Friday 12 October 2012

An answered question of 'uncommon' people



अनाम जनता के प्रश्न 

विद्या भूषण रावत 


राबर्ट वद्र के डी एल एफ के रिश्तो को उजागर करने पर कई महारथी अरविन्द केजरीवाल का शुक्रिया अदा कर रहे हैं और कह रहे हैं के अब राजीनति में कोई भी पवित्र गाय  नहीं रही क्योंकि जब गाँधी परिवार पर हमले शुरू हो गए हैं तो किसी को भी क्यों छोड़ा जाये। लेकिन हकीकत यह है के वद्र एक बहुत छूती आइटम हैं इस पूरे दर्शन में। क्या वाकई में हमने पवित्र गायों पर हमला किया है या हम चालबाज़ हैं और बुइल्दारो के इस खेल को नैताकता का लबादा ओढा के भ्रस्थाचार के विरुद्ध जंग का नाम दे रहे हैं। 

राजीनति में भ्रस्थ्चार कब से बढा इसके लिए नरसिम्हा राव के बाद के परिस्थितियों को समझना पड़ेगा जब देश में निवेश के लिए सरकारों ने जमीनों और प्राकृतिक संशाधनो पे हमला करना शुरू किया। नेताओ, अधिकारीयों और लालाओ की लूटखोर और घूश्खोर जमातो का गठबंधन हो गया और मिलजुल के खाने का एक नया दौर चला। जहाँ उद्योगपतियों को राजनीती भने लगी वही नेताओ ने उद्योग लगाने शुरू किया। दोनों तब तक अच्छे थे जब तक एक दुसरे के क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं कर रहे थे। लेकिन जब नेताओ ने उद्योगपतियों पर ही डाका डालना शुरू किया तो उन्होंने भी कमर कास ली और 'विकल्प' देना शुरू कर दिया। असल में अन्ना-केजरीवाल उसी विकल्प का हिस्सा हैं। हलानिक इन सबके पीछे संघ के योध्द्य दिन रत लगे रहे। लेकिन महत्वाकांक्षाओ का टकराव होना लाजमी है। जैसे अन्ना और अरविन्द का टकराव पैसे का तो रहा होगा लेकिन मह्त्वकअंक्षा का भी था। अरविन्द और उनकी टीम अन्ना को मुखौटा बना कर खुद निर्णय लेना चाहती थे और अन्ना पहले मुखौटा बने रहे लेकिन बाद में उन्हें लगने लगा के सब उनके कारण ही चल रहे हैं तो उन्हें यह दिखने की जरुरत पडी की अन्दोनल उनकी उपज था और वोह राजनीती से घृणा करते हैं। अन्ना को पता है राजनीती में महारास्त्र के अन्दर ही उनकी दुर्गति हो जाएगी। लेकिन केजरीवाल के इरादे दुसरे थे। वह जानते हैं के दिल्ली के मध्यवर्ग में गाँधी परिवार के प्रति बहुत घृणा है और यह अब जातिगत स्वरुप में भी दिखाई देती हैं। मूलतः यह माध्यावार्ग, आरक्षण विरोधी, सांप्रदायिक और जातिवादी है लेकिन मीडिया के लगातार समर्थन से इसको स्वीकार्यता मिल गयी है। दिल्ली में चुनाव में अरविन्द वोट कटुआ तो बन सकते हैं और वोह किसका काटेंगे ये जानने के जरुरत नहीं है। खैर, मीडिया मैनज करने के बाद केजरीवाल को लग रहा है के वह कुच्छ भी कहें तो  मीडिया  उसका संग्यान लेगा सरकार के लिए मुसीबते पैदा करता रहेगा और वोह इस प्रकार से समाचारों में बने रहेंगे।

