Monday 5 August 2013

सांस्कृतिक बदलाव के बिना राजनैतिक परिवर्तन बेकाम का



विद्या भूषण रावत 

७ अगस्त १९९० को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने संसद में घोषणा की के मंडल आयोग की सिफारिसो को सरकार ने स्वीकार कर लिया है और अन्य पिछड़े वर्ग के लोगो के लिए २७% आरक्षण लागु किया जायेगा। घोषणा का सर्वत्र स्वागत किया गया और बात बीत गयी. १५ अगस्त को प्रधानमंत्री ने आंबेडकर जयंती पर सार्वजानिक अवकाश की घोषणा की . उससे पहले वह १२ अप्रेल १९९० को बाबा साहेब आंबेडकर चित्र को संसद में सम्मानपूर्वक स्थान दिला  चुके थे और उन्हें भारत रत्न से सम्मानित करने का फैसला किया। इसी वर्ष बाबा साहेब की जन्मसदी को भारत सरकार ने बहुत धूम धाम से मनाया और आंबेडकर सह्हित्य को हिंदी में प्रकाशित करवाने के लिए प्रयास किये. इसी वर्ष नव्बौधो को अनुसूचित जाति के आरक्षण में शामिल किया गया. यह  मैं इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि अक्सर मंडल आयोग की सिफरिसो को लागु करने के लिए भी हमारे बहुत से 'महात्मा' विश्वनाथ प्रताप सिंह को श्रेय नहीं देना चाहते। कुछ कहते हैं के यह एक राजनैतिक निर्णय था जो देवीलाल से टकराने के उद्देश्य से लिया गया लेकिन बात यह है के हर चीज में राजनीती होती है और इसलिए यदि मंडल का निर्णय गलत नहीं था तो मुलायम को देवीलाल के साथ देने की जरुरत नहीं थी लेकिन उन्होंने ऐसा ही किया और वह मंडल के धुर  विरोधी चंद्रशेखर के पास चले गए. मैं यह मानता हूँ के चाहे कैसे भी यह निर्णय लिया गया यह भारत की राजनीती में एक दूरगामी परिवर्तन लाने वाले ऐतिहासिक निर्णय बना

मेरे कहने का मतलब  यह है के स्वाधीन भारत में यह एकमात्र ऐसे सरकार थी जो वाकई में दलित पिछडो और आदिवासियों के हितो के प्रति सोच रखती थी और इसलिए उसके हरेक निर्णय न केवल गहन संकेतो वाले थे अपितु उन्होंने लोगो में गहरी छाप छोड़ी। क्या यह हकीकत नहीं है के स्वाधीनता के  गुजरने के बाद भी सरकारों ने बाबा साहेब आंबेडकर को वोह स्थान नही प्रदान किया जिसके वे हकदार थे और उनके साहित्य जो जनता से छुपाया गया. इसलिए विश्वनाथ प्रताप और उनकी सरकार को मात्र मंडल से न जोड़े अपितु उनके एक्शन की हकीकत को समझने की जरुरत है जिसने भारत की राजनीती में दूरगामी परिवर्तन ला दिया है. 

मंडल ने विश्वनाथ प्रताप को भारत की राजनीती का सबसे बड़ा खलनायक बनाया और उनके सबसे शुभचिंतक भी उनके दुश्मन हो गए. वोह लोग जो उनकी इमानदारी पर कसीदे पढ़ते थे वो एकदम उनके विरोध में खड़े हो गए. इससे यह बात भी जाहिर होती है के ऊँची जाति की 'विशेषज्ञ' कभी भी इमानदार लोगो के  साथ नहीं खड़े रहे क्योंकि अगर जातीय सर्वोच्चता और ईमानदारी में एक को चुनना हो तो वे जातीय सर्वोच्चता को चुनेंगे और इसलिए विश्नाथ प्रताप उनके सबसे बड़े दुश्मन हो गए और उनकी मौत तक उन्हें सवर्ण हिन्दुओ की गालियाँ पड़ी लेकिन इतना सत्य है आने वाली पीढियां  जब भी इतहास इतिहास का आंकलन   करेंगी तो  विश्वनाथ प्रताप की ऐतिहासिक भूमिका को नज़रंदाज़ नहीं कर पाएंगी। 

