Sunday 3 March 2013

सामंतशाही का लोकशाही पर हमला




विद्या भूषण रावत 
 

प्रतापगढ़ की कुन्डा तहसील में समन्तिवादी आतंकवादियों ने एक दिल दहलाने वाली घटना में  एक इमानदार पुलिस अधिकारी को बहुत ही बेरहमी से मारा है जो अपने कर्तव्य का पालन करने वहां गया था और उसके सभी साथी शर्मनाक तौर पर उसकोगुंडों के बीच अकेला छोड़ कर भाग गए . क्या यह घटना अखबारों के अन्दर की सुर्ख़ियों वाली है या इसके राजनैतिक मतलब भी है। प्रतापगढ़ में रहने वाले साथी बता सकते हैं के वहां किसकी सल्तनत चलती है और जब भारत का राज लाने की कोशिश करेंगे तो हश्र वो ही होगा जो डी एस पी जिया उल हक का हुआ। 

क्या इस घटना से हमारी पुलिस का सांप्रदायिक चरित्र नहीं दीखता ? आखिर अधिकारी को अकेले छोड़ कर पुलिस के बाकी लोग कैसे भाग गए ? क्या हत्यारों ने अधिकारी को केवल इसलिए तो नहीं मार के बाकी की बदमाशी को साम्प्रदायिकता रंग देकर नेपथ्य में छुपा दी जाय और अधिकारी की हत्या को 'भीड़ द्वारा गुस्सा' दिखाकर मामले को लटकाते रहो. अच्छी बात यह और इसके लिए श्रीमती परवीन आज़ाद को सलाम करना होगा के उन्होंने अपने पति के हत्यारों से लड़ने के लिए सीधे तौर पर राजनैतिक कातिलो का नाम लिया है. 

प्रताप गढ़ की घटना से पता चलेगा के प्रदेश के सपा सरकार कितनी सक्षम है कातिलो को जेल तक पहुछाने में। यह केवल पुलिस पर हमले का मामला नहीं है। यह असल में हमारे देश के  बढती प्रवति का प्रतीक है जिसमे मुस्लिम अधिकारी प्रशाशन में अपने आप को अलग थलग महेसूस करते है।

एक गाँव में प्रधान की हत्या के बाद पुलिस का अधिकारी अपनी टीम के साथ पहुँचता है और सब वहां पहुँचते ही घिरते हैं और अपने अधिकारी को मरता छोड़ कर भाग जाते है यह दर्शाता है के पुलिस का जातियाकरण और साम्प्रदायिककरण हो चूका है। मुसलमानो के लिए न्याय की बात करने वाली इस सरकार को दिखाना है के वह अब क्या करे क्यों इसके किरदार में मुसलमान भी है, ठाकुर भी है, यादव भी है और पाल भी है। यानि मुलायम जिनके सहारे अपने प्रधानमन्त्री बनाने के सपने देखते हैं वे सब इस किरदार में है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है के एक व्यक्ति समाजवादी पार्टी का सदस्य न होने के बावजूद भी महतापूर्ण मंत्रालयों पर बैठा है और उसकी अहमियत केवल इसलिए है क्योंकि शायद उसे मायावती को चिढाना है। क्या ऐसे में राजनीती चलेगि लेकिन मुलायाम क्या करें क्योंकि नहीं किसी में अपनी बात कहने की हिम्मत और पत्रकार बिरादरी तो आजकल अपने अख़बार के  'राजस्व' के अनुसार काम करती है और सबको अपनी जान की चिंता भी है. 