मीडिया के माफिया लिंकों का सबको पता होना चाहिए। उनके व्यावसायिक हितो के बारे में भी जानकारी होनी चाहिए तभी हम ऐसे शातिर खेलो को समझ सकते हैं। 1990 में दूरदर्शन पर जब वर्ल्ड दिस  वीक का कार्यक्रम आया तो भास्कर घोष सुचना प्रसारण मंत्रालय के सचिव थे। आरोप लगे थे की एनडीटीवी पर उनकी विशेष कृपा थी क्योंकि राजदीप उसके एक प्रमुख स्तम्भ बने थे। जब स्टार न्यूज़ और एनडीटीवी का मिलन हुआ तो भास्कर घोष के प्रभाव चला। आज सी  एन एन आई बी एन पर अम्बानी का 500 करोड़ से ऊपर का निवेश है। इंडिया टुडे में भी रि ला येंस की बड़ी भागीदारी है। आज बिल्डर और प्रोपर्टी डीलर देश में अख़बार और चैनल चला रहे हैं और अभी तो खबर चल रही है के कैसे बड़े संपादक और पत्रकार सबसे बड़े ब्लाच्क्मैलेर बन रहे हैं। सरकार को यह सब पता है। और राजनीती में सबको ऐसी बाते पता होती हैं।

अगर जांच हो तो पता करे के धीरुभाई अम्बानी भारत में उद्योगों के शंहाँशाह कैसे बने। उन्होंने तो खुद कई बार कहा के बगैर घुश देकर यह संभव् नहीं था। रामदेव के पास इतनी बड़ी सम्पति कैसे आये। और रामदेव तो बेचार शुद्र है इसलिए बहुत आसान टार्गेट हैं जैसे रोबेर्ट वद्र। हिआरे में पुछा म्मत है तो किसी शंकराचार्य पर केस करके दिखाएँ। हिम्मत है तो आर्ट ऑफ़ लिविंग की जांच कराएँ और बताये के यह सब महान आत्माएं कैसे अरबो रुपैया के मालिक बन गए। अरविन्द केजरीवाल करोल्बह के बनियों के बताएं के वे हेर खरीद पर बिल दे तो देश का काला धन ख़त्म हो जाएगा . भारत का महान' व्यापारी बिल मांगने वाले को गाली देता और उसको बताता है बिल मांगोगे तो ज्यादा देना पड़ेगा। कितने लाले अपनी इन्कोमे टैक्स सही भरते और सही दिखाते हैं। 

कभी केजरीवाल और उनके इंडिया अगेंस्ट कोर्रुप्तिओन को मुकेश अम्बानी का 5000 करोड़ रुपैये के आलिशान शहंशाही बंगले के आगे प्रदर्शन करने की जरुरत है या नहीं। यह 5000 करोर क्या मुकेश के पिताजी के हैं,. क्या मुकेश ने इन्वेस्टर्स से इसके  बारे में पुछा। क्या कभी अमिताभ बच्चन के व्यावसायिक रिश्तो को देखा। उनपर कुच्छ लिखा आज अमिताभ महात्मा है जो प्रवचन देते हैं और मीडिया के भाड उनको नतमस्तक सुनते हैं। क्या सचिन तेंदुलकर को कभी पुछा तेरे इतने पैसे का क्या हुआ। लेकिन वोह सब 'मेहनत ' की कमाई है।

