विद्या भूषण रावत
कल प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया
खचाखच भरा था . खड़े होने की भी जगह नहीं थी . ५ सितम्बर को जैसे ही गौरी लंकेश की
हत्या की खबर आई तुरंत ही कुछ पत्रकार साथियो ने मोर्चा संभाला और रात भर में ही
ट्विटर पर उनकी मौत का समाचार ट्रेंड करने लगा. देश पर में सामाजिक कार्यकर्ताओं,
बुद्धिजीवियों, पत्रकारों आदि ने प्रदर्शन किये, कैंडल लाइट मार्च आदि निकाले और
घटना की कड़ी निंदा की. कल की बैठक में बरखा दत्त और राजदीप सरदेसाई ने राजनितिक
नेताओं से इस आन्दोलन से दूर रहने की बात
कही लेकिन वही पर कई दूसरो ने कहा के साफ़ जाहिर है के किन लोगो ने गौरी की हत्या
की है इसलिए अगर साम्प्रदायिकता विरोधी लोग इन कार्यक्रमों में आकर समर्थन करते
हैं तो कोई गलत बात नहीं है .
सवाल इस बात का नहीं है के
पार्टियों को पत्रकारों या सामाजिक कार्यकर्ताओ का समर्थन करना चाहिए या नहीं
लेकिन ये भी के क्या इन दोनों पत्रकारों ने सत्ताधारियो के साथ में बैलेंसिंग करने
की कोशिश तो नहीं की जब सबको पता है के गौरी लंकेश की हत्या किन लोगो के द्वारा की
गयी हो सकती है और कौन लोग हैं जो खुले आम सोशल मीडिया पर लोगो की लिस्ट बनाकर
दिखा रहे हैं के अब किसकी बारी है . शर्मनाक तो ये है के ख़ुशी मनाने वाले और धमकी
देने वाले अपने प्रोफाइल पर लिखते हैं उन्हें देश के प्रधानमंत्री फॉलो करते हैं .
क्या किसी की मौत पर इतनी ख़ुशी मनाई जा सकती है आखिर गौरी ने ऐसा कौन सा काम किया
के उनकी हत्या हो और उस पर इतनी ख़ुशी मनाई जाए . जब केन्द्रीय मंत्री रवि शंकर
प्रसाद ने इसकी निंदा की तो उन्हें भी ट्रोल किया गया . इसका मतलब ये है के इन
लोगो को गाली देने और धमकी देने के अच्छे पैसे मिल रहे हैं और सत्ताधारियो का
उन्हें पूरा संरक्षण प्राप्त है. अभी तक देश के प्रधानमंत्री ने बुद्धिजीवियों पर
हुए हमले के बारे में एक शब्द नहीं बोला है , क्या ये नहीं दर्शाता के उनके सोच की
दिशा किधर है. उनके चुप रहने में भी बहुत कुछ संकेत छुपे हैं और अगर संकेतो की इन
भाषाओं को समझ लेंगे तो पता चल जाएगा के आखिर ऐसा क्यों हो रहा है .
ये समझना पड़ेगा के क्या
गौरी लंकेश मात्र एक पत्रकार थी जिसका काम रिपोर्टिंग करने का है ? वो एक बड़े
परिवार से आती है जिनके पिता पी लंकेश लोहियावादी थे और उन्होंने लंकेश पत्रिके के
स्थापना की . लंकेश कन्नड़ के प्रसिद्ध लेखक थे . पिता के मौत के बाद गौरी ने लंकेश
पत्रिका की कमान संभाली लेकिन अपने भाई इंद्रजीत के साथ हुए मतभेदों के चलते उन्होंने उनसे दूरी बनाली और फिर गौरी लंकेश पत्रिका
चलानी शुरू की. पिता इतने विचारवादी के उन्होंने कभी विज्ञापनों के चलते पत्रिका
नहीं चलाई और अन्धविश्वाश, जातिवाद, महिला हिंसा और दलित आदिवासियों के अधिकारों
के लिए समर्पित थी . वह तर्कवादी आन्दोलनों से भी जुडी और फिर देश के नामी गिरामी
अखबारों के साथ भी .
आज सभी संपादक उनकी मौत पर
आहात थे . सभी सोच रहे थे के कल किसका नंबर होगा. बरखा दत ने कहा के ट्विटर पर
धमकी देने वालो के खिलाफ लिखना चाहिए और खुल करके बोलने की जरुरत है लेकिन मीडिया
आज जो आंसू बहा रहा है वो झूठा है और उस पर विचार करना चाहिए.
