीं हो सकता। 

सहारनपुर से भाजपा के सांसद राम लखन पाल शर्मा ने पुलिस प्रशाशन की परवाह किये बगैर जो शोभा यात्रा  निकाली वो पूर्णतः गैर क़ानूनी थी  लेकिन बजाय शर्मा के खिलाफ कोई कार्यवाही के सहारनपुर के नौजवान एंड बहादुर पुलिस अधिकारी लव् कुमार सिंह का तबादला कर दिया गया।  ये सुचना अब गुप्त नहीं है के लव कुमार के शासकीय आवास पर सांसद के समर्थको ने हमला किया लेकिन सरकार ने सांसद को समझाने के बजाय अधिकारी को 'अनुशासित' कर दिया।  अखबारों की खबर के मुताबिक जो नए अधिकारी लव कुमार सिंह की जगह पे आये वह सुभाष चंद्र दुबे मुजफ्फरनगर के दंगो के दौरान वहा के एसएसपी थे और पत्रिका अख़बार के मुताबिक न्यायमूर्ति विष्णु सहाय  की रिपोर्ट ने उन्हें भी जांच में दंगो को न रोक पाने का दोषी पाया था।  सहारनपुर के इस दंगे तरह छोटे बड़े किस्म के दंगो की संख्या लगातार बढ़ रही है।  केंद्रीय गृह राज्य मंत्री के मुताबिक २०१५ में १५५ और २०१६ में १६२ मामले उत्तर प्रदेश में हुए हैं। आंबेडकर शोभा यात्रा का पूरा मामला दलित मुसलमानो को आपस में लड़ाने का था क्योंकि न तो दलितों के तरफ से कोई शोभायात्रा की बात कही गयी थी न ही प्रशाशन ने इसकी अनुमति दी थी लेकिन दंगे कराने की साजिश थी और अखबारों ने अपनी भूमिका निभा दी।  सहारनपुर में अखबारों ने दलित मुस्लिम दंगा करवा दिया जो कही था ही नहीं क्योंकि पूरी 'शोभा यात्रा' की मांग दलितों की तरफ से नहीं भाजपा के सांसद की और से थी। 

पिछले तीन वर्षो से सरकार बाबा साहेब आंबेडकर के जन्म दिवस या महापारिनिरवाण दिवस को बहुत बड़े स्तर पर मनवा रही है।  प्रधानमंत्री मोदी डॉ आंबेडकर का बड़ा गुणगान कर रहे हैं।  अपनी पूरी विदेश यात्राओं में मोदी जी अपने को बुद्ध की धरती से आया हुआ कहते हैं हालाँकि बोध गया बुद्धिस्ट लोगो को मिल जाए इसका कभी उन्होंने प्रयास नहीं किया और घर में उन्हें शिष्य राम मंदिर का आंदोलन मज़बूत कर रहे हैं चाहे इसके कारण देश में अमन चैन रहे या नहीं।  खैर भाजपा के स्वर्ण नेताओ और उनके स्वर्ण कार्यकर्ताओ को लगता है के दलितों के वोट लेने के लिए आंबेडकर नाम का जाप किसी भी कीमत पर करना पड़ेगा लेकिन वे भूल गए के कांशी राम की राजनैतिक क्रांति ने दलितों को यह भी बताया के ''वोट हमारा राज तुम्हारा' नहीं चलेगा।  भाजपा इस नारे को ''वोट तुम्हारा राज हमारे' में बदलने के लिए कटिबद्ध है और इसलिए लोगो की भावनाओ को समझे बगैर वो ये कर रही है। सवाल यह है के यदि आप बाबा साहेब आंबेडकर से प्यार करते हो या उनका सम्मान करते हो तो क्या अभी तक जाति उन्मूलन के लिए आपने क्या किया. यदि आप बाबा साहेब के संविधान का सम्मान करते हो तो ' द ग्रेट चमार' लिखने में क्या आपत्ति क्यों ? यदि आपकी पार्टी सामाजिक न्याय को मानती है तो फिर डॉ आंबेडकर की प्रतिमा का हर वक़त अपमान क्यों और वो दलितों की बस्ती में ही क्यों लगे गाँव के बीच मोहल्ले में क्यों नहीं ?

