Friday 7 September 2012



विकास का मनुवाद
विद्या भूषण रावत 

इस देश में बड़ी बहस है और कभी कभी हमारे दलित साथी भी वो भाषा बोलते हैं जो नरेन्द्र मोदी की है, चिदंबरम की है और मनमोहन की है. हम सुब्को विकास चाहिए लेकिन उसके मायने क्या हैं. विकास किसका और कैसा. अक्सर हमारे साथी आदिवासियों का मजाक उड़ाते हैं के उन्होंने क्या किया, वोह तो जंगले में रहते हैं और उन्हें अपने अधिकारों का पता नहीं है. इससे अधिक दुखद और बेबुनियाद बात कोई नहीं है क्योंकि अपने क्षेत्र की रक्षा के लिए आदिवासी संघर्ष जारी है. हाँ वोह भोले हैं और मनुवादी तिकड़मे नहीं जानते इसलिए हम उन्हें हलके में लेते हैं  

आज आदिवासी अगर अपने जल जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं तो हम उन्हें भाषण पिलाये जा रहे हैं के तुम विकास करो. सवाल ये है के जब आपके सर पर बन्दूक हो और जब आपको अपने ही घर में उजड़ा जा रहा हो तो क्या करें ? मैं तो हमारे साथियों से कहता हूँ के वो बताएं के बस्तर के आदिवासियों को क्या करना चाहिए और उन्हें बिज़नस कैसे सिखाया जाए. बिज़नस और अन्य चीजे व्यक्तिगत प्रयास होते हैं. हर एक व्यक्ति चाहे किसी भी जाती का क्यों न हो बिज़नस नहीं कर सकता. हम सबको इतनी आसानी से 'ज्ञान' बाँट देते हैं जैसे उन्होंने इन बातो पर विचार नहीं किया.

आज अगर आदिवासी और अन्य सभी को संघर्ष करना पद रहा है तो हमें हमारे देश की नीतियों को सवाल करना होगा. विस्थापन का सबसे बड़ा शिकार आदिवासी हुए हैं और एक व्यक्ति जब अपनी ही जमीन पर अजनबी बनकर रहे और उसकी पूरी संस्कृति और जीवन ध्वस्त हो जाए तो उसके बाद देश का विकास हो या विनाश उसे क्या फुर्सत. यह प्रश्न इतना पाखंडपूर्ण है के देश का विकास चाहिए लेकिन सवाल यह है के विकास किसकी कीमत पर. विकास के लिए किसका बलिदान. अगर इस विकास के दर्द को समझना हो तो टिहरी चले आइये या कुदंकुलन चले, या नर्मदा को देखें. गंगा और उसकी विभीषिका को समझे. ब्रह्मपुत्र की तबाही को देखें. यह प्रश्न केवल जातिगत नहीं अपितु हमारे विकास के माडलों की हवा गोल कर देंगे. कौन सा विकास और कैसा विकास. क्या अपना पर्यावरण और अपने पानी को बर्बाद होने दे. सब जानते हैं आना वाला संघर्ष पानी का है. और देखिएगा कितना भयावह होगा. आज उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल में चलिए तो एक भी स्थान पर साफ़ पानी नहीं है. ज्यादातर बड़े लोगो के घर पर प्यूरीफायर लगा है लेकिन गाँव के गरीब के लिए तो हैण्ड पम्प का पानी भी नसीब नहीं होता. साड़ी नदियाँ ख़तम हैं, खनन जोरो पर है, मल्लाहों की आजीविका पे संकट है और उनके भूखे मरने की नौबत है. अब मेरे पास जब भी ये सवाल आते हैं मुझे उनके संघर्ष में जाना पड़ेगा. मैं उन्हें भाषण नहीं दूंगा के तुम ये करो या वोह करो. सब लोग समझदार हैं और अपनी सीमायें और हकीकत को समझते हैं. पहले आज तो ठीक हो जाए तभी तो भaविष्य ठीक होगा. फिर हर एक तो दूकान नहीं चला सकता और जो दो चार लोग कुच्छ दुकाने खोलते हैं वोह खली बैठे रहते हैं. क्या करियेगा. जब मैंने कसगर समाज से पुछा के तुम और काम क्यों नहीं करते तो सीधे जवाब था कितने लोगो को नौकरी दिलवा दोगे. यह समझना जरुरी है के परिवर्तन सब चाहते है और वोह होगा भी लेकिन यह एक सततशील प्रक्रिया है और धीरे धीरे होता है.