गौरी एक पत्रकार परिवार से
थी . उनके संपर्क भी थे और प्रभावशाली भी थी अतः उनके लेखन को न चाहते हुए भी ये
अखबार कभी कभार छापेंगे. वैसे तो सभी जानते हैं के गत तीन वर्षो में तो जो भी थोडा
बहुत रेडिकल लिखने की कोशिश कर रहा है वो हाशिये पे है . गौरी को थोडा बहुत
मेनस्ट्रीम मीडिया ने जगह भी दे दी हो लेकिन ऐसे बहुत है जो उसका हिस्सा नही बन
पाते क्योंकि उनके लेखन को ‘ समाज’ में ‘द्वेष’ फ़ैलाने वाला या साधारण बनाकर रद्दी
में फैंक दिया जाता है . मीडिया में न केवल बिरादरीवाद और जातिवाद है लेकिन अब मीडिया के अन्दर भी एक बड़ा भोंडे किस्म का
अवसरवाद भी आ चूका है और इसके चलते आज पत्रकार केवल प्रेस रिलीज़ छापने वाला सरकारी
पार्टी का मीडिया होगया है . इमरजेंसी और आज के दौर में येही फर्क है के उस वक़्त
हमारे पास केवल दूरदर्शन या आल इंडिया रेडिओ थे लेकिन आज के प्राइवेट चैनल तो उनसे
दस कदम आगे बढ़ चुके है . ये केवल खबरे दिखाते नहीं है अपितु बनाते भी है. आज गौरी
के पक्ष में वो इसलिए आने पर मजबूर हुए है क्योंकि हमारी भी रीढ़ की हड्डी है,
दिखाने की कोशिश है . मैं ये नहीं कहता के सभी ऐसे हैं क्योंकि बहुत सारे लोग तो
मुख्यधारा की अपनी अच्छी नौकरी छोड़ आये और उनकी विचारशीलता और सांप्रदायिक
शक्तियों से लगातार लड़ने की भावना को तो सलाम करना ही होगा लेकिन उनकी संख्या बहुत
कम है क्योंकि अभी भी मठाधीश खबरों में घालमेल करना चाहते हैं .
जब देश भर में गौरी के क़त्ल
के बाद विरोध के स्वर उठ खड़े हुए तो अब मीडिया के जरिये मनिपुलेट करने की कोशिश हो
रहे है. गौरी के भाई इन्द्रजीत को रिपब्लिक टीवी ने बुलाकर बुलवाया के उन्हें
नाक्साल्वादियो से खतरा था . ये बात और है के गौरी अपने भाई के विचारो से मतभेद
रखती थी और हो भी क्यों न क्योंकि अभी १० जुलाई की न्यू इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक इन्द्रजीत भाजपा में जाने की
तैय्यारी कर रहे हैं क्योंकि उन्हें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सिआसत पर बहुत
विश्वास है . ये उस समय हो रहा है जब कर्नाटक में लिंगायत जाति स्वयं को संघ
परिवार के दामन से दूर करने के लिए कृतसंकल्प है . लिंगायत समुदाय की एक बहुत
विशाल रैल्ली २२ अगुस्त को हुई थी जिसमे समाज के सभी राजनैतिक और धार्मिक नेताओं
ने शिरकत को और उन्होंने समुदाय को अलग धर्म का होने की बात कही . लिंगायतो का
कहना है के वे वैदिक हिन्दू धर्म को नहीं स्वीकार करते क्योंकि ये जाति और भेदभाव
पर आधारित है और हज़ारो देवी देवताओं को मानता है . लिंगायत केवल शिव भक्त है लेकिन
वो भी उनकी अपनी परम्परा है जो केवल इष्टलिंग की भक्ति तक केन्द्रित है और महान समाज सुधारक
वस्वेश्वर ने १२वी सदी में की . आज लिंगायत धर्म के लोग वैदिक जातिवादी
वर्णव्यवस्था के साथ न होकर संविधान सम्मत समानता के शासन की बात कर रहे हैं .
