Tuesday 19 February 2013

काटजू से क्यों डरती है भाजपा



विद्या भूषण रावत 

अरुण जेटली एक सूझ बुझ बाले नेता हैं और इतनी जल्दी आप नहीं खोते लेकिन मार्कंडेय काटजू के एक लेख ने उन्हें इतना उत्तेजित कर दिया के वह और उनके हमसफ़र भाजपा के अन्य नेता इस वक़्त बदहवास से हैं। मोदी को नायक बनाने की मुहीम जारी है और उसके लिए भारत का धन धान्य से संपन्न पूंजीवादी मीडिया और उनके धर्मगुरु सभी एक साथ कई मोर्चे खोल कर काम कर रहे हैं। भारत को मोदीमय बनाने के लिए अलग अलग जतन  किये जा रहे हैं। अर्नब लगे हैं, चौरसिया लगे हैं और शर्मा और गुप्ताजी भी पीछे नहीं हैं लेकिन मुसीबत यह है की 2002 का भूत पीछे नहीं छोड़ता। मोदी ने गुजरात के अन्दर मुसलमानों को अलग थलग  के लिए पूरी सरकारी मशीनरी लगाई और अपना 'राजधर्म' भूल गए इसलिए यह कैसे संभव है के वह अभी देश को स्वीकृत हो जाएँ। क्या गुजरात में रहने वाले मुसलमान गुजराती नहीं हैं। 

मोदी के गुजरात विकास के मॉडल को बहुत बताया जा रहा है। आखिर है क्या गुजरात में। गुजरात ने भारत के बौद्धिक विकास में क्या योगदान दिया है? कौन सी बात है गुजरात की जिसे भारत को स्वीकार कर चलना चाहिए? क्या अहमदाबाद की सड़के और कॉलोनियां बंगलोरे या दिल्ली से अच्छी हैं। क्या गुजरात विश्विद्यालय की शिक्षा मुंबई विश्विद्यालय से अच्छे है। क्या है गुजरात में शिक्षा का स्टार 
जहाँ तक गुजरात के लोगो की व्यावसायिक योग्यता की बात तो वे तो पहले से ही ऐसा कर रहे हैं इसमें मोदी का क्या योगदान है। क्या मोदी के गुजरात में छुआछूत बंद हो गयी है। क्या मोदी के गुजरात में जातिवाद नहीं है? क्या मोदी का हिन्दू रास्त्र ब्राह्मणवादी समन्तिवादी राज्य नहीं जहाँ दलित मुस्लिम और पिच्च्दो के लिए कुच्छ न नहीं है। मोदी के हिन्दू रास्ट्र में पूंजीवादी जातिवादी लोगो के लिए गरीबो के जमीन है और और गरीबो के लिए कुच्छ नहीं।

जब मोदी को महान बनाने में हमारे पत्रकार बिक जाएँ तो दो चार लोग जो अपने जमीर के सहारे लिख सकते हैं या कह सकते हैं उनमे मारकंडेय  काटजू भी हैं। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के तौर पर उन्होंने बहुत से प्रगतिशील निर्णय दिए और उनके निर्णय बहुत ही दूरगामी और भारत के आम लोगो के हित में थे।  प्रेस कौंसिल में उनके आने के बाद से भारत के पूंजीवादी प्रेस के अन्दर थोडा सी घबराहट तो आये क्योंकि एक दन्त विहीन प्रेस कौंसिल से आखिर डरता कौन था। क्या हम नहीं जानते के इन पूंजीवादी अखबारों के संपदक और मालिक प्रेस कौंसिल से कभी नहीं डरते बल्कि उसके प्रति एक तुच्छ भाव रखते है लेकिन काटजू के आने के बाद प्रेस कौंसिल की औकात बढ़ी है और अब मीडिया के दलाल उनसे डरने लगे हैं।

