Thursday 7 March 2013

धार्मिक सत्ता को चुनौती दिए बिना हमारी आज़ादी असंभव



विद्या  भूषण  रावत 

महिला दिवस पर यदि हमें  भारतीय महिलाओं की ताकत का सम्मान करना है तो सबसे पहले उन प्रश्नों को देखना पड़ेगा जिस के विरूद्ध लड़ते लड़ते उन पर हमले होते है। इसलिए अमेरिका की पहली महिला  उस अनाम महिला को सम्मान देने के पीछे कॉर्पोरेट और अमेरिकन साम्राज्यवादी प्रपंचो के अलावा कुच्छ नहीं है जिसका नाम लेने में अब भी हम डरते है. किसी महिला पे हिंसा होती है तो उसका वह विरोध  करेगी क्योंकि जहाँ पर हमारे राज्य को सुरक्षा प्रदान करनी है वह वो असफल है. 

आखिर क्यों नहीं अमेरिका या भारत सरकार सोनी सोरी का सम्मान करती है जो इतने उत्पीदन के बावजूद भी लड़ रही है, अपनी इज्जत के लिए और अपने समाज के अधिकारों के लिये. क्यों नहीं भारत सरकार इरोम शर्मीला का सम्मान करती है जो अपने समाज के लिए लड़ रहे हैं, उसके मानवधिकारो की रक्षा के लिए संघर्षरत है. क्या भारत के मीडिया को पता है के दिल्ली के बलात्कार कांड से पहले बिहार में चंचल पासवान पर हमला हुआ है और चंचल ने किस बहादुरी से अपना संघर्ष किया है लेकिन अभी उसको अपने इलाज़ के लिए भी पैसा इकठ्ठा करने के लिए संघर्ष करना पड  रहा है और उस पर एसिड से   हमला करने वाले सरे आम उसको धमकी दे रहे है। 

फूलन को अपराधी कहने वाले भूल जाते हैं के फूलन ने अपने पर  हुई हिंसा का जवाब दिया। वह सर छुपाकर या कुंए में कूदकर मर नहीं गयी और इसके लिए बहुत जज्बा चाहिए होता है. फूलन ने लड़ना स्वीकार किया मरना नहीं और इसलिए उसकी बहादुरी की कहानी हमारे हर बच्चे  को बताई जानी चाहिए। आज मायावती ने किस तरीके से संघर्ष किया वोह भी हमारे छात्रो को पता होना चाहिए इसलिए के मायावती और सुषमा स्वराज में बहुत अंतर है. सुषमा को कभी भी नारीवादी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वो ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को हमारे उपर थोपने का ब्राहणवादी  षड़यंत्र है। यह जानना आवश्यक है के मात्र महिला होना महिला हितो की बात करने वाला नहीं हो सकता क्योंकि आज पूंजी के युग में धार्मिक सत्त्तायें गुलाम बनाने के लिए उनके ही 'प्रतीकों' का इस्तेमाल करती हैं इसलिए दक्षिण एशिया में महिलायें प्रधानमंत्री हुए हैं, राजनैतिक दलो की अध्यक्शायें बनी हैं लेकिन उन्होंने महिलाओं के लिए कुच्छ किया नहीं क्योंकि वो अपने पदों पर मात्र पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण से पहुंची हैं। आज धर्मं का झंडा और महिलाओ को परम्पराओ में ढलने की जिम्मेवारी महिलाओं की ही है इसलिए ऐसे महिलाएं पितृसत्ता या भारत के संधर्भ में ब्राह्मणवाद को ही मज़बूत करती हैं और उसको बहुत अछे से समझने की जरुरत है. 

आज महिलावाद ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद की कठपुतली बन गया है. यह बाजारू ताकते नए अजेंडा बना रहे हैं इसलिए महिल दिवस पर ऐसे लोग हावी हैं जो महिला उत्पीडन के मुद्दे को व्यक्तिगत प्रश्नों तक सीमित करके धर्म और पूंजी में ही उसका उत्तर ढूंढ रहे है। महिलाओ के आज़ादी का प्रश्न व्यापक है और इसे धर्म द्वारा हमारे अधिकारों के हनन के तौर पर भी देखा जाना चहिये. महिला आन्दोलन कभी भी आगे नहीं बढ़ सकता यदि वह धर्म के सत्ता को चुनौती नहीं देगा और यदि पूंजीवाद और सत्ता पर निजी शक्तियों के केन्द्रीयकरण पर कुछ नहीं बोलटा। साम्प्रदायिकता और जातिवाद के प्रश्नों को दरकिनार करके, हमारे जल जंगल जमीन के प्रश्नों को किनारे करके और छुआछूत और जातीय भेदबाव पर बात न करके हम केवल उन्ही ताकतों को मज़बूत करते हैं जिनके विरुद्ध खड़े होने का हम दावा कर रहे है। 