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आने के वाद से हिन्दू युवा वाहिनी के कार्यकर्ताओ के जोश में होश चला गया है।  वैसे पूरी वाहिनी  राजपूत सेना  नज़र आती 
है. जब प्रदेश में एक लोकतान्त्रिक सरकार है तो ऐसी वाहिनियों को क्यों नहीं ख़त्म किया जाता।  क्योंकि ऐसा यदि नहीं होगा और पुलिस और प्रशाशन का ब्राह्मणीकरण होगा तो इस प्रकार की वाहिनियों के मुकाबले में भी जातियों की सेनाये तैयार होंगी।  पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भीम आर्मी की ताकत का अंदाजा पुलिस को भी नहीं था लेकिन सहारनपुर में कल के हादसे के बाद प्रशाशन के हाथ पाँव फूल गए हैं।  सवाल इस बात का है के यदि प्रशाशन को ईमानदारी से काम करने की छूट नहीं होगी, संविधान भावनाओ का सही प्रकार से पालन नहीं होगा और  गाँव देहात में मनुवादी सामंतवाद अभी भी चलेगा तो फिर लोग अपने बचाव और सम्मान के लिए अपनी अपनी  जातीय सेनाओ या पार्टियों  का सहारा लेंगे। 

अभी का ताजा घटनाक्रम मई ५ का है जब  शब्बीरपुर गाँव में ठाकुरो के हमले में पुलिस के अनुसार दलितों के २५-३० घर जला दिए गए हालाँकि दलितों का कहना है के ५५ से अधिक घर जले हैं और एक दर्जन से ज्यादा लोग घायल हुए हैं। अंग्रेजी दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक  ४००० हज़ार की आबादी वाले इस गाँव में ठाकुरो की आबादी २५०० और चमारो की ६०० से करीबन है। मामला महाराणाप्रताप की जयंती मनाने से शुरू हुआ जब लोउडस्पीकर की आवाज़ को दलितों ने काम करने को कहा।  असल में हमारे गाँवों में झगड़ो के लिए बहाने चाहिए होते हैं।  उसके लिए लोग कारण ढूंढते हैं और दिन तय करते हैं। महाराणाप्रताप की जयंती पहले नहीं मनाई जाती थी लेकिन अब गाँवों में अपने अपने पूर्वजो को मनाने के नाम पर हर काम हो रहे हैं।  उससे भी कोई दिक्कत नहीं लेकिन समस्या तब होती है जब जानबुझकर उन इलाको से जलूस निकाला जाता है जहाँ आपको दंगा फसाद करना है।  साम्प्रदायिक और जातीय दंगो के महारथी हमेशा ऐसा करते हैं और जब वे इन इलाको से गुजरते हैं जहाँ उन्हें लगता है के लोग  उनके 'दुश्मन' हैं वहां उनकी नारेबाजी भयावह रूप धारण करती है।  मसलन अगर जलूस मुसलमानो के इलाको से जाए तो ' तेल लगा दो डाबर का, नाम मिटा तो बाबर का ' या ' राम लला हम आएंगे मंदिर वही बनाएंगे' और यदि भारत में रहना होगा वन्दे मातरम कहना होगा' के नारे लगेंगे और वो ऐसे लगाए जाते हैं जैसे किसी को चिढ़ाने के लिए किया जा रहा हो।  ये बात  हकीकत है के त्योहारों और पर्वो पर जलूस निकलना भारत के शहरों और गाँवों के लिए अब नासूर बन गए हैं क्योंकि ये जलूस या झांकिया अब जनजागरण के लिए नहीं अपितु अपनी ताकत दिखाने के लिए हैं और भारत के विभिन्न हिस्सों में हो रहे दंगो का कारण बन चुके हैं।  घनी आबादी वाले इलाको, खासकर जो मिश्रित आबादी के क्षेत्र हैं किसी भी हिंसा को रोकना प्रशाशन के लिए नामुनकिन हैं. इन दंगो के कारण हिंसा में अक्सर पुलिस प्रशाशन भी सांप्रदायिक हो जाता है। पुलिस के जातीय और सांप्रदायिक चरित्र को कभी भी ठीक करने की कोशिश नहीं की गयी। 

दंगो में लोग बर्बाद होते हैं और प्रशाशन की और से मुआवजा भी नाम मात्र का होता है।  बड़े लोगो के व्यावसायिक प्रतिष्ठान तो बीमित होते हैं और  वे इस प्रकार की घटनाक्रम से सरकार की सहायता के बिना भी बीमा क्लेम कर लेते हैं लेकिन अब समय आ गया है के  अन्य सभी लोगो को बचाव में अपना बीमा करवाना चाहिए खासकर मुस्लिम और दलित समुदाय के व्यवसायियों को ताकि इस प्रकार की हिंसा में उनके व्यवसायिक हितो को नुक्सान न हो अन्यथा उनके नष्ट होने में तो देर नहीं लगती और इससे कई मेहनतकश लोगो की जिन्दगिया ख़त्म हो गयी है। मुजफ्फरनगर के २०१३ के दंगो की स्याही अभी सूखी नहीं है क्योंकि जिनके घर बार नष्ट हुए उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिला।  सरकार की उसमे कोई दिलचस्पी भी नहीं दिखाई देती।  ऐसा लगता है के प्रशाशन तो लोगो को रिलीफ कैंपो में भी नहीं रखना चाहता।  एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के मुताबिक मुजफ्फरनगर की हिंसा में  ७  महिलाओ के साथ सामूहिक दुष्कर्म हुआ जिसमे से एक की मौत हो गयी है और बाकी अपनी जिंदगी को सँभालने की कोशिश कर रही है  लेकिन उन पर जान का खतरा लगातार मँडरा रहा है।  अभी तक सही प्रकार से मुकदमे शुरू भी नहीं हुए हैं।  गवाहो को धमकिया हैं और खुले आम धमकी देने वाले अब सत्ता का हिस्सा है और खुले में घूम रहे हैं। 

