Sunday 13 May 2018

जातीय दंभ छोड़े बिना नहीं बढ़ सकता आगे समाज





विद्या भूषण रावत


सहारनपुर शहर में फिर से तनाव व्याप्त है. पिछले वर्ष शब्बिरपुर के में ठाकुरों के जातीय उत्पीडन के बाद हुए भीम आर्मी के विद्रोह से सहारनपुर शहर को दलितों की ताकत का अहसाश हुआ था. हालाँकि ऐसा नहीं है के उन्हें इसका पता नहीं था लेकिन जहाँ दलितों की राजनितिक शक्ति में उत्तर प्रदेश में पिछले २० वर्षो से लगातार इजाफा होता जा रहा है वही अधिकांश लोग ये भी मानते थे के राजनितिक सत्ता को तो शीर्ष नेतृत्व को विश्वास में लेकर या राजनितिक बैलेंसिंग को करने के लिए, आसानी से मैनिपुलेट किया जा सकता है लेकिन सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर तो दलितों के विद्रोह का सीधे सीधे उदहारण फिलहाल उत्तर प्रदेश में नहीं था. इसका कारण यह भी था के बसपा की राजनीती के कारण दलितों के बहुत बड़े तबका का राजनीतिकरण हुआ और उसकी संवैधानिक मूल्यों में आशा बढ़ी और उसने हिंसा के रास्ते को कभी नहीं अपनाया लेकिन पिछले कुछ वर्षो में जब दलित में नए युवा अपनी बात रख रहे है, अपनी योग्यता का परिचय दे रहे है और इसलिए अब अपने अपमान को सहने के लिए तैयार नहीं है,

सहारनपुर में भीम आर्मी के प्रदर्शन से उत्तर प्रदेश में सत्ताधारियो और विपक्ष के नेताओं की राजनैतिक ‘असुरक्षा’ को बढ़ा दिया है क्योंकि जहाँ पर उन्हें अपनी परिपक्वता का परिचय देना चाहिए था उसका जवाब वे नए आरोपों और सधी  चुप्पी से दे रहे है जो बेहद दुखद है. इस सवाल के विभिन्न पक्षों को हम बारी बारी से विश्लेषित करने की कोशिश करेंगे.

सबसे पहले तो उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को हिसाब देना होगा जिसने सहारनपुर में शब्बिरपुर के लोगो को न्याय देने के बजाय धमकाने का काम किया और दलितों के लड़ रहे लोगो के उपर ही ऍफ़ आई आर कर डाली. भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद अभी भी जेल में हैं और इलाहाबाद हाई कोर्ट के दो मामलो में उन्हें जमानत दिए जाने के बावजूद भी प्रदेश सरकार ने उन पर रास्ट्रीय सुरक्षा कानून की विभिन्न धाराओं में मुक़दमे ठोके है और उन्हें रिहा नहीं होने दिया. उनके अन्य साथी और भीम आर्मी के वर्तमान अध्यक्ष कमल वालिया भी जेल में हैं और दो दिन पूर्व ही उनके छोटे भाई सचिन वालिया की भी उनके घर के सामने गोली मार कर हत्या कर दी गयी. शब्बिरपुर के दलितों ने महाराणाप्रताप जयंती पर ठाकुरों के जलूस को निकालने के विरुद्ध प्रशासन से अनुमति मांगी थी लेकिन प्रशासन ने जानते हुए भी ऐसा किया और एक निर्दोष को उसके घर के सामने गोली मार दी गयी. प्रशासन का कहना है के मामला संदिग्थ है लेकिन प्रश्न इस बात का है के जिस तरीके के विडियो और सचिन की मौत पर अपने को ठाकुर कहने वालो ने विडियो बनाये है वे शर्मनाक है.

