Monday 10 October 2011

In the name of democracy in Chhatishgarh...



हमारा पाखंडी समाज

विद्या भूषण रावत


 हिमांशु जी की कविता ने एक ऐसे सत्य को उजागर किया है जो केवल हमारे पाखंडी चरित्र को दर्शाता है. आज़ादी के ६० वर्षों के बाद भी जिस तरीके से हिंदुत्व और पूंजीपति एक होकर आदिवासियों के जल जंगल और जमीन पे कब्जा कर रहे हैं वो शर्मनाक है और हमारा रास्ट्रीय चरित्र दिखा रहा है. मुझे शर्म है इस देश की संस्कृति पर जो इतना दिखावा और नौटंकी में यकीं करती है के रामलीला मैदान पर एक पाखंड को देखने भीड़ इकठ्ठा होती है और हमारा पाखंडी मीडिया और झूठे आंसू बहाने वाले लोग भारत की महान परम्परो का गुणगान करते है, वन्दे मातरम के नारे लगते हैं, मेरा भारत महान का पाखंड करते है और जब दूर बस्तर में लिंगाराम और सोनी सोरी माओवाद के नाम पर पुलिस की गिरफ्त में होते हैं तो किसी के पास वक़्त नहीं है. दुखद बात यह है की आदिवासी को अपने अधिकारों और संस्कृति के रक्षा के लिए भी पुलिस की गोलिया खानी पड़ती है.  उसके पास दिल्ली जैसे रोमांच नहीं हो सकता क्योंकि वहां पे धरना देने की गुंजाईश नहीं है. धरने का मज़ा दिल्ली में होता है क्योंकि यहाँ आपको मसीहा बनाने के पूरे तंत्र मौजूद है और यहाँ पे पुलिस भी आपको मदद करती है क्योंकि उसको पता है दिल्ली के मध्यवर्गीय लोगो के बच्चे बड़े नाज़ुक होते हैं क्योंकि वे बड़ी मुश्किल से सडको पे आते हैं इसलिए पुलिस को बताया जाता है के डंडे हाथो से हटाओ. तथाकथित ऊँचे लोगों को नमस्कार करके स्वागत करना है  ताकि उनकी सेवा में कोई कमी न हो. यहाँ खाना मिलता है और सबसे महत्वपूर्ण यह की यहाँ फ्री में मीडिया उपलब्ध है जो आपकी महानता और क्रांति के गीत गायेगा. ये चारण युग का मीडिया है जिसका दिल तब पिघलता है जब इनके अपने बच्चे धुप में निकलते है.. उसके अलावा इनके पास समय नहीं है.  दुर्भाग्यवश बस्तर के जंगलो और छत्तीशगढ़  के दूसरे इलाको मैं में ऐसी सुविधा उपलब्ध नहीं है. वहां न धरने की  जगह है और न ही किसी को ज्ञापन लेने का समय. हमारी पुलिस और प्रशासन आदिवासियों को माओवादी मानकर चल रहा है और पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है.  यहाँ किसी भी बात को कहने पे माओवाद का लेवल लग जाता है और एक बार वो लेवल आपको मिल गया तो फिर वन्देमातरम के ध्वजवाहक आपको देशविरोधी कहने से नहीं कतराते. मतलब ये के देशभक्त की पहचान यहाँ तिरंगा और वन्देमातरम से है जिसे हम साधारण भाषा में हिंदूवादी राष्ट्रवाद कहते हैं और जो बार बार हमें वापस मुद्दों से भटकाव पैदा करेगा. क्योंकि उसे कोइ  दूसरा राष्ट्रवाद  देशद्रोह नज़र आयेगा इसलिए ही भारतीय राष्ट्रवाद ने अन्य परम्पराऔ और संस्कृतियों को आसानी से स्वाकार नहीं किया. जहाँ पर भी लोगों ने अपने संशाधनो और अपनी स्वायत्तता की बात की हमारी राष्ट्रवादी  शक्तियों के निशाने पे आ गए और उसको मीडिया ने उसी नज़रिए से देखने की कोशिश की. 

