Wednesday 12 October 2011

Understanding attack on Prashant Bhushan


अन्ना के आन्दोलन की परिणाम है प्रशांत पे हमला

विद्या भूषण रावत 

आज अन्ना  टीम के एक महत्वपूर्ण सदस्य प्रशान्त भूषन पर उनके ही चेंबर  मे कुच्चः लोगो ने हमला कर दिया। ये लोग प्रशान्त के कश्मीर पर दिये उनके बयान से नाराज़् थे जिसमे उन्होने कहा  के कश्मीर के लोगो को हमारी मदद चाहिये और उन्हे मुख्य धारा मे लाने के लिये हमे सभी प्रयास करने जिसमे सबसे महत्त्वपूर्ण है आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट को वापस लेना. हम जानते है के कश्मीर और मणिपुर को लोग इस कानून के विरोध में कई बार प्रदर्शन कर चुके हैं और एरोन शर्मीला मणिपुर में पिछले ११ वर्षो से भूख हड़ताल पे है लेकिन सरकार ने उनकी बातें नहीं सुने है. इस क़ानून के तहत सेना को किसी को भी बिना वारंट  के गिरफ्तार करने के अनुमति है. सेना की अपनी समस्याये  और उन पर भी विचार किया जा सकता है लेकिन यदि  एक कानून कश्मीर की जनता को भारत की मुख्या धारा   से काट रहा है तो उस पर विचार होना चाहिए. प्रशांत भूषण का कहना है के यदि सब कुच्छ प्रयास करने के बाद भी कश्मीरी भारत में रहना नहीं चाहते तो उस पर वहा जनमत संग्रह करवाया जाना चाहिए ताकि जनता की राय पता चल सके. मुझे नहीं लगता के प्रशांत भूषण ने कुछ गलत कहा लिकिन हिंदुत्व के भारतीय राष्ट्रवाद के लफंगों को यह बर्दास्त नहीं था के कोई भारतीयता को चुनौती दे.

प्रशांत अन्ना की टीम के एक अलग सदस्य हैं. उन्होंने बहुत से आन्दोलनों को कानूनी सहायता प्रदान की है और वोह भूमि अधिग्रहण के विरोध करने वालो में अग्रणी रहे है लेकिन अन्ना टीम के बाकी साथी वैसे नहीं है. उनकी प्रथमिकताये पता है. खुद अन्ना का कहना है के वो प्रशांत पे हमले का विरोध करेंगे लेकिन यह भी जानना चाहेंगे के आखिर  हुआ क्या और उन्होंने कहा  क्या था?

हमारा पहले से ही मानना था के अन्ना के आन्दोलन से सांप्रदायिक और जातिवादी शक्तियां मज़बूत हो रही है. खुद प्रशांत भूषण से कई बार पूछा गया की आपके आन्दोलन में मंच से भी दलित और पिछड़े विरोधी बाते सुनायी दे रही है और मनुवादी मोर्चा वहां लगातार बैठा है तो उन्होंने इस बात को केवल यह कह के ताल  दिया के इतने बड़े आन्दोलन में तरह तरह के लोग आयेंगे और हम सब के मुह को कण्ट्रोल नहीं कर सकते. यह इतना खतरनाक स्टैंड था और प्रशांत अब उस व्यवस्था का शिकार खुद बन गए . आज अन्ना की टीम हालाँकि बोलने की स्वतंत्रता के नाम पर प्रशांत का बचाव कर रही है लेकिन खुद अन्ना के आन्दोलन में अन्ना इज  इंडिया और इंडिया इज  अन्ना के लंबरदारो ने मत भिन्नता वालो के साथ जैसा वर्ताव किया वोह जग जाहिर है. आज भी अरविन्द केज़रिवल ओर किरण बेदी जो भाषा बोल रहे है और स्वयं अन्ना जो भाषा बोल रहे है, ऐसा लगता है के देश की नैतिकता का ठेका उन्होंने ले लिया है और हर एक वोह जो उनसे भिन्न है वो देश द्रोही है. फर्क इतना है की अन्ना के चेलो ने सबको पकड़ में मारा नहीं लेकिन उनके आन्दोलन से उत्साही ताकतों ने उन्ही के साथी पे हमला करके बता दिया है के यदि अन्ना की टीम के लोग अपने अजेंडा को यदि बृहद करेंगे और मानवाधिकारों तक ले जायेंगे तो उसको  सहन नहीं किया जायेगा.

