हमारा पाखंडी समाज
विद्या भूषण रावत
आज एक चुनौती का क्षण है जब हमारा रास्ट्रीय जीवन हिंदूवादी नकारात्मक ताकतों के हाथ में है जो आदिवासियों के संशाधनो के कब्ज़ा करना चाहते है. विकास के नाम पर आदिवासियों का विनाश और उनकी संस्कृति को पूर्णतया उजाद्दने के इस ब्राहमान्न्वादी पूंजीवादी षड़यंत्र का पर्दाफाश करना जरूरी है. यह भी जरूरी है के अगर भारत का संविधान आदिवासियों के अधिकारों और उनकी स्वयात्तात्ता का सम्मान नहीं कर पाता तो इस प्रश्न को अंतरारास्त्रीय मंचो पे उठाना जरूरी हो गया है.
आज हम सब इसलिए ये भुगत रहे है क्योंकि जनतंत्र के नाम पर पूंजीतंत्र ने हमारी प्रणाली को खोखला करके रख दिया है और हम कुच्छ कर नहीं प् रहे . यह हमारे राजनैतिक नेतृत्व की हार है क्योंकि उसके पास आदिवासी समाज के प्रश्नों को उठाने और उनका समाधान करने का समय नहीं और उसने इसकी जिम्मेदारी पुलिस और प्रशाशन को सौंप दी है और वो इसे सामाजिक या नागरिक अधिकारों प् प्रश्न नहीं अपितु ला एंड ऑर्डर की समस्या मानते है और जो लोग पहले ही पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो उनसे आदिवासियों के प्रति सम्मान या विशेष प्यार की कैसे उम्मीद की जा सकते है. ऐसे में क्या हम आदिवासियों के दर्द और उनके प्रश्नों को समझ पाएंगे?
दुनियां भर में आदिवासियों के प्रश्नों को गंभीरता से लिया जा रहा है. वो इस देश के मूलनिवासी है और एक बहुत बड़ी संस्कृति के वाहक भी. उन्होंने हमारे जंगलो को बचाया, हमारे पर्यावरण को मज़बूत किया और हमारी छल कपाटो से कोशों दूर थे और आज हम उन्हें सम दम दंड भेद से खत्म कर देना चाहते है. क्या ये एक मज़बूत लोकतंत्र की निशानी है ? लोकतंत्र केवल जिसकी जितने संख्या भारे से नहीं चलता. लोकतंत्र में हर के समाज के व्यक्ति को सुरक्षित महसूस कर्न्ना की उसकी मजबूती की निशानी होता है. लोकतंत्र केवल चुनाव और मध्यवर्ग का तमाशा नहीं है जिसे हम रोज रोज टीवी के चैनलों पे रोज रोज देख रहे है. लोकतंत्र वो हो जो बस्तर के लोगो को न्याय दिला सके जो आदिवासियों को उनकी और हो रही इन सियासी गोलिओं से मुक्त करा सके.
हिंदुत्व के ठगों को आदिवासियों से मतलब केवल तब तक है जब वे उनके हनुमान बने रहे और उनकी सेवा में लींन रहे लेकिन जब भी उन्होंने अपने अधिकारों का प्रश्न उठाया उन्हें गोलियां और गालियाँ मिली इसलिए आज छ्हत्तिशागढ़ का प्रश्न हमारा राष्ट्रीय प्रश्न नहीं है और न ही किसी को आदिवासी गाँव में पुलिस के कहानियों पे कोई शक क्योंकि जो उनको झुट्लाते है उन्हें हिमांशुजी के तरह व्यव्स्त्ना का शिकार बनाना पड़ता है या कविता की तरह पुलिसिया कार्यवाही झेलनी पड़ती है. मीडिया अधिकांशतः पुलिस की कहानियों को सच बनाकर छाप रहा है इसलिए हमारे जैसे लोगो को सच की तलाश करते रहने पड़ेगी और ऐसी कहानियों को लगातार बहार निकलते रहना पड़ेगा नहीं तो एक सभ्य समाज के हमरे सारे प्रयास विफल हो जायेंगे और प्रतिक्रियावादी लोग ही इसका लाभ लेकर मेरा भारत महँ बनाते रहेंगे. सोनी और लिंगाराम की कहानी अगर हमारे समाज को नहीं झकझोरती तो लानत ऐसे लोकतंत्र पर जो मात्र थोक्तंत्र बन कर रह गया है.
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