Tuesday 20 August 2013

अन्धविश्वास के दुकानदारों का तांडव



विद्या भूषण रावत 

आज सुबह डॉ नरेन्द्र दोभालकर की जघन्य हत्या की घटना से हम सभी हतप्रभ हैं हालाँकि आश्चर्यचकित नहीं क्योंकि दुनिया में समाज के मान्यताओं के विरूद्ध लड़ने वालो को कोई पसंद नहीं करता। आप धर्म पे बोले, धर्म की महानता पर बोलो, सर्वधर्म समभव पर बोलो लेकिन यदि धर्म के मूल को चुनौती डोगे तो आपका वही हस्र होना है जो दाभोलकर का हुआ. 

अन्धविश्वास के विरुद्ध उनकी अलख जारी थी और वोह महारास्त्र के अन्दर एक अन्धविश्वास निर्मूलन  कानून लाने के लिए सरकार को आशवस्त कर चुके थे लेकिन हिंदुत्व के झंडाबरदार उनकी बातो से सहमत नहीं थे और उनको जान से मार देने की धमकियाँ मिल रही थी लेकिन सरकार उनको सुरक्षा नहीं दे पाइ. यह निंदनीय है और उन सभी संघथानो के विरुद्ध कार्यवाही की जानी चाहिए जो दाभोलकर को धमकी दे रही थी. 

अन्धविश्वास हमारे समाज में रच बसा है और आज उसकी दूकान बहुत बड़ी हो गयी है और 'बाज़ार' की चकाचौंध ने उसे और भी ताकतवर बना दिया है. आज ठगी से कमाई हुई सम्पति से अनेको टीवी कार्यक्रम दिखाए जा रहे हैं और जनता को बेवकूफ बनाया जा रहा है. हमारे यहाँ लोग ठगने के लिए तैयार बैठे हैं. यह शर्मनाक है के भगवन और परम्पराओं के नाम पर रोज हादसे होते हैं और उन पर हमारे राजनेता और मीडिया नौटंकी कर मूलभूत मुद्दे से हट कर लोगो का ध्यान बता देते हैं. 

उत्तराखंड की त्रासदी के बाद मीडिया और मुख्यमंत्री के लिए केदारनाथ को बचाने  और धारि देवी मंदिर के 'चमत्कार' का प्रश्न मुख्या मुद्दा बन गया चाहे लोगो जिन्दा रहे या मरे लेकिन हकीकत यह है के अन्ध्विशस से लुटती पिटती यह जनता अभी भी भगवानो और मंदिरों के महात्म्य में रची डूबी है और तर्क और कारण पर  चर्चा करने या सुनने को तैयार नहीं है हाँ यदि कोई ठग बाबा टीवी पर अपने चमत्कार का बखान कर रहा हो या कही से गणेश के दूध पीने की खबर आ गयी तो हमारे बड़े बड़े बुद्धिजीवी अपने दिमाग को किनारे कर उन परम्पराओं में अपनी नैया खेना शुरू कर देते हैं  लगातार कोसते रहते हैं . 

अभी बिहार में जो घटना घटी वोह बहुत दर्दनाक है. हर  मंदिरों में त्योहारों पर जो भीड़ होती है और फिर जो रेलमपेल होती है उसमे बहुत से निर्दोष मारे जाते हैं. वे इसलिए के किसी उम्मीद में गए होते हैं उस भगवान् का महात्म्य सुनकर जो उनको नहीं बता सकता के मौत आने वाली है. ट्रेन की पटरियों पर बैठकर अपना इंतज़ार करते इन लोगो को अपने चैन और अम्न की कोई चिंता नहीं वो तो केवल अगले जन्म को ठीक करने के लिए वहां जा  रहे हैं. 