हमें नहीं भूलना चाहिए के यही चिदंबरम और उनके पुलिस  ने अरुंधती रॉय पर देशद्रोह का मुक़दमा चला दिया और कश्मीर पर दिल्ली में एक सेमिनार में मुंबई के एक तीसरे दर्जे के कश्मीरी हिन्दू  को भारतीय रास्ट्र की और से टीवी पर भौंकने की आज़ादी दे दी और अर्नव गोस्वामी जैसे हिंदुत्व के नए प्रहरी  अपने कार्यक्रम में देशभक्ति और देशद्रोह का प्रमाणपत्र बाँटते रहे और चीखते चिल्लाते रहे की देस्ख्द्रोहियों से सख्ती से निपटा जाए. क्या हम नहीं जानते यह नए बादशाह किस प्रकार से मतभिन्नता वालों को देखते है. प्रशांत पे हुए हमले से यह परेशान  हैं क्योंकि हिंदुत्व का फासीवादी चरित्र सामने  आ गया है और इसे वो छुपाने में असमर्थ थे और यह के हमला जिस पर हुआ वो उनका 'अपना आदमी' है, इसलिए हमले का विरोध करो न की उस बात का जिस ले लिए हमला किया गया.  क्या हमें नहीं पता के यासीन मालिक या अरुंधती रॉय ऐसा कह दे तो इन्ही लोगो का क्या हश्र हुआ होता . वैचारिक स्वतंत्रता के पक्षधर ये ही  लोग उन्हें  देश्द्रोही और रास्ट्रविरोधी कहने से नहीं हिचकिचाएंगे. 

हम इस प्रकार की घटनाओ की मात्र निंदा करके इतिश्री नहीं कर सकते. यह एक बड़ा प्रश्न है और अन्ना आर उनकी टीम के लिए भी के दिल्ली की सडको में जो उनके लम्पत्धारी बाईको में तिरंगा लगाये, ' मै भी अन्ना' की टोपी लगाये दूसरो को धमका रहे थे वोह एक ट्रेलर था. कल प्रशांत के साथ जो हुआ वो अन्ना के आन्दोलन की अंतिम परंनिती है. विचार् भिन्नता के  प्रश्नों को अन्ना जैसे आन्दोलन कभी स्वीकार नहीं करेंगे क्योंकि उनको तो सारा भारत रेलगांव सिद्धि नज़र आता है जहाँ लोकतंत्र के नाम पर अन्ना तंत्र है और एक मसीहा है जो उनकी भलाई के लिए 'भगवान '  ने पृथ्वी पर  भेजा है. अन्ना इस बात को कई बार कह चुके हैं के उन्हें लगता है के वो किसी 'बड़े' काम के लिए आये हैं और उन्होंने गीता के इस श्लोक को बार बार दुहराया है 'जब जब होए धर्म की हानि'. ब्राह्मणवाद को बचाने के लिए जैसे कृष्ण ने पृथ्वी पे जन्म लिया वैसे हे अब अन्ना का अवतार  हुआ है क्योंकि  हिंदुत्व खतरे में है. इसलिए उनके साथ चलने वाले साथियों के विचार यदि  ब्राह्मणवादी रास्ट्रवाद  से कहीं पे भी भिन्न हुए तो उनके साथ भी वो हे होगा जो प्रशांत के साथ हुआ है. याद  रहे, अन्ना और उनके साथी हमले का विरोध कर रहे हैं और किसी ने प्रशांत के विचार का समर्थन नहीं किया है. वो केवल विचार भिन्नता के नाम पर अपने को बचा रहे है और इसलिए बोल रहे है क्योंकि प्रशांत अन्ना की कोर कमिटी के सदस्य हैं. 

मात्र भीड़ इकठा करने से कोई आन्दोलन नहीं होता. आन्दोलन का एक दर्शन होता है और वोह दर्शन क्या है यह तो किसी को पता नहीं. अगर इस देश को सबसे बड़े आन्दोलन की जरुरत है तो अपना दिल साफ़ करने की है न की नए कानूनों की. हमारे पास कानूनों की भरमार है इसलिए पहले जाती और धर्म के नाम पर, क्षेत्र के नाम पर जो कबाड़ हमारे देश के 'ठेकेदारों' के पास है उसे हटाइए तभी एक रास्ट्र बनेगा. भ्रस्त्रचार के विरोध के नाम पर यदि मनुवादी तंत्र को लोगो के ऊपर थोपा जायेगा तो उसके परिणाम भयंकर होंगे. इसलिए टीम अन्ना को चाहिए के पहले अपने समर्थको और उनके विचारो को बदले और उन्हें समझाए के देश कोई हिंदुत्व की जागीर नहीं है और यह लोगो से बनता है और लोगो की राय के बगैर कोई काम नहीं हो सकता और न ही कानून हो सकता. यदि कश्मीर का प्रश्न को भारतीय ब्राह्मणवादी रस्त्रवाद से देखोगे तो कभी उसका उत्तर नहीं  मिलेगा. उसके लिए कश्मीर के लोगो को समझना होगा और उनकी भावनाओं की क़द्र करनी पड़ेगी. केवल वन्देमातरम की नैतिकता से भारत के विभिन्न राज्यों की मूलभूत समस्याओं का हल निकालना पड़ेगा और उसकी सबसे बड़ी शर्त है राजनैतिक मतभिन्नता का सम्मान. क्या टीम अन्ना इसके लिए तैयार है?