आज एक चुनौती का क्षण है जब हमारा रास्ट्रीय जीवन हिंदूवादी नकारात्मक ताकतों के हाथ में है जो आदिवासियों के संशाधनो के कब्ज़ा करना चाहते है. विकास के नाम पर आदिवासियों का विनाश और उनकी संस्कृति को पूर्णतया उजाद्दने  के इस ब्राहमान्न्वादी पूंजीवादी षड़यंत्र का पर्दाफाश करना जरूरी है. यह भी जरूरी है के अगर भारत का संविधान आदिवासियों के अधिकारों और उनकी स्वयात्तात्ता का सम्मान नहीं कर पाता तो इस प्रश्न को अंतरारास्त्रीय मंचो पे उठाना जरूरी हो गया है. 

आज हम सब इसलिए ये भुगत रहे है क्योंकि जनतंत्र के नाम पर पूंजीतंत्र ने हमारी प्रणाली को खोखला करके रख दिया है और हम कुच्छ कर नहीं प् रहे . यह हमारे राजनैतिक नेतृत्व की हार है  क्योंकि उसके पास आदिवासी समाज के प्रश्नों को उठाने और उनका समाधान करने का समय नहीं और उसने इसकी जिम्मेदारी पुलिस और प्रशाशन को  सौंप दी है और वो इसे सामाजिक या नागरिक अधिकारों प् प्रश्न नहीं अपितु ला एंड ऑर्डर की समस्या मानते है और जो लोग पहले ही पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो उनसे आदिवासियों के प्रति सम्मान या विशेष प्यार की कैसे उम्मीद की जा सकते है. ऐसे में क्या हम आदिवासियों के दर्द और उनके प्रश्नों को समझ पाएंगे? 

दुनियां भर में आदिवासियों के प्रश्नों को गंभीरता से लिया जा रहा है. वो इस देश के मूलनिवासी है और एक बहुत बड़ी संस्कृति के वाहक भी. उन्होंने हमारे जंगलो को बचाया, हमारे पर्यावरण को मज़बूत किया और हमारी छल कपाटो से कोशों दूर थे और आज हम उन्हें सम दम दंड भेद से खत्म कर देना चाहते है. क्या ये एक मज़बूत लोकतंत्र की निशानी है ? लोकतंत्र केवल जिसकी जितने संख्या भारे से नहीं चलता. लोकतंत्र में हर के समाज के व्यक्ति को सुरक्षित महसूस कर्न्ना की उसकी मजबूती की निशानी होता है. लोकतंत्र केवल चुनाव और मध्यवर्ग का तमाशा नहीं है जिसे हम रोज रोज टीवी के चैनलों पे रोज रोज देख रहे है. लोकतंत्र वो हो जो बस्तर के लोगो को न्याय दिला सके जो आदिवासियों को उनकी और हो रही इन सियासी गोलिओं से मुक्त करा सके.

हिंदुत्व के ठगों को आदिवासियों से मतलब केवल  तब तक है जब वे उनके हनुमान बने रहे और उनकी सेवा में लींन रहे लेकिन जब भी उन्होंने अपने अधिकारों का प्रश्न उठाया उन्हें गोलियां और गालियाँ मिली इसलिए आज छ्हत्तिशागढ़ का प्रश्न हमारा राष्ट्रीय प्रश्न नहीं है और न ही किसी को आदिवासी गाँव में पुलिस के कहानियों पे कोई शक क्योंकि जो उनको झुट्लाते है उन्हें हिमांशुजी के तरह व्यव्स्त्ना का शिकार बनाना पड़ता है या कविता की तरह पुलिसिया कार्यवाही झेलनी पड़ती है. मीडिया अधिकांशतः पुलिस की कहानियों को सच बनाकर छाप रहा है इसलिए हमारे जैसे लोगो को सच की तलाश करते रहने पड़ेगी और ऐसी कहानियों को लगातार बहार निकलते रहना पड़ेगा नहीं तो एक सभ्य समाज के हमरे सारे प्रयास विफल हो जायेंगे और प्रतिक्रियावादी लोग ही इसका लाभ लेकर मेरा भारत महँ बनाते रहेंगे. सोनी और लिंगाराम की कहानी अगर हमारे समाज को नहीं झकझोरती तो लानत ऐसे लोकतंत्र पर जो मात्र थोक्तंत्र बन कर रह गया है.

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