लोकतंत्र की त्राश्दी है के जनता का फैसला सर्वमान्य होता है लेकिन जब कानून का शाशन चलाने की बात करते हैं तो आरोपियों पे मुकदमा चलना चाहिए और एग्जीक्यूटिव को ईमानदारी  कार्य करना चाहिए।  अमेरिका का उदहारण हमारे सामने है जहाँ मीडिया और सरकार के दूसरे अंगो जैसे एफबीआई ने अभी तक सरकार की हाँ में हाँ नहीं मिलाई है और जहाँ लगा के मंत्री या राष्ट्रपति गलत हैं वहा उन्होंने उसका विरोध किया है लेकिन भारत में मीडिया  का साम्प्रदायिक और जातीय स्वरूप जगजाहिर है।  इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के  आने से अब अफवाहे आसानी से फ़ैल रही हैं।  मीडिया किसी भी खबर को अपने स्टूडियो और दफ्तरों में तैयार कर रहा है जिसके फ़लस्वरूप गाँवो में तनावबढ़ रहा है। मीडिया और लोगो को यह बात  जान लेनी चाहिए के कोई  व्यक्ति यदि वो कानून की नज़र में आरोपित है या अपराधी है तो उसके अपराध चुनाव जीतने से ख़त्म नहीं हो जाते।  लालू यादव उदहारण है।  उन्हें आज भी कोर्ट के चक्कर लगाने पड रहे हैं।  शाहबुद्दीन जीतने के बावजूद भी जेल में हैं।  मतलब यह के चुनावी जीत आपके अपराधों को नहीं धोती और देर सवेर उन  पर कार्यवाही होती ही है।  इसलिए भाषणों में नेता लोग यदि जनता की अदालत की आड़ में अपने कार्य को सही ठहराए तो समझ लीजिये के कोर्ट के फैसले का भय उनके दिमाग में घूम रहा है। 

सत्तारूढ़ पार्टी ने दलित पिछडो और मुसलमानो के अंतरद्वन्द  को अपना हथियार बनाया लेकिन ये भी आवश्यक है के सवर्णो  और दलितों के अंतर्द्वंद केवल राजनैतिक एडजस्टमेंट से ख़त्म नहीं होने वाले।  बाबा  साहेब आंबेडकर ने जातियों के सम्पूर्ण विनाश की बात कही और संविधान की सर्वोच्छ्ता को लागु करने की बात कही लेकिन आज संविधान की ताकत से सबसे बड़ी चुनौती मनुवाद को है जिसने हमारे गाँवों में अभी भी अपना राज्य कायम रखा है जहाँ द ग्रेट चमार के बोर्ड लग जाने मात्र से जातिप्रथा की सर्वोच्चता को चुनौती लगने लगती है।  आंबेडकर की सीधी खड़ी मूर्तिया सवर्ण प्रभुत्व के लिए चुनौती हो गयी है जिन्हे ऐसा लगता है के उनका संविधान और उनके विचार दलितों को 'बिगाड़' रहे हैं क्योंकि अब वो सवाल कर रहे हैं. आरक्षण की सीटों के नाम पर भी दलित पिछडो ने बहुत बदनामी झेली।  ऐसा प्रचारित किया गया के आरक्षित श्रेणी में सभी दोयम दर्जे के लोग आते हैं लेकिन टीना डाभी, कल्पित वीरवाल और अब रिया सिंह ने दिखा दिया है के तथाकथित सवर्ण मेरिट को अम्बेडकरवादी युवाओ की न केवल कड़ी टक्कर मिलेगी अपितु आने वाले दिन अम्बेडकरवादी  मेहनतकशो के ही होंगे। सवाल ये नहीं की किसी को नीचा या किसी को ऊंचा दिखाना है आखिर ये जंग तो हमेशा नहीं चल सकती क्योंकि भारत का भविष्य एक बराबरी वाले समाज में ही है न के ऐसे सामाजिक व्यवस्था में जो जन्म आधारित कार्य के सिद्धांतो पर चली है। 