अभी इसी वर्ष हमने स्कूलों में  अंधविश्वास और मानववाद को लेकर जो अभियान शुरू किया उससे हमारे अध्यापक ही परेशान हो गए हैं . जब प्रधानाचार्य बैजनाथ धाम का दर्शन करने गए हैं तो छात्रो से कैसे उम्मीद की जाए के वो तर्कवादी होंगे . एक प्रोफेसर साहेब ने तो मुझ पर भारत की संस्कृति पर हमला करने का आरोप लगा दिया और कहाँ मुसलमानों के लिए तो कुछ कहते नहीं हो. जब मुस्लिम स्कूल की छात्राओ से बात करते वक़्त मेने पसमांदा मुस्लाम्नाओ का प्रश्न उठाया और उंच नीच को समाजविरोधी बताया तो प्रधान्चार्य ने कहाँ की समाज तो 'अल्लाह की करामात है ' यानि ये जैसे बना है वो तो अल्लाह ने बनाया है और हमें इसे वैसे ही स्वीकार करलेना चाहिए। 

जब भी आप समाज में व्याप्त मापदंडो को चुनौती देंगे या उन पर प्रश्न करेंगे तो आप के सबसे बड़े विरोधी अपनेघर से शुरू हो जायेंगे और इसीलिये अंधश्रद्धा निर्मूलन आन्दोलन हमारे अजेंडे में नहीं आता क्योंकि उसकी सफलता के लिए न केवल कानून चाहिए बल्कि हमारे वैचारिक मूल्यों में भी बदलाव लाना पड़ेगा।

लेकिन सबसे बड़ी चुनौती अब शुरू हुई है जब धर्म के धन्धेबाज़ अब अंधविश्वास को हमारी महान सांस्कृतिक विरासात बता रहे हैं और उसके लिए कोई भी कानून बनाने देने को रोक रहे हैं . अगर सरकार सही से और इमानदारी से काम करे तो जो चैनल ऐसे ठग बाबाओं को प्रसारित कर रहे हैं जो अन्ध्विशस फैलाते हैं उन पर भयंकर जुर्माना लगाना चहिये. केंद्र सरकार को पर्यावरण कानूनों की तरह अन्ध्विशस सम्बन्धी एक आयोग बनाना चाहिए जो हमारे पुस्तको , मीडिया आदि की मॉनिटरिंग करे और अपने कार्यवाही करे क्योंकि बेलगाम होते इन दुकानदारों को अब ठीक करने का वक़्त आ गया है. अगर सरकार सही प्रकार से कार्यवाही करे तो बहुत से 'बहुदेवता' आज लोगो को बेवकूफ बनाने के आरोप में  काट रहे होते लेकिन अब वे धर्म के राजनैतिक ठेकेदार हो गए हैं और भ्रस्थाचार के सबसे बड़े बादशाह हैं . मैंने कई बार लिखा के भारत में सबसे  भ्रष्टाचार हमारे धार्मिक श्थालो में छुपा है और उनके अरबो के पैसे और उसके सम्पति जनता से लुटी गयी है और सरकार को उन सबका राष्ट्रीयकरण करना होगा और वोह पैसा गरीबी हटाओ कार्यकर्मो और शिक्षा और स्वस्थ्य योजनाओं में लगाया जा सकता है. 

लेकिन अपने पे खतरा देख ऐसी ताकतों ने अब साम दाम  भेद की रणनीति अपना ली है और नरेन्द्र दोभालकर की हत्या तर्कवादी मानववादी शक्तियों को दबाने और डराने की साजिश है ताकि वे अपना काम बंद कर देंगी। हम ऐसे सभी लोगो से अनुरोध करते हैं के अपने काम को जारी राखी और भारत को अन्ध्विशस मुक्त देखना है तो धार्मिक कट्टरपंथी प्रभुत्ववादी ताकतों को न केवल पर्दाफास करना पड़ेगा अपितु उनको वैचारिक चुनौती देनी पड़ेगी ताकि एक नए मानववादी भारत का निर्माण हो सके जो हमारे संविधान में अनुच्छेद ५१ ह में  हमारे कर्तव्यों निहित हैं जिनके तहत हर एक भारतीय नागिरक का कर्तव्य होगा के वो देश में वैज्ञानिक चिंतन को बढ़ावा दे और मानववाद को बढ़ाये। एक सच्चे मानववादी समाज का निर्माण मनुवाद की चिता पर ही संभव है. आइये एक बार भी तर्क, करूणा और मानववादी विचारधारा को मज़बूत करें ताकि उन ताकतों को नेस्तनाबूद किया जा सके जिन्हें सच और विज्ञानं से भय है और जिनकी ताकत लोगो की अज्ञानता और अन्धविश्वास में है. 

