Sunday 15 December 2013

कैसे बने एक निर्भय समाज



विद्या भूषण रावत 

एक वर्ष पूर्व दिल्ली में  चलती बस में हुई दरिंदगी ने महिलाओ के  मसले पर लोगो को सोचने का मौका दिया लेकिन पूरी बहस कहीं न कहीं सरकार की आलोचना तक सीमित रह गयी और असली मुद्दे से हमारा धयान  हट गया. दरअसल आज दिल्ली में जो अराजकता पैदा हुई है वो पिछले तीन वर्षो में  हुए विचारविहीन आंदोलन हैं जिन्हे हम 'बदलाववादी' बताने कि कोशिश कर रहे हैं।  आज आप अपने आपको भाजपा और संघ से अलग दिखने की कोशिश कर रहा है लेकिन हम जानते हैं के संघ इस प्रकार के 'नैतिक' मुद्दो पर आधारित विभिन्न संघठन खड़े करता है और उनका समर्थन भी करता है. आप विचारधारा में कैसे संघ से भिन्न है ये अभी दिखाई नहीं दिया और केवल राजनीतिज्ञों और राजनीती को टारगेट कर आप करना क्या चाहता है ? 

 आप की राजनीती में फासीवादी रास्ट्रवाद झलकता है. ये नौटंकी कहने में अच्छी लगती है लेकिन भीड़ केवल बाबरी मस्जिद गिरा सकती है कोई भला काम नहीं कर सकती और  जब वो उन्माद में हो तो अपने नेता के नियंत्रण से बहार होती है। क्या संसद और विधानसभाओ की महत्वपूर्ण बहस गांवसभा में बदल जाए? 

हम सभी जानते हैं के संसद और विधानसभाओ में अभी सही तरीके से बहस नहीं होती और लगातार अडजर्नमेंट होते रहते हैं लेकिन उसको सुधरने की आवश्यकता है न के उसको खत्म करने की ? हर एक मर्ज की दवा केजरीवाल और किरणबेदी द्वारा सुझाया  लोकपाल करेगा तो साफ़ है के ब्राह्मणवाद के यह खतरनाक पुजारी और खिलाडी उन सभी बातो में बहस नहीं करना चाहते जिस कारण से आज देश में संकट है. भ्रस्ताचार एक बड़ी बिमारी है लेकिन आज के युग में केवल सरकार और राजनीती पर अंकुश लगाकार हम उसको ख़त्म कर देंगे ? अरविन्दजी और उनकी पार्टी ने कितनी आर टी आई भारत के 'संभ्रांत' उद्योगपतियों  पे लगाईं हैं ? चलिए मुकेश अम्बानी के ५००० करोड़ रुप्पिया के आलिशान बिल्डिंग पर कितना आंदोलन आप करेंगे। हाँ ये उनके बाप की कमाई है जो उन्होंने साम दाम दंड  भेद से कमाई। चारे के लिए आप लालू को जैल भेज सकते हैं लेकिन किसी अम्बानी या बिरला पर जब ग़ाज़ गिरेगी तो तंत्र हिल जाएगा। लालू या मुलयाम को सजा जनता दे सकती है लेकिन इन बड़े कुटिल लोगो को कौन सजा देगा जो देश का माल अपना समझ कर खा रहे हैं ? कोयला आवंटन से लेकर ३ जी तक में राजनेता तो जैल जा रहे हैं लेकिन एक भी उधोगपति पर आंच नहीं आयी और जब बिरला पर ग़ाज़ गिरी तो व्यवस्था की चूले हिल गयी.

आप एक तानाशाह व्यवस्था चाहते हैं ताकि लोकतान्त्रिक प्रणाली हिलके रहे और घबराहट में काम करे. इस देश को अब स्थिर सरकारो के जरुरत है न के रोज रोज मर मरके जीने वाले तंत्र की. व्यस्था की अव्यवस्था से पुरे देश को नुक्सान हो रहा है. पिछले तीन वर्षो से तंत्र ने काम करना बंद कर दिया है. विकास का काम ठप पड़ा है क्योंकि अधिकारी फैसले नहीं लेते। आप पत्थर फेकना तो जानता है लेकिन उस व्यवस्था के बाहर के रहकर। इस देश को समझना बहुत जरुरी हैं और इसके लिए केवल उनका नेतृत्व मत करो जिनकी जड़ो से भ्रस्टचार निकलता हो। 

इस देश की मौलिक समस्या है ब्राह्मणवादी कुटिलता और यह हर एक उस व्यक्ति में भी घुश गयी है जो उसके विरूद्ध लड़ने का दावा  भी करता है. प्रशाशन में , राजनीती में, पुलिस में सभी जगह ईमानदारी से काम करने वाले व्यक्ति को हम हिकारत के नज़र से देखते हैं।  दफ्तरों में हम अपने बिरादरियों के अधिकारी के पास जाते हैं. कोर्ट में वकील लोग लम्बे टीका और ढाढी रखकर जाते हैं ताकि उनकी 'पहचान' पता चल सके उनको भारतीय होने में गर्व नहीं अपितु अपनी जातीय और धार्मिक पहचान से ज्यादा मतलब है।हम आज भी उसी विरोधाभास में जी रहे हैं जिसके बारे में बाबा साहेब आंबेडकर ने हमें आगाह किया था. हमने अपने सामाजिक मूल्य नहीं बदले और उन्ही को हम अपनी राजनीती में लाना चाहते हैं।  देश के राजनीती रिपब्लिकन नहीं हो पायी। यह खापो की राजनीती बन गयी इसलिए जब हम वोट लेने जाते हैं तो हर एक बिरादरी 'महान' बन जाती है. जब जाट वोट चाहिए तो खाप की आलोचना क्यों करोगे। क्या आप मुजफ्फरनगर ने जो हुआ उस पर कुछ कहेगे। मैं आपको इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि दुसरो से भिन्न और बेहतरीन होने का वे दम्भ भर रहे हैं। पुरे सिस्टम को ख़राब कहना आसान है लेकिन हम किसको मज़बूत कर रहे हैं यह भी जरुरी है ? क्या आपकी टीम सेकुलरिज्म और संविधान की सर्वोच्चता को मानेगी या रामलीला ग्राउंड में बनिया ब्रह्मणो की रैली को जनता का  फैसला कह देगी। आपका गाँव सभा का विचार खाप पंचायत है और ये केवल भीड़ का न्याय करेगा न की न्याय का न्याय और इसके लिए कानूनो की जरुरत नहीं क्योंकि जो केजरीवाल कहेंगे वो ही सही होगा क्योंकि कानून और संविधान की तो वे धज्जिया उखेड़ देंगे। हमने आपके महान देशभक्त कवि महेशाय को देखा है उनकी कवितायें भी सुनी हैं और कह सकते हैं के ऐसे लोग अगर आप कहेंगे तो देश पर निस्चय ही खतरा है। 

इस प्रकार के आंदोलन जहाँ हर मर्ज की दवा सरकार और राजनीती है खतरनाक खेल हैं।  जिसको हम निर्भय बना रहे हैं और जिसके नाम पर कानून और स्कॉलरशिप्स हो गयी हैं उसका नाम तक नहीं पता. मतलब साफ़ है के हम उन्ही परम्परावादी दकियनुसी विचार को मज़बूत कर रहे हैंजो कहता है के लड़की के अस्मिता खत्म हो गयी यदि उसके साथ शारीरिक हिंसा या सेक्सुअल वायलेंस हुई हो ? क्या हम अपने बच्चो को मज़बूत कर रहे हैं या कमजोर ? महिलाओ पे हिंसा हमारे समाज की सदियों पुराणी परंपरा है वो चली आ रही हैं. हम अपने बच्चो को कैसा बड़ा करते हैं और हमारे शादी ब्याह, मौत, ब्रत  त्यौहार आदि सभी तो महिला विरोधी हैं लेकिन उनको कोई चुनौती नहीं देना चाहता। इसलिए मैंने कहा भारत में वर्णवादी व्यस्था से कोई लड़ना नहीं चाहता क्योंकि उससे सभ्य औरसहनशील दिखने वाले समाज की पोल खुलती है. इसलिए वर्णवयस्था के पोशक सभी बातो के लिए संविधान को दोषी ठहराते हैं. 

एक निर्भय समाज ऐसा नहीं हो सकता जो परम्पराओ के टूटने के डर से काम नही  करता।  भारत की एक मात्र निर्भय फूलन देवी थी जिन्होंने अपने अपमान का बदला लिया और अपने प्रति हुए भारी अपमान की आग में जल कर मरना नहहि सिखा अपितु सर उठाकर जिंदगी जी और अपने हिसाब े उसका प्रतिरोध किया। उस पर चर्चा हो सकती है लेकिन सबसे बड़ी बात ये के फूलन ने असहाय होकर, अपनी जिंदगी को ख़त्म कर और गुमनाम जिंदगी नहीं चुनी और यही उनकी सबसे बड़ी ताकत थी और आज भारत की हर एक बेटी, बहु, बहिन को ये सोचना है के सेक्सुअल वायलेंस से हमारी अस्मिता और पहचान ख़त्म नहीं होती और हम अपना मुंह छिपकर नहीं सर उठाकर, लोगो के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर इस हिंसा का विरोध करेंगे।अगर भारत को निर्भय समाज बनाना है तो हम सभी को आधुनिक संविधान को अपने जीवन में उतरना होगा और महिला हिंसा से जुडी परम्परावादी सोच को बदलना होगा और फूलन की तरह सर उठाकर चलना सीखना होगा।  हमारी बीमारियां हमारे समाज की दें हैं नाके हमारे संविधान की और इसलिए जरुरत है हमारा दृष्टिकोण बदले और सामाजिक तौर पर हमें आत्मा चिंतन की  है ना कि हर बात के लिए एक नए क़ानून की।  

Wednesday 30 October 2013

Lessons from anti sikh violence in Delhi




खून की विचारधारा या विचारधारा का खून 


विद्या भूषण रावत 


दिल्ली में ३१ अक्टूबर १९८४ की सुबह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कर ही गयी थी और देश भर में अफवाहो का बाज़ार गर्म  था क्योंकि उनके निधन की सूचना आकाशवाणी और दूरदर्शन पर शाम ६ बजे दी गयी. तब तक देश के विभिन्न शहरो में 'सिखो' को सबक सिखाने के 'कार्यक्रम' शुरू कर दिए गए. राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बन चुके थे और देश भर में उनके प्रति  अभूतपूर्व सहानुभूति की लहर चल रही थी. अगर इस 'सहानुभूति' का सही भाषा में अनुवाद करें तो उसके मतलब थे के राजीव गांधी का 'हिन्दू' संस्कार बन रहा था और संघ से लेकर रामनाथ गोयनका तक सभी उनके दीवाने हो गए. सभी ने नए नेता की खूब तारीफ की और अपने प्रथम भाषण में राजीव ने गंगा की सफाई के अभियान की बात भी कही और देश को एक नए युग में ले जाने  की बात भी कही. 

देश भर में दंगे होते रहे या साधारण भाषा में कहें तो 'सिखो' का कत्लेआम जारी था और प्रशाशन कही मौजूद नहीं था. गुंडे और बदमाश 'सबक' सिखा रहे थे लेकिन यह केवल उनका खेल नहीं था. भारतीय समाज का पूरा सम्प्रदायिककरण हो गया था. हिन्दू अस्मिता देश के शाशन और प्रशाशन पर हावी थी और हिन्दू समाज खतरे में थे और उसके लिए राजीव के  हाथ मजबूत करना जरुरी था. इसलिए शायद संघ ने कांग्रेस को समर्थन दिया क्योंकि राजीव और कांग्रेस उस वक़त हिन्दू अस्मिता के प्रतीक बन गए इसलिए उन दंगो के परिपेक्ष्य को देखें तो मतलब साफ़ है के वोह हिन्दू और सिख दंगे बनाये गए जिसको कांग्रेस नेताओ ने राजनीती के लिए आगे बढ़ाया और संघ के लोगो ने छिपे तौर समर्थन किया। दंगे भले ही कांग्रेस के तत्वो ने कराएं हों लेकिन नानाजी देशमुख जैसे 'विचारवान' लोगो ने इन दंगो को सही ठहराया। 

भारत में हिंदुत्व या उग्र सवर्णीय मानसिकता को समझने की जरुरत है क्योंकि यह ही हमारे रास्ट्रवाद की संरक्षक बन जाती है और जब यह मानसिकता हावी होती है तो इसके सामने सारे तर्क बेकार हैं. यह के फासीवादीराष्ट्रवादी विचार के ऊपर चलती है और  राष्ट्र के हित में अलावा कोई नहीं सोचता। इसलिए देश में जब थी दिन तक हिंसा का नंगा नाच होता रहा तो उसको सही ठहराने के लिए बहुत सी बातें आयी. वोह  बिलकुल वैसे ही हैं जैसे हम मुसलमानो के लिए कहानियां बनाते हैं. कहा गया के इंदिरा गांधी के मरने पर सिखो ने लड्डू बनते और खुशियां मनाई। फिर कहा गया के दो सिखों ने इंदिरा गांधी की हत्या कि है, इन्होनें भारत माँ को मारा है इसलिए सारे सिख मारे जाने चाहिए। 

वो दौर देश का सबसे खतरनाक दौर था जब  हर एक सिख शक के दृस्टि से देखा जा रहा था और उसकी पहचान और अस्मिता खतरे में थी. यह भारतीय राजनीती और प्रशासन के हिन्दुकृत होने की कहानी भी थी. यह वो दौर था जब सिख विरोध को प्रशासन और राजनीती की सह थी और हकीकत यह है के जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर को छोड़ दे तो स्वर्ण मंदिर पर सेना के हमले को पुरे भारत के 'मुख्यधारा' यानि सवर्ण मीडिया और सवर्ण पार्टियों का समर्थन था और इसमें हिंदुत्व और उनके सारे तत्त्व सबसे आगे थे. स्वर्ण मंदिर पर सेना भेजने के लिए तो पंजाब केसरी जैसा हिन्दू अख़बार सबसे आगे बहस कर रहा था. चंद्रशेखर ने इंदिरागांधी के कदम कि आलोचना की और इसे देश के एकता के लिए खतरनाक कहा. 

सिख विरोधी हिंसा और मानसकिता इंदिरा गांधी की हत्या के एक वर्ष बाद भी ख़त्म नहीं हुई. सभी आरोपितो को लोकसभा और विधानसभाओ के टिकट दिए गए और वे नेता १९८४ कि सिख विरोधी आंधी में भारी मतों से चुनाव जीत के आये और एक बार हमारे नेता चुनाव जीतते हैं तो वे क़ानूनी अड़चनो को आराम से दूर कर लेते हैं क्योंकि 'जनता' की अदालत ने उनको चुनाव जिता दिया तो इसका मतलब ये के उनके सौ खून माफ़.इसमे कोई शक नहीं के उस समय जनता में गुस्सा था और उस गुस्से को सांप्रदायिक या रास्ट्रवादी सवरूप देने में राजनैतिक लोग पूर्णतया आगे थे लेकिन सत्ताधारयों से जो सयम और निस्पक्ष रहने की उम्मीद  की जाती है वो कही नज़र नहीं आयी. राजीव गांधी ने इंदिरा गांधी की प्रथम पुण्य तिथि पर कहा के ' जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है' और इस प्रकार के वक्तव्य आग में घी डालने का काम करते हैं और प्रधानमंत्री पद पर रहने वाले व्यक्ति को शोभा नहीं देते।

सिख विरोधी दंगे हो या बाबरी ध्वंश के बाद के दंगे या गोधरा कांड के बाद की परिस्थितियां सब में माइनॉरिटीस को स्टीरियोटाइप बनाकर काम किया गया हैं. अगर इंदिरा गांधी की हत्या के बाद के दंगो में 'मिठाई बांटना' और 'ख़ुशी मानना' एक हथियार बनाया गया तो गुजरात २००२ में 'गोधरा' का कत्लेआम 'जिम्मेवार' बताया गया. बाबरी मस्जिद इसलिए गिरायी गयी क्योंकि वह पर एक 'मंदिर' था. इस प्रकार हज़ारो दंगो में कोई न कोई बहाना बनाकर देश के अकलियतों को डराया धमकाया गया है और प्रशासन ने हिन्दू होने कि भूमिका निभायी है . इंदिरा गांधी कि हत्या के बाद सिख विरोधी दंगे हुए क्योंकि उनको मरने वालो का धर्म सिख था इसलिए 'सबक' सिखाया गया. सवाल यह है राजीव की हत्या की बाद 'हिंसा' क्यों नहीं हुई ? गांधी की हत्या एक चित्पावन ब्राह्मण ने कि तो फिर उन्हें 'सबक' क्यों नहीं सिखाया गया ?तब ब्रह्मणो के ऊपर क्यों कहानिया नहीं बनी ? 