पिछले कुछ वर्षो में जब से भाजपा का हिंदुत्व का अजेंडा चला है उसका सबसे अधिक लाभ चाहे ठाकुर युवाओं को मिला हो या नहीं लेकिन उनके नेताओं की तो मानो चांदी हो गयी. उत्तर प्रदेश के अन्दर २०१४ के ‘देशभक्ति’ के अभियान ने ब्राह्मण ठाकुर नेताओं को पुनर्जीवित किया. मुजफ्फरनगर के परिक्षण से ठाकुरों ने इस क्षेत्र में जाटो और गुजरो की राजनीती को भी किनारे कर दिया और शायद उनके नेताओं को ये लग रहा है के आगे भी इसी प्रकार की ध्रुवीकरण की राजनीती करेंगे तो वो सत्ता की और ले जायेगी लेकिन आज के इस राजनैतिक युग में जब दूसरी जातीया भी अपने अधिकारों के प्रति सतर्क है तो वे भी देर सवेर सवाल करेंगी और अपनी हिस्सेदारी मांगेगी. लेकिन कुछ समय से पूरे देश में खासकर राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि प्रदेशो में राजपूतो के युवाओं का अपनी ‘अस्मिताओ’ को लेकर प्रदर्शन दिखाई दिया. राजस्थान में महारानी पद्मावती को लेकर उन्होंने खूब तोड़फोड़ की और कुछ लोगो ने ये माना भी था के व्यावसायिक लाभ के लिए अक्सर बम्बई के निर्माता निर्देशक ऐसा खेल खेलते है लेकिन उन्नाव के बलात्कार के आरोपित विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को लेकर जैसे उनकी बिरादरी ने प्रदर्शन किया वो शर्मनाक था. इसलिए क्योंकि जो प्रताड़ित महिला थी वह भी राजपूत जाति की बताई जा रही थी तो फिर उसका सम्मान कहाँ है. क्यों नहीं राजपूत युवाओं का खून उस महिला की इज्जत के खौला जिसको आरोपित विधायक ने अपनी दबंगई के चलते तार तार किया. अब तो सी बी आई ने भी स्वीकारा है के विधायक ने महिला के साथ बलात्कार किया लेकिन उत्तर प्रदेश के सरकार या भारत के केंद्रीय मंत्री अथवा उनके संस्कारी समर्थको ने बजाये इसके के मंत्री ओर नेता से सवाल करें, उलटे उनके समर्थन में आना शुरू कर दिया.

राजपूत नेताओं के ये समर्थक आज सड़को पर उतर कर लठैती कर रहे है, भद्दी भद्दी गालिया दे रहे है और जय राजपुताना या भारत माता की जय के साथ अपनी मूंछो को मरोड़ रहे है. कोई भी प्रश्न पर राजपूत नेता अपने समाज की आन मान मर्यादा के प्रश्न खडा कर दे रहे है लेकिन ये प्रश्न भी समझ में आना चाहिए के आखिर राजपूतो के आर्थिक हालत कैसे हैं ? क्या किसी नेता ने सवाल किया के उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी है, उनके बच्चे नौकरियों में है न नहीं, खेती के क्या हाल है आदि आदि. आज़ादी के बाद से ही राजपूतो को बड़े राजाओं और अपनी जाति पर गौरव करने के अलावा कुछ नहीं सिखाया. ज्यादातर जमीन जमींदारी उन्मूलन के समय चली गयी. बचे खुचे जमींदार पार्टियों के नेता बन गए. राजाओं की जमीनों पर तो कोई फर्क नहीं पड़ा लेकिन बाकि गरीबो के हालात ख़राब होते चले गए. नौकरी करने को तौहीन समझा गया इसलिए राजपूतो का भारत सरकार की नौकरियों में प्रतिशत बहुत कम है. अयोध्या के राम मंदिर आन्दोलन में में इतनी बड़ी संख्या में राजपूतो का संप्रदायीकरण नहीं हुआ जो आज है. बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश में ऐसे राजपूत नेता थे जो हमेशा से सामाजिक न्याय और समाजवादी आन्दोलनों से जुड़े रहे. ये तो नहीं कहा जा सकता के सबने जाति छोड़ दी लेकिन ये जरुर था के सभी आग उगलने वाले और गाली गलौज की राजनीती वाले नहीं थे. उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर जैसे लोग भी थी जिनकी भाषा और दोस्ती दबंगई वाले लोगो से थी लेकिन राजनीती में उन्होंने संवेदनशीलता से ही बात की. भाजपा में भैरों सिंह शेखावत, जसवंत सिंह जैसे नेता थे और उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह जो वर्तमान में ठाकुरों के नाम पर नेतागिरी कर रहे लोगो से न केवल कद में अपितु व्यवहार और विचार में भी बहुत बड़े थे.
सामाजिक न्याय की राजनीती में विश्वनाथ प्रताप सिंह का नाम बहुत अदब से लिया जाता है. अपने छोटे से कार्यकाल में जिस ईमानदारी के साथ उन्होंने सामाजिक न्याय का प्रश्न राजनीती की मुख्यधारा बना दिया वो इतिहास में मील का पत्थर है. हालाँकि मंडल कमीशन की रिपोर्ट को स्वीकार करने के बाद उनकी जाति और अन्य सवर्णों ने उन्हें सिर्फ गालिया ही दी लेकिन इसके बावजूद जब भी भारत के बहुजन समाज के हितो का प्रश्न आएगा, विश्वनाथ प्रताप सिंह की राजीनीतिक क़ुरबानी को भी याद किया जाएगा. मंडल दो को लागू करवाने में कांग्रेस सरकार में अर्जुन सिंह की भूमिका को भी हमेशा याद किया जाएगा. केंद्रीय मानव संशाधन विकास मंत्री के तौर पर शिक्षा को साम्प्रदायिकता से मुक्त करने के उनके प्रयास भी सराहनीय रहे है. मध्य प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह चाहे मीडिया में कितना ही बदनाम होते रहे हों लेकिन अपने मुख्यमंत्रित्व काल में उन्होंने मध्य प्रदेश में डाइवर्सिटी के अजेंडा को लागू करने की कोशिश की. कांग्रेस पार्टी के अन्दर सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ खुलकर बोलने वालो में दिग्विजय सिंह प्रमुख रहे है. बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख नेता रघुवंश प्रसाद सिंह भी सामाजिक न्याय और समाजवादी आन्दोलन के प्रमुख हिस्सा रहे है. इनमे से किसी भी नेता ने खुले तौर पर अपने जातीय वर्चस्व की बात नहीं कही. चुनावो में अपने क्षेत्रो में जरुर जातिगत खेल होते रहे हों लेकिन न तो गाली गलोज की भाषा और न ही अपने मूल समाजवादी सेक्युलर चरित्र को इन सभी लोगो ने नहीं छोड़ा. लेकिन २०१४ के चुनावो के बाद से ही  भाजपा ने राजपूतो में उस तबके को प्रश्रय दिया जो अपनी जातीय अस्मिता के अलावा और कुछ नहीं देखे. योगी आदित्यनाथ, संगीत सोम और उन जैसे आग उगलने वाले ठाकुर नेताओं को आगे करके भाजपा ने दरअसल ब्राह्मणवाद का बड़ा सुरक्षा कवच ढूँढा क्योंकि आज उत्तर प्रदेश में बाकी जातिया ठाकुरों की इस दबंगई के खिलाफ कड़ी होंगी.