Monday 19 August 2013

लोकतंत्र का ध्वजारोहण


विद्या भूषण रावत 

बिहार में रोहताश जिले में स्वतंत्रता दिवस के दिन दलितों द्वारा झंडा फहराने के विरोध में ऊंची नाक मूंछ वाले हिन्दुओ ने जो  तांडव किया वो निंदनीय है. उनकी गोलाबारी में एक व्यक्ति मारा गया और एक दर्जन घायल हो गए. ऐसा बताया गया है के गाँव समाज की जमीन पर इलाके के राजपूत हर वर्ष ध्वजारोहण करते थे और इस बार भी करना चहिते थे लेकिन दलितों ने इस बार रविदास मंदिर के आगे ध्वजारोहण करनी की सोची तो प्रतिक्रियावस हिंसा में उन्हें अपनी जान से भी खेलना पड़ा. 

वैसे इस प्रकार की घटना न तो पहली है और ना ही यह आखिरी होगी क्योंकि भारत में दलितों को हर स्थान पर तिरंगा फहराने पर हिंसा का शिकार होना पड़ता है. तमिलनाडु में तो मदुरै के पास कई वर्षो से दलित सरपंच झंडा नहीं फहरा सकते। वैसे १५ अगस्त को मसूरी में जो हुआ वो देखकर तो मज़ा आ गया. भाजपा के विधायक और मसूरी नगरपालिका के अध्यक्ष के बीच झंडा फहराने को लेकर हाथाम्पाई हो गयी और इसका फायदा लेकर एक बच्चे ने ध्वजारोहण कर दिया।

अब दिल्ली की सल्तनत का हाल देखिये। मनमोहन सिंह को झंडा लहराते और फहराते १० साल होगये और नरेन्द्र मोदी बेहद ही परेशान हो रहे हैं इसलिए उन्होंने सोचा चाहे लालकिले में मौका मिले या न मिले मैं तो लालन कालेज में झंडा फहराउन्गा और फिर उन्होंने प्रधानमंत्री को चुनौती दी के हिम्मत है तो उनके साथ बहस करके देखे। इसे  मोदी की खिसियाहट के अलावा कुछ नहीं कह सकते क्योंकि अहमदाबाद से लालकिले की दूरी बहुत ज्यादा है और रस्ते में उत्तर प्रदेश भी पड़ता है इसलिए कम से कम प्रधानमंत्री को ललकार तो सकते हैं अगर हटा नहीं सकते तो ?

हमें भारत और इस उप महाद्वीप के लोगो की मानसिकता को समझना होगा। स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराना भारत के अमर शहीदों या नेताओं को याद करने की फॉर्मेलिटी नहीं है अपितु शहर में, देश में, प्रदेश में, गाँव में अपनी चौधराहट थोपने की लड़ाई भी है और यही कारण है हर एक नेता लालकिले पर झंडा फहराने का सपना देखता है और वोह भारत ही नहीं पाकिस्तान में और बांग्लादेश में भी मौजूद हैं जो इस सपने को बेचते हैं और नतीजा हमारे सामने है. 