समझना पड़ेगा हमारी मानसिकता को जहाँ अल्पसंख्याको के हर बात पर एक स्टीरियोटाइप बनती है, और नए प्रकार की अफवाहे फैलाई जाती हैं और एक गलत व्यक्ति के गलत कार्य को कौम का गलत कार्य बता कर माहौल बनाया जाता है. जब हम इंडियन मुजाहिदीन, पाकिस्तान या दावूद का नाम बार बार लेते हैं तो हम कहीं न कहीं मुसलमानो को कठघरे में खड़ा करते हैं के इनके पापो को हिसाब उनको देना है. संघ या हिंदुत्व के पापो का हिसाब कोई नहीं मांगता।ताकतवर की हिंसा 'रास्ट्रीय' महत्व की होती है वोह देश की एकता और 'अखंडता' के लिए जरुरी होती है. उसको सही ठहराने के लिए हमारे पास पचासो आर्गुमेंट हैं। सिख विरोधी हिंसा इसलिए क्योंकि इंदिराजी को मारा, गुजरात इसलिए क्योंकि गोधरा हुआ, बाबरी इसलिए क्योंकि राम जन्मभूमि को  तोडा,राम मंदिर आंदोलन इसलिए क्योंकि शाहबानो के मामले में सरकार झुकी, बम्बई में दंगे इसलिए क्योंकि मुस्लमान सड़क पर आये, मुजफ्फर नगर इसलिए क्योंकि मुस्लमान लड़के हिन्दू लड़कियों को 'पटा' रहे हैं और यह कहानियां बढ़ती ही जायेंगे। आज भारत के समक्ष मानसिकता का संकट है. आज संकट है इस संविधान को बचाने का क्योंकि मनु के वरद पुत्र नकली पुत्रो से परेशान हो गए हैं और अब वे स्वयं ही इसको बदलने की सोचते हैं. देश के गैर हिन्दू लोगो में दवाब बने के और उनको बदनाम करने की राजीनति से हमको निकला पड़ेगा। उन सभी को सबक सीखने की निति से देश को कुछ नहीं मिलेगा जो चाहते हैं के सभी लोग जो एक खास किस्म के विचारो और तौर तरीको को नहीं मानते हैं. 

एक सभ्य भारत पूर्णतया सेक्युलर और कानून के शासन से चलेगा। इस वक़्त जरुरत है साम्प्रदायिकता और सांप्रदायिक हिंसा के विरुद्ध एक सख्त क़ानून की. संसद को इसे तुरंत पास करना चाहिए और किसी भी आड़ में हिंसा को जायज ठहरने वालो से सख्ती से निपटा जाए. सरकार ऐसे विशेष न्यायालयो की स्थापना करे ताकि ऐसे सभी आतंकवादियों को उनकी असली जगह पंहुचा दी जाए. यदि न्याय नहीं मिलेगा तो लोगो के गलत रास्तो पर जाने की सम्भावना रहती है. भारत में  यह हकीकत  है के अल्पसंख्यको पर हिंसा को ताकतवर समाज 'रास्ट्रीय' स्वरुप दे देता है फलसवरूप राजीव, मोदी, कल्याण सिंह, शिव सेना इत्यादि पार्टियां सत्ता पर काबिज होते हैं और अन्याय की स्थिति में भटके नौजवानो को हम आतंकवादी कहते हैं. अल्पसंख्य्को के पास अपने बात को कहने के लिए क्या आप्शन है क्योंकि सत्ताएं उनकी बात तभी सुनती है जब वोट बैंक के तौर पर उसका फायदा हो और यदि नहीं तो कोई मतलब नहीं। मोदी ने मुस्लमान विरोध को इसलिए मज़बूत किया के वो हिन्दू वोट से मतलब रख रहे थे और अब रास्ट्रीय स्तर पर वह जानते हैं के बिना मुसलमानो के लाल किले का उनका सपना धरा का धरा रह जाएगा इसलिए इतनी बड़ी कवायद हो रही है सेक्युलर दिखने की. 

भारत की सियासत और सियासतदानो को देश के गैर हिन्दुओ को शक की दृस्टि से देखने और हिन्दू रास्ट्रवाद में उनको ढालने के किसी भी प्रयास से बचना होगा। हिंदी हिन्दू हिंदुस्तान के खतरनाक जुमलो से बचना होगा और हमारे संविधान की सर्वोच्चता को हमारे नित्य जीवन में लागु करना होगा। संविधान को तोड़ने वाली ताकते देश में हावी होने का प्रयास कर रही हैं और हमारी कोशिश होनी चाहिए के उसकी सर्वोच्चता को हमारे देश में लागु करवाएं। अगर हमारे नेता और अधिकारी ३१ अक्टूबर को अपने कर्तव्यों का सही प्रकार से निर्वहन करते तो देश में इतना बड़ा कत्लेआम नहीं होता, न बाबरी मस्जिद गिरती और न गुजरात की हिंसा होती। देश को बचने के लिए सांप्रदायिक सौहार्द की जरुरत है लेकिन वोह दुसरो को डरा के नहीं अपितु हमारे राजनैतिक, सामजिक और प्रशासनिक जीवन में भागीदारी के बिना सम्भव नहीं है. किसी समुदाय को बदनाम करके, उसको अलग थलग करके और उसकी संस्कृति और अस्मिता को मिटा कर देश कभी आगे नहीं बढ़ सकता और इसके लिए आवश्यक है हम सब में विविधता का सम्मान करने कि और कानून के प्रति इज्जत बढ़ने कि और संविधान को हर स्तर पर लागु करवाने के ताकि फिर कभी ऐसी घटनाओ कि पुनरावर्ती न हो और सभी लोग देश में बिना किसी भय के रह सकें? घृणा आधारित राजनीती पर प्रतिबन्ध लगाया जान चाहिए और कम से कम जो अपने को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं वो तो प्रगतिशील बने और गर्व से अपनी बातो को रखें। गुजरात २००२, या मुजफ्फर नगर २०१३ या बम्बई १९९३ नहीं होता यदि सेक्युलर राजनैतिक दल अपना काम सही से करते लेकिन अफ़सोस उनके दोगलेपन से सांप्रदायिक लोगो को मज़बूती मिली और देश पर एक बार फिर उसी खतरे का सामना कर रहा है. उम्मीद है हम सब पिछली घटनाओ से सबक लेकर आगे बढ़ेंगे। 

Sunday 27 October 2013

फासीवादी ताकतों को बेनकाब करें




विद्या भूषण रावत 

झूठ को अति आत्मविश्वास के साथ बोलना और न केवल बोलना अपितु  लगातार बोलना फासीवादी राजनीती का हिस्सा है. इतिहास में 'स्वर्णिम काल' ढूढना और अपनी संस्कृतिक सर्वोच्चता को बोध कराना और दूसरो को नीच और कुत्सित दिखाना उसका एक हिस्सा है. अपने को ' नायक' के तौर पर प्रदर्शित करना और दसूरे नायको को असम्मानित करके देखना, उनकी योग्यता का मज़ाक उडाना और उनकी भाषा शैली और तौर तरीको को सरे बाज़ार मज़ाक करके बोलना फासीवादी जातिवादी अहंकारी राजनीती का  हिस्सा है जो न केवल नरेन्द्र मोदी अपितु उनके भक्तो में भी दिखाई दे रही है जो अधिकाँशतह विदेशो में और सोशल मीडिया की दुनिया का हिस्सा हैं और जो मोदी के जरिये साम्प्रदायिकता, हिंदुत्व की श्रेष्ठता, मुसलमानों, दलितों, पिछडो को उनके 'स्थान' पर खदेड़ने का सपना देख रहे हैं, जिन्हें लगता है के मोदी के जादुई चराग से  भारत दुनिया की महाशक्ति बन जाएगा और जो ये समझते हैं के मोदी एक ही दिन में मुसलमानों को देख लेंगे और पाकिस्तान को दुनिया के नक़्शे से ही गायब कर देंगे।

नरेन्द्र मोदी और हिंदुत्व भारत की जातिवादी वर्णव्यस्था को मजबूत करने वाली ताकतों का नाम है और त्रासदी देखिये के जिस मंडल के विरोध में हिन्दुत्व की राजनीती चली और जिस जातिवाद को लोकतंत्र का दुश्मन बताया गया उसी जाति और उनकी महानता के दुहाई देकर यादवो के वोट लेने के प्रयास किये जा  रहे हैं. हर स्थान पर दलित, पिछडो को उनके भगवानो के लिंक देकर हिंदुत्व के साथ जोड़ने के प्रयास हो रहे हैं. सवाल यह है के क्या भारतीय फासीवाद संस्कृति और शुद्रो के कंधो के सहारे लाने की तैय्यारी चल रही है ? सवाल यह है के क्या आरक्षण विरोधियों को शुद्र दलित माफ़ कर देंगे ? क्या जिन्होंने मंडल की जगह  कमंडल लाया उनका समूचा सफाया नहीं करना चाहिए ? दलित पिछडो के साथ धोखेबाजो को क्या माफ़ कर् दोगे ? हिंदुत्व की पूरी राजनीती ब्राह्मणवादी सल्तनत को मज़बूत करने की राजनीती है ? ये बाबाओं की राजनीती, पुरोहितो की राजनीती, पूंजीपतियों की राजनीती है ? क्या इन ठगों को माफ़ कर् दोगे ? २०१४ बहुत महत्वपूर्ण है. उत्तर प्रदेश और बिहार की जनता पर बड़ी जिम्मेवारी है ? 

वंशवादी राजनीती का विरोध करने वाले ये बताएं के राम किस आधार पर अयोध्या के राज बने ? वोह ये बताएं के राजस्थान के महारानी के अन्दर कौन सी योग्यता है ? वोह यह बताएं के हिंदुत्व और हिन्दू धर्म की कोई ऐसी परम्परा जहाँ वंश न रहा हो ? क्या भारत का कोई व्यापारिक घराना बिना वंश के चल रहा है ? क्या भारत का कोई फिल्म स्टार बिना वंश के है ? वंशवाद राजनीती में नहीं चल सकता क्योंकि कौन अच्छा है और कौन बुरा यह मोदी के झूठ और हिटलरी अहंकार नहीं अपितु  भारत की जनता बताएगी। हम जानते हैं के कांग्रेस ने इतने वर्षो में   हिंदुत्व के विरूद्ध कार्यवाही नहीं की है और बहुत ही ढुलमुल रवैया अपनाया है. उन्होंने प्रशाशनिक मसलो में राजनीती डालकर हिंदुत्व के आताताइयों को बचाया है. ऐसे में हिंदुत्व के सभी धुरंधर इस वक्त बडबोले हो गए हैं और उनका अहंकार सातवे आसमान पर है . 

सबसे बड़ी चुनौती सामाजिक न्याय की शक्तियों के सामने है ? वे कहाँ हैं और क्या कर रही हैं कुछ पता नहीं ? आज आरक्षण पर हमला है, जमीनों और जंगल पर हमला है और पूंजी और बाबाओ के गठबंधन ने ये हमला बोला  है और हिंदुत्व के प्रहरी उसके सबसे बड़े एजेंट हैं. झूठ को बार बार दोहर्कार सच बनाने का षड़यंत्र और मीडिया के जरिये सूचनाओं पर नियंत्रण और उसका प्रवाह आज की सबसे बड़ी चुनौती हैं . इस चुनौती को स्वीकार करें और मात्र पिछड़ा या अपनी जाति  का होने भर से गारंटी न ले क्योंकि उसकी विचारधारा और सामाजिक न्याय के प्रति उसकी निष्ठा और इतिहास को जरुर जाँच ले. मीडिया के जरिये हमें भुत को भूलने और केवल 'आर्थिक' नजरिये से चीजो को देखने की हिदायत मिल रही है क्योंकि पूंजीवादियों के कलम घसीट अब जनता को गुमराह करने में नेताओं से भी आगे निकल चुके हैं इसलिए ऐसे लोगो और अफवाहों से सावधान। हिंदुत्व का अजेंडा अफवाहों को फैलाकर दलित पिछडो, आदिवास्सियों और मुसलमानों में संदेह का वातावरण पैदा करना है. उन्हें इस कला में महारत हासिल है अब हमें देखना है के इन पुरातनपंथी दकियानूसी ताकतों का कैसे मुकाबला करें और वो लोकतंत्र में केवल वोट है. इसलिए २०१४ में हमें अपनी बातो को तक अधिक से अधिक लोगो तक पहुंचाए के धार्मिक कठमुल्ला किसी भी तरीके से संसद में बहुमत में न रहे. उन्हें छोड़ जिसकी सरकार बने मुझे कोई दुःख नहि. घिसी पिटी  बने, मायावती, मुलायम, नितीश या किसी और की बने कोई बात नहीं। एक दो साल चले, कोई समस्या नहीं लेकिन ब्राह्मणवादी शातिर हिंदुत्व को हराना हमारा राष्ट्र धर्मं है. 

Saturday 26 October 2013

Lokaayat: राजनीती का हिंदुत्विकरण या हिंदुत्व की राजनीती

Lokaayat: राजनीती का हिंदुत्विकरण या हिंदुत्व की राजनीती: विद्या भूषण रावत  गुजरात में २००२ में मुसलमानों की मौत के सौदागर अक्सर  १९८४ के चुनावो का जिक्र करते हैं के राजीव गाँधी सिखों की लाश...

Friday 25 October 2013

राजनीती का हिंदुत्विकरण या हिंदुत्व की राजनीती



विद्या भूषण रावत 

गुजरात में २००२ में मुसलमानों की मौत के सौदागर अक्सर  १९८४ के चुनावो का जिक्र करते हैं के राजीव गाँधी सिखों की लाशो पर देश के प्रधानमंत्री बने. मैं अपने कई विश्लेषणों में कह चूका हूँ के राजीव जिस मैंडेट से प्रधानमंत्री बने थे वह हिंदुत्व का मैंडेट था  पूर्णतया सांप्रदायिक था, वह चुनाव परिणाम असल में  सिखों को सबक सिखाने के लिए ही था और राजीव हिन्दुओ के नायक बनकर उभर रहे थे, इंदिरागांधी एक हिन्दू बन चुकी थी जिनकी हत्या 'सिख आतंकवादियों' ने की थी. देश भर में सिखों के विरूद्ध जो हिंसा थी उसमे कांग्रेस के बड़े नेता जरुर शामिल थे लेकिन उनके लोगो ने इसको हवा नहीं दी यह कहने का कोई कारण  नही है क्योंकि जो दंगे हुए थे वे कांग्रेस और सिखों के बीच नहीं हुए थे अपितु 'हिन्दुओ' ने इस हिंसा को अंजाम दिया और कांग्रेस हिन्दू राष्ट्रवाद की मुख्या पुरोधा बनकर उभरी जिसने भाजपा को मात्र २ सीटो पर ही सिमटा के रख दिया। 

लेकिन राजीव की इस विशाल जीत में सेकुलरिज्म और संविधान की हार हुई. सम्प्रदायिक्ता के मुख्या श्रोतो का इस्तेमाल कर कांग्रेस ने जीत तो हासिल की लेकिन लम्बी लड़ाई लड़ने वाले संघ परिवार के लिए तो ये कर्णप्रिय संगीत था और कांग्रेस गलतियों  पे गलतियाँ कर रही थी. यह सभी सांप्रदायिक लोगो को खुश करने की निति ने शाहबानो मामले पर भाजपा को मौका दिया लेकिन इससे पहले कांग्रेस पर मुस्लिम तुस्थिकरण का आरोप लगता माननीय अरुण नेहरु जी ने अयोध्या मामले में नयी पहल शुरू कर दी और जहाँ ५० वर्षो से ताला लगा था वहां अब 'राम मंदिर ' बन गया और फिर देश ने जो देखा उसको भुलाना  मुश्किल है. राजीव ने राम राज लाने  का वादा किया और जाने अनजाने में हिंदुत्व की जो मजबूती दी उसको केवल और केवल मंडल की ताकतों ने रोका।

हिंदुत्व की ताकतों ने ब्राह्मणवादी अन्तर्विरोधो की राजनीती को अछे से समझा और इसलिए राम मंदिर के आन्दोलन को और मज़बूत किया क्योंकि फिर 'मुस्लिम' विरोध के नाम पर बाकि गैर मुसलमानों का एकीकरण हो जाए. जो जातियां सामाजिक न्याय की बाते करती और अपने लिये अधिकार मांगती वो मुस्लिम विरोध पर एक हो जाती. हालाँकि उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा की सरकारे बनी लेकिन हकीकत में वैचारिक तौर पैर वे ब्राह्मणवाद से समझौता करके ही काम चलाते रहे और हिंदुत्व की लम्बी दुरी के निशाने पर रहे. अब उत्तर प्रदेश में माया और मुलायम कभी एक नहीं हो सकते और ये क्यों हुआ इसके लिए हमे बहुत कुछ अलग से कहने की जरुरत नहीं। किसकी गलती है और कौन कैसा है यह तो भविष्य के आँगन में है लेकिन सच्चाई यह के इसने हिंदुत्व को और मज़बूत कर दिया।   

मह्त्वाकंषाएं ख़राब नहीं होती लेकिन एक शर्मनाक हालत में मंडल शक्तियों के बीच संप्रदायीकरण,और जातियों की किलेबंदी  के चलते २००९ तक इन ताकतों की हार हो चुकी थी और हिंदुत्व का विषाक्त फन देश को डसने के लिए तैयार खड़ा था. आज सभी मंडल की ताकते अलग थलग और छितराइ खड़ी हैं और किसी से भी समझौता करने को तैयार बैठी हैं. दलितों का इन शक्तियों पर ज्यादा भरोषा नहीं  है क्योंकि किसानो के नाम पर जो लठैती दलितों के हितो पर हुयी है वोह भी सर्वव्याप्त है. लेकिन यह भी हकीकत है के गाँव में भुमिसुधार और उसके पुन्रवितरण के बगैर सामाजिक परिवर्तन संभव नहीं है और इसके लिए हमारे  मंडलीय नेता तैयार नहीं है क़्योकी उनकी  गाँव की राजीनति जाति के झूठे अहंकारो पर कड़ी है जिसका मुख्या धेयाय दलित विरोध है क्योंकि जातियों के बड़प्पन का सिद्धांत दलितों को बराबर बैठने का हक़ नहीं देता और इसीलिये गाँव में हिंदुत्व की राजनीती की धुरी में पिछड़े नेता हैं.