काटजू प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष है लेकिन भारत के एक नागरिक भी हैं और एक नागरिक की हैसियत से उनको बात रखने का हक़ है। आखिर वोह भारत की एकता और साम्प्रदायिकता के सवाल पर अपनी बात रख रहे हैं क्या उनको अपनी बात कहने का अधिकार नहीं? हम यह जानते है के काटजू बहुत से महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं लेकिन कभी मीडिया के जरिये अपनी बात नहीं रखी लेकिन अब जब वोह एक पद पर नहीं हैं अपनी बात रख सकते हैं। हम उन्हें इसलिए नहीं पढ़ रहे के वो प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष हैं बल्कि इसलिए के काटजू कह रहे हैं और काटजू का बोलना जरुरी है चाहे वो हमें ख़राब ही क्यों न लगे क्योंकि खरी खरी कहने वालो की कमी है और जो खरी खरी  है वो लल्लो चाप्पो नहीं करते और चौरसिया जैसों को उनकी औअकत बता देते हैं। 

काटजू कटु बोलते है। वह सुप्रीम कोर्ट में थे और बौध्हिकता में यकीन करते है। उनका यह कहना के भारत में पत्रकार नहीं पढ़ते बिलकुल सही है। यह एक सामान्य कथन है लेकिन इसमें सच्चाई है।और पत्राकारो को सोचना पड़ेगा के जब एक पढ़े लिखे बौध्हिक व्यक्ति से सवाल करें तो वो कैसे होना चाहिए और कम से कम जब पता है के काटजू जैसा व्यक्ति कैसे जवाब  देता है।हमारे पत्रकार दलालों की श्रेणी में आ गए हैं। वो मोदी से लेकर नेताओं की दलाली कर रहे हैं। उनके पास गाँव में जाकर देश की स्थिथि को देखने का समय नहीं है।

भाजपा ने पिच्च्ले कुच्छ वर्षो में संवैधानिक पदों में आसीन लोगो के सरकार विरोधी रुख का फायदा उठाया है . सी ए जी विनोद राय लगातार सरकार विरोधी बयान दे रहे है और भाजपा उसका इस्तेमाल करते है और उनकी लीक की हुयी रिपोर्ट को पर संसद में शोर मचाती है। काटजू तो विनोद राय के मुकाबले बहुत सिनिअर हैं और कम से कम ऐसे पद पर नहीं है जिससे उनके पद की गरिमा का हनन  होता हो। 
प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष का पद केवल नाम मात्र का नहीं होना चाहिए और उनको लगातार कहते रहना चाहिए आखिर नितीश कुमार के तथाकथित 'सुशाश' और पेड न्यूज़ पर प्रेस कौंसिल को कुछ तो करना चाहिए न। नितीश जैसे महान व्यक्तित्व को महान न मानना, ममता की महानता पर सवाल करना, मोदी की सम्प्रदाय्किता को सवालो के कठघरे में लाने की हिम्मत काटजू ही कर सकते है और इसके लिए उनको सलाम। यह वह ही कर सकते हैं के फेसबुक में अपडेट के बाद जब महारास्ट्र पोलिस किसी को गिरफ्तार करती है तो उसके खिलाफ कहा जाए।
हमारी बहुत से पहचान है। हम अपने संघठनो से जुड़े होते है और उसके साथ ही हमारी अपनी व्यक्तिगत अस्मिताएं हैं और हम अपने विचारो को रखने की आज़ादी रखते है। अरुण जातले भाजपा में रहते अमर सिंह का केस लड़ सकते है या BCCI में आ सकते है तो काटजू भी प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष पद पर रहकर अपने व्यक्तिगत विचार रख सकते है। जब विनोद राय कुछ कहते हैं तो देश हित में है तो काटजू मोदी के बारे में लिखें तो  कैसे देश विरोधी ?

काटजू हमारी आवयश्कता है क्योंकि इस देश में सच बोलने वालो की कमी है कम से कम उन लोगो में  सत्ता के आस पास हैं और उसमे राजनीती और पत्रकारिता भी शामिल है। जब पत्रकारिता दलाल हो जाए तो काटजू की वाणी सुन्नी पड़ेगी और जो लोग पैसे खाकर, दलाली कर, मोदी को देश पर लादना चाहते  है उनके लिए चेतावनी है, लोग  लड़ेंगे और छोड़ेंगे नहीं। अभी अमेरिका और यूरोप केवल हवा का रुख देख रहा है और हवा  बदली नहीं है।और दलालों के कहने से यह बदल नहीं जाएगी। 

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