मंडल के महिमंडल को कम करने के लिए ही  लाल कृष्णा अडवाणी और संघ परिवार ने अपनी कुत्सित रणनीति भी बना ली और रथयात्री ने सोमनाथ से अयोध्या तक की यात्रा करने का निर्णय लिया और खुले तौर पर अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की घोषणा की. यह बात में साफ तौर पर कहना चाहता हूँ के संघ परिवार का निशाना मुसलमानों पर जरुर था लेकिन उनके असली निशाने परे दलित पिछड़ी जातियां थी क्योंकि मंडल के बाद इन जातियों में आपसी तालमेल बढ़ रहा था वोह ब्राह्मणवादी शक्तियों के लिए खतरनाक था. संघ को पिछडो को नौकरियों में आरक्षण से कुछ खतरा नहीं था उन्हें  असली डर था दलित पिछडो के हाथ दिल्ली की सत्ता की आने से \. मंडल विरोध में दिल्ली और अन्य नगरो में पाखंडी हिन्दुओ का जो नाटक हुआ उस पर मुझे ज्यादा बोलने की जरुरत नहीं लेकिन उसने ये साबित किया हिन्दुओ के लिए दलित और पिछड़े उनकी जनसँख्या बढाने के आलावा कुछ नहीं। जब सत्ता में बदलाव की बात आती है तो सवर्ण हिन्दू तिलमिलाने लगते हैं और उनकी इन उलजलूल हरकतों को जातिवादी स्वर्न्वादी मीडिया ने जिस तरीके से प्रचार किया उससे पता चलता है के यह हिंदी अखबार नहीं अपितु हिन्दू अख़बार बन गए थे. 

दलित और पिछडो के आत्म स्वाभिमान जागने से संघ और उनके मठाधिशो की दूकान बंद होने का खतरा था इसलिए हिन्दू स्वाभिमान ने नाम पर राम मंदिर का आन्दोलन चला और मुसलमानों को निशान बनाकर दलित पिछडो के अन्दिर अस्मिता की लड़ाई को दबाने की कोशिश हुइ लेकिन वोह कामयाब नहीं हुई. उत्तर प्रदेश और बिहार ने मंडल के बाद नई शक्तियों का उदय देखा और उनसे उम्मीद की गयी थी के वे अस्मिता की इस जंग को आगे  ले जायेंगे और समाज को नई दिशा देंगे। मुलायम ने कभी मंडल का समर्थन नहीं किया और उसको लागु करवाने में भी वी पी को बहुत मशक्क्त  करनी पड़ी. 

विश्वनाथ प्रताप की सरकार अयोध्या में हिन्दू आतंकवादियों के उन्माद से बाबरी मस्जिद को बचाने में कामयाब रही लेकिन उसे अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी . उस सरकार ने समझौता परस्ती नहीं की इसलिए वो चली नहीं। यह एक दुखद सत्य है के वह सरकार संविधान को बचाकर चली गयी लेकिन उसके बाद की सरकारों ने संविधान के साथ खिलवाड़ किया और  तब भी बेशर्मी से चलती रही. 

मंडल के नाम पर मलाई खाने वाले राजनीतिज्ञों ने मंडल की क्रांति को रोका है इसलिए समय आने पर जनता उनसे हिसाब लेगी। मंडल  सामाजिक न्याय का राजनैतिक हथियार है जो जातिगत अस्मिता की राजनीती तक सीमित नहीं किया जा सकता। मंडल भारत के अन्दर प्रभुत्ववाद की राजनीती को समाप्त करने का सबसे बड़ा साधन है इसलिए यदि मंडल की राजनीती से उपजी पीढी  प्रभुत्ववाद और परिवारवाद की सबसे बड़ी पोषक होगई तो वोह केवल अमंगल करेंगी और अमंडल भी. नतीजा सामने है. बिहार और उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय के नाम पर जातीय पूर्वाग्रहों का खुला खेल दिखाई दिया और जो ताकत प्रभुत्ववादियों को समाप्त करने में लगनी चाहिए थी वोह दलितों के विरोध में चली गयी जो बेहद शर्मनाक है. मामला केवल यही तक सीमित नहीं रहा मौका परस्ती देखिये तो पिछडो को भी आरक्षण के नाम पर धोखा दे दिया गया. 

