Friday 30 November 2012

Introspection time for Media in India.


मीडिया के आत्म चिंतन का समय 

विदया  भूषण रावत 

जी टी'वी और नवीन जिंदल के घटनाक्रम के बाद यह प्रश्न खड़ा हुआ है की क्या मीडिया में कोई नियंत्रक होना चाहिए। अख़बार हिन्दू ने एक ओम्बड्समैन रखा जो उसकी खबरों और उन पर लोगो की आपत्तियों को देखता है लेकिन दुसरे समाचार पत्रों या टी वी चनलो के पास तो उसको रखने का वक़्त भी नहीं। अखबारों के मालिक किसी भी नियंत्रण के इसलिए खिलाफ है क्योंकि यह 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' का 'हनन' है। प्रश्न यह है की संपादको और उनके मालिको के आलावा और लोगो को भी यह अधिकार है और यदि किसी खबर से किसी व्यक्ति के प्रतिष्ठा को चोट लगती है तो मीडिया के पास क्या है के उसकी इज्जत को वापस किया जा सके ज्यादातर मामलो में अख़बार रेजोइंडर को ऐसे छापते हैं के पता ही नहीं चलता . आज तक किसी भी समाचार पत्र ने अपने खेद को उस तरीके से और उतने महत्व के साथ नहीं छपा जितने महत्व से खबर छापि गयी होती है। 

जी के मसले में यह सवाल भी पूछना पड़ेगा के क्या संपादको की गिरफ़्तारी उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्र का हनन है। क्या ये प्रेस पर हमला है। आज अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की प्रतिबधता और विश्वशनीयता पर संकट है। यह संकट जी जिंदल घटनाक्रम से नहीं हुआ बल्कि इसके मूल बिंदु में मीडिया की ताकत और धनधान्य की प्रचुरता रही हा। आज के रिपोर्टर पुराने ज़माने का 'पत्रकार' नहीं है जो एक सैधांतिक निष्ठा और मिशन के जरिये पत्रकारिता करता है। आज का मिशन कनेक्शन है।

समाचार कक्ष में विज्ञापन और मार्केटिंग कर्मियों का हावी होना और संपादक को उसकी औकात बता कर रखना यह नए तरीके है जिस कारन देश के सबसे मीडिया घराने ने संपादक रखने बंद कर दिया जो अख़बार कल अक संपादको ने नाम से जाना जाता था आज वोह अपने मालिको के नाम से चलता है। कहा गया के संपादक नहीं अख़बार ब्रांड है। हम लोग तो राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, एस पी सिंह , अरुण शौरी, एन राम,  आदि को ब्रांड समझकर पढ़ते थे और उनके लेख को कई कई बार देखते गुनते थे। लेकिन अब वोह समय नहीं। न्यूज़ एक मार्किट है और उसके फलस्वरूप पैसा निकलना है। अख़बार प्रोडक्ट है और उसे विज्ञापनदाताओ को लाभ  देना है। ऐसे स्थिथि में जी जैसे घटनाक्रम को होना ही था और यह नयी बात नहीं हा।

जब खबर पैसे देखर चपटी हो और सम्पादकीय विज्ञापन और मार्किट के हिसाब से लिखे जाएँ तो फिर सुधीर चौधरी और समीर अहुल्वालिया जो कर रहे थे वोह क्या गलत है। आज कल न्यूज़ एंकर भी तो ब्रांड हैं। टी वी पे देखेंगे तो दिखाई देगा कैसे इन्वेस्टीगेशन करते हैं और अपने प्रति कितने सतर्क हैं। सबको लगता है के देश उनको सुनता है और इसमें जितना राजनेताओ को गरीयो तो अच्चा रहेगा क्योंकि मध्यमार्ग तो नेताओ को गली देने से ही इतिश्री मान लेता है। नेताओ को टीवी पर गली देकर या गरियाकर टी आर पी तो बढ़ सकती है लेकिन सत्ता परिवर्तन नहीं होना। आखिर जो लोगो सोनिया गाँधी के वंशवाद का विरोध करते हैं वोह दुसरे वंशवाद पे चुप क्यों रहते हैं। और राजनीती में तो वंशवाद के बावजूद भी लोगो के वोट लेने पड़ते हैं लेकिन मुकेश अम्बानी, अनिल अम्बानी, अभिषेक बच्चन, समीर और विनीत जैन और भारत का पूरा व्यवसायी तबका वहः कैसे पहुंचा क्या वो बिना वंशवाद के पंहुंच गया। क्या यह महारथी अब कहेंगे के उनकी कंपनिया अब आगे से उनके रिश्तेदारों और चाटुकारों से नहीं चलेंगी। वंशवाद हमारी जड़ो में है और भ्रस्थ्छार की जननी है लेकिन उसके लिए केवल नेताओ को गली गलोज कर दोषी नहीं ठहराया जा सकता। देश के सबसे 'सेक्युलर' अख़बार हिन्दू को जब वंशवाद से हटाने के प्रयास हुए तो हंगामा हुआ। अभी तक उस अख़बार के सारे संपादक परिवार से निकले .