मंदिर की पिछड़ी राजनीती ने कल्याण सिंह को उत्तर प्रदेश का मुख्या मंत्री बनाया और उनके हौसले इतने बुलंद हो गये के उन्होंने अपनी संवैधानिक निष्ठां को भुलाकर बाबरी मस्जिद को गिरने दिया। हालाँकि उत्तर प्रदेश में उसके बाद भाजपा का सफाया हो गया लेकिन लम्बी दुरी चलने वाले संघ का पूरा पत्ता नहीं कटा था और पिक्चर अभी बाकी है. अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ध्वंश और उसके बाद मुसलमानों पर हुई हिंसा का परिणाम  महारास्त्र में हुआ जहाँ शिव सेना को चुनाव में सरकार बनाने का मौका मिला। राजीव के पद्चिन्हो पर चलकर ही मोदी भी मुसलमानों को मरवाकर गुजरात में एकछत्र राज करते रहे. यानी अल्पसंख्यको के खिलाफ आग उगल कर और उनकी देशभक्ति को हमेशा संदेह के घेरे में रखकर हम देश में शासन कर सकते हैं. कांग्रेस ने तो सिख विरोधी दंगो के लिए माफ़ी भी मांगी लेकिन मोदी तो हर चुनाव में एक मिया मुशारफ ढूंढते रहे ताकि मुसलमान पूर्णतया अलग थलग रहे और गुजरात उसका उदहारण है जहाँ उन्होंने मुसलमानों को  साफ तौर पर इतना अलग कर दिया है के वे खुल के कुछ कह सकने की स्थिथि में नहीं हैं .   

देश के सबसे बड़ी पार्टी का हिन्दुत्वीकरण इंदिरागांधी के समय से शुरू हुआ. नेहरु की कांग्रेस ने तो सांप्रदायिक ताकतों से और पुरोहितवाद से दुरी रखी लेकिन इंदिरा गाँधी ने समय समय पर बाबाओं और धर्मगुरूओ का कंग्रेस्सिकरण कर उनको मजबूती प्रदान की और हिन्दू साम्प्रदायिकता को हवा देने के लिए  आपरेशन ब्लू स्टार किया गया क्योंकि जब कांग्रेस पे यह आरोप लगे के वो सिख साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दे रही है तो हिन्दुओ की 'भावनाओं' का आदर करने के लिए लिए स्वर्ण मंदिर में सेना भेजनी पड़ी. 

सोनिया की कांग्रेस कई मामलो में भिन्न है. यह साझा सरकारों का समय है और भारत अब बदल भी चूका है इसलिए पहले की तरह हाथ हिलाकर यहाँ वोट भी नहीं मिलते। फिर भी सोनिया गाँधी को बहुत सी बातो के लिए श्रेय देना जरुरी है . कांग्रेस में लोकतान्त्रिक  प्रक्रिया  बढ़ी है, मुख्यमंत्री दिल्ली से आसानी से नहीं बदले जाते और पार्टी ने कुछ बेहतरीन  कानून भी पारित करवाए हैं चाहे मनरेगा हो या खाद्य सुरक्षा कानून, भूमि कानून हो या सुचना का अधिकार यह सभी ऐतिहासिक हैं हालाँकि इनमे कमियां अपनी जगह व्याप्त हैं . सोनिया के कांग्रेस असल में सरकार के आगे असहाय हो गयी और राज्य सभा के जरिये  की जुगाद्बाजी का शिकार हो गयी. पार्टी के ऊपर सरकार के हावी होने से जिस बेतरबी से सरकार ने सेज और अन्य कार्यो के लिए भूमि अधिग्रहण किया वो देश में भारी असंतोष का कारण बना. सरकार की आर्थिक नीतियाँ वो लोगो बना रहे थे जो पूर्णतया पूंजीवादी व्यस्त में यकीं करते थे और उनका हिंदुत्व से कोई बहुत बड़ा वैचारिक भेद नहीं था इसीलिए प्लानिंग कमीशन ने बार बार नरेन्द्र मोदी के गुजरात को अच्छा राज्य बताया और राजीव गाँधी फाउंडेशन के कई लोग आज मोदी की 'फाउंडेशन' बनाने में लगे हैं. 

कांग्रेस आज की जरुरत है क्योंकि देश में दलित आदिवासियों मजदूरों की अभी कोई एक जुट आवाज नहीं दिखती जो हिंदुत्व को हरा सके. देश का यह कर्तव्य है के हिंदुत्व की इन जातिवादी ताकतों को नेस्तनाबूद करें लेकिन उसके लिए कांग्रेस के सेक्युलर होनी की गारंटी चाहिए और उसमे सभी वर्गों, दलितों, पिछडो, मुस्लिम और अन्य तबको की भागीदारी देनी होगी। कांग्रेस को सॉफ्ट हिंदुत्व से साफ़ अपनी दुरी बनानी होगी और चिदंबरम, मोंटेक, मनमोहन की आर्थिक सोच को पूर्णतया तिलांजलि देनी होगी। 

इसलिए राहुल जो बात कहे हैं वो महत्वपूर्ण है . जब न्याय नहीं मिलता तो व्यक्ति कुछ भी कर सकता है . साम्प्रदायिकता का सबसे बड़ा पहलों यह है के वो लोगो में जहर घोलता है और जब इस देश के अन्दर मुसलमानों को न्याय नहीं मिलेगा तो कई लोग हिंसा का सहारा ले सकते हैं. आज देश के अधिकांश जेलो में मुस्लिम युवा हैं. आतंकवाद के नाम पर उनको घसीटा जा रहा है. परिवार बर्बाद हो चुके हैं और हम हिंदुस्तान पाकिस्तान की बात करते हैं. कांग्रेस के नेता यह समझ ले के इंडिया केवल भारत है न के हिंदुस्तान। भारत को गोलवलकर और सावरकर के हिंदुस्तान की तरफ न धकेले कांग्रेस। और उसके लिए जरुरी है के सरकार अपना  राजधर्म निभाए और पार्टी पूर्णतया संवैधानिक तंत्रों को मज़बूत करे . हिन्दू साम्प्रदायिकता के आगे घुटने टेक कर कांग्रेस ने पहले ही देश के धर्मनिरपेक्ष समाज को निराश किया है. आज भारत को बचाने की लड़ाई है. राहुल की बात के जो  मतलब  निकले लेकिन एक बात की पुष्टि इतिहास ने की के भारत की राजनीती इस वक़्त पूर्णतया हिंदूवादी है और सभी पार्टियाँ उसमे ही अपने उत्तर ढूंढ रही है और यही कारण है के मुंबई के दंगो से पीड़ित मुसलमानों को न्याय तो नहीं मिलता लेकिन शिव सेना सत्ता में आती है, दाऊद और उसके साथी तो भाग गए और इसलिए पुलिस हजारो निर्दोष मुस्लिम युवाओं को जेल में ठूंसती है लेकिन हिंदुत्व के दंगाई कभी नहीं पकडे जाते, जब  निर्दोष मुसलमान जेल में जाते हैं तो समाज पर उसका  असर होता है और असहायता की स्थिथि होती है यह बहुत गंभीर है .  चुनाव व्यवस्था ये के हज़ारो मुसलमानों या सिखों , दलितों का कत्लेआम से आप देश के शाशक बन जाते हैं या लाइन पे लगे हैं लेकिन उनलोगों को कभी न्याय नहीं मिलता जो हिन्दू साम्प्रदायिकता के शिकार रहे हैं . क्या कांग्रेस पार्टी एक साफ़ लाइन लेने को तैयार है ? क्या हरयाणा के दलितों को न्याय मिलेगा ? क्या महारास्ट्र के  १९९३ के दंगा पीडितो को इन्साफ मिलेगा . दाऊद या आई एस आई  को खत्म करने के लिए मुसलमानों को न्याय और सत्ता समाज में भागीदारी और इज्जत चाहिए न की जुमलेबाजी और लफ्फाजी। राहुल ने स्वीकार किया के न्याय नहीं मिलेगा तो मुस्लिम युवा भटक सकते हैं लेकिन प्रश्न यह है के क्या केंद्र की उनकी पार्टी की सरकार और विभिन्न राज्यों में उनके मुख्यमंत्री ऐसा करेंगे के मुसलमानों का उन पर भरोषा आये ? हिंदुत्व की चुनौती बड़ी है लेकिन केवल भय से काम नहीं चलेगा अब अपनी मानसिकता को भी साफ़ करना पड़ेगा . 

Thursday 24 October 2013

सुर न सजे क्या क्या गाउ मैं …



विद्या भूषण रावत 

आज सुबह मन्ना डे के निधन की खबर से दुःख तो हुआ लेकिन इसके लिए हम तैयार भी थे. अपने जिंदगी को भरपूर तरीके से अपनी शर्तो पर जीते मन्ना दा  चले गए और उनके इतने वर्षो की सुर साधना की खास बात यह रही के उन्होंने उसूलो से कभी समझौता नहीं किया। उनको 'एक आँख मारू तो रास्ता रुक जाए' या अन्य इसी प्रकार के सड़क छाप गाने गाना मंज़ूर नहीं था. बम्बई अच्छी नहीं लगी तो बंगलोर का रुख कर लिया और जब फिल्मो में उनके मतलब की बाते नहीं आ रही थी तो 'मधुशाला' जैसे महान कविता संग्रह को उन्होंने और अमर बना दिया।

मन्नाडे उस दौर में आये जब सिनेमा के पटल पर राज कपूर, दिलीप कुमार और देवानंद का राज चलता था और इन तीनो महान अदाकारों की अपनी विशेष छवि थी जिसके अनुसार ही उनके प्लेबैक सिंगर्स मशहूर हुए और संगीत भी तैयार हुआ क्योंकि यह लोग संगीत की भी अच्छी समझ रखते थे. राज कपूर तो मुकेश-शैलेन्द्र-हसरत जयपुरी और  
शंकर जयकिशन के साथ जोड़ी बना लिए तो दिलीप कुमार की अधिकांश फिल्मो के लिए गायन  मोहम्मद रफ़ी का था और संगीत नौशाद और गीत अक्सर शकील बदायुनी के होते थे. देवानंद के लिए सचिन देव बर्मन ने धुनें तैयार की और मजरूह के खुबसूरत गानों को किशोर कुमार ने और हसीं बना दिया। इन सभी महान कलाकारों के चलते मन्ना डे ने अपना एक ऐसा मुकाम बनाया जो उनके इन सबसे  अलग करता है और महान भी बनता है. मन्ना डे ने उन गानों को सुर दिया जिसे शायद दूसरा वैसा सुर नहीं दे पाता। 

अगर १९५० के समय से संगीत के दौर को देखें तो पता चलेगा के जिस विविधता से मन्ना डे ने अपने गानों में रंग भरा वो किसी के लिए दोहराना मुश्किल है इसलिए उनके गानों के नकली कसेट आपको कम मिलेंगे। नदी में चलते माझी के गानों को क्या उनसे अच्छा कोई गा पायेगा। हरेक स्वर में सुन्दरता है और दिल की पुकार है . नदिया चले चले  रे धारा ( फिल्म सफ़र ), या अपनी कहानी छोड़ जा कुछ तो निशानी छोड़ जा ( दो बीघा जमीन ) को शायद ही कोई भुला पाए . फिल्म सीमा का बलराजसाहनी पर फिल्माया गया यह बेहतरीन गाना ' तू प्यार का सागर है, तेरी एक बूँद के प्यासे हम', आज भी हमारे दिलो को सीधे असर करता है. काबुलीवाला  फिल्म में ' ऐ मेरे प्यारे वतन तुझपे दिल कुर्बान' या उपकार का ' कसमे वादे प्यार वफ़ा सब बाते हैं बातो का क्या' आज भी दिलो को झकझोरते हैं. 

मन्ना डे टाइप्ड गायक नहीं थे. उन्होंने ऐसे गीत गाये जो गाने में बहुत मुश्किल थे इसलिए आज भी आसान नहीं है उनकी नक़ल करना या उनको दोहरा देना। जहाँ वह राजेश खन्ना के लिए आनंद में 'जिंदगी कैसी है पहेली' गा रहे थे तो वहीँ प्राण के लिए फिल्म जंजीर में गायी उनकी कव्वाली का आज भी जवाब नहीं। आज भी ' यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी' एक मास्टरपीस है  जिसने प्राण को अमर कर दिया। महमूद के लिए भी मन्ना दा ने बेहतरीन गीत दिए. 

जिस समय राज कपूर मुकेश को अपनी आत्मा की आवाज कह रहे थे वहीँ उन्होंने मन्ना डे की प्रतिभा को पहचाना और बात ऐसे बनी की राजकपूर की फिल्मो के बहुत से अविस्मरणीय गीत दिए.  दिल का हाल सुने दिल वाला, फिल्म श्री ४२० का ऐसा गाना है के आज भी हमें नाचने पर मजबूर करता है. फिल्म मेरा नाम जोकर का प्रसिद्द गीत, ' ऐ भाई जरा देख के चलो', या फिल्म दिल ही तो है का ', लागा चुनरी में दाग' आज भी बहुत चाव और सम्मान से सुने जाते हैं. बलराज साहनी पर फिल्माया 'वक़्त ' फिल्म में उनका यह  चुलबुला गीत आज भी बेमिशाल है और उतना ही जवान है जैसे उस वक़्त था ', ऐ मेरी जोहरा जबी, तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक हैं हसीं और मैं जवान, तुझपे कुर्बान मेरी जान मेरी जान. शायद आज भी इन गीतों के मुकाबले न तो गीत आये न संगीत पैदा हुआ क्योंकि मन्ना डे के लिए संगीत साधना थी एक धंधा नहीं था. 

जब सुरों में साधना होती  है और इमानदारी होती है तो सुर खुबसूरत बन जाते हैं और यही बात मन्ना दा के सुरों के साथ थी. आज भी ' ये रात भीगी भीगी, ये मस्त बिघायें, उठा धीरे धीरे वोह चाँद प्यारा प्यारा, या आजा सनम मधुर चांदनी में हम, तुम मिले तो वीराने में भी आ जायेगी बहार,  झुमने लगेगा आसमा, आदि गीत हमारे दिलो पर राज करते हैं और सबसे बेह्तरीन रोमांटिक गीतों में शुमार किये जाते हैं.
 