क्या मंडल के सही वारिस कभी दलित विरोधी हो सकते हैं और क्या उन्हें ऐसा होना चाहिए।मंडल की मार में सबसे ज्यादा गालियाँ वी पी, राम विलास पासवान और शरद यादव को पड़ी और मंडल की लड़ाई में सबसे आगे दलित थे . उस वक़्त तक पिछड़ा आन्दोलन और नेतृत्व ना के बराबर था इसलिए सडको पर दलितों ने लाठी  डंडा खाया। यह इसलिए लिखना पड़ रहा है क्योंकि उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ने जिस बेशर्मी से पदोन्नतियों में आरक्षण के विरूद्ध संसद में बदतमीजी की और उसके बाद उत्तर प्रदेश के जातिवादी सरकारी कर्मचारियों को दलित कर्मचारियों के विरुद्ध खड़ा किया उसकी मिसाल देते नहीं बनेगी . यह निहायत ही घटिया और तुच्छ राजनीती का प्रतीक थी. हमें  अखिलेश यादव से बहुत उम्मीदे थी लेकिन लगता है के कई चाचाओं और दाद्दाओ के चलते वो कोई भी स्वतंत्र निर्णय लेने में असमर्थ हैं . दलितों के आरक्षण के मसले को पिछड़ी जातियों की घृणा में बदलना शर्मनाक था और यह केवल आरक्षण तक ही सीमित नहीं था गाँव में दलितो को धमकाना और गरियाना एक धंधा बन गया. लेकिन दलित बहुजन प्रश्नों को यदि सही समझ हम रखते हैं हैं तो पिछडो को भी पता चल गया के वर्तमान सरकार आरक्षण में पिछडो को न्याय नहीं दिल पाएगी। लेकिन वो जानती हैं के जाति उसके साथ है और यही हमारी सबसे बड़ी हार है . जातिवाद बहुजन आन्दोलन को ले डूबेगा इसलिए अब जाती के खूंटो को काटकर सांस्कृतिक क्रांति की भी जरुरत थी. बाबा साहेब आंबेडकर का प्रबुध भारत का सपना केवल दलितों के लिए ही नहीं था वोह पिछड़ी जातियों और न्य सभी पर भी लागू होता है और बुद्धा केवल एक  वर्ग या जाति विशेष के नहीं थी अपितु दुनिया को भारत की सबसे बड़ी धरोहर हैं और यदि बहुजन समाज भी बुद्ध से कुछ प्रेरणा ग्रहण करेगा तो कोई बुराई नहीं है क्योंकि सांस्कृतिक क्रांति के आभाव में बहुजन समाज ब्राह्मणवादी  परम्पराओं का सबसे बड़ा पोषक रहेगा और बदलाव की दिशा का सबसे बड़ा रोड़ा।

पिछड़ी जातियों के राजनैतिक चिंतन में यदि आंबेडकर फुले पेरियार नहीं तो वोह अवसरवादी मनुवादी जातिवादी राजनीती ही करेंगी और उसका पूरा शिकार दलित और अति पिछड़ा होगा। मंडल ने प्रभुत्ववाद को खत्म किया अतः इसके जरिये यदि फिर से प्रभुत्वाद पैदा होगा तो अन्य जातियां विद्रोह करेंगी। राजनैतिक समझ के चलते लोग और जातियां प्रभुत्ववादी और वर्चस्वादी विचारधारो को छोड़ेंगे और इसलिए ही इतने नए दल और  नेता आ रहे हैं. मैं साफ कहना चाहता हूँ के सांस्कृतिक परिवर्तन में उनको भी लगना  पड़ेगा नहीं तो उनकी स्थिति मनुवाद के 'स्वयंसेवक' की होगी ।