खैर, बहस में मीडिया नी नैतिकताएं और सीमायें हैं। अख़बार क्यों अपने यहाँ आचार संहिता लागु करने से कतराते हैं। दुनिया को नैतिकता का पथ पढ़ने वाले कमसे कम खुद भ ई तो कुच्छ करके दिखाएँ . यह कहना जरुरी इस्लिए है क्योंकि संपादको के नाम पर अब केवल मार्केटिंग मेनेजर और पब्लिक रिलेशन ऑफिसर ही बैठे हैं और इसी कारण से संपादक की कुर्सी का इस्तेमाल अखबारों के सम्पादकीय के लिए नहीं कंपनी के काम के लिए होता है। इसलिए सवाल यह है के जी के एडिटर्स जिंदल के ऑफिस में क्या कर रहे थे। 

सवाल यह उठता है के क्या भ्रश्ताच्कार के विरुद्ध मीडिया की तथाकथित जंग केवल ब्लाच्क्मैलिंग का साधन थी . क्या खबरों की कडुई सच्चाई को संपदक और पत्रकार नेताओ को पहले ही बता देते हैं और यदि बात नहीं बनी तो 'भंडाफोड़' और बन गयी तो 'दुश्मन' का भंडाफोड़'. अगर कोई संपादक होता जो देशकाल के घटनाक्रम से चिंतित होता तो ऐसे हरकते नहीं करता। हम उनके विचारो से असहमत होते लेकिन उनको कभी दलाल नहीं कहते . जिन लोगो के मैंने नाम लिखे उनके सम्पादकीय मैं बड़े चाव से पढता था और लेख भी क्योंकि उनसे असहमति हो सकती थी लेकिन कोई उनके मंतव्य पर भ्रस्थ्चार या दलाली के आरोप नहीं 
लगाता। आज स्थिति गंभीर है और वो इसलिए क्योंकि बाजारी तकते मीडिया के नाम से दंधेबाज़ी कर रही है और उनके लिए लोग ज़रूरी नहीं हैं अपितु अपने मालिको के हित ज़रूरी है और मालिक अगर केवल अख़बार चलाते तो कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन आज तो मालिको के पास रियल एस्टेट से लेकर शेयर बाज़ार के धंधे भी हैं और इसलिए उनके हर कार्य अपने हितो से जुड़े हुए हैं।

आज मीडिया को एक नयी दिशा की जरुरत है। बहस की जरुरत है। और खुली बहस की। मीडिया की मोनिटरिंग भी  होनी चाहिए और एक मज़बूत कानून आये जिसमे मीडिया कर्मी, सामजिक कार्यकर्ता लेखक, कानूनविद, इत्यादि शामिल हों जो मीडिया के कंटेंट्स इत्यादि पर नज़र रखे और यह 'स्वंत्रता' के धंधेबाजो को देखे के वो ल;लोगो को कितनी स्वतंत्र खबरे पंहुचा रहे हैं। मीडिया को रेगुलेटर की जरुरत है ताकि देश में एक अच्चा माहोल हो और हम इन चीख चीख केर क्रांति करनेवालों से बचे और अख़बार और टीवी एक सभ्य और पारदर्शी बहस चलायें और आलोचना और निंदा केवल अपने व्यावसायिक होतो के मुताबिही ही न करें . मीडिया देश और समाज से बड़ा नहीं है। जो कानून हम सबके लिए हैं वोह मीडिया के लिए भी  है . अभिव्यक्ति की आजादी  बहुत जरुरी है क्योंकि ये हमारी वैचारिक प्रश्न है और व्यावसायिक हितो के नाम पर इसका इस्तेमाल नहीं क्या जा सकता। इसलिए यदि एक रेगुलेटर होगा तो वोह पहले ही बातो को नियंत्रित कर लेगा और फिर पत्रकारों या पी आर एजेंटो को जेल नहीं जाना पड़ेगा और सरकार को दख्लांजी का बहाना नहीं मिलेगा और हमारी आज़ादी बची रह पायेगी।
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Tuesday 27 November 2012