प्रतापगढ़ की घटना यह दिखाती है देश में सामंतशाही जिन्दा है और हमारे राजनेता उसे वैसी ही रखना चाहते है। सरकार और राजनैतिक डालो के सहयोग के बिना वह संभव नहीं है. आज हमारी पार्टियों को बूथ कैप्चरिंग के विशेषज्ञ चाहिए होते हैं ना की जन नेता और येही कारण है के धर्मनिरपेक्षता की बाते बैमानी होती है. कोई केवल इसलिए सेक्युलर नहीं है के समाजवादी पार्टी में आ गया या कांग्रेस में है और कोई इसलिए बहुत बड़ा अम्बेडकरवादी नहीं बनता क्योंकि बसपा में है क्योंकि इन सबके मायने खत्म होचुके हैं और अब केवल 'विशेषज्ञ' चाहिए और ऐसे में उनलोगों की ज्यादा उपादेयता है जिनके पास इसका व्यापक 'अनुभव' हो. 

प्रतापगढ़ में किसान आन्दोलन का केंद्र हुआ करता था और उसमे गरीब किसानो को एक सूत्र में बाबा राम्च्रंद्र दास ने बंधा था लेकिन वहां के सामंतो ने मिलकर उस आन्दोलन को ध्वस्त कर दिया। आज वही हो रहा है. क्या सामंती विचारधारा वाले लोग और समाज देश में समाजवाद ला सकते हैं लेकिन मुलायम के समाजवाद में पुराने सामंतो और आधुनिक पूंजीपति सामंतो का अनूठा गठजोड़ है और बहुत बेहतरीन तरीके मुस्लिम सामंत भी उसमे महत्वपूर्ण भूमिका में है। इसलिए पसमांदा समाज के लिए न वो कोई काम करेंगे और न ही उनके समाजवादी शिष्यों की यह चिंता है. 

हम यह भी जानते हैं के अभी मुलायम इस मामले में कुछ नहीं कर पाएंगे क्योंकि इस किरदार के मुख्या पात्र भाजपा , कांग्रेस, बसपा सबसे हाथ मिला सकते हैं और राजनीती में हकीकत देखि जाती है इसलिए कार्यवाही नहीं की जाती है. मामले में मुस्लिम अधिकारी है और मामले में 'सामंती' राज भी है। एक को मनाउ तो दूसरे के  रूठ जाने का चांस है लेकिन निर्णय तो लेना पड़ेगा और सारे मामले की तह तक जाना होगा। उत्तर प्रदेश के सांप्रदायिक माहौल को बिगाड़ने की प़ूरे इंतज़ाम हैं और सरकार की कमजोरी से ऐसी ताकते कामयाब हो रही है। उम्मीद करते हैं के 'धर्मिर्पेक्ष्ता' के सबसे बड़े पुरोहित कुछ कार्यवाही करेंग ताकि प्रदेश के दलित मुस्लिम तबको को सन्देश जाए की सरकार वाकई में न्यायप्रिय है और उनकी भी परवाह करती है. 

यह घटना प्रदर्शित करती है के सामंतशाही और जातिगत राजनीती कितनी शक्तिशाली है और लोगो को चाहे खाने को न मिले लेकिन अपनी जातियों की झूटी अस्मिताओ में जीने की आदत पड़ गयी है और उसके लिए वोह एक दुसरे का खून पीने को भी तैयार है। लोकतंत्र को इस सामंतशाही और  जातीय ताकतों ने घेर लिया है और इसी का नतीजा है के वोह अपनी हार को भी ईमानदारी से स्वीकार नहीं कर  पाते और अपने प्रतिद्वंदियों को जान से मारकर ही चैन लेते हैं। लोकतंत्र का ये खुनी  खेल कुछ नहीं बल्कि यथ्स्थितिवादियों का खेल है और इसमें सब अपने जोड़ भाग से  बाते कह रहे हैं . न्याय के लिए संघर्ष करने वालो की रह में सबसे बड़ा रोड़ा ऐसे लोग और राजनीती है जिसे सही गलत केवल जातियों के हिसाब किताब से दिखाई देता है। ऐसे सामाज का तिरिस्कार किये बिना भारत एक आधुनिक और सशक्त रास्त्र कभी नहीं बन सकता .
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