चुनावो में वोट के लिए राजपूतो के अन्दर छद्म राष्ट्रवाद और फर्जी बड़प्पन की बात कर उनके असली सवालो को गौण कर दिया गया है . सवाल ये है के आज के २१वे सदी में बड़ी कौम कौन मानी जायेगी ? उसका उत्तर बहुत सिंपल है . कोई कौम इस सन्दर्भ में बड़ी कही जायेगी के उसका शिक्षा, स्वस्थ्य, विज्ञानं, कानून, राजनीती, सिनेमा, खेल और  साहित्य में क्या योगदान है. वंशवादी मनुवादी राजशाही के चलते अपनी मूछो पर ताव् रखने वाले अपनी कौम का सर्वे कराकर देखे के उसकी हालत क्या है. उसके कितने अधिकारी है, कितने जज है, कितने पत्रकार है और फिर अपने पे गर्व करे . इन सभी क्षेत्रो में राजपूत बहुत पीछे है और उनके युवा अपने बदलाव के लिए कोई आन्दोलन भी करने को तैयार नहीं है. भ्रष्ट नेता इन युवाओं को कोई भी नया भविष्य नहीं दे सकते है इसलिए उन्हें संघ परिवार का सिपाही बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है जिसके बहुत लाभ नहीं होने वाले. आज जब युवा नए क्षितिज की और जा रहे है, राजपूत युवा केवल नेताओं के लठैत की भूमिका निभाएंगे तो कही के नहीं रहेंगे.

राजा महांराजाओ, तिलिस्मो, मिथ आदि में गर्व करना तो बहुत आसान है क्योंकि जो लोग इनके सहारे ही हमें जीने के तरीके बता रहे है वे जानते है के अगर समाज का कोई ‘महान’ राजा नहीं भी है तो ‘खबर’ और ‘इतिहास’ बनाने की व्हात्सप फैक्ट्री में वे इसे आसानी से तैयार कर सकते है जिससे वो युवा जिसे अपने रोजगार और साधनों के लिए रोजगार मांगना चाहिए था वो हिंदुत्व, जय श्री राम, जय राजपुताना और ऐसे ही नारे लगाता फिरता है.