 मन्ना डे ने सही समय पर बम्बई को टाटा कर दिया था नहीं तो रफ़ी, किशोर, आदि की तरह उन्हें भी आँख मारने वाले या लड़की पटाने वाले  गाने गाने पड़ते जो उनके लिए मुश्किल था. मन्ना डे खुद बताते हैं के कैसे उन्होंने किशोर कुमार के साथ 'एक चतुर नार गाया' जिसमे उनको किशोर से हारना था और किशोर कुमार के कहने पर उन्होंने यह गाना स्वीकार किया जिसे हम सब बहुत मस्ती से  सुनते हैं. जो हुआ वो अवश्यम्भावी था लेकिन ये जरुर है के मन्ना डे के बात एक पूरी पीढ़ी ने  बम्बई की फिल्मो से विदाई ले ली है. मुकेश, रफ़ी, किशोर की पीढ़ी और जज्बे के इस महान कलाकार के जाने से एक युग का अंत है लेकिन जैसे के मैंने पहले भी कहा लेजेंड्स कभी मरते नहीं हैं, वे हमेशा जिन्दा रहते हैं अपने कला के साथ, अपनी साधना के साथ लोगो को सन्देश देते हैं बेहतरीन करने का और कर्णप्रिय संगीत देने का. जब जब सुरों की बात होगी, संगीत की धुन बजेगी मन्ना डे की मधुर आवाज हमेशा याद की जायेगी क्योंकि संगीत एक बहता दरिया है जो रुकता नहीं है, चलता रहता है अनवरत। 

Saturday 19 October 2013

देश के विकास के लिए चमत्कारों का भंडाफोड़ जरुरी


विद्या भूषण रावत 

उन्नाव जिले का डोंदिया खेड़ा गाँव पिछले एक हफ्ते में  देश भर में प्रसिद्द  हो गया. बंगाली बाबा शोभन सरकार ने सपना देखा और भारत सरकार में उनके परम शिष्य चरण दास महंत ने देश की प्रतिष्ठित संस्था पुरातत्व विभाग को जांच पर लगा दिया। बाबा ने एक हज़ार टन सोने के सपना देखा और सोचा के देश के आर्थिक हालात बहुत ख़राब हैं इसलिए वोह यह नेक  काम कर रहे हैं ताकि देश के खजाने में पैसा आये और उसके हालात सुधरे . वैसे बाबा तो मीडिया की चकाचौंध से दूर रहे लेकिन उनके 'हनुमान' ओमी बाबा बहुत 'पहुंचे' हुए नज़र आ रहे है और उनके अन्दर  'गज़ब' का आत्मविशवास झलक रहा था. जब भी मीडिया से मुखातिब होते ओमी बाबा अपनी चौधराहट झाड़ते और बताते के कैसे दिवाली के बाद रुपैया डॉलर और यूरो और यहाँ तक के पौंड से भी उपर आ जायेगा। मतलब साफ़ था, बाबा को पता था के रुपैये के एक्सचेंज वैल्यू क्या है और वोह इस बात से अच्छी तरह से परिचित थे. उन्होंने आगे कह दिया के अभी तो यह शुरूआत  है आगे और भी सोना है जो कानपूर और फतेहपुर में भी छुपा पड़ा है. फतेहपुर में तो कुछ लोग स्वयं ही खुदाई करने चले गए. मैं तो यह भी सोच रहा हूँ के यदि उत्तर प्रदेश के धरती पर इतना सोना गदा हुआ है तो नेता लोगो अब संसद और विधान सभाओं के चुनाव लड़ने के बजाय हर एक किले और खंडहर के अन्दर खुदाई कर रहे होंगे। वैसे भी लोगो में सब्र नहीं है वे सोना देखना चाहते हैं और अगर जल्दी कुछ नहीं निकला तो दो चार लोग पिट जाएँ तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि माहौल ही ऐसे बना दिया गया है . 

प्रश्न यह है के क्या सोना निकलेगा और क्या नहीं ? यह प्रश्न अक्सर मुझे टीवी पर पैनल वार्तालाप में पुछा गया. जब प्रस्तुतकरता और पत्रकार बड़े बड़े रामनामी दुपट्टा ओढे इन बाबाओ से हाथ दिखाते फिरते हैं तो उनसे आप बहुत तार्किक होने की उम्मीद तो न कीजिये। इसलिए के पुरातत्व विभाग देश में सोने की खुदाई के लिए नहीं अपितु देश के ऐतिहासिक धरोहरों को जानने और उनको बचने के लिए बना है इसलिए अगर सोना मिल गया तो भी वोह पुरातत्व विभाग की सम्पति हो जाएगा और नेशनल म्यूजियम में रखा जाएगा लेकिन नहीं मिला तो क्या होगा  ?
क्या लोग बाबाओं पर विश्वास करना छोड़ देंगे ? ऐसा होना वाला नहीं है क्योंकि लोगो को तो लुटने और पिटने की आदत पड़ चुकी है और वोह तो किस्मत, समय काल पर ही दोष मढेंगे न की बाबा के सपने पर. 

बाबा के सपने का विश्लेषण करने के लिए हिंदुत्व के बड़े बड़े मठाधिसो से मेरा पाला पड़ा. किसी ने कहाँ के सुबह का सपना सच होता है तो कोई विश्लेषण करते वक़्त पूरी  वैदिक संस्कृति और उसके गुणगान करने लगे. बहुत से राजनैतिक खेल को समझ चुके थे और यह जानते थे के कुछ निकलेगा नहीं और हिंदुत्व और उसके धर्म की फजीहत हो जाएगी अतः अगले दिन से ही उन्होंने रंग बदलने शुरू कर दिए. कहा शुभ मुहूर्त नहीं क्योकि खुदाई ग्रहण के दिन हो रही है इसलिए सम्भावना नहीं लगती, कुछ ने कहाँ के सपने को दुसरो से साझा करने से वो विकृत हो जाते हैं और एक महान  हस्ती ने यह तक कहा के क्योंकि बाबा के हिसाब से काम नहीं हो रहा है इसलिए सोना अपनी जगह बदल देगा और इन बातो को वैज्ञानिक दृष्टिकोण में ढलने के जिम्मेवारी संघ समर्थक 'स्वप्न' विशेषज्ञों को सौंपी गयी. सभी ने पूरी मुस्तैदी से बात रखी और साधू के महानता और सामाजिक कार्यों के कसीदे पढ़े. जब मैंने कहाँ के मोदीजी कह रहे हैं के देश का मजाक उड़ रहा है तो मेरे पैनल के एक विशेषज्ञ मोदी के पब्लिक रिलेशन ऑफिसर की तरह बात करने लगे. 

सवाल इस बात का है के क्या सरकार हमारे सपनो पर ऐसे बड़े निर्णय ले सकती है और यदि पुरातत्व विभाग का निर्णय पहले से लिया गया है तो क्या उसमे बाबा के सपने को जोड़ना जरुरी था , क्या केंद्रीय मंत्री अपनी मर्ज़ी से कुछ भी कर सकते हैं . लेकिन यहाँ पर हमको भारत के अन्दर पैदा हो रही साम्प्रदायिक राजनीती को समझना होगा जिसमे मोदी अपने को सेक्युलर दखाने का प्रयास कर रहे हैं और कांग्रेस जे जान से ब्राहमणों का आशीर्वाद लेने को आतुर है लेकिन वोह अभी तक मिल नहीं रहा और इन दोनों खेलो में तर्क और मानवता पिट रहा है. अगर सरकार काम नहीं करती तो हिंदुत्व के योद्धा तैयार खड़े थे यह कहने के लिए के हमारी  भावनाओं का आदर नहीं होता। इसलिए इस कार्य को सीधे सीधे हम ब्राह्मण तुष्टिकरण की नीति  सकते हैं जो कांग्रेस को अभी भी आशीर्वाद देने को तैयार नहीं है. 

भारत के संविधान में अनुच्छेद ५१ में साफ लिखा है हम भारत को एक मानववादी नागरिक समाज बनायेगे जहाँ लोगो में तर्क शक्ति का विकास हो और वो वैज्ञानिक चिंतन में यकीं करें न की अन्धविश्वास की गलियों में भटक जाएँ। यह घटना और इसको मीडिया की प्रमुखता यह दर्शाती है के अंधविश्वास को देश के महान  संस्कृति बताकर हम ब्राह्मणवादी एकाधिकारवाद को और मज़बूत कर रहे हैं. मीडिया ने इसमें भूमिका निभाई और इसलिए संस्कृति के नाम पर जितने भी बडबोले टीवी चैनलों पर दिखाई दिए वे सभी ब्राह्मण थे. क्या ऐसी स्थितयों में हम संविधान और उसके  को बढा  सकते हैं. 

सोना अगर नहीं मिला तो शोभन सरकार का कुछ नहीं बिगड़ने  क्योंकि हमारे देश के लोग बाकी सब बातो में तो सवाल कर लेते हैं लेकिन  भाग्य और भगवान को कभी प्रश्न नहीं करते इसलिए सबसे बड़ा खतरा तो पुरातत्व विभाग के लोगो पर है क्योंकि हिंदुत्व के इन कुटिल लोगो के खेल समझने पड़ेंगे और जब इनकी पोल पूरी तरह से खुल जाएगी तो यह वोही बात दोहराएंगे जो इनके ज्ञानवान संत कह रहे हैं. काल, समय, गृह, लगन, दोष आदि के खेल में जनता को  उलझाकर यह सारी असफलता का ठीकरा पुरातत्व विभाग के उपर फोड़ देंगे।

इस सारे खेल में जो सबसे अधिक सोचनीय विषय है वो है मीडिया द्वारा इसको इतना बड़ा बनाने का. ऐसे सवालो पर तो मीडिया को वैज्ञानिक चिंतन देना चाहिए लेकिन हमारा मीडिया उस मामले में पूर्णतया जातिवादी है और ब्राह्मणवादी शक्तियों को खुल्करके समर्थन कर  रहा है और उसमे बैठे ज्यादातर लोग तंत्र मंत्र के पुरे ढकोसले में फंसे पड़े हैं. मैं तो सिर्फ एक प्रश्न पूछता हूँ के क्या एक राष्ट्र इसलिए महान होता के उसके पास लाखों टन सोना है या उसकी सभ्यता उसे महान बनाती है. क्यां इतना सोना मिलने के बाद हम काम करना बंद कर देंगे ? क्या हमें तब विज्ञान और उसकी आवश्यकता नहीं होगी ? क्या हमारे किसानो को कुछ करने की जरुरत नहीं है .

दूसरी बात और भी महत्वपूर्ण है. हम लोग हमेशा उस चीज की तलाश करते है जो हमारे पास नहीं है और जो है उसको प्राप्त करने के प्रयास भी नहीं करते। हमारे सारे पाखंडी बाबा चिल्ला  चिल्ला कर कह रहे थे के शोभन सरकार तो  देश के विकास के लिए १०००टन सोना देश को देना चाहते हैं, वो कोई अपने लिए थोडा सोना मांग रहे हैं .  मेरी केवल एक ही विनती है, कृपया भारत के विभिन्न मंदिरों में रखे २००० टन सोने को वो सरकार को सौंपे जिसकी कीमत ८४ बिल्लियन  डॉलर आंकी गयी है और रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने इन मंदिरों को एक पत्र भी भेज था जिसमे उन्हें मंदिरों में रखे गए सोने की जानकारी देने को कहा गया है लेकिन मंदिरों और उसके शक्तिशाली ट्रस्टियों ने सरकार को यह जानकारी देने से मना कर दिया है क्या यह देश के साथ धोखा और गद्दारी नहीं है ? क्या इस देश के मंदिर या मस्जिद या कोई अन्य धर्म स्थल देश के कानून से बड़े हैं ? क्या भारत में मंदिरों और इनके मठाधिशो की सल्तनत चलती रहेगी या देश का कानून भी काम करेगा ? हम सरकार से मांग करते हैं के सभी धर्मस्थलो के पैसे पर पूरा टैक्स लगाए और उनके अन्दर रखी सम्पति का ब्यौरा  मांगे।अगर यह दो हज़ार टन  सोना हमारे रिज़र्व बैंक में आ जाए तो देश के सकती है और सरकार को हर जगह पुरातत्व विभाग को खड्डे खुदवा कर सोना ढूंढ़वाने के नाम पर अपनी फजीहत नहीं करवानी पडती  
 
भारत को एक महान और विकसित राष्ट्र हम केवल वैज्ञानिक, तर्कवादी और मानववादी चिंतन से बना सकते हैं . उस परम्परा से यह देश महान  बनेगा जो बुद्ध ने शुरू की और जिस बार आंबेडकर, फुले, पेरियार और भगत सिंह चले. तर्क और मानववाद की परम्परा। इस देश को कर्मशील बनाना होगा ताकि लोग भुत, प्रेत, चमत्कार को दूर से प्रणाम कर अपने रस्ते पर चलते रहे हैं . याद रहे के चमत्कारों के जरिये ही अब धर्म और उनके धुरंधर अपनी  दूकान चला रहे हैं इसलिए चमत्कारों के भंडाफोड़ की आज ज्यादा जरुरत है. आइये आज से ही इस नेक काम को अपने घर से शुरू कर दे ताकि धर्म की इस अंधी कमाई को ख़त्म किया जा सके.

Tuesday 20 August 2013

अन्धविश्वास के दुकानदारों का तांडव



विद्या भूषण रावत 

आज सुबह डॉ नरेन्द्र दोभालकर की जघन्य हत्या की घटना से हम सभी हतप्रभ हैं हालाँकि आश्चर्यचकित नहीं क्योंकि दुनिया में समाज के मान्यताओं के विरूद्ध लड़ने वालो को कोई पसंद नहीं करता। आप धर्म पे बोले, धर्म की महानता पर बोलो, सर्वधर्म समभव पर बोलो लेकिन यदि धर्म के मूल को चुनौती डोगे तो आपका वही हस्र होना है जो दाभोलकर का हुआ. 

अन्धविश्वास के विरुद्ध उनकी अलख जारी थी और वोह महारास्त्र के अन्दर एक अन्धविश्वास निर्मूलन  कानून लाने के लिए सरकार को आशवस्त कर चुके थे लेकिन हिंदुत्व के झंडाबरदार उनकी बातो से सहमत नहीं थे और उनको जान से मार देने की धमकियाँ मिल रही थी लेकिन सरकार उनको सुरक्षा नहीं दे पाइ. यह निंदनीय है और उन सभी संघथानो के विरुद्ध कार्यवाही की जानी चाहिए जो दाभोलकर को धमकी दे रही थी. 

अन्धविश्वास हमारे समाज में रच बसा है और आज उसकी दूकान बहुत बड़ी हो गयी है और 'बाज़ार' की चकाचौंध ने उसे और भी ताकतवर बना दिया है. आज ठगी से कमाई हुई सम्पति से अनेको टीवी कार्यक्रम दिखाए जा रहे हैं और जनता को बेवकूफ बनाया जा रहा है. हमारे यहाँ लोग ठगने के लिए तैयार बैठे हैं. यह शर्मनाक है के भगवन और परम्पराओं के नाम पर रोज हादसे होते हैं और उन पर हमारे राजनेता और मीडिया नौटंकी कर मूलभूत मुद्दे से हट कर लोगो का ध्यान बता देते हैं. 

उत्तराखंड की त्रासदी के बाद मीडिया और मुख्यमंत्री के लिए केदारनाथ को बचाने  और धारि देवी मंदिर के 'चमत्कार' का प्रश्न मुख्या मुद्दा बन गया चाहे लोगो जिन्दा रहे या मरे लेकिन हकीकत यह है के अन्ध्विशस से लुटती पिटती यह जनता अभी भी भगवानो और मंदिरों के महात्म्य में रची डूबी है और तर्क और कारण पर  चर्चा करने या सुनने को तैयार नहीं है हाँ यदि कोई ठग बाबा टीवी पर अपने चमत्कार का बखान कर रहा हो या कही से गणेश के दूध पीने की खबर आ गयी तो हमारे बड़े बड़े बुद्धिजीवी अपने दिमाग को किनारे कर उन परम्पराओं में अपनी नैया खेना शुरू कर देते हैं  लगातार कोसते रहते हैं . 

अभी बिहार में जो घटना घटी वोह बहुत दर्दनाक है. हर  मंदिरों में त्योहारों पर जो भीड़ होती है और फिर जो रेलमपेल होती है उसमे बहुत से निर्दोष मारे जाते हैं. वे इसलिए के किसी उम्मीद में गए होते हैं उस भगवान् का महात्म्य सुनकर जो उनको नहीं बता सकता के मौत आने वाली है. ट्रेन की पटरियों पर बैठकर अपना इंतज़ार करते इन लोगो को अपने चैन और अम्न की कोई चिंता नहीं वो तो केवल अगले जन्म को ठीक करने के लिए वहां जा  रहे हैं. 