 हमें बताया जाता है के कानून का पालन करो, न्याय प्रक्रिया में जाओ और संविधान के लड़ाए लड़ो. हमें पता है न्यायिक संघर्ष कैसे होता है और कितना लम्बा है. अगर इतना आसान होता तो लोग बन्दूक नहीं उठाते . मैं तो एक संगर्ष में हर न्यायलय में जीता हूँ, लेकिन अपने सामने न्याय होते नहीं देख पाया. न्यायलय को ही विनती करता हूँ के आप अपना निर्णय लागू करो. क्या चीजे इतनी आसान हैं जो हमें दिखती हैं/  एक जज महिला को तलक नहीं देता और कहता है पति से पिटती रहो क्योंकि वोह तुम्हे कम के देता है. कोई और है तो वोह उस कुर्सी को गंगा जल से धो देता है जिसके ऊपर कोई दलित बैठा करता था. यह घटनाएं आज भी बदस्तूर जारी हैं.. चेहरे बदल गए हैं लेकिन चरित्र वही है, घनघोर मनुवादी. 

हमें विकास करना हैं, दिमागी गुलामी से निकलना है लेकिन जब लोग संघर्ष में होते हैं तो केवल साथ दिया जाता है भाषण नहीं. नर्मदा के लोगो ने संघर्स को चुना है. उनकी संस्कृति को समाप्त करने का प्रयास है, उनके जीवन को पूर्णतया समाप्त करने का प्रयास है. २० वर्ष से जमीन पर काम करते मुझे पता है के इस देश ने अपने गरीब जनता को कितना चूसा है. इसका तंत्र कितना खतरनाक और पाखंडी है जो लोगो को भाषण देता है न्याय नहीं. आज भारत का संकट मात्र मनुवाद का नहीं है. मनुवादी अब हर जगह है इसलिए वो आपके पास, आपके रूप और रंग के साथ और आपकी जातिवाला भी हो सकता है इसलिए अब नज़रो को और मज़बूत करने की जरुरत है. दलित आदिवासी और पिच्चादी जातियों के प्रश्न केवल आरक्षण तक ही नहीं है अपितु उनके प्राकृतिक संशाधनो, जल जंगल और जमीन का भी है. यदि हम इन सवालो पर अपने संघरशील साथियों और समाजो के साथ नहीं खड़े दीखते तो कोई एकता नहीं बन पायेगी.

पुनः, एक रास्ट्र और समाज वहां के निवासियों से बनता है. कोई भी समाज या कोई भी रास्ट्र कभी खुश नहीं रह सकता जब उसके लोग दुखी हों. देश की तरक्की में सबकी भागेदारी होनी चाहिए और लोगो को पता होना चाहिए के मेरे 'विकास' के वास्ते दिल्ली में रहने वाले 'बाबु' के पास क्या है . क्या किसी गाँव से पुछा गया के तुम्हे कैसे विकास चाहिए. क्या देश की तरकी के लिए दलित आदिवासियों के घरो को उजाड़कर महल बनाना आवश्यक है. यदि देश के बहुजन समाज की चिता पर रखकर देश का विकास करना है तो शायद प्रकृति की रौशनी में ही काम चलाना अचछा. विकास की मूलभूत अव्धारनाओ को समझना होगा और अगर हमारे घर, खेती और खलिहानों को चौपट कर जो सपने हमें देखाए जा रहे हैं उसको समझने की जरुरत है. 

एक सभ्य समाज अपने लोगो से बड़ा नहीं होता. एक सभ्य रास्ट्र अपने लोगो की कब्र पर विकास नहीं करता. भारत को एक सभ्य रास्ट्र और एक सभ्य समाज बन्ने के लिए जरुरी है विकास का एक ऐसी अवधारणा जहाँ सबका दिमागी विकास हो जो मनुवादियों के हाथ न मज़बूत करे और बराबरी का समाज बनाये. विकास के नाम पर यदि गरीब की कमर पूरी तरीके से तोडनी है तो फिर उसको मुख्यधारा में कैसे लाया जायेगा और फिर वोह कौन सा उद्योगपति बन पायेगा क्योंकि एक अच्छे बिज़नस और विज्ञानं के लिए भी तो हमें अच्छा माहौल और जीवन के स्थिरता चाहिए और जब हमारे घर और खलिहान उजाड़ रहे हों तो हम इसकी उम्मीद कैसे कर सकते हैं. फिर सदियों तो अपनी जिंदगी को पटरी में लाने में लग जाते हैं. जिन लोगो की जिंदगी पटरी पर है वे थोडा संवेदनशील बने और संघर्ष का सम्मान करें.