करीब चार वर्ष पहले मै बेहमई गाव गया था. वहा मै पहले भी गया था क्योंकि मै फूलन देवी के गाँव शेखुपुरा, कालपी भी गया था. बेह्मही ठाकुरों का वह गाँव है जहाँ ऐसा बताया जाता है के डकेतो ने जो ठाकुर थे ,फूलन का अपहरण करके यहाँ रखा था और फिर उनके साथ बलात्कार किया गया था और बताया जाता है के गाँव के एक भी व्यक्ति ने उन्हें बचाने की कोशिश नहीं की जिसके फलस्वरूप ही फूलन बहुत आक्रोशित हुई थ  और फिर यही १४  फरवरी १९८१ में उन्होंने और उनके साथियो ने अपने साथ हुए अत्याचार का बदला लेते हुए २० राजपूतो की हत्या कर दी थी.  देश भर में इन हत्याओं को लेकर बेहद शोर हुआ था. यहाँ की २० विधवाओं को लेकर अखबारों में कई कहानिया लिखी गयी लेकिन एक महिला के साथ बातकर मुझे इस समाज की दकियानूसी परम्परा पर बोलने की इच्छा हुई .

१४  फ़रवरी के हत्याकांड में लाल सिंह नामक युवक की मौत भी हुई थी जिसके उम्र करीब १२-१३ वर्ष की रही होगी उसकी सगाई पास के गाँव के मुन्नी से हुए थी जिसकी उम्र ९ वर्ष की थी. लाल सिंह की मौत के बाद, मुन्नी के भाइयो ने अपनी बहिन को विधवा बनाकर बेहमई गाँव भेजा. इतने वर्षो के बाद मुन्नी को देखकर मुझे इस समाज की दकियानुसी परम्परा पर इतना क्षोभ हुआ के व्यक्त नहीं कर सकता. बेहमई के आस पास के ८४ गाँव ठाकुरों के है और शादिया इन गाँवों में आपस में होती है. किसी ने विद्रोह किया तो उसे सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ेगा. मुन्नी अपनी पूरी उम्र विधवा बन कर रही. क्या करे ऐसे भाइयो का जिन्हें रीती रिवाज ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है लेकिन अपनी बहिन की ख़ुशी नहीं.

राजपूत समाज में अभी भी महिलाओं की स्थिति बहुत ख़राब है. जो भी समाज रिजिड होगा और केवल पुरानी परम्पराओं में ही अपने शान समझता होगा तो वह औरतो की स्थिति बहुत ख़राब होगी. शायद यही कारण है के उन्नाव के विधायक ने जिस राजपूत लड़की के साथ बलात्कार किया उस लड़की के समर्थन में एक भी राजपूत महासभा या उनका नेता खड़ा नहीं हुआ. इससे अधिक शर्मनाक बात कुछ नहीं हो सकती.

तलवार और लम्बे टीका लगाकर या गाली गलोज कर आप समुदाय के अंदरूनी हालातो को छुपा नहीं सकते हो. राजपूतो को चाहिए के ब्राह्मण, बनिया, कायस्थ, भूमिहार आदि से अपनी तुलना करें और देखे के विकास के इंडेक्स में वे कहाँ है.संघ के  चालाक  ‘इतिहासकार’ उनके बच्चो का ध्यान बटाने के लिए दलितों और पिछडो के आरक्षण को इसके लिए दोषी ठहरा देंगे लेकिन इससे बड़ा झूठ कुछ नहीं हो सकता. आज राजपूतो की पुरानी शान का मोहरा बनाकर संघ परिवार में उनके पिछलग्गू नेता मात्र ब्राह्मणवाद की सेवा में समर्पित है और समाज के ज्वलंत प्रश्नों का उन्हें पता भी नहीं है. किसी भी समाज के नायक वो होते है जिन्होंने समाज में गरीब से गरीब तबके को बराबरी पर लाने के लिए संघर्ष किया हो या समाज बदलाव में कोई योगदान किया हो. इतिहास से हम सबक सीख सकते है उसमे रहते नहीं है. याद रहे के जितने भी राजा महारजा थे वे अपनी लड़ाई लड़ रहे थे और अपने हितो के अनुसार ही मुगलों के दोस्त और दुश्मन बने. खानदान में एक उनके साथ रहा तो दूसरे मुगलो के साथ खड़ा रहा और सबके अपने हित थे इसलिए उस दौर के राजाओं के आपसी खींचतान को आप वर्त्तमान परिपेक्ष्य में हिन्दू मुसलमान की लड़ाई में बदलकर अपना राजनैतिक एजेंडा तो चला लोगे लेकिन ये बहुत समय तक चलने वाला नहीं है. जैसे अपना इतिहास आप बना रहे है वैसे ही और भी जातिया अपने अपने नायक गढ़ रही है और इन सबसे केवल कुछ लोगो का अजेंडा काम कर रहा है जिन्हें हम पुरोहितवादी पूंजीवादी शक्तिया कह सकते है क्योंकि इसकी आड़ में उन्होंने अपने परम्परागत और पुश्तैनी धंधो को मज़बूत कर दिया है. दलितों ने तो व्यवस्था से सवाल पूछना शुरू किया और ब्राह्मणवादी परम्पराओं को नकार कर अपना रास्ता अपना लिया. पिछड़े भी अब सीख रहे है और अपनी राजनीती स्वयं कर रहे है, तो आप क्यों नहीं इतिहास और मिथ को चुनौती देते. क्यों आज परशुराम जयंती मनाई जा रही है जिसने क्षत्रियो की २१ पीढियों को समूल नष्ट कर देने की बात कही ? आज सड़ी गली परम्पराओं को महिमामंडन किया जा रहा है क्योंकि बदलाव से डर लग रहा है.

