Saturday 2 March 2013

नए पुरोहितो से नहीं अपितु पुरोहितवाद के खात्मे से ही आएगा बदलाव




विद्या भूषण रावत 

गुजरात के विकास मॉडल पर इतना शोर मचाया जा रहा है जैसे उसे अपनाकर हम एक विकसित रास्त्र बन जायेंगे। पहले भी कई बार मैंने लिखा है के गुजरात में 'दुकान' के आलावा कुछ नहीं है और गुजराती अपनी जाति और धर्म के धंधो में ही व्यस्त है और नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार ने गुजरात को एक सवर्ण हिन्दू रास्त्र के तौर पर विक्सित करने के अलावा कुछ नहीं किया है और ऐसे हिन्दू रास्त्र के बारे में सबको पता चले तो अच्चा है ताकि समय रहते लोग संभल जाएँ और इनको समझ सके।

नरेन्द्र मोदी को देश पर थोपने के लिए विभिन्न प्रकार से उनकी मार्केटिंग की जा रही है. पहले उनके विकास में मॉडल को चढ़ाया गया और फिर उनके सांप्रदायिक सौहार्द को देश वासियों को बताया गया की किस प्रकार मोदी मुसलमानों के दुश्मन नहीं दोस्त है। गुजरात में सबरी और एकलव्य को पुनर्जीवित कर उन्होंने आदिवासियों को पुनः आदर्श हिन्दू व्यवस्था को सँभालने की जिम्मेवारी दी हालाँकि आदिवासियों के जल जंगल जमीं के प्रश्नों को न तो वह कभी समझेंगे और न ही उसको सुलझाने के प्रयास करेगे। अब खबर आयी के उनकी सरकार ने दलितो को 'सम्मान' देने के लिए 'दलित पुजारियों' की ट्रेनिंग की व्यवस्था करी है . मतलब यह के गुजरात सरकार ने २२ लाख रुपैये की व्यवस्था कर दी है बल्मिकियों को संस्कृत पढ़ने के लिए ताकि वे सोमनाथ संस्कृत विद्यापीठ और अन्य संस्कृत विश्वविद्यालयों से संस्कृत पढ़ सकें और 'पंडिताई' कर सके। मुख्यमंत्री मानते हैं के सफाई कर्मी लोग भी पुजारी है क्योंकि वोह नगर की देखभाल करते हैं और पुजारी मंदिर की।

दरअसल, गुजरात की चकाचौंध में जो सबसे कटु सत्य है वो है वहां की जातिवादी राजनीती और समाज. गुजरात में आज भी मानव मल ढ़ोने का कार्य होता है जबकी वहां की सरकार सुप्रीम कोर्ट तक में कह चुकी है की गुजरात में ऐसा नहीं होता  लेकिन २० १ १ की जनगणना के मुताबिक़ कम से कम २ ५ ०० घरों में अभी भी मानव मलमूत्र उठाते हैं लेकिन यह संख्या भी झूठी है क्योंकि सरकारी आंकड़ो पे तो वैसे भी भरोषा नहीं किया जा सक्त. उसी जनगणना के आंकड़े बताते हैं के गुजरात के 5२ लाख घरो में कोई लैट्रिन की व्यवस्था नहीं है और ४९  लाख लोग अभी भी खुले में सोच करते है। केवल २ लाख आम शौचालय हैं। अब सरकारी आंकड़ो से ही चमकते गुजरात की पोल पट्टी खुल गयी है तो अगर हम लोग सर्वे करने चल दिए तो नरेन्द्र मोदी का तिलिस्म चुनाव से पहले ही टूट जायेगा। एक गैर सरकारी अध्ययन टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेस ने किया जिसमे बताया गया के गुजरात में अभी भी 1२,५०६ व्यक्ति मानवमल धोने का काम काम करते है। 