भारत के मंदिरों और माथो में सबसे बड़ा भ्रस्ताच्चार है और हम सरअकार से मांग करते हैं इनका नियंत्रण करे और इनकी कमाई पे टैक्स लगाये क्या अरविन्द और उनके नतमस्तक  अनुयायी कभी इन मुद्दों को उठाएंगे अभी एकता परिषद् का इतना बड़ा मार्च था लेकिन हमारे देशी जातिवादी मीडिया की नज़र उस पर नहीं पडी क्योंकि वोह गरीबो का प्रश्न था। वोह लोग 'आम नहीं थे'. भैया अरविन्द मैं भी आम आदमी नहीं हूँ। तुम्हारे जैसे पैसा हमारे पास नहीं है। हम तो सुबह के इन्तेजाम के लिए शाम को सोचते हैं। जिन लोगो के साथ हम लड़ रहे हैं वोह तो आम की गुठली भी नहीं है क्योंकि वोह भी खाने को नहीं मिलती। यह आम आदमी का धंदा बंद करो यार। यह उद्योगों के बादशाह जो आज नैतित्कत के घूँट अपने पालतू लोगो से हमको पिला रहे है उनको बंद करो भाई। बहुत हो गया अब कम पर लौटने की जरुरत है। आम लोगो के लिए तो पूरा देश खड़ा है।। सअर्कार भी उनके साथ है लेकिन जो आम भी नहीं हैं उकी बात कौन कर रहा . वे इश देश की जाती वर्ना रंग, साम्प्रदायिकता सभी का तो शिकार हैं। उनकी जमीनों पर मंदिर, मैथ, गुरूद्वारे, मस्जिद सब बनते हैं और उनकी ही कब्र पर हमारे उद्योग फल फूल रहे हैं। भारत के सभी आम लोगो की जिन्दगी इन्ही लोगो की बदौलत चलती है। आम, लोगो की शान में हमारे अनाम लोग दिन रात लगे होते हैं उनको तुम्हारे   और प्रोपर्टी से कोई सरोकार नहीं वे केवल ये चाहते हैं उनके प्रश्नों को दरकिनार कर देश में हल्ला मचने के राजनीती जो ऐसे लोग कर रहे हैं, जिनके लिये यह अनाम केवल एक तमाशा हैं। आज जरुरत ऐसे अनामं लोगो के प्रश्नों को आगे लाने की है और उसके लिए जो जिम्मेवार हैं उन पर हमला करने की है। माफ़ कीजियेगा मैं केवल राजनीतिज्ञों को गाली देने वालो में और उनको भ्रस्ताचार कहने वालो में नहीं हूँ।मैं जानता हूँ के सफ़ेद कपड़ो के यह बादशाह जो हमारे ऊपर सफलता के रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं उनके हाथ हमारे संशाधनो और उन अनाम लोगो के खून में रंगे हैं और हमारे लड़ाई को ऐसे बैमानो से किनारे कर तथाकथित नेताओ की और सरका देना एक चालाकी और धूर्तता का  कदम है।अपने राजनेताओ से हम निपटते हैं लेकिन इन बादशाहों से भी बी निपटना जरुरी  हैं जिन्हें हम चुनाव के जरिये नहीं हटा पाते।

राजनीती की दुधारू गाया केवल नेताओ के काम नहीं आती वोह इन पाखंडियों के ज्यादा काम आती है जिन्हें हम अंगरेजी हिंदी अखबारों के पेज थ्री में देखते हैं।आज जिन्हें हम रोल मॉडल बनाकर और जिनके जीवन चरित्रों और सफलताओ का व्याख्यान करके बच्चो को सुबह शाम दिखा रहे हैं दरअसल वोही हमारी पवित्र गे हैं और मीडिया की बदमाशियों के चलते और उनकी धुर्त्तात के चलते मुद्दों को बदलने में माहिर लोगो ने लोगो को लूटने वालो को सबसे इमानदार बना दिया। जरुर जनता अपने राजनितिक प्रतिनिधियों से परेशां है क्योंकि इन भ्रस्थ जातिवादी उद्योगों के स्वामियों ने उन्हें ख़रीदा है। आज ऐसे घरानों की ताकत बहुत मज़बूत है और इसलिए जरुरी है के उन पर लगाम लगे और उनकी करनियों और उनके सौदों पर सरकार की नज़र हो। और जो अपने को सामाजिक संघठन और सिविल सोसाइटी कहते हैं उनको भी इन धन्देबजो के धंदे को समझने की जरुरत है। आज भारत को अनाम लोगो के प्रश्नों को देखने की जरुरत है जो इस विकास ने नए मॉडल का शिकार हुए हैं और जिनकी जल जंगल और जमीन पर इन आम लोगो के परम पूज्य लोगो का कब्ज़ा हो चूका है। देश की अनाम जनता इतने वर्षो से संघर्ष कर रही है और यह आम लोग उनके साथ कोई सहानुभूति भी नहीं रखते ऐसे आम लोगो के खास मुद्दे से अनाम लोगो को कोई मतलब नहीं है। और हम सब देख रहे हैं शातिर लोगो के कारनामे जो अनाम लोगो को ख़त्म करने के लिए खास लोगो के साथ मिलकर नए मुद्दों का जाल बुन रहे हैं ताकि देश उन मूलबूत प्रश्नों से अपना ध्यान हटा दे जिसके कारण अनाम लोगो का जीना दूभर हो गया है और जिसके कारण वो इतने वर्षो से अपने जंगलो में, खेतो खलिहानों और पानी के अन्दर संघर्ष कर रहे हैं। अनाम लोगो की एक संघर्षगाथा को जारी रखना है ताकि आम जनता के नाम पर खास लोगो के अजेंडे का मुकाबला किया जा सके