Thursday 23 May 2013

Akhilseh Yadav's dangerous decision..




बहुजन मूल्यों की लड़ाई जातिवादी नहीं अपितु एक वैचारिक लड़ाई है। 

विद्या भूषण रावत 

कुछ दिनों पूर्व  एक सम्मलेन में एक मित्र ने मुझसे कहा के हमें अपने नेताओं की आलोचना नहीं करने चाहिए ?' क्या ब्राह्मणों ने डकैती और लूटपाट नहीं की? आज हमारे नताओ पर थोडा सी आरोप लग जाते हैं और हम उनकी निंदा शुरू कर देते है', मित्र मुझे समझा रहे थे. वैसे पिछले कम से कम बीस बर्षो से से तो मैं ऐसे ज्ञान सुन सुन के पक भी गया हूँ . मतलब थप्पड़ जब 'दूसरा' मारे तभी वोह निंदनीय है और जब 'अपने' लूटें तो वोह समाज का है. सबसे बड़ी बात यह है के यह 'अपना' किस को लूट रहा है ? अगर अम्बानी, प्रेमजी, गोयल, अग्रवाल साहेब से पैसे खींच कर समाज में लगा सके तो फिर भी बात चलती लेकिन अपने ही लोगो को लूट कर कौन सा कमाल कर रहे हो. हम सुन रहे हैं के देने वाले हो गए है। और हमारे लोकतंत्र में अब आस्था बढ़ चुकी है। हमें प्रवचन दिए जा रहे हैं के अब हम देने वाले हैं तो जलन काहे कि। अरे भाई देने वाले हो तो देदो न गरीबो को उत्तर प्रदेश, बिहार में जहाँ हमारे पास सत्ता है. अगर दलित बहुजन सब एक हैं तो हम प्रयास क्यों नहीं करते जो शाशन कर रहे हैं उनको समझाने का के भाई एक हो जाओ. अगर चीजे इतनी आसान हैं तो शरद को बी जे पी के पास बैठकर क्या हमें नहीं लगता के वहां नहीं होना चाहिए था.. अगर सब ठीक हैं तो उत्तर प्रदेश में जो दलित और मुसलमानों के साथ इस वक़्त हो रहा हैं वो क्या सही है ? हम तो जानते हैं के मुलायम, माया, लालू, पासवान, नितीश, शरद कम से कम एक होकर यूपी बिहार तो नियंत्रण कर सकते हैं और दिल्ली की सत्ता पे अपनी पकड़ मज़बूत कर सकते हैं लेकिन क्यों नहीं करते और जो प्रवचन  देते हैं वोह भी जानते हैं के यह इतना आसन नहीं क्योंकि जातियों का नाम लेकर परिवारों की राजनीती हो रही है. और हम कहते हैं के कांग्रेस भाजपा कर रही है तो हम क्यों नहीं करते .. भाई अगर वोही करना है तो डुप्लीकेट को क्यों कोई वोट दे। बाबा साहेब आंबेडकर ने तो नई दिशा दी, नया मंत्र दिया और अपने विकल्प को सोचा, लोहिया ने भी अपना विकल्प दिया। उन्होंने ने कांग्रेस या ब्रह्मंवादियों की नक़ल करने का प्रयास नहीं किया और कोई भी उनपर भ्रस्थ्चार के एक छोटा सा आरोप भी नहीं लगा सकता। कांशीराम ने भी परिवार को दूर रखा ताकि आन्दोलन को ताकत मिल सके और भाई भातिज्ज्वाद से बाख सके. दलित बहुजन आन्दोलन को परिवारवाद से सबसे बड़ा खतरा है और बहुजन के नाम पर परिवारों की राजीनति और कुछ नहीं ब्राह्मणवादी षड़यंत्र है ताकि विचार ख़त्म हो जाएँ और हम उस व्यवस्था को धोने वाले सबसे बड़े लोग बन जाएँ 