आज भी अहमदाबाद और अन्य शहरो में सफाई पेशे में लगे लोग मलमूत्र हाथो से उठा रहे हैं और इसके विडियो इन्टरनेट पे मौजूद है। सवाल यह है के मोदी की सरकार इस हकीकत को क्यों नहीं स्वीकारती और बाल्मीकि लोगो के उठान के लिए इसने क्या कार्य किये है। गुजरात के शहरों और गाँव में दलित विरोधी माहौल है और किसी भी अस्मिता के उठते ही ज्यादातर हालात में लोगो के आर्थिक बहिष्कार हो जाते है। पटेलो और अन्य सवर्ण जातियों की दादागिरी जारी है. बाल्मीकि लोगो को इंदिरा आवास भी मुहैया नहीं है और ज्यादातर आवास उन्हें गाँव के सबसे किनारे वाले इलाके में दिए गए हैं जहाँ न बिजली की सुविधा है न पानी कि. गुजरात की दूकान में सामाजिक परिवर्तन के लिए कोई जगह नहि. यहाँ के केवल पुरोहित , पोथी ( धर्म की पोथी )  और  पूंजीपति ही लोकप्रिय हैं और गुजरात के धनाध्य  लोगो को उसकी ही जरुरत है. सामाजिक परिवर्तन के लिए उठ रहा अम्बेडकरवाद यहाँ नहीं चल सकता और उसे हटाने के पहले से ही षड़यंत्र हो जाते हैं . दलित और पिछडो को अलग थलग करने के लिए मुसलमानों को दुश्मन दिखाकर हिंदुत्व के बेडे में शामिल करने के लिए अनेक साजिशें होती हैं .

मोदी के अरबो रुपैये के खेल में मात्र बाइस लाख रुपैये दलितों के पुरोहित बनने के लिए अलग से रखे गए हैं। मोदी को यह पुरोहिताई केवल दलितों के लिए क्यों खोलनी है क्या सब लोग मिलकर पंडिताई नहीं कर सकते। दुसरे यह की संस्कृत जैसे मृत भाषा को तो ब्राह्मण और सवर्ण पहले ही छोड़ चुके हैं इसलिए इसके लिए नए कन्वर्ट क्यों ढूढे जा रहे हैं। प्रश्न यह भी है के आज के वैज्ञानिक युग में अंग्रेजी, विज्ञानं, मैनेजमेंट और तकनिकी पढाई के लिए दलित, पिछडो और अन्य सभी को जरुरत है और गुजरात के पैसे वाले यह काम कर सकते हैं तो मोदी ऐसा क्यों नहीं कर सकते ताकि सभी बाल्मीकि और अन्य लोग आधुनिक शिक्षा प्राप्त करें और आगे बढे। तीसरी बात, बेचारे बाल्मीकि लोगो को कौन कौन से मंदिर सौंपे जायेगे यह जरुरी है और मोदी ने ऐसा कुछ भी वादा नहीं किया। इसका अभिप्राय केवल इतना के मोदी बाल्मीकि लोगो को हिंदुत्व का गुलाम बनाना चाहते हैं और उनको अपने मंदिरों की देखभाल करने का जिम्मा खुद ही सौंपना चाहते हैं। मतलब यह के अक्षरधाम, अम्बेजी या सोमनाथ की पुरोहिताई तो ब्राह्मणों के पास ही रहेगी ताकि उनका धंधा मंदा न पड़े और पैसे थोक के भाव मिलते रहे लेकिन गाँव के टूटे फूटे मंदिर जिनमे कोई नहीं जाता उन्हें नए भक्तो को सौंप दिया जाये. मोदी बताएं के क्या बल्मिकियों के पुजारी या पडा बनने से पटेल या ब्राह्मण लोग उनसे शादियाँ या उपनयन संस्कार करवाएंगे ? यह तो कभी भी नहीं होगा और ना ही मोदी की सोच के पीछे ऐसे बदलाव की धारणा है क्योंकि मोदी तो केवल हिंद्तुवा भक्त लोग चाहते हैं ताकि भारत के प्रधानमंत्री की कुर्शी तक पहुचने में यह वर्ग उनको साम दाम दंड भेद से मदद करे और दुसरे दुनिया को लगे के मोदी केवल आर्थिक बदलाव की बात नहीं करते अपितु सामाजिक क्रांति भी ला रहे हैं।

