विद्या भूषण रावत
योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के नए मुख्यमंत्री होंगे। गोरखनाथ मठ के महंत योगी भाजपा की भविष्य की राजनीती के लिए बहुत जरुरी हैं इसीलिए उनकी ताजपोशी केवल इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण नहीं है के एक उग्र हिन्दू को राज सौंपा जा रहा है अपितु ये भी के अंदर ही अंदर संघ मोदी के विकल्प भी तैयार कर रहा है। योगी अभी मात्र ४५ वर्ष के हैं और उनके आग उगलने वाले भाषण उनके भक्तो के लिए अमृत की तरह है।
योगी की ताजपोशी करके भाजपा ने संकेत दिया है के उनका विकास की राजनीती से कुछ लेना देना नहीं है और इसका इस्तेमाल वो समय समय पर अपने उन भक्तो को खुश करने के लिए करते रहेंगे जो मध्यवर्गीय है , प्राइवेट कंपनियों में काम करते हैं और अमेरिका जाना जिनका आदर्श रहा है ताकि ओपिनियन मेकिंग क्लास उनके साथ खड़ा रहे। अन्यथा संघ और भाजपा को पता चल चूका है के उत्तर प्रदेश के लोग क्या चाहते हैं और जो चाहते हैं उन्हें मिल चूका है। आज लगता है के मार्क्स ने धर्म के बारे में जो लिखा वो गलत नहीं था। धर्म की अफीम में मदमस्त जनता अपने 'निर्वाण' के लिए ढोंगी पाखंडी बाबाओ की शरण में जा रही है। जिस सरकार से विकास के प्रश्नों पर सवाल किये जाने चाहिए थे वो पूरी बहस को कब्रिस्तान और शमशान में ले गयी। अब संघ और भाजपा ने योगी को उत्तर प्रदेश की गद्दी सौंपकर अपना अजेंडा तय कर दिया है।
जातिगत बैलेंसिंग करने के लिए एक ब्राह्मण और एक पिछड़े को उप मुख्यमंत्री का पद सौंप दिया गया है। अभी बाकी लोगो को भी उनकी जातीय अहमियत के हिसाब से पद मिलेगा। वैसे भाजपा के पास दलित पिछडो के नेताओ की लंबी लाइन है जिनको पता है के उनको कुर्सी मिलकर ही जनता तृप्त हो जायेगी और इसलिए काम हो न हो जातीयता को तो अवसर मिलेगा ही। सामाजिक समरसता और दलित पिछडो को मुसलमानो के खिलाफ करने का क्या हस्र हुआ है ? इसका सामाजिक विश्लेषण करने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। आज भाजपा के हिंदुत्व के एजेंडा से लगभग १२५ विधायक ( शायद ६३ ब्राह्मण और ६२ ठाकुर ) चुनाव जितने में कामयाब रहे। ये वोट किसका था ? उत्तर प्रदेश की राजनीती को समझने के जरुरत है। जातीय राजनीती पर धर्म का मुलम्मा यदि चढ़ गया तो सबसे बड़ा लाभ सवर्णो को होता है और भाजपा एवं संघ ये जानते हैं इसलिए वह बार बार हिन्दू मुसलमान, भारत पाकिस्तान की बात करते हैं ताकि पुरे हिन्दू समाज की ठेकेदरी उनको मिल जाए और वो ऐसा करने में कामयाब हुए। हैं मुसलमानो के सामाजिक आर्थिक पिछड़ेपन का सवाल उठाना जरुरी है। अब जातीय मतगड़ना के प्रश्न को उठाना भी आवश्यक है। मात्र मुस्लिम विरोध पर पैदा हुई राजनीती के खतरों के और वैचारिक धयान दिलाना पड़ेगा। लेकिन मुसलमाओं में भी अंदरूनी बदलाव को समर्थन, महिलाओ पर प्रश्न और मुस्लिम धार्मिक नेताओ को राजनीती में सर पर चढ़ा कर हम इन सवालो के उत्तर नहीं ढूंढ सकते। आम मुस्लिम जो समाजहिट में संघर्षरत हैं , उनको आगे बढ़ाने का समय आ गया हैं. हिन्दू जातिवाद या मुकाबला मुस्लिम साम्प्रदायिकता या किसी और किस्म के पृथकतावाद से नहीं दिया जा सकता। इसके लिए बुद्ध की सम्यक और मानववादी विचारधारा ही विकल्प बन सकती हैं जहाँ दबे कुचले समुदायों से नेतृत्व उभारा जाए और जो समुदाय के बीच काम कर रहा हो।