भारतीय राजनिति को विश्वनाथ प्रताप सिंह की देन 


विद्या भूषण रावत 


आज भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की पुण्य तिथि है। देश की राजनीती में उनके योगदान को हमेशा याद किया जायेगा क्योंकि उनके किये गए प्रयोग आज की राजनीती के मुख्या स्तम्भ हैं। भ्रस्ताचार के खिलाफ उनके अभियान के कारण उन्हें मंत्रिपरिषद से हटना पड़ा था और मंडल लागु करने के कारण  भारत के ब्राह्मणवादी तबका उनका सबसे बड़ा दुश्मन बना।

अपने लम्बे राजनैतिक जीवन में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आम जनता से जुड़ने का प्रयास किया और मूल्यों पर आधारित राजनीती की। दिल्ली की झुग्गी झोपड़ियों के लिए उनके संघर्ष को भुलाया नहीं जा सकता। सुचना का अधिकार और नरेगा जैसे सवालो पर भी वे देशव्यापी संघठनो  के साथ खड़े थे।

धुर्भाग्यवाश रिलायंस के विरुद्ध भ्रस्थाचार का धामभ भरने वाले तथाकथित कार्यकर्ताओ को पता नही की राजीव की मंत्रिपरिषद वित्त मंत्री की हैसियत से धीरू भाई अम्बानी की हालत ख़राब करने वाले वी पी को रिलायंस की दुश्मनी जिंदगी भर झेलनी पड़ी लेकिन दादरी में रिलायंस के जिस पॉवर प्लांट को लगवाने के लिए किसानो की भूमि को कौड़ियो के भाव मुलायम सिंह के फैसले के विरुद्ध उन्होंने संघर्ष किया और लोगो को उनकी जमीन वापस दिलवाई।

वी पी सिंह में दंभ नहीं था और आज के दौर की राजनीती में भी उन्होंने जनोन्मुख राजनीती की। आज उनकी कमी इसलिए खलती है क्योंकि तीसरे मोर्चे को जीवंत रूप देने वाले वह ही थे। उनके अन्दर एक करिश्मा था, एक नैतिक बल था जो उन्हें औरो से बहुत ज्यादा आगे खड़ा करता था। अस्मिताओ की राजनीती की दौर में उन्होंने उन लोगो से भी गालियाँ खाई जिनके लिए वह अपने समाज से दूर हटते चले गए। वी पी का जीवन और उनकी राजनीती भारत में जाति और उसके खूंटे से बंधे होने के हमारे चरित्र को भी दिखता है। उनके प्रति इतनी नकारात्मकता की भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्दोनल के 'मसीहा' लोग भी उनका नाम लेने से डरते हैं। उसका करान केवल एक के दलितों और पिच्च्दो के हक के लिए उन्होंने जो भी कुच्छ किया उसे हिन्दू वर्ण व्यवस्था के शुभचिंतको ने कभी माफ़ नहीं किया। इससे यह भी जाहिर होता है के वर्णव्यवस्था के विरुद्ध किसी भी आन्दोलन को समाप्त करने के लिए ये आतताई कुछ भी करेंगे और उन सबका नाम मिटा देने की पूरी कोशिश करेंगे जो उनकी राह  में रोड़ा थे। 

चाहे वे जो भी करें लेकिन जो बीज वी पी ने बो दिए उनसे देश के राजनीती नहीं हट सकते। अब उसको आगे उनलोगों को बढ़ाना नहीं जिनके संगर्ष के वे साथी थे  हालाँकि पिच्च्दी राजनीति को हिंदुत्व ने काट खाया है और इस कारण से ही ब्राह्मणवादी सम्प्रदायकता का मुकाबला करने में हम असमर्थ हैं या उसका हिस्सा बन गए हैं। सामाजिक न्याय की कोई लड़ाई सम्प्रदाकिता की लड़ाई को छोड़ के नहीं हो सकती। वी पी इन दोनों प्रश्नों पर बहुत साफ़ रहे और उनके मूल्यों से सीखकर हमारे वर्तमान राजनीती के 'तीसरे मोर्चे' को खड़ा कर सकते हैं। वी पी सिंह हो उनकी पुण्य तिथि पर श्रन्धांजलि।