नेताओं का क्या वे तो ऐसे खेल खेलेंगे. नौकरिया ख़त्म है लेकिन अपने समाज के हाथ में एक छुन्छूना पकड़ा देंगे के सरकारी नौकरिया देंगे और फिर वोट की खातिर समाज को सडको पे उतार देंगे. आज के बदलते युग में ये घिसी पिटी बाते हो चुकी है जिससे समाज का भला होने वाला नहीं. समय है के युवा लोग अपने में बदलाव लायें और सामाजिक न्याय की शक्तियों के साथ जुड़े. जनतंत्र की सफलता विभिन्न जातियों, धर्मो आदि में केवल राजनैतिक सहयोग की नहीं अपितु सामाजिक गठबंधन में भी निहित है. पुराने राजे महाराजे आधारित वंशीय और जातीय दंभ समुदाय के नेताओं को भी कुछ समय तक ही ताकत देगा, लम्बे दौर में ऐसे नेता बेकाम रहेंगे और समाज ने अगर अभी से ये दंभ छोड़ कर अन्य मुख्य प्रश्नों में दूसरे लोगो के साथ राफ्ता कायम नहीं किया तो एक समय आएगा जब सारी दूसरी जातीया आपके खिलाफ खड़ी दिखाई देंगी और वो सबसे भयावह स्थिति होगी. सत्ताधारियो की जातीय उदंडता के विरुद्ध उत्तर प्रदेश की जनता ने हमेशा विद्रोह किया है, इसलिए भलाई इसी में है के मानवीय मूल्यों के लेकर समाज में सामंजस्य बनाया जाए और स्थानीय स्तर पर राजनैतिक गठबंधन बने लेकिन वो किसी समुदाय के विरुद्ध न हो. राजनैतिक लड़ाई लड़ते वक़्त आपसी रिश्ते इतने न ख़त्म कर दो के मिलने में दिक्कत हो. आप अपने पडोसी को नहीं बदल सकते और उनके साथ अच्छे रिश्ते बनाकर ही आप सुरक्षित रह सकते है. ये सोच कर की अपनी ताकत दिखाकर पडोसी को झुकाकर या भागकर आप चैन से रह पायेंगे तो ये ग़लतफ़हमी में कोई समाज न रहे. इस देश में साथ रहने और एक जुट रहने की एक ही गारंटी है के संविधानिक मूल्यों का ईमानदारी से पालन हो और ईमानदारी बिना भागीदारी के नहीं आ सकती लेकिन कोई ये सोचे के एक समाज को समाप्त कर या अपमानित कर उनकी जिंदगी आसान हो जायेगी तो उस पर कोई भी समझदार व्यक्ति हंस ही सकता है.