कर्नाटक में लिंगायतो के
धार्मिक मामलो में संघ परिवार ने बहुत हस्तक्षेप किया है और पिछले कुछ वर्षो में
भारतीय जनता पार्टी की राजनीती के लिए उसके नेता येदिरपपा के कारण से उन्होंने
कर्णाटक में शासन भी किया लेकिन अभी यदिराप्पा की हालत भी ख़राब है और समुदाय का
बड़ा हिस्सा संघ से बहुत नाराज़ है . कर्नाटक में हिंदुत्व की राजनीती में लिंगायतो
के अलग होजाने से बहुत कमज़ोर पड़ने की सम्भावना है क्योंकि उनकी संख्या १७% मानी
जाति है हालाँकि खुले आंकड़ो में फेर बदल के बहुत संभावना रहती है . ये मामला मात्र
राजनैतिक होता तो कोई बात नहीं थी लेकिन यह मामला सांस्कृतिक भी है और कन्नड़ के
प्रख्यात लेखक डॉएम् एम् कलबुर्गी की हत्या के पीछे जिन संस्थाओं का हाथ है वो
उनके ब्रह्मंधर्म की आलोचनाओं से परेशान थे . कलबुर्गी भी ये मानते थे के लिंगायत
हिन्दू नहीं है और उसके लिए उन्होंने अपने धर्म का पूरा साहित्य लोगो से सामने
रखा. प्रोफेस्सर के भगवान भी उसी श्रेणी में आते हैं और पुलिस के साए में रहते हैं
क्योंकि उनके ब्रह्मवनवाद के पोल खोलती लेखनी से जिन को खतरा महसूस हो रहा है
उन्होंने उन्हें धमकी दी है . गौरी लंकेश भी उसी श्रेणी में थी. उन्होंने हिंदुत्व
ओर संघ के खिलाफ जम के लिखा और न केवल लिखा अपितु उन्होंने सामाजिक आन्दोलनों और
पब्लिक प्लेटफॉर्म्स पर लगातार अपनी बात रखी इसलिए वह केवल एक पत्रकार नहीं थी
अपितु उससे कही आगे चली गयी थी . हकीकत ये के आज पत्रकारो से कोई डरता नहीं है
क्योंकि अख़बार और टी वी मात्र सुचना का आदान प्रदान और सरकारी घोषणाओं और मंत्रियो
के दौरों तक सिमट के रह गया है और जो लोग मारे गए हैं वो खुलकर अन्धविश्वास,
रूढ़िवादी और संघ परिवार की घृणा की राजनीती के खिलाफ लड़ते आये हैं .
भाजपा में अन्दर खाते
कर्नाटक को लेकर घबराहट भी है क्योंकि गौरी के खिलाफ उबला गुस्सा केवल एक महिला
पत्रकार या लेखक होने का नहीं अपितु उनके लिंगायत होने का भी है . ताकतवर जाति बहुत
फर्क डालती है और इसलिए अब पिटे हुए लोग बहस चला रहे हैं के राहुल गाँधी ने पहले
ही कैसे आरोप लगा दिया के उनके हत्या में संघ समर्थको का हाथ है. उनके भाई के
जरिये कर्नाटक सरकार की से आई दी जाँच के जगह पर सी बी आई जांच की बात कही गयी. हम
नहीं जानते क्या के केन्द्रीय जांच एजेंसिया कैसे काम कर रही हैं . अब मंत्री जी
कह रहे हैं के प्रधानमंत्री किसी को ट्विटर पर फॉलो कर रहे हैं तो उसको चरित्र
प्रमाण पत्र नहीं है लेकिन उस व्यक्ति के लिए तो है क्योंकि उसने अपने प्रोफाइल पर
लिखा के देश का प्रधानमंत्री उनको फॉलो करता है और वैसे भी मोदी जी बहुत कम लोगो
को फॉलो करते हैं ऐसे में इतनी महान हस्ती में कुछ तो खासियत होगी . सवाल ये है के
प्रधानमंत्री जी सख्त जुबान में क्या ये नहीं कह सकते के ये देश सबका है और
लोकतंत्र में मतभिन्नता होती है और उसको बातचीत से ही सुलझाया जाता है लेकिन वो
ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि जो सोशल मीडिया पर भाड़े के सारथि है फिर तो उनका काम बंद
हो जायेगा. वो तो यही सोचते हैं के सभी गंभीर सोचने वाले, बोलने वाले लोगो को हर
तरफ से धमकाओ, गाली दो और अगर नहीं माने तो निपटाओ . ये बहुत गंभीर प्रश्न है .
सोशल मीडिया का इस प्रकार से गलत इस्तेमाल से लोकतंत्र और हमारी सामाजिक व्यस्था
तबाह हो सकती है . यह भयावह स्थिति है और इसकी गंभीरता को समझना पड़ेगा .