उत्तर  प्रदेश के चुनावो के वक़्त कई अखबारों ने एक खबर छापी थी।  बहुत से साथियो को दुःख भी हुआ था।  हाथरस की एक सुरक्षित विधान सभा सीट से वाल्मीकि समाज के एक भाजपा प्रत्याशी प्रचार के वक़्त अपना गिलास अलग से लेकर चलते थे क्योंकि जब वो जाटो के इलाको में जाते तो जमीन पर बैठते और लोग उनको चाय उनके गिलास पे देते।  वो घर के अंदर भी नहीं घुसते थे और गाँव के छोटे बच्चे भी उनका नाम लेते।  जब उन महाशय से यह पूछा गया के आप इसका विरोध क्यों नहीं करते तो उन्होंने अपनी सदियों पुरानी परम्पराओ का हवाला दिया। उनकी सुरक्षित सीट जाट बाहुल्य वाली थी और क्योंकि उन्हें चुनाव जीतना था इसलिए अगर अपने आत्मसम्मान की कीमत पर आप संसद या विधायक बन गए तो क्या दिक्कत। वह चुनाव जीत भी गए।  मैंने उनका बायो डाटा पढ़ा तो पता चला के उनके पिता बहुत समय से विधायक थे और एक टर्म के लिए सांसद भी रहे।  क्या ये आश्चर्य की बात नहीं के एक राजनैतिक परिवार से आने वाला व्यक्ति  पद के लिए अपने स्वाभिमान या अपने स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर सकते तो क्या  वे विधान सभा या सांसद में  वाकई  अपने या अपने जैसे समाजो पे हो रहे अत्याचारों के बारे में कुछ  पाएंगे?  बाबा साहब आंबेडकर ने इसी लिए पृथक या आनुपातिक चुनाव प्रणाली की बात कही थी।  असल में संघ की समरसता का सिद्धांत यही के आप को मनुस्मृति ने जिस जगह पर रखा है वो बिलकुल 'वैज्ञानिक' है और सभी अपनी अपनी जातियों के हिसाब से काम करे और 'प्यार' से रहे तो 'सामनजस्य बना रहेगा। आंबेडकर का युवा इस सामंजस्य को अब सहने को तैयार नहीं है।  विधायकी और सांसदी या प्रधानी के लिए भी वे लड़ेंगे लेकिन अपने स्वाभिमान को रखकर। सामाजिक बराबरी लाने के लिए 'ऐतिहासिक गलतियों' को स्वीकार करना पड़ेगा।  बाबा साहेब आंबेडकर की लड़ाई एक नए समाज को बनाने की लड़ाई थी, ये भारत के मानवीयकरण और उसे प्रबुद्ध भारत बनाने की लड़ाई है और उसके लिए आवश्यक है के सड़ी गली परम्पराओ को ठुकराकर एक समतावादी समाज की स्थापना जो मनु के विधान से नहीं हमारे ऐतिहासिक संविधान से चले।  समाज में आपने जातीय वर्चस्व को कायम रखने वाली शक्तिया केवल दूसरे को गिरा हुआ और निम्न देखना चाहती है जो हमें हर प्रकार से कमज़ोर करेगा. दुनिया बदल चुकी ही और जो अपने को जातीय आधार पर बड़ा मानने की जिद में हैं उन्हें सोच लेना चाहिए के २१वे सदी में उनका फायदा भी इसमें है के वे बदले और सामाजिक बदलाव की दिशा में सोचे जिसकी शुरुआत बुद्ध ने की और जिसके सबसे बड़े प्रणेता बाबा साहेब आंबेडकर रहे। एक समतावादी समाज का फायदा केवल दलितों को हो ऐसा  नहीं हो सकता।  भारत के सम्पूर्ण विकास और ताकत के लिए यहाँ सामाजिक बदलाव और सामाजिक न्याय की शक्तियों के साथ में समाज को जुड़ना पड़ेगा।  अगर ऐसा नहीं हुआ तो जैसे डॉ आंबेडकर ने कहा, दबे कुचले लोग अपना रास्ता खुद तय कर लेंगे। 