अभी इसी वर्ष हमने स्कूलों में  अंधविश्वास और मानववाद को लेकर जो अभियान शुरू किया उससे हमारे अध्यापक ही परेशान हो गए हैं . जब प्रधानाचार्य बैजनाथ धाम का दर्शन करने गए हैं तो छात्रो से कैसे उम्मीद की जाए के वो तर्कवादी होंगे . एक प्रोफेसर साहेब ने तो मुझ पर भारत की संस्कृति पर हमला करने का आरोप लगा दिया और कहाँ मुसलमानों के लिए तो कुछ कहते नहीं हो. जब मुस्लिम स्कूल की छात्राओ से बात करते वक़्त मेने पसमांदा मुस्लाम्नाओ का प्रश्न उठाया और उंच नीच को समाजविरोधी बताया तो प्रधान्चार्य ने कहाँ की समाज तो 'अल्लाह की करामात है ' यानि ये जैसे बना है वो तो अल्लाह ने बनाया है और हमें इसे वैसे ही स्वीकार करलेना चाहिए। 

जब भी आप समाज में व्याप्त मापदंडो को चुनौती देंगे या उन पर प्रश्न करेंगे तो आप के सबसे बड़े विरोधी अपनेघर से शुरू हो जायेंगे और इसीलिये अंधश्रद्धा निर्मूलन आन्दोलन हमारे अजेंडे में नहीं आता क्योंकि उसकी सफलता के लिए न केवल कानून चाहिए बल्कि हमारे वैचारिक मूल्यों में भी बदलाव लाना पड़ेगा।

लेकिन सबसे बड़ी चुनौती अब शुरू हुई है जब धर्म के धन्धेबाज़ अब अंधविश्वास को हमारी महान सांस्कृतिक विरासात बता रहे हैं और उसके लिए कोई भी कानून बनाने देने को रोक रहे हैं . अगर सरकार सही से और इमानदारी से काम करे तो जो चैनल ऐसे ठग बाबाओं को प्रसारित कर रहे हैं जो अन्ध्विशस फैलाते हैं उन पर भयंकर जुर्माना लगाना चहिये. केंद्र सरकार को पर्यावरण कानूनों की तरह अन्ध्विशस सम्बन्धी एक आयोग बनाना चाहिए जो हमारे पुस्तको , मीडिया आदि की मॉनिटरिंग करे और अपने कार्यवाही करे क्योंकि बेलगाम होते इन दुकानदारों को अब ठीक करने का वक़्त आ गया है. अगर सरकार सही प्रकार से कार्यवाही करे तो बहुत से 'बहुदेवता' आज लोगो को बेवकूफ बनाने के आरोप में  काट रहे होते लेकिन अब वे धर्म के राजनैतिक ठेकेदार हो गए हैं और भ्रस्थाचार के सबसे बड़े बादशाह हैं . मैंने कई बार लिखा के भारत में सबसे  भ्रष्टाचार हमारे धार्मिक श्थालो में छुपा है और उनके अरबो के पैसे और उसके सम्पति जनता से लुटी गयी है और सरकार को उन सबका राष्ट्रीयकरण करना होगा और वोह पैसा गरीबी हटाओ कार्यकर्मो और शिक्षा और स्वस्थ्य योजनाओं में लगाया जा सकता है. 

लेकिन अपने पे खतरा देख ऐसी ताकतों ने अब साम दाम  भेद की रणनीति अपना ली है और नरेन्द्र दोभालकर की हत्या तर्कवादी मानववादी शक्तियों को दबाने और डराने की साजिश है ताकि वे अपना काम बंद कर देंगी। हम ऐसे सभी लोगो से अनुरोध करते हैं के अपने काम को जारी राखी और भारत को अन्ध्विशस मुक्त देखना है तो धार्मिक कट्टरपंथी प्रभुत्ववादी ताकतों को न केवल पर्दाफास करना पड़ेगा अपितु उनको वैचारिक चुनौती देनी पड़ेगी ताकि एक नए मानववादी भारत का निर्माण हो सके जो हमारे संविधान में अनुच्छेद ५१ ह में  हमारे कर्तव्यों निहित हैं जिनके तहत हर एक भारतीय नागिरक का कर्तव्य होगा के वो देश में वैज्ञानिक चिंतन को बढ़ावा दे और मानववाद को बढ़ाये। एक सच्चे मानववादी समाज का निर्माण मनुवाद की चिता पर ही संभव है. आइये एक बार भी तर्क, करूणा और मानववादी विचारधारा को मज़बूत करें ताकि उन ताकतों को नेस्तनाबूद किया जा सके जिन्हें सच और विज्ञानं से भय है और जिनकी ताकत लोगो की अज्ञानता और अन्धविश्वास में है. 

Monday 19 August 2013

लोकतंत्र का ध्वजारोहण


विद्या भूषण रावत 

बिहार में रोहताश जिले में स्वतंत्रता दिवस के दिन दलितों द्वारा झंडा फहराने के विरोध में ऊंची नाक मूंछ वाले हिन्दुओ ने जो  तांडव किया वो निंदनीय है. उनकी गोलाबारी में एक व्यक्ति मारा गया और एक दर्जन घायल हो गए. ऐसा बताया गया है के गाँव समाज की जमीन पर इलाके के राजपूत हर वर्ष ध्वजारोहण करते थे और इस बार भी करना चहिते थे लेकिन दलितों ने इस बार रविदास मंदिर के आगे ध्वजारोहण करनी की सोची तो प्रतिक्रियावस हिंसा में उन्हें अपनी जान से भी खेलना पड़ा. 

वैसे इस प्रकार की घटना न तो पहली है और ना ही यह आखिरी होगी क्योंकि भारत में दलितों को हर स्थान पर तिरंगा फहराने पर हिंसा का शिकार होना पड़ता है. तमिलनाडु में तो मदुरै के पास कई वर्षो से दलित सरपंच झंडा नहीं फहरा सकते। वैसे १५ अगस्त को मसूरी में जो हुआ वो देखकर तो मज़ा आ गया. भाजपा के विधायक और मसूरी नगरपालिका के अध्यक्ष के बीच झंडा फहराने को लेकर हाथाम्पाई हो गयी और इसका फायदा लेकर एक बच्चे ने ध्वजारोहण कर दिया।

अब दिल्ली की सल्तनत का हाल देखिये। मनमोहन सिंह को झंडा लहराते और फहराते १० साल होगये और नरेन्द्र मोदी बेहद ही परेशान हो रहे हैं इसलिए उन्होंने सोचा चाहे लालकिले में मौका मिले या न मिले मैं तो लालन कालेज में झंडा फहराउन्गा और फिर उन्होंने प्रधानमंत्री को चुनौती दी के हिम्मत है तो उनके साथ बहस करके देखे। इसे  मोदी की खिसियाहट के अलावा कुछ नहीं कह सकते क्योंकि अहमदाबाद से लालकिले की दूरी बहुत ज्यादा है और रस्ते में उत्तर प्रदेश भी पड़ता है इसलिए कम से कम प्रधानमंत्री को ललकार तो सकते हैं अगर हटा नहीं सकते तो ?

हमें भारत और इस उप महाद्वीप के लोगो की मानसिकता को समझना होगा। स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराना भारत के अमर शहीदों या नेताओं को याद करने की फॉर्मेलिटी नहीं है अपितु शहर में, देश में, प्रदेश में, गाँव में अपनी चौधराहट थोपने की लड़ाई भी है और यही कारण है हर एक नेता लालकिले पर झंडा फहराने का सपना देखता है और वोह भारत ही नहीं पाकिस्तान में और बांग्लादेश में भी मौजूद हैं जो इस सपने को बेचते हैं और नतीजा हमारे सामने है. 

गाँव में एक दलित कैसे गाँव का चौधरी हो सकता है यदि गाँव के 'बड़े' चौधरी जिन्दा हैं तो ? जातिवादी दम्भी तो यही सोचते हैं के क्या हमारा संविधान हमारी 'परम्पराओं' से बड़ा हो सकता है ? वे तो साफ़ कहते हैं, 'अरे भाई, संविधान तो बनता बिगड़ता रहता है मनुस्मृति तो एक बार बनी तो सबके दिमाग में घुस गयी और न कोई संशोधन और न ही उसमे संशोधन की कोई मांग सुनाई दे रही है इसलिए 'भगवान' के बनाये कानून से ही तो समाज चलता है और तभी तो वह 'चल' रहा है. सरकारी कानूनों से समाज टूटता है और यह तो ऐसे लोगो को 'सर' पे बैठा देता है जो पैरो के नीचे रहने के आदि थे. हमारी व्यवस्था इसलिए तो टूट रही है. 

अब व्यवस्था तो टूटेगी और चौधरियों को जनता के आगे झुकना पड़ेगा ही क्योंकि लोकतंत्र किसी को दबा के कभी चल नहीं सकता और अब कोई चुप नहीं रह सकता ऐसे अत्याचारों पर. पार्टियों और नेताओं के क्या कहने वोह तो बोलने में कतराते हैं और इसे ही 'लोकतंत्र' की 'ताकत' कहते हैं जब नेताओ को बोलना होता है तो वो  चुप रहते हैं और बिहार के 'क्रन्तिकारी' नेता और 'समाजवाद' और 'सामाजिक न्याय' के सारे महारथी चुप हैं क्योंकि लोकतंत्र तो 'वोट' हैं न इसलिए मोदी के सारे अपराध वोटो की 'गंगा' में  धुल जाते हैं. इसलिए झंडे के लिए इतना संघर्ष है ताकि गरीबो को कुचल सको और अपनी चौधराहट कायम कर सको. 

क्या लोकतंत्र में ऐसे चोधराहटपूर्ण ध्वजारोहण यह जाहिर नहीं करते के यह परम्परा अभी भी सामंती है  क्योंकि केवल 'नामी' 'गिरामी व्यक्ति ही ध्वजारोहण करेंगे और वे हमारे ,भूत, वर्तमान, या भविष्य के 'कुछ न कुछ' हैं. क्या कोई अनाम व्यक्ति झंडा नहीं फहरा सकता। क्या हम सब अपने अपने घरो पर झंडा फहरा कर और एक दुसरे को गले लगाकर स्वाधीनता दिवस या गणतंत्र दिवस नहीं मना सकते। हमारे रास्ट्रीय पर्वो को मनाने के लिए या झंडा फहराने के लिए एक चौधरी की क्यों जरुरत है? क्या हम इस अन्य त्योहारों की तरह अपने अपने घरो पर रौशनी करके और प्यार से नहीं मना सकते। जब तक ध्वजारोहण हमारे समाज में अपने वर्चस्व और राजनैतिक ताकत का प्रतीक बना रहेगा यह  सच्चे मायने में लोकतंत्र का ध्वजारोहण नहीं कहलाया जा सकता और हर साल ऐसे वाकये होते रहेंगे जिसमे निर्दोष लोगो की जान जाती रहेगी क्योंकि झंडा फहराना हमारी सामंतशाही की ताकत का प्रतीक  बन चूका है जिसे चुनौती देने के मतलब मौत को निमंत्रण देना हैं क्योंकि इस देश में कानून अभी भी 'इश्वर' के 'संविधान' का चल रहा है. सछ लोकतंत्र उस दिन आएगा जब आंबेडकर का संविधान हमारे दिलो और समाज के नियमो के ऊपर राज करेगा और तभी झंडे को लेकर बर्चस्व की लड़ाई नहीं होगी और तब कोई भी अपने आप ध्वजारोहण कर पायेगा बिना किसी भय या राग द्वेष के और तभी इस देश में सच्ची आज़ादी होगी। 

Thursday 15 August 2013

परंपरा का जहर



विद्या भूषण रावत 

नाग पंचमी  के अवसर पर उत्तर प्रदेश के  हिस्सों में सांपो के लिए दूध पिलाने की परंपरा है. यह वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध हो चुका है के दूध सांपो के लिए कितना खतरनाक है. खैर, सांपो की पूजा के नाम पर सांपो को मारने का विशेष सिद्धांत केवल हमारे यहाँ ही हो सकता है लेकिन सबसे खतरनाक बात तो यह है के इस दिन की गतिविधियों को देखकर कई बातो से हमारे सामाजिक व्यवस्था का विश्लेषण किया जा सकता है. 

सुबह महिलाएं और नवयुवतियां पूजा की थाली लिए नदी, पोखारियों और  तालाबो की और जाती हैं . उनकी पूजा की थाली में छोटी गुडिया ( प्लास्टिक या कपडे की बनी) होती हैं. वे पेड़ या मंदिर में पूजा  अर्चना के बात एक स्थान पर आकर उन गुडियाओं के फ़ेंक देती हैं और फिर वहां पर मौजूद उनके पुरुष अभिभावक या  छोटे बच्चे उन गुडियाओं को डंडे से पीट पीट कर नोच डालते हैं. गुडियाओं को हंस हंसकर मज़े लेकर नोचने की इस प्रक्रिया को महिलायें भी देखती हैं. यदि कोई सवाल उनसे पूछे के यह क्या है या इस बेहूदा 'खेल' में क्या रखा है तो कोई उत्तर नहीं मिलता सिवाए इसके के 'यह तो हमारी परंपरा है'. एक महिला ने एक बार मुझे बताया के यह उनकी गलतियों का प्रायश्चित है और वे  भाइयो से माफ़ी मांगती है. मंदिर के पुजारी से जब मैंने पुछा तो उसने महान परंपरा का हवाला दिया।

शाम को पुरुष लोग अखाड़े में कुश्ती करते हैं और सैंकड़ो लोग उनके 'पुरुषार्थी' शरीर को देखते हैं और उनकी 'ताकत' की सराहना करते हैं. यह महान परंपरा प्रतापगढ़, जौनपुर, फतेहपुर, कानपूर और अन्य कई जिलो में शान से मनाई जाती है. स्थान स्थान पर मेले लंगते हैं और लोग बड़ी संख्या में भाग लेते हैं. 

अगर गौर से इन परम्पराओं का विश्लेषण करेंगे तो सामंतशाही और पित्त्रिसत्ता के इस सिद्धांत के इन भरपूर गुणों का खुले तौर पर सामाजिक अवतरण है. आखिर लड़कियों को कोख में ही मार देने और उनको परदे में कैद रखने की ऐतिहासिक कोई न कोई परंपरा तो रही होगी ? 'बहिने' अपनी गलतियों के लिए माफ़ी मांगेगी और फिर भाई उनको कुछ्लने में आनंद की अनुभूति करेगा ?वाह रे वाह संस्कृति और इसके 'खलनायको' तुमने तो कमाल के त्यौहार बनायें। कही सांपो को दूध पिलाकर मज़बूत करना पुरुषो को ताकतवर बनाकर महिलाओ के ऊपर राज करवाने की सोच से तो नहीं जुडा ? आखिर माफ़ी किस बात की ? कितनी मजेदार बात है के महिलायें तो माफ़ी मांगकर परदे में घुट घुट कर जियें और पुरुष  शान से उनको कुचले और शाम को अपने शरीर की नुमाइश करें और कही पर भी कोई प्रदर्शन नहीं होता के पुरुष अपने शरीर की नुमाइश क्यों करते हैं ?  क्या यह महिला हिंसा को सेलिब्रेट करना नहीं है ? 

मुझे लगता है यह 'ओनर किल्लिंग्स' के शुरूआती दौर रहे होंगे जब घर की लड़की के किसी से बात तक कर लेने से या परदे से बाहर आ जाने से ही परिवार का 'सम्मान' आहत' हो जाता था और उसकी सजा 'मौत थी. शायद परिवार के पुरुष लोग अपनी 'विद्रोही' बहिनों को सार्वजानिक स्थलों पे मारते होंगे और अपने 'गिरे' हुए 'सम्मान' को 'समाज'वापस प्राप्त करते होंगे। और यही कारण है के भारत में आज भी महिलाओं को अपने 'संपेले' भाइयों और पिताओं की हिंसा का शिकार होना पड़ता है. महिलाओं को मारने का ऐसा त्यौहार शायद ही किसी सभ्य समाज का हिस्सा हो?

मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओं को आहात का नहीं नहीं है लेकिन मुझे लगता है की परम्पराओ के नाम पर हर एक विषैले विचार को ढोना न तो समझदारी है और न ही उसके कोई लाभ होने वाले हैं. 

