Thursday 28 February 2013

साम्प्रदायिकता का लोकतंत्र






विद्या भूषण रावत 

आज से ग्यारह वर्ष पूर्व एक अनाम जगह की क्रुर और अमानवीय घटना ने गोधरा को विश्व पटल पर एक नाम दे दिया. घटना की क्रूरता में साबरमती एक्सप्रेस के एस-६ कोच में दंगाइयों ने आग लगादी जिसके फलस्वरूप ५६ निर्दोष लोग जिन्दा जलकर मर गये. इतिहास में कलंकित इस घटना ने मानवता के हत्यारों का काम और आसान कर दिया जब हिंदुत्व के ठेकेदारों ने यह निर्णय ले लिया के अब हमें इस घटना का बदला लेना है और फिर अगले कुच्छ दिनों तक गुजरात में जो हुआ वो स्वतंत्र भारत के इतिहास के सबसे बदसूरत समय में गिना जायेगा. यह एक ऐसा घटनाक्रम था जब राज्य सरकार ने अपनी जिम्मेवारी भुलाकर एक धर्म विशेष की हितैषी और दुसरे की दुश्मन के तौर पर बनाकर पूरी की। पुरे घटनाक्रम में राज्य के सांप्रदायिक प्रशाशन ने मुसलमानों के कत्लेआम में पूर्ण भूमिका निभाई और उसको 'हिन्दुओ ' का गुस्सा करार दिया. इसके नतीजे राजनैतिक तौर पर कामयाबी के थे क्योंकि गुजरात के हिन्दुओ के ह्रदय सम्राट बनकर नरेन्द्र मोदी ने हिन्दुवा की प्रयोग्शाला में अपने अभिनव प्रयोग शुरू कर दिये. राज्य की सत्तारूढ़ सरकार द्वारा प्रायोजित इन दंगो में केंद्र सरकार ने आँख बंदकर मौन धारण कर लिया। गुजरात की हिंदुत्व की प्रयोगशाला ने दलितों और आदिवासियों को अलग थलग किया और उन्हें मुसलमानों के विरुध्ध लामबंद करने की कोशिश की।

लेकिन राजनीती में ऐसे प्रयोग केवल संघ परिवार ने किये हों ऐसा नहीं है. १९ ८५ में राजीव गाँधी ने चुनावों में भरी बहुमत प्राप्त किया क्योंकि इंदिराजी की हत्या के बाद देश में तथाकथित सहानुभूति ने उन्हें तीन चौथाई बहुमत दिल दिया जो उनके नाना जवाहरलाल को भी नसीब नहीं हुआ था. हाँ, अगर विशेषज्ञों की भाषा का इस्तेमाल करून तो यह इंदिराजी के प्रति 'श्रधांजलि थी' और यदि राजनैतिक विश्लेषण करूँ तो साफ तौर पर एक सांप्रदायिक वोट क्योंकि अक्टूबर के अंत में इंदिरागांधी की हत्या के बाद पुरे देश में सिख विरोधी हवा को बढ़ने में सत्तारूढ़ दल की पूरी भूमिका थी और यह भी जरुरी है के कांग्रेस उस वक़्त हिंन्दुत्व की शक्तियों की प्रथम पसंद बन चुकी थी क्योंकि इंदिरा की हत्या को 'हिन्दुओ' पर खतरा मान लिया गया. सरकार ने इंदिरागांधी की हत्या के बाद के नारों 'खून का बदला खून से लेंगे ' को दूरदर्शन और आकाशवाणी पर खूब सुनवाया ताकि हमारा खून जल्दी 'पानी' न बन जाये. 