पश्चिम  उत्तर प्रदेश एक खुशहाल क्षेत्र है।  यहाँ के किसान राजनैतिक तौर पर बड़े ताकतवर थे।  आज  यहाँ से  खेती खतरे में है लेकिन किसानो के मुद्दे गायब हैं।  ऐसा नहीं है के किसानो को इसका पता नहीं है।  उनके मुद्दों को साम्प्रदायिकता और जातीय वर्चस्व की चाशनी में चालाकी से मिला दिया गया है।  जरुरी है के नेता और उनके छुटभैये इस क्षेत्र को अपने राजनैतिक लाभ के लिए आग में न ढकेले क्योंकि ये क्षेत्र ऐसा है के आग लगने पर बुझाना आसान नहीं है। इस क्षेत्र ने मेरठ, मुरादाबाद, अलीगढ ,,आगरा , बरेली  बिजनौर, मलियाना आदि के भयावह दंगे देखे हैं और उनसे होने वाले नुक्सान को भी भुगता है।   नफ़रत की आग इस देश को ध्वस्त कर सकती है इसलिए सरकार को  चाहिए के वो कड़ा सन्देश भेजे खासकर सभी राजनैतिक कार्यकर्ताओ को के वे कोई ऐसी बात न कहे जो हिंसा को सही ठहराए।  ये भी जरुरी है के लोगो में विश्वास जगाने के लिए स्थानीय सदभावना समितिया बने।  सबसे बड़ा अनुरोध लोगो से है के वे व्हाट्सप्प और सोशल मीडिया , स्थानीय अखबारों की खबरों से उद्वेलित न हो।  चिंता करना वाजिब है और अपने अधिकारों के लड़ना भी आवश्यक है लेकिन अफवाहों के चलते केवल उसकी राजनीति करने वालो की चांदी है। मुख्यमंत्री ने डीजीपी को भेजा है लेकिन हमारे विपक्ष के नेता नदारद है।  सहारनपुर और मुजफ्फरनगर की हिंसा और उसके कारणों की विस्तारपूर्वक जांच होनी चाहिए।  क्या हमारी संसद या विधानसभा इस पर कोई समिति का गठन कर सकती जिसमे विपक्ष के लोग भी हों ताकि ईमानदारी से इन घटनाओ की जाँच हो और भविष्य में ऐसा न हो उसके लिए प्रयास हो।  क्या ऐसा हो सकता है के जिन नेताओ का नाम दंगा फ़ैलाने में आये उन्हें टिकट न मिले ? सहारनपुर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खुशहाली के जरुरी है के वह शांति हो और सभी लोग बिना भय और रागद्वेष के रहे ताकि जिंदगी दोबारा से पटरी  पे आ सके।

Tuesday 9 May 2017

क्या बिलकिस बानो को न्याय मिल पायेगा

 


विद्या भूषण रावत 


पिछले हफ्ते की दो बड़ी खबरे हमारे सामने अलग अलग तरीके से परोसी गयी।  सुप्रीम कोर्ट में निर्भया कांड के अभियुक्तों को जब फांसी की सजा सुनाई गयी तो वहा मौजूद लोगो ने तालियों की गड़गड़ाहट से इस फैसले का स्वागत किया।  शायद इतने वर्षो में पहली बार हमने ऐसा सुना जब कोर्ट का फैसले पर बॉलीवुड स्टाइल प्रतिक्रिया आयी हो।  निर्भया के साथ सेक्सुअल हिंसा १६ दिसंबर २०१३ को हुई जब वह अपने दोस्त के साथ सिनेमा देखने के बाद रात को घर लौट रही थी।  एक प्राइवेट बस ने उनको लिफ्ट दी और वही से उसके साथ दरिंदगी का खेल शुरू हुआ।  उसके बाद जो दिल्ली में हुआ उसने इतिहास बनाया और आनन् फानन में निर्भया एक्ट भी बन गया।  पुलिस ने त्वरित कार्यवाही की और सभी अपराधियों को पकड़ लिया. केस बहुत टाइट बनाया गया इसलिए अपराधियों के बचने की गुंजाइश नहीं थी।  पब्लिक डिस्कोर्स इतना राष्ट्रवादी था के सुप्रीम कोर्ट भी इस पर प्रभावित न हुआ हुआ इसकी संभावना नहीं दिखती। सभी बलात्कारियो को फांसी मिलनी चाहिए जैसे नारे जंतर मंतर पर जोर जोर से लगे।  निर्भया के माँ बाप टीवी चैनल्स के प्रमुख स्तम्भकार बने क्योंकि हर एक उनसे विशेषज्ञ के तौर पर सवाल पूछता। 

फ़िलहाल सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों के फैसलों पर अपनी सहमति दे दी है।  अभियुक्तों को फांसी हो जायेगी और हम सभी को संतुष्टि हो गयी है के न्याय हो गया है।  निर्भया के बाद बहुत सारे मामले सामने आये है लेकिन न तो उनको न्याय मिला है और न ही हमारे राष्ट्र की  'सामूहिक आत्मा' जगी है।  मुजफ्फरनगर से लेकर उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, राजस्थान , पंजाब आदि राज्यों से जातिगत हिंसा और उसके बाद महिलाओ पर अत्याचारों की खबरे रोज आती है लेकिन हम निर्लज्जतापूर्वक चुप रहते है।  ऐसा क्या था के जो मोमबत्तिया निर्भया के लिए जली वो दूसरे स्थानों पर हुई हिंसा पर चुप रहती है।  हमारी सामूहिक संवदेना क्यों चुप हो जाती है जब बलात्कार जाति और धर्म की सर्वोच्चता दिखाने का घृणित तरीका बन जाता है। 