  अब अखिलेश की सरकार ने लखनऊ के  प्रेरणा स्थल और अन्य ऐसे स्थलों को जिन्हें मायावती सरकार ने बनवाया था, किराये पैर देने का फैसला किया है. यह निर्णय शर्मनाक है और जान बुझकर  लिया गया ताकि दलितों को चिढाया जा सके। उत्तर प्रदेश की सरकार लगातार ऐसे कदम उठा रही है जो दलित विरोधी हैं और जिन पर हम सभी को शर्म आती है। आपस में राजनैतिक मतभेद होना कोई बुरी बात नहीं लेकिन मतभेदों के नाम पर क्रांतिकारी सामाजिक विचारको और चिन्तको का अपमान नहीं क्या जा सकता। अखिलेश यादव को शायद आंबेडकर, फुले, शाहूजी महाराज या रमाबाई आंबेडकर के योगदान की जानकारी नहीं है या वोह इन लोगो को केवल एक जाती बिरादरी से जोड़कर देख रहे हैं। हमारे देश के दुर्भाग्य है के अभी तक हमे ऐसे लोग नहीं मिल पाए जो अपने इतिहास को जनता की नज़र से देखे। क्या ऐतिहासिक स्थलों पर शादी, ब्याह और अन्य कार्यक्रम करने की अनुमति दी जानी चाहिए ? क्या हम राजघाट, ताजमहल लालकिला और अन्य स्थलों को भी ऐसे ही इस्तेमाल कर पाएंगे। मायावती सरकार ने इन स्मारकों को बनाने में बेइन्तेहा पैसा खर्च किया और लोकायुक्त ने उस पर टिपण्णी भी की है और खर्चो पे सवाल उठ सकते हैं लेकिन स्मारकों की महतता और उनकी जरुरत पे सवाल नहीं खड़े किये जा सकते क्योंकि वे देश प्रदेश की लाखो लोगो को प्रेरणा देते हैं जिन्होंने जातिभेद और छुआछूट के विरुद्ध संघर्ष किया अतः मायावती के पैसे पर सवाल खड़े कर सकते हो उनके स्मारकों पर नहीं क्योंकि वे सभी अब जनता का हिस्सा हैं और लोगो को उनके इतिहास की जानकारी मिलेगी जो ब्रह्मनिया तंत्र में समाप्त कर दिए गए है। मान्यवर मुलायमजी अपने निर्णय पर पुनर्विचार करे और अखिलेश जी को मार्गदर्शन करें के दलित बहुजन नायको का विरोध करना महंगा पड़  सकता है. 

अखिलेश और मायावती परशुराम जयंती के कार्यक्रम करें या नहीं कोई दिक्कत नहीं है. वैसे अखिलेश और मायावती में अंतर है क्योंकि बसपा अम्बेडकरवाद की बुनियाद पर बनी पार्टी है और वोह ब्राह्मणवादी परम्पराओं और कार्यक्रमों का समर्थन नहीं कर सकती। दिवाली, दसहरा होली, राखी इत्याद्दी पर शुभकामनायें देना कोई समस्या नहीं लेकिन परशुराम जयंती मनाना तो बिलकुल ही अत्म्सम्पर्पण है क्योंकि यह तो जुम्मा जुम्मा ५-१० वर्ष पुराना नुख्सा है। अखिलेश को आंबेडकर जयंती मानाने या बुद्धापुर्निमा मानाने से कौन रोकता है ? मूलनिवासी बोलकर चिल्लाने वाले क्यों नहीं सिखाते उन्हें के बुद्ध, रविदास और कबीर इस देश की सबसे ताकतवर विरासत हैं। क्यों नहीं मुलायम सिंह को बताया जाता के फुले, आंबेडकर, पेरियार, शाहूजी महाराज ने हमारे समाज को जोड़ने और उसे नयी दिशा देने में कितनी बड़ी कुर्बानियां दी। क्या मूलनिवासी होना ही हमारे सही होने का संकेत है ? माफ़ कीजियेगा हमारी लड़ाई को एक वैचारिक स्वरुप दीजिये मात्र जातिवादी स्वरुप देकर लड़ाई लड़ने का कोई लाभ नहीं क्योंकि यह जातिवाद देश की बहुसंख्यक आबादी के मध्य की करने की तैयारी है ? हिंदुत्व के नए लंबरदारो के जातीय चरित्र को देखकर यदि हमें उनके पिछड़े होने में गर्व है तो यह हमारा मानसिक दिवालियापन ही कह्लायेगा. जो पिछड़े मोदी पर गर्व कर सकते हैं वोह कितने बहुजनवाद के समर्थक हैं इस पर बिलकुल शक है. 

एक राजनैतिक कार्यकर्ता को सवाल करने चाहिए चाहे 'अपने' से हो या पराये से।। वैसे जिन 'ब्राह्मणों' और 'सवर्णों' को हमारे नेता 'दे' रहे हैं उनकी कोई विचारधारा नहीं है। उनके केवल अपने 'हित' हैं और वे 'अपने' 'हित' के वास्ते 'पार्टियों' में आते हैं और उसकी पूर्ति होने पर चले जाते हैं और हम .. वहीँ के खड़े रह जाते हैं ..सारी दुनिया का बोझ हम उठाते है।। राजनैतिक कार्यकर्ता चुचाप सहन नहीं करते वे  सवाल करते हैं और अपने नेतृत्व को अपनी जनता से दूर नहीं होने देते. कांशीरामजी का चमचा युग दुसरो के लिए ही नहीं अपितु 'अपने' लिए ज्यादा था इसलिए चमचो से सावधान। 

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