Monday 10 October 2011

In the name of democracy in Chhatishgarh...



हमारा पाखंडी समाज

विद्या भूषण रावत


 हिमांशु जी की कविता ने एक ऐसे सत्य को उजागर किया है जो केवल हमारे पाखंडी चरित्र को दर्शाता है. आज़ादी के ६० वर्षों के बाद भी जिस तरीके से हिंदुत्व और पूंजीपति एक होकर आदिवासियों के जल जंगल और जमीन पे कब्जा कर रहे हैं वो शर्मनाक है और हमारा रास्ट्रीय चरित्र दिखा रहा है. मुझे शर्म है इस देश की संस्कृति पर जो इतना दिखावा और नौटंकी में यकीं करती है के रामलीला मैदान पर एक पाखंड को देखने भीड़ इकठ्ठा होती है और हमारा पाखंडी मीडिया और झूठे आंसू बहाने वाले लोग भारत की महान परम्परो का गुणगान करते है, वन्दे मातरम के नारे लगते हैं, मेरा भारत महान का पाखंड करते है और जब दूर बस्तर में लिंगाराम और सोनी सोरी माओवाद के नाम पर पुलिस की गिरफ्त में होते हैं तो किसी के पास वक़्त नहीं है. दुखद बात यह है की आदिवासी को अपने अधिकारों और संस्कृति के रक्षा के लिए भी पुलिस की गोलिया खानी पड़ती है.  उसके पास दिल्ली जैसे रोमांच नहीं हो सकता क्योंकि वहां पे धरना देने की गुंजाईश नहीं है. धरने का मज़ा दिल्ली में होता है क्योंकि यहाँ आपको मसीहा बनाने के पूरे तंत्र मौजूद है और यहाँ पे पुलिस भी आपको मदद करती है क्योंकि उसको पता है दिल्ली के मध्यवर्गीय लोगो के बच्चे बड़े नाज़ुक होते हैं क्योंकि वे बड़ी मुश्किल से सडको पे आते हैं इसलिए पुलिस को बताया जाता है के डंडे हाथो से हटाओ. तथाकथित ऊँचे लोगों को नमस्कार करके स्वागत करना है  ताकि उनकी सेवा में कोई कमी न हो. यहाँ खाना मिलता है और सबसे महत्वपूर्ण यह की यहाँ फ्री में मीडिया उपलब्ध है जो आपकी महानता और क्रांति के गीत गायेगा. ये चारण युग का मीडिया है जिसका दिल तब पिघलता है जब इनके अपने बच्चे धुप में निकलते है.. उसके अलावा इनके पास समय नहीं है.  दुर्भाग्यवश बस्तर के जंगलो और छत्तीशगढ़  के दूसरे इलाको मैं में ऐसी सुविधा उपलब्ध नहीं है. वहां न धरने की  जगह है और न ही किसी को ज्ञापन लेने का समय. हमारी पुलिस और प्रशासन आदिवासियों को माओवादी मानकर चल रहा है और पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है.  यहाँ किसी भी बात को कहने पे माओवाद का लेवल लग जाता है और एक बार वो लेवल आपको मिल गया तो फिर वन्देमातरम के ध्वजवाहक आपको देशविरोधी कहने से नहीं कतराते. मतलब ये के देशभक्त की पहचान यहाँ तिरंगा और वन्देमातरम से है जिसे हम साधारण भाषा में हिंदूवादी राष्ट्रवाद कहते हैं और जो बार बार हमें वापस मुद्दों से भटकाव पैदा करेगा. क्योंकि उसे कोइ  दूसरा राष्ट्रवाद  देशद्रोह नज़र आयेगा इसलिए ही भारतीय राष्ट्रवाद ने अन्य परम्पराऔ और संस्कृतियों को आसानी से स्वाकार नहीं किया. जहाँ पर भी लोगों ने अपने संशाधनो और अपनी स्वायत्तता की बात की हमारी राष्ट्रवादी  शक्तियों के निशाने पे आ गए और उसको मीडिया ने उसी नज़रिए से देखने की कोशिश की. 