निर्भया से लगभग १० वर्ष पूर्व सन २००२ में गुजरात में एक बहुत बड़ा हादसा हुआ था जिसके फलस्वरूप बहुत से भारतीयों की जाने गयी, सामूहिक बलात्कार हुए और लोगो को जिन्दा भी जलाया गया।  हिंसा की ऐसी जो भी घटनाये हुयी है उनमे ये भी जुड़ गया। गुजरात २००२ ''राष्ट्रवादी'' राजनीती का ऐसा सूत्रपात हुआ के  जिन लोगो पर हिंसा हुई और यौनाचार हुआ उनके साथ खड़ा होना और उनके लिए न्याय की बात करना भी अपराध हो गया।   जो लोग भी उत्पीड़ित लोगो को न्याय दिलवाने के लिए खड़े हुए उन पर विभिन्न प्रकार के दवाब थे और अपराधियों और उनको सरक्षण देने वाले राज नेताओ ने उनके हौसलों को डिगाने के लिए पुरे प्रयास किया।  मीडिया में भी कुछ लोग इन प्रश्नो पर बोलते रहे लेकिन जब से देश की 'हवा' बदली है न्याय की बात करने वाले भी चुप हो गए हैं और मीडिया ने तो मानो मुद्दों को छुपाने और बनाने की महारत हासिल कर ली है। 

गुजरात के उस दुःस्वप्न में उम्मीद और संघर्ष की एक बहुत बड़ी कहानी है बिलकिस बनो की जिसको सुनकर हमारे अंदर की नैतिकता जागृत नहीं हुई और न ही हमने कभी उसकी मज़बूती के लिए जंतर मंतर पर कोई मोमबत्ती जलाई ही।  २७ फ़रवरी २००२ को साबरमती एक्सप्रेस को गोधरा में हमले और जलाने की घटना में ५९ हिन्दुओ की मौत के बाद गुजरात में मुस्लिम विरोधी हिंसा में बहुत तबाही देखी जिसमे लोगो के घर लुटे गए और हिंसा और बलात्कार की बड़ी घटनाये हुई. बहुत से स्थानों से मुसलमानो और हिन्दुओ ने अपने अपने ' इलाको' के लिए पलायन किया। अहमदाबाद शहर से लगभग २०० किलोमीटर दूर, दहोड़ जिले के  राधिकापुर गॉंव में दंगाइयों ने मुसलमानो के घर जला डेल थे। पहली रात उन्होंने सरपंच पहले सरपंच के घर पर फिर गांव के स्कूल और खेतो में छिपने की कोशिश के लेकिन बचने की कोई सम्भावना नहीं थी इसलिए उन्होंने गांव छोड़ कर भागने का प्रयास किया।  १९ वर्षीया बिलकिस अपने परिवार के १९ सदस्यों के साथ ट्रक पर बैठकरगांव से बाहर जा रही थी ताकि उन्हें किसी मुस्लिम बहुल गाँव में रहने के लिए मिल जाए। लेकिन उनके खून को प्यासे लोगो ने  रस्ते में उन्हें घेर लिया।  यह लगभग ३५ लोगो की भीड़ थी जो गांव के संभ्रांत लोग थे जो लोकल दुकानदार, एक डॉक्टर का बेटा , पंचायत के सदस्य और अन्य कई जिनके साथ बिलकिस और उनके परिवार ने अपने बचपन से अब तक गुजारा था। मात्र एक घटनाक्रम ने पड़ोसियों को इंसानियत छोड़कर दरिंदगी अपनाने को मज़बूर किया जो बेहद शर्मनाक है।  बिलकिस की आँखों के सामने उनके परिवार के १४ सदस्य मारे गए।  उनकी तीन साल की बेटी को भी निर्दयता से मार डाला गया. बिलकिस ५ महीने के गर्भवती थी लेकिन भीड़ में मौजूद अपराधियों ने उनके साथ बलात्कार किया। उनके चचरे भाई शमीम के उससे पहले दिन ही पुत्र हुआ था उसे भी मार डाला गया।  महिलाओ के साथ बलात्कार के बाद हत्याये कर दी गयी।  उनकी हालत बहुत ख़राब थी और वह बेहोश हो कर गिर पड़ी।  अपराधियों ने उन्हें मरा समझकर छोड़ दिया। जब  उन्हें होश आया तो उन्होंने अपने सामने परिवार के लोगो शव देखे। किसी तरह हिम्मत कर वो सामने पहाड़ी पर चली गयी और वह सो गयी।  अगले दिन पानी भरने आने वाली एक आदिवासी महिला ने उसको देखा और कुछ कपडे दिए। कुछ देर बाद वहा से गुजर रहे एक पुलिसवाले से मदद की गुहार पर वह बिलकिस को लिमखेड़ा पुलिस स्टेशन ले गया जहा उसने प्राथमिक सुचना रिपोर्ट लिखवाने की कोशिश की लेकिन पुलिसवालो ने उसको धमकी दी और रिपोर्ट लिखने के बजाय उसको रिलीफ कैंप भेज दिया। पुलिस और प्रशाशन किसी भी प्रकार से मदद को तैयार नहीं था।  उसकी दर्दनाक दास्ताँ को सुनने को राजी नहीं था।  मेडिकल भी ४ दिनों बाद किया गया।  सबसे बड़ी शर्मनाक बात यह है के ऍफ़ आई आर घटना के १५ दिनों के बाद लिखी गयी और कुछ महीनो के बाद पुलिस जैसा की अमूमन ऐसे मामलो में होता है , क्लोजर रिपोर्ट २५ मार्च २००३ को लगा दी।  लेकिन मज़बूत बिलकिस ने अपना रास्ता नहीं छोड़ा। वो न्याय के लिए दर दर भटकी।  मानवाधिकारों और इंसानियत में यकीं करने वाले बहुत से लोगो ने उसकी मदद की लेकिन वहा के हालत ऐसे नहीं थे के उसको आसानी से न्याय मिल पाता। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस पर संज्ञान लिया और सुप्रीम कोर्ट में सीधे याचिका लगवाई जिसके कारण कोर्ट ने सीबीआई को इस मामले की जांच के आदेश दिए। सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट से ये अनुरोध किया के मामले की निष्पक्ष जांच के लिए उसे गुजरात से बाहर स्थानांतरित किया जाए.   २००८ में सुप्रीम कोर्ट ने परिस्थितयो का ध्यान करते इस मामले को महाराष्ट्र ट्रांसफर कर दिया और फिर यह मुंबई हाई कोर्ट के अंतर्गत आ गया।१५ वर्षो में उन्हें बहुत धमकिया मिली।  अपराधी परोल से घर पर आते और इशारो इशारो में धमका के चले जाते।  मुश्किल हालातो में उनके जीवन यापन के लिए कोई स्थाई उपाय नहीं था और हर जगह से उनको घर बदलना पड  रहा था।  पिछले १५ वर्षो में बकौल याक़ूब जो ब्लिकिस के पति हैं , उन्होंने लगभग २० से २५ बार अपने घर बदले. 