आज का दिन उन सभी को सलाम करने का जिन्होंने हमारे समाज को  बेहतरीन करने के लिए उन प्रश्नों को खड़ा किया जिन्हें हम छुपाते है। यह दिन है  गौरा देवी को याद करने का जिन्होंने चिपको आन्दोलन की नीव राखी और जिनकी संघर्ष की कमाई को एक ब्राह्मणवादी पुरुष अपने नाम से इस्तेमाल कर बैठा . इसलिए आज सलाम करने का दिन है उन सभी को जिन्होंने एक विचार को लेकर लड़ाई लड़ी और अपने समाज के लिए लड़ा।  एक महत्वपूर्ण बात यह है की महिलाओं पे हो रही  हिंसा को रोकने में नाकामयाब हमारा समाज और उसकी सत्ता बहुत ही शातिराना अंदाज में उसकी 'बहादुरी' का गुणगान करते है. आखिर एक अनाम लड़की पे हिंसा हुए और वो हमारे समाज की बीमार पुरुषवादी मानसिकता का प्रतीक है लेकिन उसको मार्किट की दुकान बनाने का काम केवल ऐसे पूंजीवादी ब्राह्मणवादी शक्तियां ही कर सकती हैं जिन्होंने देव्दासी को हमारी 'संस्कृति का हिस्सा बनाया'. अगर बहादुरी की बात आती है तो फूलन से बड़ा बहादुर कौन हो सकता है लेकिन हमारा दकियानूसी जातिवादी समाज कभी उसको रोल मॉडल नहीं बनाएगा क्योंकि अभी तो सेक्स की पवित्रता का सिद्धन्त है. मतलब यह के जब लड़की को मात्र छो देने भर से उसकी 'सुचिता' भंग हो गयी है और यह अभी तक जारी है. आखिर अमेरिका किसका सम्मान कर रहा है ? उसका कोई नाम तो हो ? उसे कैसे रोल मॉडल बनायेंगे और हमारे समाज में यदि सेक्सुअल हिंसा की शिकार किसी लड़की नाम छुपाया जाता है तो फूलन का नाम क्यों बताया गया ? क्या किसी अधिकारी को उस वक़्त निलंबित किया गया ? हकीकत है के अगर फूलन दब जाती तो यह समाज उसको मार  के हो छोड़ता और उसने लड़ने का निर्णय लिया तो वोही समाज जहाँ महिलाओ को बहार रखने का हक़ नहीं उसकी पूजा करता है .

पूंजीवादी ब्राह्मणवादी तकते महिला हिंसा की बात करने में उनका उत्तर व्यक्तिगत तरीके से देते हैं इसलिए वोह एक नए मसीहा का निर्माण करते है ताकि लोग महिलाओं पे हिंसा के मूल को भूल जाएँ और एक छोटे से क़ानूनी पैबंद से चुप बैठ जाये। महिलाओं का प्रश्न केवल महिलाओ पर पुरुष हिंसा से नहीं है अपितु उनकी आज़ादी, उनके अधिकार और शाशन से लेकर हर जगह उनकी हिस्सेद्दारी से भी है और इसके आभाव में कोई बहस नहीं हो सकती। 

महिलाओ का संघर्ष हमारे समाज को बदलने का संघर्ष है. गायत्री मंत्र पढ़कर  या धार्मिक ग्रंथो का नाम जपकर या गंगा में उनको डुबकी लगवा देने से न तो छुअछोत भागेगी न ही महिलाओ पर हिंसा ख़त्म होगि. महिलाओ या किसी भी व्यक्ति की आजादी और बदलाव के जरुरी है हम सबको सर्व धर्मं संभव के धंदे से दूर धार्मिक ग्रंथो, परम्परो को न केवल चुनौती देनी होगी बल्कि उनको अपने व्यक्तिगत जीवन से भी दूर करना होगा और महिलाओं के लिए यह इसलिए भी जरुरी है क्योंकि उन्ही के जरिये 'संस्कृति' के चलने का धंधा चल रहा है और वोही इसकी सबसे बड़ी शिकार है. सभी साथियों को  उनके संघर्ष और बेहतरीन जीवन के लिए शुभकामनायें . 

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