अभी कुछ दिनों पहले अल्लाहाबाद के कुम्भ में भी ऐसी ही क्रांति की बात कही गयॆ. बताया गया के बाल्मीकि महिलाओं ने कुम्भ में स्नान कर ब्राह्मणवाद को चुनौती दी है. हकीकत यह है के यह चुनौती नहीं बल्कि लोगो को दुबारा उसी कूड़े दान में धकेलने की बात कर रहे हैं जिसने उनको जानवर से भी बदतर कर दिया . ऐसे विचारधारा या व्यवस्था को तो पूर्णतया ख़ारिज और खत्म करना पड़ेगा  जहाँ आदमी पैदा होते ही जाती के खांचो में बैठा दिया जाता हो और जिसमे आदमी के मलमूत्र को साफ़ करने के लिए विशेष रिजर्वेशन की व्यवस्था की हो, जो मात्र एक जाती का ' विशेशाधिकार' बना दिया गया हो. ऐसे क्रांतियाँ लोगो में व्यवस्था के प्रति गुस्से को कम करने के प्रयास हैं और अपने कुकर्मो पर पर्दा डालने जैसे है। मोदी या कोई अन्य  जाति  और जातिगत भेदभाव पर बात नहीं करते लेकिन लोगो को उस दकियानूसी व्यवस्था में दोबारा  चाहते हैं जिसमें उनका कोई भविष्य नहीं है. क्या पुरोहिताई करके बल्मिकियों की जात बदल जायेगी ? यदि  तो मोदी उनको कहाँ रखेंगे और क्या सवर्णों के  संस्कार से लेकर, शादी विवाह तक में बाल्मीकि पंडितो की कोई  रहेगी ? वैसे तो  पुरोहितवाद को आमूलचूल ख़त्म करने की जरुरत है इसलिए चाहे ब्राह्मण पुरोहित हो या बाल्मीकि, उसका काम लोगो को बेवकूफ बनाना ही होगा और वोह लोगो के खुलते दिमाग और बदलाव की चाह को रोकने का काम ही करते हैं .

 मंदिर प्रवेश का मुद्दा मानवाधिकारों से जरुर जुदा है लेकिन संकरी मानसकिता इन गलियों से लोगो को दूर करना जरुरी है क्योंकि   भाग्य और भगवान् एक  राजनैतिक बाजीगरी है जो यथास्थितिवादी  शक्तियों का खेल है और इसके जरिये वे सत्ता और और तंत्र पर अपना कब्ज़ा बरक़रार रखते है।  बाबा साहेब आंबेडकर ने ये अपने जीते जी देख लिया था के कैसे कालाराम मंदिर प्रवेश के समय ब्राह्मणवादी सत्ताधारियों ने उनका जमकर विरोध किया था. छुआछूत, जातिवाद और मंदिर प्रवेश के प्रश्न जातिवादी समाज और उसकी सरंचना को सवाल किये बगैर नहीं हल किये जा सकते और उसके लिए जरुरी है 'जातियों की उसंपूर्ण विनाश की जो आंबेडकर का सबसे बड़ा सपना था जिसके संपूर्ण विनाश में ही वह एक प्रबुद्ध भारत का सपना देखते थे इसलिए मोदी की बाजीगरी और चमकधमक से लोगो को सावधान होना पड़ेगा क्योंकि यह दलितों के भले के लिए नहीं अपितु मोदी को 'महान' और 'क्रांतिकारी' बनाने के लिए की जा रही तिकड़मे हैं जिनसे कुछ होने वाला नहीं है. वैसे भी हमारे समाज की भलाई नए पुरोहित बनाने में नहीं अपितु पुरोहितवाद के  संपूर्ण खात्मे में ही निहित हैं क्योंकि पुरोहितवाद का सिद्धन्त जातियों की शुद्धता, उनके बड़े और छोटे होने और उनकी पैदाइश आधारित व्यवस्था का सिद्धन्त है जो आधुनिक काल में जाती और रंगभेद का विभेदकारी व्यवस्था है इसलिए उसका संपूर्ण खत्म ही एक नए समाज की रचना कर सकता है जो सबकी बराबरी पर आधारित होग. । क्या मोदी और उनका हिंदुत्व इसके लिए तैयार है ? 

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