४ मार्च २०१७ को बम्बई हाई कोर्ट ने सीबीआई की याचिका पर ११ लोगो को दोषी करार दिया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई है।  इसमें महत्वपूर्ण बात यह है के कोर्ट ने ७ पुलिसवालो और १ डॉक्टर को भी सबूतों के साथ छेड़छाड़ या उन्हें मिटाने के कारण उन्हें दोषी करार दिया है। कोर्ट ने पुलिस के क्रिया कलापो पर कड़ी टिपण्णी की है लेकिन क्या मात्र तीन वर्षो की सजा उनके साथ सही न्याय है।  क्या कानून के रक्षको को कानून की मर्यादाओ के उल्लंघन के सिलसिले में सजा नहीं होनी चाहिए। 

कल बिलकिस को सुना।  उसके पति याक़ूब  ने अपनी दास्ताँ कही।  बिलकिस ने कहा उन्हें न्याय मिल गया है और वो बहुत खुश हैं।  अब वह नयी जिंदगी जीना चाहती है।  उसकी तीन साल की बेटी वकील बनाना चाहती है।  उसने साफ़ तौर पर कहा के उसे न्याय चाहिए और कोई किसी से बदला नहीं लेना।  अच्छी बात यह है के उसके वकीलों और सभी साथियो ने मौत की सजा के खिलाफ ही बात की।  ये बात साफ़ है के बिलकिस के साथ हुई घटना किसी भी प्रकार से निर्भया मामले से ज्यादा  संगीन है क्योंकि ये एक सामूहिक मामला था लेकिन ऐसे कैसे के एक में सभी लोगो को सजाये मौत होती है और दूसरे में नहीं।  ऐसा कैसे है के एक में हम इतने उद्वेलित होते हैं के इंडिया गेट और जंतर मंतर पर कई दिनों तक संघर्ष करते  जब तक कानून नहीं बन जाता जबकि दूसरे में हमारी सहनुभूति कही नज़र नहीं आती।  मीडिया ज्यादा उल्लेख भी  चाहता और देशभक्त इसे भी सही साबित करने के लिए कई कारण ढूंढ निकाल देंगे। याकूब बताते हैं के उनका पुस्तैनी पेशा पशुपालन है लेकिन अब उसमे भी बहुत दिक्कत  पशुपालक यदि मुस्लमान है तो सीधे कसाई कहा जा रहा है।  आज पशुपालको की सुरक्षा खतरे में है।  इतने सालो में उनकी जिंदगी घुमन्तु समाज वाली हो गयी थी और सरकार या प्रशाशन की और से एक भी व्यक्ति ने उनसे उनकी समस्याओ के बारे में एक प्रश्न भी पूछा हो। 

