Monday 12 November 2012

America Mandalised

अमेरिका का मंडलीकरण 

विद्या भूषण रावत 

अमेरिका में राष्ट्रपति बराक ओबामा का चुनाव जीतना एक नए समीकरण की और संकेत कर रहा है। अमेरिका की दक्षिणपंथी तकते अफ्रीकी मूल के लोगो, अप्रवासियों, अल्पसंख्यको और महिलाओ के इस नए समीकरण को ख़त्म करने के लिए कोई अयोध्या कांड करने का प्रयास करेंगी . क्योंकि अमेरिका में कोई बाबरी मस्जिद नहीं है तो यह सब या तो ईरान पर हमला करवाने के प्रयास होंगे या शिव सेना स्टाइल में आप्रवासियों के विरुद्ध मोर्चा खोला जायेगा क्योंकि उद्योपति और पूंजीपति सब रिपब्लिकन  पार्टी के प्रमुख समर्थक रहे हैं इसलिए भारत की तरह अमेरिका में भी धार्मिक उन्मादियों और पूँजी का एक सशक्त गठबंधन बन सकता है। क्योंकि अमेरका के कई प्रान्तों में समलैंगिक विवाहों को भी लोगो ने मान्यता दे दी है जिसके विरुद्ध अमेरिकन चर्च और उनके कट्टरपंथी पादरी लगातार आवाज उठा रहे थे।

आज के परिणामो से साबित हो गया है के अमेरिका के हासिये के लोग अब सत्ता में भागीदारी चाहते हैं। वे चाहते हैं स्वस्थ्य सेवाओ का रस्त्रियाकरण जिसके विरुद्ध प्राइवेट कंपनियों की कोशिश जारी है। बुश के मुस्लिम विरोधी स्वरों को अमेरकी गोरो ने बहुत समर्थन दिया और इस्लाम को निशाना बनाकर वह का चर्च दक्षिणपंथी अजेंडा लागू कर रहा था। भगवन और भाग्य को तभी लाया जाता है जब हासिये के लोग अपने अधिकारों के लिए सड़क पर आते हैं। अमेरिका के काले लोगो ने आप्रवासियों और महिलाओ के साथ गठबंधन करके अपनी त्क्कत दिखा तो दी लेकिन व्यवस्था में बदलाव आएगा ऐसा नहीं कहा जा सकता। ये सिस्टम ताकतवर लोगो के लिए बना है। हम सब जानते हैं के अमेरिका के चुनावो में बेतहाशा खर्च होता है और पूंजी का बहुत बड़ा रोल है। 

अमेरिकी लोकतंत्र को जनतंत्र बनाने में समय लगेगा और वह तभी सफल हो सकता है जब बराक ओबामा के समर्थक समूह अपनी पहचान और अस्मिता के आलावा अमेरिका में अपने भविष्य को ध्यान में रख कर अपनी रणनिति बनाये। लोतंत्र में उनकी भूमिका ओबामा को चुनाव जीताकर ख़त्म नहीं हो जाती। दुर्भ्ग्यवाश अमेरिकी चुनाव प्रणाली ऐसी नहीं है के जिसमे गोरी ताकत को रोका जा सके। यह वैसे ही है  जैसे भारत में राजनैतिक सत्ता परिवर्तन के बावजूद भी सत्ता की नकेल अभी भी ताकतवर जातियों के हाथ में ही है। और जब उसको ख़त्म करने का प्रश्न उठाया जाता है तो अन्य प्रश्न खड़े कर दिए जाते हैं। ओबमा को चाहिए के सामाजिक न्याय की शक्तियों को मज़बूत करे और अम्बेडकर और फुले के संघर्ष को समझे। यह भी अच्चा होगा के अमेरिका दुसरे देशो में दखलंदाजी देना बंद करदे तो वहां के पूंजीवादी तबके की दुकान बंद हो जाएगी। यह वोही तबका है जो अमेरिकी घृणा फैलने वाले चर्च के साथ मिलकर दुनिया पर अपनी दादागिरी  रखना चाहता है।

अमेरिका के चारसौ वर्षो के इतिहाश में पहली बार 20% महिलाएं सीनेट में जीत कर आयी हैं और उम्मीद है वे बदलाव वाली ताकतों के साथ रहेंगी' अमेरिका की प्रतिनिधि सभ में रिपब्लिकन पार्टी का कब्ज़ा बना हुआ है। वैसे चुनाव हरे हुए मिट रोमनी ने रास्त्रपति को तुरंत बधाई दी और सहयोग का वादा किया। भारत में मुख्या विक्पक्षी दल और उसके वेट लिस्टेड प्रधानमंत्री श्री लाल कृष्णा अडवाणी आज तक नहीं पचा पाए हैं के वे सरकार में नहीं हैं। 

अमेरिका से बहुत उम्मीद तो नहीं कर सकते क्योंकि पूंजी और धर्म की भूमिका वह बहुत ज्यादा है और सबसे बड़ा खतरा यह है के काले, हिस्पैनिक और आप्रवासियों के अन्दर आ रहे बदलाव को पूंजी और धर्म की ताकते ख़त्म करने का माद्दा रखती हैं। यह वैसे ही है जैसे भारत में हिंदुत्व और पूंजी का भयावह गठबंधन बदलाव की सारी ताकतों को रोके हुए है हालाँकि वो सत्ता में नहीं दिखाई देता फिर भी उसके बिना सत्ता चलते नहीं और वोह हमरे मीडिया और पूंजी तंत्र पर हावी है।

चुनाव जीतने पर राष्ट्रपति ओबामा को बधाई और उम्मीद करते हैं की अमेरिका प्रोपगेंडा आधारित  नहीं करेगा और दुसरे देशो पर अपनी मिलिट्री ताकत की आजमाइश नहीं करेगा। हम यह भी उम्मीद करते हैं के ओबामा अपनी घरेलु समस्याओ पर ज्यादा ध्यान देंगे और आतंकवाद के नाम पर चल रही दुन्कानो को बंद करेंगे। अमेरिका अगर अपने को अलग थलग नहीं चाहता तो उसे दादागिरी छोड़ लोकतान्त्रिक परम्पराव को बढ़ाना पड़ेगा। हम सब लोकतंत्र चाहते हैं लेकिन उसकी मजबूती  अमेरिकी द्रोंतंत्र के जरिये नहीं हो सकती। फिलहाल अमेरिकी अफ्रीकी लोगो और वहां की धार्मिक, भाषाई, और सेक्सुअल अल्पसंख्यको को केवल एक सलाह के भारत के दलित बहुजनो के राजनितिक संघर्ष से कुच्छ सीख सकते हैं। अमेरिका के मंडलीकरण की शुरुआत हो चुकी है और असली नतीजे 2020 के बाद दिखाई देंगे।

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