हर वर्ष हम कन्या भ्रूण हत्या के विरोध में नारे सुनते हैं और बड़े बड़े समाज सुधारक और क्रन्तिकारी विचारक बड़ी बड़ी बाते रखते हैं लेकिन  कभी ऐसे महिला विरोधी त्योहारों और परम्पराओ में ना तो कोई बदलाव लाते और ना ही उनके बहिष्कार की बाते करते हैं. सरकारी आज़ादी से नहीं मानसिक गुलामी से मुक्त होने पर ही हम सही मायनों में आज़ाद समाज कहलायेंगे। महिला हिंसा को जायज ठहराने वाले ऐसे विकृत सोच वाले त्योहारों को जितनी जल्दी हो अपने दिमाग और समाज से बाहर  फेंकना होगा तभी हम अपने को दिमागी तौर पर आज़ाद कर पाएंगे 

Wednesday 7 August 2013

अनारक्षित सीटो को सवर्णों की बना देना गैर संवैधानिक


विद्या भूषण रावत 

क्या कँवल भारती की गिरफ़्तारी की निंदा केवल इसलिए नहीं करनी है के इससे 'बहुजन' शाशन बदनाम हो रहा है और 'ब्राह्मणवादी' अफसरशाही ताकतवर हो रही है. लेकिन ऐसा करने में एक गलती के बाद दूसरी गलती करने वाले लोग कौन हैं ? उत्तर प्रदेश की  सरकार ने प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा आरक्षण के मुद्दे को जिस बेशर्मी से दबाया है वो निंदनीय है . जिस  तरीके से ओबीसी छात्रो की आन्दोलन को दबाने और तोड़ने की कोशिश की है वो सबके सामने है. क्या प्रदेश की सेवाओं में आरक्षण को शुरूआती दौर से लागू नहीं किया जाना चाहिए। अगर प्रदेश के प्रशाशनिक सेवाओं में आरक्षण प्रारंभिक परीक्षा से लागू नहीं हुआ तो  इंटरव्यू तक कैसे २७ प्रतिशत का कोटा तैयार होगा। इसलिए उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग ने जो निर्णय लिया था वो सही था लेकिन प्रदेश के सरकार ने वो निर्णय  लिया। प्रदेश के पिछड़े वर्ग के छात्रो के साथ इससे बड़ी कोई धोखाधड़ी नहीं हो सकती।

आज लोगो को समझाने की आवश्यकता है की आरक्षण की ऐतिहासिकता क्या है. बिना इतिहास जाने हम संघर्ष नहीं कर सकते।   इस बात की के 'जनरल' या 'सामान्य' कही जानी वाली सीटो का मतलब क्या है . भारत में रिजर्वेशन व्यवस्था लागू है रिप्रजेंटेशन नहीं जो बाबा  साहेब आंबेडकर की मुख्या मांग थी.  अतः सामान्य सीटो का मतलब सवर्णों की सीटें नहीं हैं अपितु इनका सीधा मतलब है अनारक्षित सीटें और इस पर सभी का हक है. इसलिए जो भी पिछड़ा, दलित या आदिवासी छात्र सीधे मेरिट पर उन सीटों पर निकलता है तो उसको वहां से हटाकर उनके कोटे में डालना अस्म्वैधानिक है और उसको चुनौती दी जानी चाहिए हालाँकि  अभी भी मुझे न्यायालयों के सामाजिक परिवर्तन के मसलो पर ज्यादा भरोषा नहीं है लेकिन संसद इसमें काननों बनाकर राज्यों को गाइड कर सकती है. 

साधारण भाषा में देखें तो जनरल डिब्बे में ज्यादा भीड़ होती है और आरक्षित में कम और जनरल में जो दम ख़म वाले होते हैं वे ही बैठ पाते हैं और इसलिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी ताकि आर्थिक और शैक्षणिक रूप से कमजोर लोगो के लिए विशेष व्यवस्था हो लेकिन अब इस समाज से भी लोग अनारक्षित कोच में बैठ सकते हैं क्योंकि वे लगातार मेहनत कर रहे हैं और आगे निकल रहे हैं लेकिन यही बात जातिवादियों को हज़म नहीं हो रही है. बात समझाने की है और अधिक नौकरियां पैदा करने की भी है. बात यह भी है की केवल नौकरियों में ही हमारा भविष्य है या हम बिज़नस और अन्य कार्य भी कर पाएंगे या नहीं . क्योंकि आने वाले दिनों में यह सरकारी नौकरियां मृग मरीचिका हो जायेंगी क्योंकि इसका भी इंतज़ाम हो चूका है इसलिए लोगो को आपस में भिड़ा लिया जाएगा लेकिन जब तक सरकार है वहां के लिए नौकरियां भी चाहिए होंगी और आरक्षण की व्यवस्था भी क्योंकि उसके ऐतिहासिक परिपेक्ष्य हैं. अफ्सोश्नाक यह है के सामाजिक न्याय के लम्बरदार कहलाने वाले लोग इस मुद्दे पर हाथ लगाने को तैयार नहीं है और इसका नतीजा है उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ने अपना निर्णय वापिस ले लिया है. 

एक ग़लतफ़हमी जो हर वक्त फैलाई जा रही है वह यह है के ५० प्रतिशत अन्नारिक्षित सीटें सवर्णों की हैं और दलित पिछड़ी जाती के बच्चे नहीं आ सकते। पहले आरोप लगाया जाता था के दलित और पिछडो में मेरिट नहीं और ब्राह्मणवादी मानसिकता के लोग यह भ्रम फैलाते थे के १५ प्रतिशत वाले ९० प्रतिशत वाले के ऊपर हावी है और यह के मेरिट का सत्यानाश हो रहा है लेकिन पिछले कुछ वर्षो से दलित पिछड़े छात्र सभी परीक्षाओं में बहुत अच्छा कर रहे हैं और मेरिट में टॉप पर भी हैं तो जातिवादियों ने नया सगोफ्फा छेड़ दिया है के आरक्षण ५० तक है लेकिन वे यह भूल रहे हैं के जो दलित पिछड़े सामान्य सीटो से आ रहे हैं वे आरक्षित नहीं है। लेकिन हमारे न्यायालयों और नेताओं ने ५०% सामान्य करके ऐसा भ्रम फैलाया जिसका पर्दाफास करना जरुरी है. जातिवादी दिमाग के लोग बाते  फ़ैलाने,कहानियां बनाने और अफवाहें फ़ैलाने में माहिर हैं और इसलिए हमें अपनी बात को तथ्यों के साथ रखनी होगी।

अगर आरक्षण को प्रतिनिधत्व मान लिया जाए तो सवर्णों की परेशानियां बढ़ सकती हैं क्योंकि फिर तो 'जिसकी जितनी संख्या भारी  उसकी उतनी भागीदारी ' का सिद्धांत चलना चाहिए और उनका कोटा १५ प्रतिशत से भी नीचे चला जायेगा और दलित बहुजन आबादी को ८५ प्रतिशत से ऊपर शेयर देना पड़ेगा। धयान देने वाली बात यह है के सवर्णों में भी यह जांच का विषय आएगा के कौन सी जाती मलाई खा रही है. अक्सर दलित पिछडो की कुछ एक जातियों पर आरोप लगते हैं के एक या दो जातियां की आरक्षण की  मलाई खा रही हैं लेकिन यह आरोप अनारक्षित सीटो पर जनरल की नाम पर सवर्णों की जो जातियां खा रही हैं उक इतिहास सबको पता है और हमारे साथियों को उस पर भी काम करना चाहिए ताकि वहां भी जिनको अधिकार नहीं मिला उनकी बात आ सके. 

इसलिए अगर बात आरक्षण की करनी है तो अनारक्षित सीटो को सवर्णों की सीटो में बदलने की साजिश की कड़ी निंदा करनी होगी और इसके विरूद्ध  और यदि इससे भी उनके परेशानी है तो सत्ता में जनसँख्या के हिसाब से शेयर दे दिया जाए समस्याओ का समाधान हो जायेगा।

अभी तो उत्तर प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री और उनके परिवार के सदस्य सरकारी बाबुओ से भिड रहे हैं और आरक्षण आदि के मुद्दे से उन्हें कोई मतलब नहीं है क्योंकि वे जानते हैं के जब चुनाव आएगा तो जातीय निष्ठाएं काम आ जाएँगी और उनका कोई कुछ नहीं बिगड़ पायेगा। कितनी बड़ी त्रासदी है इस लोकतंत्र की के यह जाति के चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल पा रहा और सामाजिक परिवर्तन की पूरी लड़ाई को इसी खांचे ने रोक दिया है अगर उससे बहार निकलना है तो अपने नेताओं और सरकारों से सवाल करने पड़ेंगे . दुर्गा नागपाल को मीडिया महान बना रहा है और वोह ऐसा करेगा लेकिन कँवल भारती की क्या गलती के उन्हें जेल जाना पड़ा क्या केवल इसलिए उत्तर प्रदेश की सरकार की  आलोचना न की जाए के वोह 'बहुजन' की सरकार है. क्या बौद्धिकता को हम कैद कर दे और फिर तुलनात्मक अध्यन करेंगे . गलत को गलत कहना पड़ेगा। अफ़सोस  हमारे बहुत से साथी या तो चुप हैं या किन्तु परन्तु लगाकर बोल रहें हैं। चलिए जिनकी राजनैतिक या जातीय मजबूरियां हैं हम उन्हें कुछ नहीं कहेंगे क्योंकि  सबको अपना कल की चिंता होनी चाहिए खैर हमारे यहाँ तो ऐसा नहीं है क्योंकि हमने तो लड़ने का वादा किया और साथ खड़े होने का भी इसलिए जो अपने अधिकारों के लड़ रहे हैं उनको हमारा सलाम। 

Tuesday 6 August 2013

कँवल भारती की गिरफ्तारी उत्तर प्रदेश सरकार की हताशा



विद्या भूषण रावत 

आज सुबह जब कँवल भारती जी की गिरफ्तारी की खबर पता चली तो अंदाज लग गया के उत्तर प्रदेश में कैसी सरकार  चल रही है. जिन लोगो ने आपातकाल में इंदिरागांधी की निरंकुशता का विरोध  किया और जो अपनी 'महानता' के गुणगान किये फिरते हैं वेही आज बिलकुल निरकुंश और तानाशाही की और अग्रसर दिखाई दे रहे हैं और किसी भी प्रकार की वैचारिक भिन्नता को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. 

सबसे  पहले तो वह सोशल मीडिया को गरियाते हैं और कहते हैं के इसकी कोई ताकत नहीं है और यह केवल बद्बोलो का आपसी वार्तालाप है, इनका दुनियादारी और ग्रास्स्रूट्स से कोई मतलाब नहीं लेकिन सपा जैसी ग्रामीण परिवेश में ढली पार्टी यदि फेसबुक अपडेट से घबरा गयी तो मतलब साफ़ है के हम सही रस्ते पर चल रहे हैं. मतलब यह भी की सोशल मीडिया से लोगो में खासकर मीडिया और  राजनैतिक  दलों  में घबराहट है क्योंकि इसकी पहुँच को वे जानते हैं और यह के आज ये ओपिनियन मेकर का काम कर रहा है और लोग खबरों को जानने के लिए अखबार जरुर पढ़ते होंगे लेकिन विचारों के लिए वह अब सोशल मीडिया की और रुख कर रहे हैं. इसलिए हमें तो ख़ुशी होनीचाहिए के सरकार में बैठे लोग सोशल मीडिया को गंभीरता से ले रहे हैं. 

आखिर  कँवल जी के अपडेट में ऐसा क्या था के कोई दंगा फसाद होने के चांसेस थे जैसा की पुलिश की ऍफ़ आई आर कहती है ? क्या कंवलजी ने किसी को माँरने की धमकी दी  या किसी धर्मस्थल को तोड़ने की या किसी की दिवार गिराने की कोशिश की जो उन पर लोगो को भड़काने के आरोप लगाए गए हैं. मुझे उम्मीद है कभी सुप्रीम कोर्ट इस बारे में निर्देश करेगा की सत्ताधारियों को  आने वाले  समय में सोशल मीडिया को कैसे हैंडल  करना चाहिए।

असल में सत्ताधारी तिलमिला गए हैं और वोह किसी भी प्रकार की आलोचना को स्वीकार नहीं कर पा रहे है. टी वी स्टूडियो में बैठे  बड़े पत्रकारों को वो हाथ भी नहीं लगा सकते जो सबह शाम अखिलेश के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं और पुरे राजनैतिक तंत्र को गेरुआ बनाने की कोशिशो में  लगे हुए हैं  और दुर्गा नागपाल के बहाने जिस तरीके से सरकारी बाबु लोगो और मीडिया का नया गठबंधन दिखाई दे रहा है उससे धर्मनिरपेक्ष जातिविरोधी अम्बेडकरवादी प्रगतिशील ताकते ही लड़ सकती हैं लेकिन मुलायम सिंह यादव की पार्टी के अति उत्साहित नेताओं ने कँवल भारती जैसे साहित्यकार को  सबक सिखाने की जो कोशिश की है वोह उनकी पार्टी को भारी पड़ेगी और इसका लाभ हिंदुत्व की सेना लेने की कोशिश करेगी . 

समाजवादी पार्टी को सेकुलरिज्म से कोई मतलब नहीं वो तो उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की 'सुरक्षा' की लम्बरदार है और इसलिए वह हर एक ऐसा काम करेगी जहाँ यह दिखाई दे के मुसलमानों का 'भला' हो रहा हो चाहे वह सचर आयोग की सिफ़ारिशो को लागु करे या नहीं। वोह बताये की उत्तर प्रदेश पुलिश और प्रशाशन में कितने मुसलमान हैं ? असल में इस प्रकार के घटनाक्रम मुसलमानों का लाभ कम और हानि ज्यादा करते हैं क्योंकि वो सांप्रदायिक ताकतों को और मौका देते हैं लेकिन मुलायम और उनकी पार्टी भी मुसलमानों की राजनीती की करती है लेकिन अफ़सोस के देश के १५-२० करोड़ मुसलमानों में उसे जनता में काम करने वाले इमानदार मुस्लिम नेता नहीं दिखाई देते ?

कँवल भारती की गिरफ्तारी की कड़ी निंदा की जानी चाहिए और लेखको, साहित्यकारों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को सड़क पर आना होगा क्योंकि सत्ताधारी अब साम दाम दंड भेद की रणनीति की अपना रहे है. उनका टारगेट आम आदमी है और वे उनको डरा धमका कर उनका मुह बंद करना चाहते हैं. अभिव्यक्ति की आज़ादी पर इतना खतरा कभी नहीं था जितना आज दिखाई देता है और आज साथ खड़े होने का वक़्त है, आज लोहिया को याद करने का वक़्त है और उनकी क्रांतिकारी बात को भी बताने का वक़्त है के सोशल मीडिया के समय में जनता 'पांच साल इंतज़ार नहीं करेगी'. अब धैर्य रखने का और चुप रखने का वक़्त नहीं, जुबान  खोलनी पड़ेगी। हम सब अभिव्यक्ति की आज़ादी इस संघर्ष में साथ साथ हैं। 

Monday 5 August 2013

सांस्कृतिक बदलाव के बिना राजनैतिक परिवर्तन बेकाम का



विद्या भूषण रावत 

७ अगस्त १९९० को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने संसद में घोषणा की के मंडल आयोग की सिफारिसो को सरकार ने स्वीकार कर लिया है और अन्य पिछड़े वर्ग के लोगो के लिए २७% आरक्षण लागु किया जायेगा। घोषणा का सर्वत्र स्वागत किया गया और बात बीत गयी. १५ अगस्त को प्रधानमंत्री ने आंबेडकर जयंती पर सार्वजानिक अवकाश की घोषणा की . उससे पहले वह १२ अप्रेल १९९० को बाबा साहेब आंबेडकर चित्र को संसद में सम्मानपूर्वक स्थान दिला  चुके थे और उन्हें भारत रत्न से सम्मानित करने का फैसला किया। इसी वर्ष बाबा साहेब की जन्मसदी को भारत सरकार ने बहुत धूम धाम से मनाया और आंबेडकर सह्हित्य को हिंदी में प्रकाशित करवाने के लिए प्रयास किये. इसी वर्ष नव्बौधो को अनुसूचित जाति के आरक्षण में शामिल किया गया. यह  मैं इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि अक्सर मंडल आयोग की सिफरिसो को लागु करने के लिए भी हमारे बहुत से 'महात्मा' विश्वनाथ प्रताप सिंह को श्रेय नहीं देना चाहते। कुछ कहते हैं के यह एक राजनैतिक निर्णय था जो देवीलाल से टकराने के उद्देश्य से लिया गया लेकिन बात यह है के हर चीज में राजनीती होती है और इसलिए यदि मंडल का निर्णय गलत नहीं था तो मुलायम को देवीलाल के साथ देने की जरुरत नहीं थी लेकिन उन्होंने ऐसा ही किया और वह मंडल के धुर  विरोधी चंद्रशेखर के पास चले गए. मैं यह मानता हूँ के चाहे कैसे भी यह निर्णय लिया गया यह भारत की राजनीती में एक दूरगामी परिवर्तन लाने वाले ऐतिहासिक निर्णय बना

मेरे कहने का मतलब  यह है के स्वाधीन भारत में यह एकमात्र ऐसे सरकार थी जो वाकई में दलित पिछडो और आदिवासियों के हितो के प्रति सोच रखती थी और इसलिए उसके हरेक निर्णय न केवल गहन संकेतो वाले थे अपितु उन्होंने लोगो में गहरी छाप छोड़ी। क्या यह हकीकत नहीं है के स्वाधीनता के  गुजरने के बाद भी सरकारों ने बाबा साहेब आंबेडकर को वोह स्थान नही प्रदान किया जिसके वे हकदार थे और उनके साहित्य जो जनता से छुपाया गया. इसलिए विश्वनाथ प्रताप और उनकी सरकार को मात्र मंडल से न जोड़े अपितु उनके एक्शन की हकीकत को समझने की जरुरत है जिसने भारत की राजनीती में दूरगामी परिवर्तन ला दिया है. 