बिलकिस कहती है सब जगह शांति हो और सभी औरतो को न्याय मिले. लेकिन उसकी आँखों में दर्द है, और अनिश्चितता का भय भी है।  आज के हालातो को वो न समझ पा रही हो ऐसा मुझे नहीं लगता।  हालाँकि हम सब मौत की सजा  के खिलाफ है लेकिन जिसकी आँखों इतने तूफ़ान देखे, अन्याय की पराकाष्ठा देखि वो निश्चित तौर पर इस प्रकार  निर्णयों से खुश हो अभी कहना मुश्किल है।  आखिर क्यों बिलकिस को हमारी सेकुलरिज्म की बिसात पर अपने दिल की बात कहने से रोका जा रहा है।  निर्भया का  वह बयान बहुत चल रहा है जिसमे उसने बलात्कारियो  जलाने की बात कही।  उसके माँ बाप और वकील एक मत से इस पक्ष में थे के सभी को सजाये मौत होनी चाहिए। खैर, मैं बिलकिस के क़ानूनी सलाहकारों की इस बात के लिए सराहना करता हूँ के उन्होंने सजाये मौत पर ज्यादा जोर नहीं दिया लेकिन बिलकिस के साथ न्याय कैसे होगा यदि उसके सम्मान पूर्वक पुनर्वास की बात नहीं होगी।  उसके बच्चो और उसकी  अपनी जिंदगी बिना भय के चले इसके लिए आवश्यक है के उसे जरुरी मुआवजा मिले / निर्भया की हत्या के बाद सरकार ने जिस प्रकार से घोषणाएं करके लोगो का गुस्सा ख़त्म करने की कोशिश की वो हम सब जानते हैं और  पहली बार हमने देखना सरकार ने निर्भया कानून बनाया, मुआवजे की राशि बढ़ाई और निर्भय के माँ बाप को एक मकान भी अलॉट किया लेकिन ऐसा कुछ न बिलकिस बानो के साथ हुआ और न ही अन्य किसी भी महिला या पुरुष के साथ जो सामुहिक हिंसा, बर्बरता और जातीय या धार्मिक घृणा का शिकार हुई हो। क्या वे इस देश के नागरिक नहीं ? क्या बात है के एकऐसी महिला जो जिंदगी की इतनी क्रूर जंग को बहादुरी के साथ लड़ रही है उसके दिल की बात हम नहीं समझ पा रहे ? 

बिलकिस और याकूब कहते हैं अब हम जिंदगी की दूसरी शुरुआत करेंगे।  याकूब ने पहले हे बता दिया के पिछले १५ वर्षो में किसी ने उन्हें पूछा तक नहीं और रहने तक की दिक्कत है।  आज के दौर में तो उनका पुश्तैनी पेसा भी ख़त्म हो चूका है।  न्याय का मतलब केवल अपराधी को सजाये मौत या उम्रकैद नहीं है।  न्याय का मतलब यह भी होना चाहिए के उत्पीड़ित अपनी जिंदगी को इतने तनावों और अलगाव के बाद कैसे शुरू करे. जब जिंदगी का सब कुछ लुट गया हो तब दोबारा से जीने का साहस कहा से लाये  और यदि साहस बटोर भी लिया तो जिंदगी एक अफसाना नहीं हकीकत है जहा पडोशी या रिस्तेदार आपको घर बैठे नहीं खिलाएंगे। इतने वर्षो तक न्याय पाने के लिए इतना बड़ा हौसला रखना कोई मज़ाक बात नहीं जब आपके पास कोई संशाधन न हो।  बिलकिस के साहस और धैर्य को सलाम।  याकूब को भी जो अपनी पत्नी के साथ प्यूरी सिद्द्त से खड़ा है।  बिलकिस पर जुल्म ढाने वाले अभी सुप्रीम कोर्ट में आएंगे और हम उम्मीद करते हैं के सुप्रीम कोर्ट उनकी सजा को बरकरार रखेगा।  हम केवल ये कहना चाहते हैं जब सरकार की विभिन्न संस्थाओ ने न्याय के इस मामले में अपनी भूमिका सही से नहीं निभाई और जब बिलकिस बिलकुल नयी जिंदगी जीना चाहती है, अपने बच्चो के लिए और अपने लिए, उसके इस जज्बे को जिन्दा रखने के लिए क्या हमारी न्याय प्रक्रिया इतना कर पाएगी के उसे दर दर की ठोकरे न खानी पड़े, बार बार किराये के घर न बदलने पड़े और उसके बच्चो को एक बेहतरीन शिक्षा मिल सके। हम उम्मीद करते हैं न्याय की इस प्रक्रिया पर सुप्रीम कोर्ट ध्यान देगा. सवाल केवल अपराधियों की सजा नहीं अपितु असल परीक्षा इस बात की है के  जो जिंदगी में उनके अपराधों की सजा भुगत रहे हैं उनके जीवन के बदलाव और बेहतरी के लिए हमारा कानून, संविधान और न्यायतंत्र क्या कुछ कर पायेगा