क्या उनके ऐसे प्रश्नों का उत्तर राजनैतिक 'विकास ' के मुद्दे उछाल कर किया जा सकता हैं. अखिलेश यादव ने विकास का मुद्दा उठाया लेकिन बहुजन समाज की सोच, उसकी अस्मिताओं की चाहत और उसके महापुरुषों के इतिहासबोध शायद उन्हें नहीं था। जो समाज और नेता अपने इतिहास से परिचित नहीं हैं वो ब्राह्मणवाद की कुटिलताओं को कभी समझ नहीं पाएंगे। मुझे अखिलेश पसंद थे लेकिन मेरी परेशानी यही थी के अपने पिता की भांति उन्होंने बाबा साहेब आंबेडकर को एक बिरादरी के नेता के तौर पर देखा और लोहिया को उनकी काट के तौर पर। ये बिलकुल झूट और गलत बात है। लोहिया खुद चाहते थे बाबा साहेब उस आर पी आई के नेता बने जिसमे वह और उनके अन्य कई समाजवादी साथी शामिल हों। समाजवादी पार्टी ने ऐसा कोई कार्य नहीं जिसमे पिछड़े वर्ग के लोग उनसे जुड़ सके। ऐसा जुड़ाव केवल जातीय नहीं हो सकता। सामाजिक तौर पर बहुजन अस्मिता की मजबूती के लिए उन्होंने कोई कार्य किया हो ऐसा हमें नहीं दीखता। पार्टी की कोशिश सवर्णो में खासकर ब्राह्मण ठाकुरो में स्वीकार्यता प्राप्त करने की थे लेकिन वे ये नहीं जानते के जाति की राजनीती करने वाले ब्राह्मण ठाकुर कायस्थ या बनिया तभी तक उनके साथ है जब तक उन्हें सत्ता मिल रही है। अतः जब लगा के हिंदुत्व और कॉर्पोरेट का जादू चल रहा है तो ये तबका सबसे पहले खिसक लिया।
बसपा से हमें बहुत उम्मीदे थी। हम उत्तर प्रदेश में तमिलनाडु के तरह का दो पार्टी राजनीती देखना चाहते थे जो बहुजन पार्टियों के बीच में लोकतान्त्रिक झड़प हो ताकि ब्राह्मणवादी तकते हासिये पे रहे। बहुजन समाज पार्टी का इतिहास संघर्ष का रहा है। मान्यवर कांशीराम ने अपने जनसंपर्कों और जनसंघर्षो से इसको सींचा लेकिन पार्टी ने जान संघर्ष का रास्ता कभी छोड़ दिया। पार्टी को अति दलित अति पिछड़ी जातियो में नेतृत्व विकसित करना करना होगा और बहुजन सांस्कृतिक आंदोलन को प्रगतिशील बहुजन वामशक्तियो के साथ जोड़कर संघ के ब्राह्मणवादी पूंजीवादी चरित्र का पर्दाफास करना होगा। साथ ही साथ लोगो को अन्धविश्वाश से दूर करने और उनके अंदर वैज्ञानिक चिंतन पैदा करने लिए साधारण भाषा में कार्यक्रम तैयार करने होंगे। मुसलमानो में से भी पसमांदा मुसलमानो में नेतृत्व पैदा करना होगा और केवल जाती और धार्मिक नेतृत्व से मतलब नहीं , जरुरी ये के व्यक्ति वैचारिक तौर पर बहुजन समाज के प्रति, जिसमे पसमांदा मुसलमान भी शामिल हैं, के प्रति समर्पित हो।
आज का दौर सूचना और बौद्धिकता का दौर है इसलिए पुराने ढर्रे की मशीहाई राजनीती का दौर चला गया है। मोदी के जुमलो को उनकी ही भाषा में जवाब केवल लालू यादव दे सकते हैं। नए युवा बहुत बेहतर बोल रहे हैं इसलिए राजनीती में उनको यदि समय पर इस्तेमाल नहीं करेंगे तो कोई लाभ नहीं। चुनाव प्रचार केवल एक ही नेता के इर्द गिर्द न हो इसके लिए बढ़ी संख्या में युवा, महिलाये, कलाकार, बुद्धिजीवियों का साथ लेना होगा। नए दौर के युवाओ को नेतृत्व में लाने के लिए बुद्ध, आंबेडकर, फुले, भगत सिंह , राहुल सांकृत्यायन लोहिया, पेरियार, मार्क्स, नेहरू, विवेकानंद, नरेंद्र देव, रामसरूप वर्मा , शहीद जगदेव प्रसाद, आदि की विचारधारों का अध्ययन करना जरुरी है. मतलब यह नहीं हम इनके मतभेद ढूंढ कर इस्तेमाल करें अपितु इन सभी ने पूंजीवाद, ब्राह्मणवाद, साम्रज्य वाद के बारे में क्या कहा है वो समझे. सभी लोगो को संघ के इतिहास की जानकारी होना जरुरी है के गोलवलकर, हेडगेवार, श्यामा