मंडल ने विश्वनाथ प्रताप को भारत की राजनीती का सबसे बड़ा खलनायक बनाया और उनके सबसे शुभचिंतक भी उनके दुश्मन हो गए. वोह लोग जो उनकी इमानदारी पर कसीदे पढ़ते थे वो एकदम उनके विरोध में खड़े हो गए. इससे यह बात भी जाहिर होती है के ऊँची जाति की 'विशेषज्ञ' कभी भी इमानदार लोगो के  साथ नहीं खड़े रहे क्योंकि अगर जातीय सर्वोच्चता और ईमानदारी में एक को चुनना हो तो वे जातीय सर्वोच्चता को चुनेंगे और इसलिए विश्नाथ प्रताप उनके सबसे बड़े दुश्मन हो गए और उनकी मौत तक उन्हें सवर्ण हिन्दुओ की गालियाँ पड़ी लेकिन इतना सत्य है आने वाली पीढियां  जब भी इतहास इतिहास का आंकलन   करेंगी तो  विश्वनाथ प्रताप की ऐतिहासिक भूमिका को नज़रंदाज़ नहीं कर पाएंगी। 

मंडल के महिमंडल को कम करने के लिए ही  लाल कृष्णा अडवाणी और संघ परिवार ने अपनी कुत्सित रणनीति भी बना ली और रथयात्री ने सोमनाथ से अयोध्या तक की यात्रा करने का निर्णय लिया और खुले तौर पर अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की घोषणा की. यह बात में साफ तौर पर कहना चाहता हूँ के संघ परिवार का निशाना मुसलमानों पर जरुर था लेकिन उनके असली निशाने परे दलित पिछड़ी जातियां थी क्योंकि मंडल के बाद इन जातियों में आपसी तालमेल बढ़ रहा था वोह ब्राह्मणवादी शक्तियों के लिए खतरनाक था. संघ को पिछडो को नौकरियों में आरक्षण से कुछ खतरा नहीं था उन्हें  असली डर था दलित पिछडो के हाथ दिल्ली की सत्ता की आने से \. मंडल विरोध में दिल्ली और अन्य नगरो में पाखंडी हिन्दुओ का जो नाटक हुआ उस पर मुझे ज्यादा बोलने की जरुरत नहीं लेकिन उसने ये साबित किया हिन्दुओ के लिए दलित और पिछड़े उनकी जनसँख्या बढाने के आलावा कुछ नहीं। जब सत्ता में बदलाव की बात आती है तो सवर्ण हिन्दू तिलमिलाने लगते हैं और उनकी इन उलजलूल हरकतों को जातिवादी स्वर्न्वादी मीडिया ने जिस तरीके से प्रचार किया उससे पता चलता है के यह हिंदी अखबार नहीं अपितु हिन्दू अख़बार बन गए थे. 

दलित और पिछडो के आत्म स्वाभिमान जागने से संघ और उनके मठाधिशो की दूकान बंद होने का खतरा था इसलिए हिन्दू स्वाभिमान ने नाम पर राम मंदिर का आन्दोलन चला और मुसलमानों को निशान बनाकर दलित पिछडो के अन्दिर अस्मिता की लड़ाई को दबाने की कोशिश हुइ लेकिन वोह कामयाब नहीं हुई. उत्तर प्रदेश और बिहार ने मंडल के बाद नई शक्तियों का उदय देखा और उनसे उम्मीद की गयी थी के वे अस्मिता की इस जंग को आगे  ले जायेंगे और समाज को नई दिशा देंगे। मुलायम ने कभी मंडल का समर्थन नहीं किया और उसको लागु करवाने में भी वी पी को बहुत मशक्क्त  करनी पड़ी. 

विश्वनाथ प्रताप की सरकार अयोध्या में हिन्दू आतंकवादियों के उन्माद से बाबरी मस्जिद को बचाने में कामयाब रही लेकिन उसे अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी . उस सरकार ने समझौता परस्ती नहीं की इसलिए वो चली नहीं। यह एक दुखद सत्य है के वह सरकार संविधान को बचाकर चली गयी लेकिन उसके बाद की सरकारों ने संविधान के साथ खिलवाड़ किया और  तब भी बेशर्मी से चलती रही. 

मंडल के नाम पर मलाई खाने वाले राजनीतिज्ञों ने मंडल की क्रांति को रोका है इसलिए समय आने पर जनता उनसे हिसाब लेगी। मंडल  सामाजिक न्याय का राजनैतिक हथियार है जो जातिगत अस्मिता की राजनीती तक सीमित नहीं किया जा सकता। मंडल भारत के अन्दर प्रभुत्ववाद की राजनीती को समाप्त करने का सबसे बड़ा साधन है इसलिए यदि मंडल की राजनीती से उपजी पीढी  प्रभुत्ववाद और परिवारवाद की सबसे बड़ी पोषक होगई तो वोह केवल अमंगल करेंगी और अमंडल भी. नतीजा सामने है. बिहार और उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय के नाम पर जातीय पूर्वाग्रहों का खुला खेल दिखाई दिया और जो ताकत प्रभुत्ववादियों को समाप्त करने में लगनी चाहिए थी वोह दलितों के विरोध में चली गयी जो बेहद शर्मनाक है. मामला केवल यही तक सीमित नहीं रहा मौका परस्ती देखिये तो पिछडो को भी आरक्षण के नाम पर धोखा दे दिया गया. 

क्या मंडल के सही वारिस कभी दलित विरोधी हो सकते हैं और क्या उन्हें ऐसा होना चाहिए।मंडल की मार में सबसे ज्यादा गालियाँ वी पी, राम विलास पासवान और शरद यादव को पड़ी और मंडल की लड़ाई में सबसे आगे दलित थे . उस वक़्त तक पिछड़ा आन्दोलन और नेतृत्व ना के बराबर था इसलिए सडको पर दलितों ने लाठी  डंडा खाया। यह इसलिए लिखना पड़ रहा है क्योंकि उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ने जिस बेशर्मी से पदोन्नतियों में आरक्षण के विरूद्ध संसद में बदतमीजी की और उसके बाद उत्तर प्रदेश के जातिवादी सरकारी कर्मचारियों को दलित कर्मचारियों के विरुद्ध खड़ा किया उसकी मिसाल देते नहीं बनेगी . यह निहायत ही घटिया और तुच्छ राजनीती का प्रतीक थी. हमें  अखिलेश यादव से बहुत उम्मीदे थी लेकिन लगता है के कई चाचाओं और दाद्दाओ के चलते वो कोई भी स्वतंत्र निर्णय लेने में असमर्थ हैं . दलितों के आरक्षण के मसले को पिछड़ी जातियों की घृणा में बदलना शर्मनाक था और यह केवल आरक्षण तक ही सीमित नहीं था गाँव में दलितो को धमकाना और गरियाना एक धंधा बन गया. लेकिन दलित बहुजन प्रश्नों को यदि सही समझ हम रखते हैं हैं तो पिछडो को भी पता चल गया के वर्तमान सरकार आरक्षण में पिछडो को न्याय नहीं दिल पाएगी। लेकिन वो जानती हैं के जाति उसके साथ है और यही हमारी सबसे बड़ी हार है . जातिवाद बहुजन आन्दोलन को ले डूबेगा इसलिए अब जाती के खूंटो को काटकर सांस्कृतिक क्रांति की भी जरुरत थी. बाबा साहेब आंबेडकर का प्रबुध भारत का सपना केवल दलितों के लिए ही नहीं था वोह पिछड़ी जातियों और न्य सभी पर भी लागू होता है और बुद्धा केवल एक  वर्ग या जाति विशेष के नहीं थी अपितु दुनिया को भारत की सबसे बड़ी धरोहर हैं और यदि बहुजन समाज भी बुद्ध से कुछ प्रेरणा ग्रहण करेगा तो कोई बुराई नहीं है क्योंकि सांस्कृतिक क्रांति के आभाव में बहुजन समाज ब्राह्मणवादी  परम्पराओं का सबसे बड़ा पोषक रहेगा और बदलाव की दिशा का सबसे बड़ा रोड़ा।

पिछड़ी जातियों के राजनैतिक चिंतन में यदि आंबेडकर फुले पेरियार नहीं तो वोह अवसरवादी मनुवादी जातिवादी राजनीती ही करेंगी और उसका पूरा शिकार दलित और अति पिछड़ा होगा। मंडल ने प्रभुत्ववाद को खत्म किया अतः इसके जरिये यदि फिर से प्रभुत्वाद पैदा होगा तो अन्य जातियां विद्रोह करेंगी। राजनैतिक समझ के चलते लोग और जातियां प्रभुत्ववादी और वर्चस्वादी विचारधारो को छोड़ेंगे और इसलिए ही इतने नए दल और  नेता आ रहे हैं. मैं साफ कहना चाहता हूँ के सांस्कृतिक परिवर्तन में उनको भी लगना  पड़ेगा नहीं तो उनकी स्थिति मनुवाद के 'स्वयंसेवक' की होगी ।

जिस दिन सभी वर्गों में राजनैतिक चेतना होगी और सांस्कृतिक परिवर्तन आ गया तो वोह हिंदुत्व के छिपे अजेंडे को पहचान सकेंगे क्योंकि 'अस्मिता' के मनोविज्ञान को सबसे पहले संघ परिवार समझा इसलिए राम मंदिर आन्दोलन के लिए ईंटे  चुनने का काम दलित पिछडो को सौंपा गया और आंबेडकर भी 'प्रातः स्मरणीय' हो गए. अब यह कौन बताये की आंबेडकर ने तो राम और कृष्ण की पहलियों को अछ्छे से बुझा। इसलिए संघ और हिंदुत्व उन  अंतरविरोधो पर अपनी राजनीती करते हैं जो इस वर्णवादी व्यवस्था की देंन हैं और इसीलिये  एक के बाद एक 'सांस्कृतिक' क्रांति के लिए पिछड़ी जाति  के बाबाओं की कतार लग गयी जो हमारी राजनैतिक चेतना को खत्म करने के लिए काफी है . किसी भी समाज की राजनैतिक चेतना को खत्म करने के लिए उसे विचारारिक रूप से पंगु बनाने के लिए उसके हाथ में कमंडल पकड़ा दो और धर्म की ढकोस्लेबाजी में उसको फंसा दो ताकि वह उससे बाहर न निकल सके. जिस  समाज में राजनैतिक चेतना का अभाव होगा तो वोह कभी भी बदलाव नहीं ल सकते  इसलिए मंडल का आन्दोलन केवल जातिवादी नहीं हो सकता बल्कि सांस्कृतिक राजनैतिक क्रांति का एक बहुत जबरदस्त हथियार बन सकता है और उस हथियार को मजबूत करने के लिए बहुजन समाज के सभी लोगो को वैचारिक परिवर्तन की लड़ाई भी लडनी पड़ेगी और उसके लिए भारत की अर्जक और मानववादी चेतना के सारे योध्धाओ को अपना नेता मानना पड़ेगा और अपनी जाति के ब्राह्मणवादी नेताओं और परिवारों के विरूद्ध  बगावत करनी पड़ेगी। अब समय आ गया है एक नयी राजनैतिक पहल का जो दलित पिछडो आदिवासियों मुसलमानों और अन्य संघर्षशील अन्दोलनो की एकता का जो भारत की विविधता का सम्मान करे और हमारे धर्मनिरपेक्ष और  समाजवादी संविधान  को मज़बूत करे, आदिवासियों, दलितों और अन्य लोगो के जल जंगल और जमीन के  अधिकारों को  बचा सके. आज के पूंजीवादी व्यवस्था ने पहले ही सरकार का  हस्तक्षेप  ख़त्म कर दिया है और समाज के अर्जक तबको को सबसे मुश्किल हालातो में डाला है. पूंजी के वर्चस्व ने एक नए प्रभुत्व को जन्मदिया है और हमारी वर्तमान राजनैतिक दल इससे निपटने में पूर्णतया फ़ैल रहे है क्योंकि की पूंजी और पैसे के आगे वे भी घुटने टेक चुके हैं. इसलिए मंडल को इस सन्दर्भ में देखना पड़ेगा के हम हर प्रकार के प्रभुत्ववाद का विरोध  करेंगे और सत्ता में सबकी भागीदारी के लिए संघर्ष करते रहेंगे . मंडल की ताकते  धार्मिक प्रतिक्रियावादी ताकतों का जमकर विरोध करेंगी और भारत को एक प्रगतिशील भारत बनाने के लिए न केवल सत्ता और राजनैतिक परिवर्तन को  हथियार बनायेंगी अपितु सांस्कृतिक परिवर्तन की लड़ाई भी लड़ेंगी क्योंकि उसके आभाव से में वे हमेशा अपनी पहचान के संकट से गुजरती रहेंगी। अभी तो बस इतना ही की मंडल दिवस अब सामाजिक न्याय ही नहीं सामाजिक परिवर्तन का दिवस बने यही कामना है 

Sunday 21 July 2013

Lokaayat: तोगड़िया के प्रशंशक मेडिकल एथिक्स पर कभी नहीं चल स...

Lokaayat: तोगड़िया के प्रशंशक मेडिकल एथिक्स पर कभी नहीं चल स...:   विद्या भूषण रावत  गत शनिवार को देश के  नामी गिरामी मेडिकल कालेज में मेडिकल एथिक्स पर  एक लेक्चर के लिए आमंत्रित किया  गया था. आय...

तोगड़िया के प्रशंशक मेडिकल एथिक्स पर कभी नहीं चल सकते


 

विद्या भूषण रावत 

गत शनिवार को देश के  नामी गिरामी मेडिकल कालेज में मेडिकल एथिक्स पर  एक लेक्चर के लिए आमंत्रित किया  गया था. आयोजको ने मुझसे भी पांच मिनट बोलने के लिए कहा ताकि मैं  अनुभव उनके साथ शेयर कर सकूं और हालेंड से आये हमारे अतिथि को भी आरंभिक जानकारी हो जाए. 

मैंने बोलना शुरू किया और कहाँ  पे हमारे डॉक्टर और हमारे अस्पताल चिकित्सा नैतिकता का उल्लंघन कर है. आखिर उत्तर प्रदेश में सफाई कर्मी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में ऑपरेशन कर और  हमने कई बार   समाचारों में देखा और पढ़ा जिसमे निर्दोष बच्चों की मौतें हुयी हैं . दिल्ली में सफाई कर्मियों की  होती है और पुलिस उन्हें लावारिश दिखाकर २४ घंटो की बाद  परिवार के लोगो को सौंपती है. हाँ, हमारे देश में अभी भी डाक्टरा  मरीजो को हाथ नहीं लगते क्योंकि छुआछूत का डर है. दिल्ल्ली में बड़े अस्पतालों में अभी भी आई सी यू में छोटे मंदिर हैं जहाँ लोग नारियल फोड़ते हैं और पैसे चढाते हैं . क्या यह मेडिकल एथिक्स के विरुद्ध नहीं है ? आज भी दिल्ली में डाक्टर मरीजो को उनकी बीमारी के बारे में ठीक से नहीं बताते और पैसे न होने पर इलाज़ करने से मना  कर देते हैं 

आज दिल्ली में मानसिक रोगों का इल्लाज़  करने वाले डाक्टर गायत्री मंत्र सुनने की सलाह देते है परन्तु सवाल यह है के जो लोग हिन्दू नहीं है उनके लिए क्या दवा होगी ? आप सभी लोग भविष्य के डाक्टर हैं इसलिए मरीजो का इलाज़ भेदभाव और पूर्वाग्रहों के बिना  होना चहिये. आप लोगो ने प्रवीन तोगड़िया का नाम तो सूना होगा . लोग कहते हैं वो भी एक डॉक्टर थे … 

जैसे ही मैंने प्रवीण तोगड़िया का नाम लिया, सबसे पीछे बैठे एक प्रोफेसर खड़े होगये और मुझे भाषण बंद करने को कहा. वोह स्टेज पर आ गए और मेरे हाथ से माइक छीन लिया और मुझे  अपना वाक्य भी पूरा नहीं करने दिया । खैर मुझे संसथान की पॉलिटिक्स का ज्यादा पता नहीं था इसलिए मैं चुपचाप  बैठ गया. प्रोफेसर साहेब ने मेरी आलोचना की और अपने  दस मिनट बाद हालेंड के अतिथि ने भाषण दिया और अपनी बात रखी और मैंने जो बात कही तो उसको उन्होंने अपने वक्तव्य में रखा . 