आज एक चुनौती का क्षण है जब हमारा रास्ट्रीय जीवन हिंदूवादी नकारात्मक ताकतों के हाथ में है जो आदिवासियों के संशाधनो के कब्ज़ा करना चाहते है. विकास के नाम पर आदिवासियों का विनाश और उनकी संस्कृति को पूर्णतया उजाद्दने  के इस ब्राहमान्न्वादी पूंजीवादी षड़यंत्र का पर्दाफाश करना जरूरी है. यह भी जरूरी है के अगर भारत का संविधान आदिवासियों के अधिकारों और उनकी स्वयात्तात्ता का सम्मान नहीं कर पाता तो इस प्रश्न को अंतरारास्त्रीय मंचो पे उठाना जरूरी हो गया है. 

आज हम सब इसलिए ये भुगत रहे है क्योंकि जनतंत्र के नाम पर पूंजीतंत्र ने हमारी प्रणाली को खोखला करके रख दिया है और हम कुच्छ कर नहीं प् रहे . यह हमारे राजनैतिक नेतृत्व की हार है  क्योंकि उसके पास आदिवासी समाज के प्रश्नों को उठाने और उनका समाधान करने का समय नहीं और उसने इसकी जिम्मेदारी पुलिस और प्रशाशन को  सौंप दी है और वो इसे सामाजिक या नागरिक अधिकारों प् प्रश्न नहीं अपितु ला एंड ऑर्डर की समस्या मानते है और जो लोग पहले ही पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो उनसे आदिवासियों के प्रति सम्मान या विशेष प्यार की कैसे उम्मीद की जा सकते है. ऐसे में क्या हम आदिवासियों के दर्द और उनके प्रश्नों को समझ पाएंगे? 

दुनियां भर में आदिवासियों के प्रश्नों को गंभीरता से लिया जा रहा है. वो इस देश के मूलनिवासी है और एक बहुत बड़ी संस्कृति के वाहक भी. उन्होंने हमारे जंगलो को बचाया, हमारे पर्यावरण को मज़बूत किया और हमारी छल कपाटो से कोशों दूर थे और आज हम उन्हें सम दम दंड भेद से खत्म कर देना चाहते है. क्या ये एक मज़बूत लोकतंत्र की निशानी है ? लोकतंत्र केवल जिसकी जितने संख्या भारे से नहीं चलता. लोकतंत्र में हर के समाज के व्यक्ति को सुरक्षित महसूस कर्न्ना की उसकी मजबूती की निशानी होता है. लोकतंत्र केवल चुनाव और मध्यवर्ग का तमाशा नहीं है जिसे हम रोज रोज टीवी के चैनलों पे रोज रोज देख रहे है. लोकतंत्र वो हो जो बस्तर के लोगो को न्याय दिला सके जो आदिवासियों को उनकी और हो रही इन सियासी गोलिओं से मुक्त करा सके.

हिंदुत्व के ठगों को आदिवासियों से मतलब केवल  तब तक है जब वे उनके हनुमान बने रहे और उनकी सेवा में लींन रहे लेकिन जब भी उन्होंने अपने अधिकारों का प्रश्न उठाया उन्हें गोलियां और गालियाँ मिली इसलिए आज छ्हत्तिशागढ़ का प्रश्न हमारा राष्ट्रीय प्रश्न नहीं है और न ही किसी को आदिवासी गाँव में पुलिस के कहानियों पे कोई शक क्योंकि जो उनको झुट्लाते है उन्हें हिमांशुजी के तरह व्यव्स्त्ना का शिकार बनाना पड़ता है या कविता की तरह पुलिसिया कार्यवाही झेलनी पड़ती है. मीडिया अधिकांशतः पुलिस की कहानियों को सच बनाकर छाप रहा है इसलिए हमारे जैसे लोगो को सच की तलाश करते रहने पड़ेगी और ऐसी कहानियों को लगातार बहार निकलते रहना पड़ेगा नहीं तो एक सभ्य समाज के हमरे सारे प्रयास विफल हो जायेंगे और प्रतिक्रियावादी लोग ही इसका लाभ लेकर मेरा भारत महँ बनाते रहेंगे. सोनी और लिंगाराम की कहानी अगर हमारे समाज को नहीं झकझोरती तो लानत ऐसे लोकतंत्र पर जो मात्र थोक्तंत्र बन कर रह गया है.