प्रसाद मुख़र्जी. अब समय आ गया है गाँधी नेहरू की आलोचनाओ पर हम अपना समय न व्यर्थ करें क्योंकि अभी संघ उसका इस्तेमाल अपने लाभ के लिए कर रहा है। आवश्यकता इस बात की है के मौजूदा सरकार और उसके सांस्कृतिक विंग राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ क्या हैं चाहते हैं ये जानना जरुरी हैं. संघ और भजपा के इंटरनेट विशेषज्ञओ ने पूरी बहस को नेहरू गाँधी परिवार परिवार के इर्द गिर्द रखा ताकि उन पर चर्चा न हो। धयान रखिये लोहिया का गैर कांग्रेसवाद के अब कोई मतलब नहीं जब संघ परिवार देश की सत्ता पर काबिज हो और पूरे देश में में ब्राह्मणवादी ताकते पूंजीवादी ताकतों के साथ मिलकर यहाँ के बहुजन समाज के खिलाफ साम दाम दंड भेद से अपनी लड़ाई लड़ रही हो। संघ द्वारा प्रायोजित मीडिया बहसों में व्यर्थ समय न गवाये अपितु गाँव गाँव अपने सांस्कृतिक अभियान को बढाए। सवाल पूछिये के सबको शिक्षा ,सबको स्वास्त्य का क्या हुआ। विश्विद्यालयों में बहुजन छात्रों के साथ जो हो रहा है उसको उठाए। सोशल मीडिया और वैकल्पिक मीडिया को मज़बूत करिये लेकिन भक्तो से दूरी बनाइये क्योंकि ये आपको कभी सही स्थिति की जानकारी नहीं देंगे।
अभी भी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है। उत्तर प्रदेश में बिहार की तर्ज पर गठबंधन की आवश्यकता है। सपा -बसपा गठबंधन वक़्त की आवश्यकता है लेकिन उस और विस्तृत करना होगा ताकि वोट के विभाजन का लाभ दोबारा से जातिवादी लोगो को न मिले इसलिए कांग्रेस इस गठबंधन में जरुरी है ताकि देश के दूसरे हिस्से में जहाँ वो मौजूद हो , उसे कुछ लाभ मिले. ये गठबंधन एक शर्त पे मज़बूत हो सकता है। यदि मायावती जी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाए, राहुल गाँधी गठबंधन के संयोजक बने और अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के लिए खुले तौर पर घोषित किया जाए. मैं जानता हूँ के जो मैं लिख रहा हूँ वो असंभव नहीं है। आज देश पर बहुत बड़ा संकट है और अगर बहुजन ताकते साथ नहीं आयी तो देश पर मनुवादी ताकतों का पूर्णतया नियंत्रण होगा और जो थोड़ी बहुत उपलब्धिया पिछले साथ सत्तर वर्ष में बाबा साहेब आंबेडकर की कुर्बानियो से हमें मिली वो सब मटियामेट कर दी जाएंगी। मैं केवल ये कहना चाहता हूँ के गठबंधन लंबे समय के लिए हो और जिनकी वैचारिकता में थोड़ा भी संदेह हो उन्हें फिलहाल गठबंधन से बाहर रखे. संघ के उग्र ब्राह्मणवाद के विरुद्ध आप मात्र विकास की जुमलेवाली सर्वजन राजनीती से नहीं कर सकते। उसके पर्दाफास के लिए बहुजन नायको और सामजिक न्याय के लिए संघर्ष करने वाली सभी शक्तियों और नायको के संघर्ष और उनके विचारो को साथ लेकर समाज में विचार और सांस्कृतिक बदलाव के संघर्ष की शुरुआत करनी होगी। आंबेडकर, भगत सिंह, जोतिबा फुले , बिरसा, राहुल सांकृत्यायन , पेरियार आदि की सांस्कृतिक विरासत को जनता की बीच खुद्दारी और ताकत के साथ रखना होगा तभी हम एक सभ्य और प्रबुद्ध भारत के बाबा साहेब के सपने को पूरा कर पाएंगे। ये दौर बहुत खतरनाक जरूर है लेकिन विचारो की मज़बूती और व्यक्ति के वैचारिक प्रतिबद्धता तभी पता चलती है जब ऐसे कठिन दौर आते हैं। अभी नयी पार्टियों का समय नहीं है अपितु जो हमारे पास उपलब्ध हैं उन्हें लोकतान्त्रिक और वैचारिक तौर पर मज़बूत करने का समय है।
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