जिस दिन सभी वर्गों में राजनैतिक चेतना होगी और सांस्कृतिक परिवर्तन आ गया तो वोह हिंदुत्व के छिपे अजेंडे को पहचान सकेंगे क्योंकि 'अस्मिता' के मनोविज्ञान को सबसे पहले संघ परिवार समझा इसलिए राम मंदिर आन्दोलन के लिए ईंटे  चुनने का काम दलित पिछडो को सौंपा गया और आंबेडकर भी 'प्रातः स्मरणीय' हो गए. अब यह कौन बताये की आंबेडकर ने तो राम और कृष्ण की पहलियों को अछ्छे से बुझा। इसलिए संघ और हिंदुत्व उन  अंतरविरोधो पर अपनी राजनीती करते हैं जो इस वर्णवादी व्यवस्था की देंन हैं और इसीलिये  एक के बाद एक 'सांस्कृतिक' क्रांति के लिए पिछड़ी जाति  के बाबाओं की कतार लग गयी जो हमारी राजनैतिक चेतना को खत्म करने के लिए काफी है . किसी भी समाज की राजनैतिक चेतना को खत्म करने के लिए उसे विचारारिक रूप से पंगु बनाने के लिए उसके हाथ में कमंडल पकड़ा दो और धर्म की ढकोस्लेबाजी में उसको फंसा दो ताकि वह उससे बाहर न निकल सके. जिस  समाज में राजनैतिक चेतना का अभाव होगा तो वोह कभी भी बदलाव नहीं ल सकते  इसलिए मंडल का आन्दोलन केवल जातिवादी नहीं हो सकता बल्कि सांस्कृतिक राजनैतिक क्रांति का एक बहुत जबरदस्त हथियार बन सकता है और उस हथियार को मजबूत करने के लिए बहुजन समाज के सभी लोगो को वैचारिक परिवर्तन की लड़ाई भी लडनी पड़ेगी और उसके लिए भारत की अर्जक और मानववादी चेतना के सारे योध्धाओ को अपना नेता मानना पड़ेगा और अपनी जाति के ब्राह्मणवादी नेताओं और परिवारों के विरूद्ध  बगावत करनी पड़ेगी। अब समय आ गया है एक नयी राजनैतिक पहल का जो दलित पिछडो आदिवासियों मुसलमानों और अन्य संघर्षशील अन्दोलनो की एकता का जो भारत की विविधता का सम्मान करे और हमारे धर्मनिरपेक्ष और  समाजवादी संविधान  को मज़बूत करे, आदिवासियों, दलितों और अन्य लोगो के जल जंगल और जमीन के  अधिकारों को  बचा सके. आज के पूंजीवादी व्यवस्था ने पहले ही सरकार का  हस्तक्षेप  ख़त्म कर दिया है और समाज के अर्जक तबको को सबसे मुश्किल हालातो में डाला है. पूंजी के वर्चस्व ने एक नए प्रभुत्व को जन्मदिया है और हमारी वर्तमान राजनैतिक दल इससे निपटने में पूर्णतया फ़ैल रहे है क्योंकि की पूंजी और पैसे के आगे वे भी घुटने टेक चुके हैं. इसलिए मंडल को इस सन्दर्भ में देखना पड़ेगा के हम हर प्रकार के प्रभुत्ववाद का विरोध  करेंगे और सत्ता में सबकी भागीदारी के लिए संघर्ष करते रहेंगे . मंडल की ताकते  धार्मिक प्रतिक्रियावादी ताकतों का जमकर विरोध करेंगी और भारत को एक प्रगतिशील भारत बनाने के लिए न केवल सत्ता और राजनैतिक परिवर्तन को  हथियार बनायेंगी अपितु सांस्कृतिक परिवर्तन की लड़ाई भी लड़ेंगी क्योंकि उसके आभाव से में वे हमेशा अपनी पहचान के संकट से गुजरती रहेंगी। अभी तो बस इतना ही की मंडल दिवस अब सामाजिक न्याय ही नहीं सामाजिक परिवर्तन का दिवस बने यही कामना है 

No comments:

Post a Comment