सहारनपुर के घटनाक्रम ने जहाँ सत्ताधारी दल और सरकार की असफलता को उजागर किया है वही इसने सामाजिक न्याय और अम्बेडकरवाद का झंडा उठाने वालो को भी सोचने पर मजबूर किया है. आखिर ये पार्टिया इस प्रश्न पर सहारनपुर के दलितों के साथ क्यों खड़ी नहीं दिखाई देती. बहुत से लोग सोशल मीडिया पर कह रहे हैं के योगी आदित्यनाथ साल के आखिर में चंद्रशेखर आज़ाद को रिहा कर देंगे ताकि वह बहिनजी के खिलाफ चुनाव लडे या बसपा को नुक्सान पहुचाये. ये बहुत ही निराशाजनक बात है क्योंकि चुनाव लड़ने की बात तो बाद में आएगी आखिर चंद्रशेखर के खिलाफ जो आरोप लगे है वे तो पूरे फर्जी है और उसके साथ अन्याय हुआ है. भीम आर्मी के लोग जेल में भेजे जा रहे है इसलिए जो भी राजनितिक पार्टियाँ है उन्हें समझदारी दिखाते हुए उत्तर प्रदेश सरकार पर दवाब डालना चाहिए के वे सारे मुकदमे वापस ले. 

समाजवादी पार्टी ओर कांग्रेस भी इस मामले में चुप रहे है शायद इसलिए के भाजपा का चालाकी का दांव में नहीं फंसे. लेकिन ये राजनितिक दलों और उनके कार्यकर्ताओं की असफलता है यदि हम ऐसे प्रश्नों पर इमानदार बहस नहीं कर सकते. दलितों पर हो रहे अत्याचार का प्रश्न मात्र दलितों का सवाल नहीं है, ये मात्र राजन्तैतिक हिसाब किताब का सवाल भी नहीं है अपितु मानवाधिकारों और संविधान की सर्वोच्चता का प्रश्न भी है क्या इस देश में कानून का शासन चलेगा या मनुवाद चलेगा.

भाजपा और संघ परिवार ने इस देश के ताने बाने को और नकारात्मक किया है और राजनितिक दलों पर बहुत दवाब डाला है. उनकी लगातार कोशिश रही है एक समुदाय को दूसरे के खिलाफ खड़ा करके विभाजन का राजनैतिक फायदा उठाया जाए. उनके पास ऐसे दबंगों के फौज है चाहे वह बिकाऊ मीडिया हो या तथाकथित बुद्धिजीवी. हम जानते है के दूसरी पार्टिया उनके इस विभाजनकारी सवालो का जवाब देने में असफल रहे है. सहारनपुर में पार्टियों को सवर्णों के वोट का खतरा है लेकिन हम उनसे ये कहना चाहते है अपनी पार्टियों के सभी जातियों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को बैठाकर इन प्रश्नों पर चर्चा कीजिये. अगर भाजपा तोडती है तो आप जोडिये और सभी पक्षों को सामाजिक तौर पर साथ ला कर बात कीजिये लेकिन इसकी एक ही शर्त होगी के छुआछूत और जातीय सर्वोच्चता में यकीं करने वालो के साथ तो कोई बात नहीं हो सकती.


सहारनपुर के घटनाक्रम भारतीय लोकतंत्र में दबंगों की बढ़ती ताकत की कहानी भी है. ऐसी घटनाएं जानबूझकर फैलाकर पूरे प्रदेश में अराजक दबंको को राजनीती में घुसाने की तैय्यारी है और इसका दूसरा इलाज़ केवल सामाजिक न्याय की शक्तियों को आपस में साथ रहकर, अपनी लड़ाई मिलजुलकर लड़ने में ही है. विभाजनकारी ताकतों को आंबेडकर, फुले, पेरियार के सांस्कृतिक परिवर्तनवादी ताकते ही शिकस्त दे सकती है. उत्तर प्रदेश में राजनैतिक तौर पर तो इन ताकतों ने अपनी मौजूदगी का एहसास करवाया है लेकिन सांस्कृतिक और सामाजिक परिवर्तन में जब ऐसी शक्तिया सभी दबी कुचली जातियों को एक कर देंगी तो ब्राह्मणवादी बर्चास्व्वादी ताकते अपने आप ही नेस्तनाबूद हो जाएँगी और तभी उनसे प्रताड़ित सभी लोगो सामाजिक और सांस्कृतिक लोकतंत्र की खुली हवा में सांस ले पायेंगे. लड़ाई बहुत लम्बी है लेकिन असंभव नहीं है, केवल आवश्यकता बौधिक ईमानदारी की है. सहारनपुर में दलितों पर हुए अपराधो की जाँच हो और मुझे ये बात कहते हुए कोई गलत नहीं लगता के भीम सेना के सभी कार्यकर्ताओं को रिहा किया जाए और उनपर ठोके गए फर्जी मुकदमे सब वापस लिए जाएँ और ये बात की मांग करने में अगर राजनैतिक दलों को झिझक हो रही है तो फिर इससे बड़ी शर्मनाक बात कोई नहीं हो सकती.