भारत की एक खतरनाक हकीकत है पूर्वाग्रहों में समाज का जीना और नए पूर्वाग्रहों का निर्माण फलस्वरूप प्रशाशन और मीडिया पूर्णतया जातिवादी और सांप्रदायिक बन चूका है और पूंजी और धर्म के गठबंधन को और मज़बूत कर रहा है. याद करें १ ९ ८ ४ में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद सिख विरोधी लहर को बढ़ने में हिन्दू साम्प्रदायिकता ने अपना रोल ऐडा किया और राजीव गाँधी हिंदुत्व के सबसे बड़े मैस्कॉट बने. उनके गौर माथे पर लाल टिका भारत के सवर्ण जन को याद दिलाने की कोशिस था के वह उनके अपने ही है। फिर अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण राजीव का सपना था क्योंकि उन्होंने अपनी चुनाव सभाओं में वो वादा किया। चौरासी के कांग्रेस के खेल ने हिंदुत्व के प्रहरियों को मौका दे दिया के बहुमत का निर्माण अल्पसंख्यको के विरुद्ध घृणासे किया जा सकता है और जरुरी है के मीडिया का सांप्रदायिक कारन किया जाए और उसकी जातीय अस्मिताओ को जिन्दा किया जाये. इसी का नतीजा है के १ ९ ९ ० में मंडल की घोषणा के बाद मीडिया ने  विश्वनाथ प्रताप को भारत के सबसे घृणित व्यक्तियों में शुमार किया ताकि उनके द्वारा लगे चिंगारी को बुझाया जा सके और अच्छे से बदनाम किया जा सके.. लेकिन वो हो न सका क्योंकि मंडल की ताकते मज़बूत हुयी हैं ये बात और है के हिंदुत्व के डंक ने उन ताकतों को भी डस लिया है और उनके नेतृत्व को ब्राह्मणवादी सत्ता की सेवा में लगा दिया है. यही कारन है के कांग्रेस के अनुभव का लाभ लेते हुए हिंदुत्व की ताकते इस वक्त देश में हावी हो रही हैं और तथाकथित सेक्युलर बिरादरी केवल रियेक्ट कर रही है . हिन्दू सेकुलरवाद का सबसे बड़ा शिकार इस देश का दलित और मुसलमान हुआ है क्योंकि सेक्युलर स्पेस में इन तबको के लिया दरी उठाने के अलावा कुछ और नहीं था इसी लिए मुस्लिम विरोधी हवा में पिछड़ी जातिया गुजरात में मोदी का पल्लू थम लेती हैं तो मध्य प्रदेश, छात्तिश्गढ़ और उत्तर प्रदेश में भी हवा का रुख बदलता दीखता है. भारत के मध्य वर्ग में व्याप्त मुस्लिम विरोध को हिंदुत्व के शक्तियों ने बहुत अच्छे से इस्तेमाल किया है और इसका एक मात्र कारण हमारी सत्तारूढ़ शक्तियां जो मुसलमानों को सत्ता से दूर रखना चाहती हैं और जिनको यह लगता है के अधिक मुसलमानों के आने से 'एक और पाकिस्तान' का निर्माण हो जायेग.

लोकतंत्र में यह लूट खसोट हमारे चुनाव प्रणाली से हो रही है क्योंकि मुसलमानों के विरुद्ध हवा देकर सभी दलित पिछड़े 'हिन्दू' स्वरूप में शामिल हो जाते है और जो जातीय उत्पीडन की लड़ाई है वोह पीछे छूट जाती है. उत्तर प्रदेश और बिहार में फिर भी दलित पिछडो के पास एक विकल्प है लेकिन बाकि स्थानों में उस विकल्प के आभाव में स्थिति बहुत गंभीर है. चुनाव के इस जुगाडवाजी से मुस्लिम समुदाय को बहुत नुकसान उठाना पड़ा है क्योंकि संसद और राज्यों के विधान सभाओं में उसका प्रतिनिधित्व बहुत ही सीमित हो गया है और मुस्लिम बहुल इलाको से भी गैर मुस्लिम ही सीटें निकल रहे हैं। सत्ता की इस राजनीती ने मुसलमानों को और अलग थलग किया है इसलिए चुनाव प्रणाली में सुधर का वक्त आ गया जिसमे भारत के मुसलमान अपने सच्चे प्रतिनिधत्व के बल पर संसद में आयें और अपनी आबादी के अनुसार अपना हिस्सा मांग सके. 