गाँव में एक दलित कैसे गाँव का चौधरी हो सकता है यदि गाँव के 'बड़े' चौधरी जिन्दा हैं तो ? जातिवादी दम्भी तो यही सोचते हैं के क्या हमारा संविधान हमारी 'परम्पराओं' से बड़ा हो सकता है ? वे तो साफ़ कहते हैं, 'अरे भाई, संविधान तो बनता बिगड़ता रहता है मनुस्मृति तो एक बार बनी तो सबके दिमाग में घुस गयी और न कोई संशोधन और न ही उसमे संशोधन की कोई मांग सुनाई दे रही है इसलिए 'भगवान' के बनाये कानून से ही तो समाज चलता है और तभी तो वह 'चल' रहा है. सरकारी कानूनों से समाज टूटता है और यह तो ऐसे लोगो को 'सर' पे बैठा देता है जो पैरो के नीचे रहने के आदि थे. हमारी व्यवस्था इसलिए तो टूट रही है. 

अब व्यवस्था तो टूटेगी और चौधरियों को जनता के आगे झुकना पड़ेगा ही क्योंकि लोकतंत्र किसी को दबा के कभी चल नहीं सकता और अब कोई चुप नहीं रह सकता ऐसे अत्याचारों पर. पार्टियों और नेताओं के क्या कहने वोह तो बोलने में कतराते हैं और इसे ही 'लोकतंत्र' की 'ताकत' कहते हैं जब नेताओ को बोलना होता है तो वो  चुप रहते हैं और बिहार के 'क्रन्तिकारी' नेता और 'समाजवाद' और 'सामाजिक न्याय' के सारे महारथी चुप हैं क्योंकि लोकतंत्र तो 'वोट' हैं न इसलिए मोदी के सारे अपराध वोटो की 'गंगा' में  धुल जाते हैं. इसलिए झंडे के लिए इतना संघर्ष है ताकि गरीबो को कुचल सको और अपनी चौधराहट कायम कर सको. 

क्या लोकतंत्र में ऐसे चोधराहटपूर्ण ध्वजारोहण यह जाहिर नहीं करते के यह परम्परा अभी भी सामंती है  क्योंकि केवल 'नामी' 'गिरामी व्यक्ति ही ध्वजारोहण करेंगे और वे हमारे ,भूत, वर्तमान, या भविष्य के 'कुछ न कुछ' हैं. क्या कोई अनाम व्यक्ति झंडा नहीं फहरा सकता। क्या हम सब अपने अपने घरो पर झंडा फहरा कर और एक दुसरे को गले लगाकर स्वाधीनता दिवस या गणतंत्र दिवस नहीं मना सकते। हमारे रास्ट्रीय पर्वो को मनाने के लिए या झंडा फहराने के लिए एक चौधरी की क्यों जरुरत है? क्या हम इस अन्य त्योहारों की तरह अपने अपने घरो पर रौशनी करके और प्यार से नहीं मना सकते। जब तक ध्वजारोहण हमारे समाज में अपने वर्चस्व और राजनैतिक ताकत का प्रतीक बना रहेगा यह  सच्चे मायने में लोकतंत्र का ध्वजारोहण नहीं कहलाया जा सकता और हर साल ऐसे वाकये होते रहेंगे जिसमे निर्दोष लोगो की जान जाती रहेगी क्योंकि झंडा फहराना हमारी सामंतशाही की ताकत का प्रतीक  बन चूका है जिसे चुनौती देने के मतलब मौत को निमंत्रण देना हैं क्योंकि इस देश में कानून अभी भी 'इश्वर' के 'संविधान' का चल रहा है. सछ लोकतंत्र उस दिन आएगा जब आंबेडकर का संविधान हमारे दिलो और समाज के नियमो के ऊपर राज करेगा और तभी झंडे को लेकर बर्चस्व की लड़ाई नहीं होगी और तब कोई भी अपने आप ध्वजारोहण कर पायेगा बिना किसी भय या राग द्वेष के और तभी इस देश में सच्ची आज़ादी होगी।