Thursday 15 August 2013

परंपरा का जहर



विद्या भूषण रावत 

नाग पंचमी  के अवसर पर उत्तर प्रदेश के  हिस्सों में सांपो के लिए दूध पिलाने की परंपरा है. यह वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध हो चुका है के दूध सांपो के लिए कितना खतरनाक है. खैर, सांपो की पूजा के नाम पर सांपो को मारने का विशेष सिद्धांत केवल हमारे यहाँ ही हो सकता है लेकिन सबसे खतरनाक बात तो यह है के इस दिन की गतिविधियों को देखकर कई बातो से हमारे सामाजिक व्यवस्था का विश्लेषण किया जा सकता है. 

सुबह महिलाएं और नवयुवतियां पूजा की थाली लिए नदी, पोखारियों और  तालाबो की और जाती हैं . उनकी पूजा की थाली में छोटी गुडिया ( प्लास्टिक या कपडे की बनी) होती हैं. वे पेड़ या मंदिर में पूजा  अर्चना के बात एक स्थान पर आकर उन गुडियाओं के फ़ेंक देती हैं और फिर वहां पर मौजूद उनके पुरुष अभिभावक या  छोटे बच्चे उन गुडियाओं को डंडे से पीट पीट कर नोच डालते हैं. गुडियाओं को हंस हंसकर मज़े लेकर नोचने की इस प्रक्रिया को महिलायें भी देखती हैं. यदि कोई सवाल उनसे पूछे के यह क्या है या इस बेहूदा 'खेल' में क्या रखा है तो कोई उत्तर नहीं मिलता सिवाए इसके के 'यह तो हमारी परंपरा है'. एक महिला ने एक बार मुझे बताया के यह उनकी गलतियों का प्रायश्चित है और वे  भाइयो से माफ़ी मांगती है. मंदिर के पुजारी से जब मैंने पुछा तो उसने महान परंपरा का हवाला दिया।

शाम को पुरुष लोग अखाड़े में कुश्ती करते हैं और सैंकड़ो लोग उनके 'पुरुषार्थी' शरीर को देखते हैं और उनकी 'ताकत' की सराहना करते हैं. यह महान परंपरा प्रतापगढ़, जौनपुर, फतेहपुर, कानपूर और अन्य कई जिलो में शान से मनाई जाती है. स्थान स्थान पर मेले लंगते हैं और लोग बड़ी संख्या में भाग लेते हैं. 

अगर गौर से इन परम्पराओं का विश्लेषण करेंगे तो सामंतशाही और पित्त्रिसत्ता के इस सिद्धांत के इन भरपूर गुणों का खुले तौर पर सामाजिक अवतरण है. आखिर लड़कियों को कोख में ही मार देने और उनको परदे में कैद रखने की ऐतिहासिक कोई न कोई परंपरा तो रही होगी ? 'बहिने' अपनी गलतियों के लिए माफ़ी मांगेगी और फिर भाई उनको कुछ्लने में आनंद की अनुभूति करेगा ?वाह रे वाह संस्कृति और इसके 'खलनायको' तुमने तो कमाल के त्यौहार बनायें। कही सांपो को दूध पिलाकर मज़बूत करना पुरुषो को ताकतवर बनाकर महिलाओ के ऊपर राज करवाने की सोच से तो नहीं जुडा ? आखिर माफ़ी किस बात की ? कितनी मजेदार बात है के महिलायें तो माफ़ी मांगकर परदे में घुट घुट कर जियें और पुरुष  शान से उनको कुचले और शाम को अपने शरीर की नुमाइश करें और कही पर भी कोई प्रदर्शन नहीं होता के पुरुष अपने शरीर की नुमाइश क्यों करते हैं ?  क्या यह महिला हिंसा को सेलिब्रेट करना नहीं है ? 

मुझे लगता है यह 'ओनर किल्लिंग्स' के शुरूआती दौर रहे होंगे जब घर की लड़की के किसी से बात तक कर लेने से या परदे से बाहर आ जाने से ही परिवार का 'सम्मान' आहत' हो जाता था और उसकी सजा 'मौत थी. शायद परिवार के पुरुष लोग अपनी 'विद्रोही' बहिनों को सार्वजानिक स्थलों पे मारते होंगे और अपने 'गिरे' हुए 'सम्मान' को 'समाज'वापस प्राप्त करते होंगे। और यही कारण है के भारत में आज भी महिलाओं को अपने 'संपेले' भाइयों और पिताओं की हिंसा का शिकार होना पड़ता है. महिलाओं को मारने का ऐसा त्यौहार शायद ही किसी सभ्य समाज का हिस्सा हो?

मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओं को आहात का नहीं नहीं है लेकिन मुझे लगता है की परम्पराओ के नाम पर हर एक विषैले विचार को ढोना न तो समझदारी है और न ही उसके कोई लाभ होने वाले हैं. 

हर वर्ष हम कन्या भ्रूण हत्या के विरोध में नारे सुनते हैं और बड़े बड़े समाज सुधारक और क्रन्तिकारी विचारक बड़ी बड़ी बाते रखते हैं लेकिन  कभी ऐसे महिला विरोधी त्योहारों और परम्पराओ में ना तो कोई बदलाव लाते और ना ही उनके बहिष्कार की बाते करते हैं. सरकारी आज़ादी से नहीं मानसिक गुलामी से मुक्त होने पर ही हम सही मायनों में आज़ाद समाज कहलायेंगे। महिला हिंसा को जायज ठहराने वाले ऐसे विकृत सोच वाले त्योहारों को जितनी जल्दी हो अपने दिमाग और समाज से बाहर  फेंकना होगा तभी हम अपने को दिमागी तौर पर आज़ाद कर पाएंगे