आज हालत बहुत ख़राब हैं क्योंकि हिंदुत्व के महारथी मीडिया और सैम दम दंड भेद से ऐसी स्थिथ्याँ पैदा कर रहे हैं के देश में साम्प्रदायिकता फैले ताकि दलित, पिछड़े, आदिवासी जो अपना हक् मांग रहे हैं वो मुस्लिम विरोध के नाम पर भूल जाये। साम्प्रदायिकता का एक बहुत बड़ा नियम है की एक अदद दुश्मन तलाशो और यदि दुश्मन नहीं है तो उसको पैदा करो ताकि विभिन्न अस्मिताओ के संघर्ष को उस विरोध की आग में जला दो। गुजरात के बाद देश में ऐसा माहौल तैयार किया जा रहा है के मुस्लिम अपने सवाल न उठा सके और उनको लगातार हासिये पे रखा जाये.हैदरबाद के बोम कांड के बाद फिर से मुस्लिम युवा हमारी गुप्तचर एजेंसियों के निशाने पर हैं। गृह राज्य मंत्री आर पी एन सिंह ने लोक सभा में साफ़ बताया के एन आई ए ने मुंबई हमलो के बाद अभी तक ३३४ लोगो को गिरफ्तार किया और उसमे २० ० से अधिक मुस्लिम हैं . असल में भारत की जेलों में सबसे ज्यादा कैदी इस वक़्त मुसलमान ही है उसके बाद आदिवासियों और फिर दलितों का नंबर आता है. स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे अधिक साम्प्रदायिक दंगो में हिन्दू सांप्रदायिक तत्वों के सीधे हाथ की बात कई जांच रिपोर्टो में है लकिन आज तक एक भी व्यक्ति फंसी के फंदे तक नहीं पहुंचा। आखिर क्यो। बाबरी मस्जिद गिरने की बाद के दंगो में बहुत मुसलमान मारे गए, अडवाणी की रथ यात्रा ने बहुत दंगे करवाए, बम्बई के १ ९ ९ २ के दंगो ने शिव सेना को सत्ता सौंपी, और उत्तर प्रदेश में जय श्री राम के नारे के बाद कल्याण सिंह सत्ता में आये और फिर राम नाम के सहारे भाजपा एकं केंद्र सत्ता में आयी। हकीकत यह है के मुसलमानों को खलनायक बनाकर सत्ता में पंहुचने के ऐसे तरीके देश के लिए बहुत खतरनाक साबित होंगे और ऐसे राजनीती में कोई पीछे नहीं है. 

अफज़ल गुरु को फंसी में लटकाने को तत्पर हिंदुत्वे के मठाधीश पंजाब की अकाली सरकार द्वारा बेंअंत सिंह के हत्यारों को फांसी देने पर रोक लगाने समबंधी प्रस्ताव या जयललिता और करुणानिध द्वारा राजीव गाँधी के हत्यारों और वीरप्पन के सहयोगियों की फांसी पर रोक पर चुप रहते है। क्या कारण है के इनकी फांसी पर रोक कोई चुनावी मुद्दा नहीं बनती ? क्या कारण है के हिंदुत्व के मठाधीश और मीडिया के उनके चेले गैर मुसलमानों के फांसी पर उतने उतावले नज़र नहीं आते जितना अफजल गुरु को लेकर थे. महा पंडित नरेन्द्र मोदी के चुनाव के लिए हर वक्त किसी मियां मुशर्रफ़ या अफ्ज्ज्ल गुरु की जरुरत क्यों पड़े। 

कुछ दिनों पूरा एक फौजी अफसर ने मुझे बताया के छात्तिश्गढ़ में कम कर रहे आदिवासी हमारे 'अपने हैं' और उनको हम दुश्मन नहीं कह सक्ते.. मैंने केवल इतना पूछा के बहुत अच्छा है लेकिन हम कश्मीरियों और उत्तर पूर्व में हो रहे संघर्षो के प्रति ऐसा रवैया क्यों नहीं अपनाते। केवल इसलिए के वोह 'हमारे' हिसाब के धर्म को नहीं मानते ? हमारे गुप्तचर और पुलिस तंत्र के दिमाग से 'दुश्मन' की परिभाषाओं की हटाना पड़ेगा और देश के चुनाव प्रणाली में व्यापक बदलाव की जरुरत है ताकि एक धर्म या सम्प्रदाय क्र विरुद्ध जहर घोल कर सत्ता तक पहुँचने के सारे दरवाजो को बंद कर दिया जाये. भारत को यह करना होगा नहीं तो इस देश के अन्दर धार्मिक उन्माद बढेगा और फासीवादी ताकतों को सत्ता तक पहुचने से कोई रोक नहीं सकता और यदि एक बार फिर वे दिल्ली की सत्ता तक आ गए तो इतना जरुर है के एक लम्बी पारी खेलेंगे और तब देश में जो हालत होंगे उनके बारे में हम कल्पना भी नहीं कर पायेंगे।

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