बाद में बहुत से टीचर्स ने मेरी बात को सही बताया और माना के मेरे वक्तव्य में कोई ऐसी बात नहीं थी जो ऑब्जेक्शनएबल थी और यह भी  बताया की  उन महोदय का संघ प्रेम जगजाहिर है. बस केवल इतनी बात के उन महाशय को आयोजक कुछ कह नहीं पाये. उन्होंने हमारा अपमान तो किया लेकिन कार्यक्रम को सुचारू रूप से चलने के लिए मैंने तो चुप रहा जो ठीक भी था, लेकिन उन महाशय को मैं इतना ही कहना चाहता हूँ के विचारों को रोक नहीं जा सकता और जो तोगड़िया से प्रभावित हैं वोह कभी अच्चे  डाक्टर हो ही नहीं सकते।

आज हमारे संस्थानों में ऐसे जातिवादी तत्त्व बैठे हैं जो जासूसी करते हैं के कही तर्कवादी मानववादी लोग नै पीढ़ी में बदलाव ना ला दे इसलिए ऐसे लोगो से डाक्टरी की व्यवसाय को सबसे बड़ा खतरा है. आज हमें ऐसे डाक्टर चाहिए जो मानवीय सोच रखते हैं और देश, जाती, धर्म और अन्य पूर्वाग्रहों को पार कर चुके हों. तोगड़िया और  माया कोदनानी के प्रशंशक तो सही अर्थो में मेडिकल एथिक्स को मान ही नहीं सकते वो तो मानवता का खून ही करेंगे 


Friday 19 July 2013

मौत का कुआँ




विद्या भूषण रावत 


१ ४ जलाय, रविवार की सुबह का वक़्त था और राजेश अपने चार साथियों के साथ इंदिरा गाँधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट में सेवेज लाइन की सफाई के लिए निकल पड़ा . सामान्यतः यह  छुट्टी का दिन होता है और सब लोग घर  पे अपना काम करते हैं लेकिन पैसे के मज़बूरी ने इन चारो को इस दिन भी काम करने को मजबूर कर दिया उन्होंने सोचा थोडा अतिरित्क्त पैसे से घर के खर्चे निकालने में मदद मिल जाएगी। राजेश के साथ अशोक, सतीश और छोटू भी नई दिल्ली स्थित इंदिरा गाँधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट के कैंपस की और निकल पड़े। 

कैंपस में जाकर उन्हें बताया गया के ६ सीवेज टैंक्स की सफाई करनी है जो ए सी प्लांट के पास हैं  इसलिए सुबह से ही उन्होंने काम करना शुरू कर दिया ताकि दिन होते घर निकल जायेंगे। करीब ६ बजे तक उन्होंने ५ टैंक्स की सफाई कर दी थी लेकिन अंतिम पिट की सफाई में हादसा हो गया.  पुलिस उन्हें राम मनोहर लोहिया अस्पताल में ले गयी जहाँ राजेश, अशोक और सतीश को मृत घोषित कर दिया गया. अफ़सोस इस बात का है के सरकार के एक प्रमुख संस्थान के अन्दर हुई इन मौतों की कोई जांच नहीं हुई है और पुलिस और अस्पताल ने सभी को अननोन या लावारिस समझ कर मृतक घोषित कर दिया गया और उनके परिवारों को इस प्रकार से चुपचुपी में सुचना दी गयी के वे सुबह तक ही अस्पताल से शव ले पाए. अगर संसथान में किसी सवर्ण जाती के व्यक्ति की मौत होती या वो जो सफाई का कार्य नहीं कर रहा होता तो क्या पुलिस और अस्पताल का रवैया ऐसे रहता . 

अशोक के घर पर भी मातम है क्योंकि परिवार में दो लडकिय और दो बेटे हैं जो छोटे हैं और वह भी किराये के मकान में रहता है. पांच हज़ार तनख्वाह में से चार हज़ार किराये में निकल जाते हैं और इसलिए वह ढोल बजाने का कार्य भी करता था जिससे थोडा अतिरिक्त आय हो जाती थी. आश्चर्य जनक बात यह के दिल्ली में बी पी एल कार्ड का इंतना हंगामा है लेकिन वो इनमे से एक को भी नसीब नहीं है . 

राजेश के परिवार में पत्नी के अलावा एक बेटी और एक बेटा है. एक जवान बेटी ,की मौत इस वर्ष में हुई और इसीलिये दूसरी की शादी दो महीने पहले कर दिया. छोटा बेटा शायद पहली कक्षा में पढ़ रहा है और इस वक़्त स्कूल जाने के लिए वर्दी नहीं है इसलिए जाने से डरता है . परिवार पर एक लाख रुपैया का कर्ज था इसीलिए वोह दिन रात काम करता था और शाम को घर वापस आकर फिर देर रात तक रिक्शा चलाता था तो घर का खर्च चलता था क्योंकि तीन हज़ार रुपैये किराये में निकल जाते थे और प्राइवेट ठेकेदार से मात्र पांच हज़ार की तनख्वाह पर वो काम कर रहा था. 
 
तीन मौतों के बाद भी कोई चिंता न तो एम् सी डी ने दिखाई और न ही संस्थान के किसी व्यक्ति ने इन मौतों के लिए कोई अफ़सोस या दुःख व्यक्त किया। ठेकेदार का तो क्या कहना उसका तो कोई पता नहीं। इससे पता चलता है के हमारा समाज सीवर में घुश कर उनकी जिंदगी बचने वाले लोगो को कैसा देखता है. यह इस समाज के पाखंड और झूठी शान की कहानी कहते हैं ,  दिल्ली की शान की पीछे एक समाज की कुर्बानिया हैं और उस समाज को हमने जो इनाम दिया वोह था जलालत और छुआछूत का द्वंश। संभ्रांत भारत उनसे केवल काम लेना चाहता है और उनसे काम करवाना अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानता है . 'अगर वोह यह काम नहीं करेंगे तो कौन करेगा' के सवाल खड़े होते है. ' आखिर हम उनसे मुफ्त में तो काम नहीं करवाते । हमारी खोटी ढोंगी मानसिकता में इस काम की कोई कीमत नहीं और जो पैसा हम देना चाहते हैं वोह भीख की तरह से देते हैं.  
 

पूर्वी दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में लगभग ५०००० बाल्मीकि रहते हैं और सभी या तो एम् सी डी या एन डी एम् सी, दिल्ली जल बोर्ड अथवा प्राइवेट ठेकेदारों के साथ काम करते हैं. अधिकांश लोगो को न्यूनतम मजदूरी ही नहीं  मिलती और ठेकेदारों के यहाँ भी रजिस्टर में उनका नाम नहीं होता . सरकार और राजनितिक दलो की लापरवाही के कारण से उनकी स्थिति और विकट हुयी है क्योंकि सैनिटेशन के अलावा दुसरे स्थानों में उन्हें कोई काम नहीं मिलता।

सवाल इस बात का है के इतनी मौतों के बावजूद भी हमारा प्रशासन  कुंडली मारे बैठा है और उसे कोई ख्याल नहीं। हम कहते हैं मैला ढोने का काम बंद होना चाहिए लेकिन क्या काम ऐसे बंद होता है . सीवर पाइप में घुसना भी मलमूत्र के कुएं में जाना होता है और मैं तो इसे मौत का कुआ कहता हूँ जिसमे मर कर आपकी जान की कोई क़द्र नहीं और आप लावारिश की मरोगे। यह शर्मनाक घटनाक्रम है. एक पुरे समाज पे यह काम थोपा गया और फिर उसको अपमान से देखकर उसको और जलील करना क्या जाहिर करता है के  सभ्य कहलाने वाले हमारे संभ्रांत लोग निहायत घटिया, असभ्य और क्रूर हैं जो इस प्रकार की घटनाओं को सही ठहराने की कोशिश करते हैं. 

वाल्मीकि समाज की लड़ाई केवल सरकार से आर्थिक मुवावाजे की लड़ाई नहीं है . यह लड़ाई बड़ी है जिसके लिए दलित  आन्दोलन के अन्दर उन्हें जद्दोजहद करनी पड़ती है क्योंकि वहां भी वो हाशिये पे है. समाज को हाशिये पर धकेल दिया गया है और जिंदगी और मौत से रोज के संघर्षो के कारण अन्य किसी बात पर सोचने का वक्त कहाँ ?

हम सरकार से मांग करते हैं के सीवर में हुई इन मौतों की जांच करवाए और जिम्मेदार अधिकारियों के विरुद्ध कार्यवाही करे, प्राइवेट ठेकेदार को गिरफ्तार करे और इन  घायल व्यक्ति को सम्पूर्ण मुवाजा दे, उनके परिवार का सम्मानपूर्वक पुनर्स्थापन करे. यह तीनो लोग अपना परिवारों को नै दिशा में ले जा रहे थे ताकि उनके बच्चे यह काम न करें लेकिन इनके 'कातिलो' ने उनके परिवारों को सड़क पर ला खड़ा कर दिया है. आज वो अनिश्चय की स्थिति में हैं जो वहुत खतरनाक होती है और जहाँ से अगला रास्ता केवल उनके शोषण का होता है . मानवाधिकार आयोग, दिल्ली सरकार इन पर कार्यवाही करे और इन परिवारों की पूरी जिम्मेवारी ले क्योंकि इन मौत के लिए सरकार और उसका तंत्र जिम्मेवार है . यह मौते असल में हत्या हैं और उन सभी लोगो पर हत्या का मुकदमा चलना चाहिए जिन्होंने इन सभी को मौत के इन कुओं में धकेला।

हमारे एक पाठक ने अंग्रेजी में लिखे मेरे लेख पर अपनी टिपण्णी में लिखा के ' अब सरकार को सफाई का कार्य भी बंद करवा देना चाहिए'. यह एक अस्वेंदंशील टिपण्णी है क्योंकि सवाल यह है के यदि सफाई का कार्य करते ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया, जैन, मारवाड़ी या कोई और इन मौत की कुओ में घुसता तो आज तक दिल्ली की सडको में मानवाधिकार के उल्ल्लान्घन के नारे गूंजते। आखिर एक समाज विशेष यह काम क्यों करे? आखिर देश में, घरो में सफाई का ठेका एक समाज विशेष क्यों ले और फिर जव सफाई में पैसा आ गया तो दुकान का ठेकेदारी इन लोगो के पास नहीं लेकिन काम की जिम्मेवारी इनकी। दूसरी बात, सीवर लाइन में घुसने से हर वक़्त मौते हो रही हैं और सरकार बताये के मरने वालो को अभी तक क्या दिया ? सफाई के काम को बंद करने को कोई नहीं कहता लेकिन उसको करने की जिम्मेवारी एक समाज की क्यों? और उसके करने पर मरने वाले लावारिश की तरह क्यों छोड़ दिए जाते हैं ? हमारे पाखंडी, दकियानुशी समाज को इसका जवाब देना होगा ? 

Wednesday 17 July 2013

अपराधी बनाने की तरकीब


विद्या भूषण रावत 

परसों शाम महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ के छात्र नमोनारायण मीणा ने मुझे फ़ोन किया तो उनकी आवाज में एक अजब सा तनाव था। 'सर हम लोगो को सी आर पी ऍफ़ ने गिरफ्तार कर लिया है', उन्होंने कहा ? मुझे समाझ नहीं आया तो मैंने पूछा क्यों और तुम कहाँ हो ? 'हम ८ छात्र बनारस से पूर्वी चम्परान आये हुए हैं और एक कार्यक्रम में शिरकत कर रहे हैं। इस गाँव में हमारा सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा था. मुझे ध्यान है नमोनारायण इस सांस्कृतिक ग्रुप के विषय में मुझसे अक्सर चर्चा करते हैं और मैंने भी हमेशा कहाँ के थिएटर और नुक्कड़ नाटको के जरिये हम अपनी बात को अच्छे से समाज में पहुंचा सकते हैं। नमो नारायण ने बस इतना कहाँ के सर हम केवल आपको जानकारी दे रहे हैं ताकि साथियों की जानकारी में रहे के वे कहाँ हैं और किन परिस्थितियों में गिरफ्तार हुए है। मैंने उनसे कहाँ के मुझे जानकारी दे के क्या स्थिति है ताकि मैं लोगो से संपर्क कर सकूं। रत में करीब साढ़े नौ बजे पुनः नमो नारायण का फ़ोन आया और अबकी बार तनाव उसके चेहरे पे साफ़ पढ़ा जा सकता था। सर, यह लोगो हमको कही ले जा रहे हैं और हमें कुछ बताया नहीं जा रहा . चारो तरफ अँधेरा है और जंगल है। मैंने उनसे पूछा के क्या इन लोगो ने तुम लोगो से मार पिटाए हुई क्या तो पता चला के अच्चे से की गयी। खैर मैंने कहा के थोड़ी देर में मैं बिहार के अपने साथियों से फोन पर बात कर इन छात्रो तक पहुचने की कोशिश करता हॊ क्योंकि ८ या ९ छात्रो को इस तरीके से पुलिस कहाँ ले जा रही है इसकी जानकारी होनी चाहिए . पटना, चंपारण सभी जगह कोशिश की मित्रो को पकड़ने के लेकिन कामयाबी नहीं मिली फिर खालिद भाई से संपर्क किया तो पता चला वोह भी दिल्ली से बहार है लेकिन उन्होंने अली अनवर साहेब से बात करली थी और हमने भी अली अन्वर जी का संपर्क नमो नारायण को दे दिया। मैंने सोचा के जब ये लोग अपने गंतव्य पर पहुँच जाएँ तो फिर बात करूंगा लेकिन यह क्या रत के साढ़े दस के बाद फ़ोन स्विच ऑफ जा रहा था। मैं जानता हूँ पुलिस वाले फ़ोन, लैपटॉप पहले ले लेते हैं और बात भी बाद में करेंगे पहले पिटाई करते हैं इसलिए मेरी चिंता बढ़ गयी।

सुबह फिर कोशिश की लेकिन कोई संपर्क नहीं हुआ तो नमो नारायण के साथी पंकज गौतम से बात हुई और उन्हें भी इस विषय में बहुत जानकारी नहीं थी। इस पुरे मामले की सबसे ख़राब बात यही थी के किसी को भी जानकारी नहीं दी गयी थे। खैर पंकज ने मुझे बताया के वह साथियों से संपर्क करके पता करेगा और मुझे जानकारी देगा। वैसे थोडा बहुत उसे पता था के यह लोग बिहार गए हैं। दोपहर में पंकज ने मुझे बताया के इन लोगो को गया लाया गया है और शायद दोपहर तक छूट जायेंगे। लेकिन दोपहर में भी फोन पर नमोनारायण से बात नहीं हो पाए और अंततः छूटने के तुरंत बाद उन्होंने मुझे फोन किया तो मैंने ये प्रश्न ही पूछा के तुम्हारा फोन बंद क्यों था तो उसने बता दिया के जिस वक़्त वह अली अनवर जी से बात कर रहा था और उन्हें जानकारी दे रहा था एक पुलिश अधिकारी ने वोह बात होने नहीं दी और फोन छीन लिया और उसके बाद से ही उसे बंद कर दिया गया।

खैर इस घटना की कड़ी निंदा की जानी चाहिए क्योंकि यह सभी छात्र समाज बदलाव के लिए अपनी हैसियत के मुअत्ताबिक कुछ करना चाहते थे और उन्हें गिरफ्तार किया गया और मानसिक तौर पर प्रताड़ित किया गया और मार पिटाई की गयी। पुलिस ने तो अखबारों को भी बताया की इन लोगो को माओवादी बताकर पकड़ा गया है. फिलहाल यह लोगो को मोतिहारी में ले जाया गया और शाम तक छोड़ दिया गया है .

मैं सभी साथियों से अनुरोध करता हूँ के अपने काम के प्रति उद्देश्यों को कम न करें लेकिन बहुत सावधानी से काम करे। सभी के संपर्क में रहे और स्थानीय संघठनो का सहयोग ले. कही भी ऐसे ही मत जाइये और सभी साथियों को अपने पुरे कांटेक्ट दीजिये . भारत की पुलिस और प्रशाशन आपके विचारो से डरता है। वोह चाहता है आप कुआ खोदे, सड़क बनाएं खडंजा बनवाए, कंडोम बेचें, दूकान लगवाएं, 'भलाई' करें लेकिन आप कोई विचार न दें।। यह विचार से डरने वाले लोग हैं और हमें देखना है की कैसे हम अपने जनमानस को तर्कशील और राजनैतिक तौर पर परिपक्व बना सकें। सभी साथियों को ऐसी घटनाओं की कड़ी निंदा करनी चाहिए क्योंकि अगर इन सभी साथियों के नाम इमरान, सुल्तान मोहम्मद या कुछ और होते तो मैं शर्तिया कहता हूँ के लश्कर, इंडियन मुझाहिदीन या कोई और कह दिया जाता और अगर एनकाउंटर हो जाती तो आश्चर्य नहीं होना चहिये। यह समय है संविधान प्रदत् अधिकारों को मांगने का और उन्हें लागू करवाने का। हम एक मिलिट्री राज्य बन रहे हैं और सत्तारूढ़ तकते यही चाहती हैं के हमारे विचारो की धार कुंद हो जाए और हम पूंजी और धर्म के धंदे में फंसकर इनकी शरण में नतमस्तक रहे।